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१२२ अंबड परिव्राजक और मूर्ति पूजा *******李李李李****李李李李李李李李李***安安安安安安安**** निर्वाण के कुछ वर्षों के बाद ही शिथिलाचार ने जैन श्रमण समाज में शनैः शनैः प्रवेश करना प्रारम्भ कर दिया, होते होते यहाँ तक स्थिति बिगड़ी कि अधिकांश लोग नाम के साधु और गुण से गृहस्थों से भी कितनी ही बातों में गये गुजरे हो गये, फिर भी सुसाधुओं का (जो कि बिलकुल स्वल्प संख्या में रह गये थे) मंद-मंद प्रचार जारी था, जिससे शिथिलाचारी लोगों को भय बना रहता था। जब वे किसी नवीन पद्धति को शुरु करते तो उनके मन में यह शङ्का उठा करती कि कहीं भक्त लोग सुविहित साधुओं से हमारी पोल नहीं जानले, इसलिये जहाँ तक हो सका वे लोग सुविहित मुनियों का उन भक्तों को संसर्ग ही नहीं होने देते, फिर भी ये लोग पूर्ण रूपेण निर्भय नहीं हो सके, क्योंकि इन्हें आगमों का भी भय था, कभी किसी ने पूछ लिया कि महाराज आप अमूक प्रकार का आचरण करते हैं यह किस शास्त्रानुसार है? तो इसके लिये भी इन्हें तैयारी करनी थी। बस इसी स्वार्थ पोषण के लिये आगमों में भी हेर फेर और नूतन प्रक्षेप शुरु हुआ, इस प्रकार आगमों की असलियत बिगाड़ने में स्वार्थ पिपासु महानुभावों ने कुछ भी कमी नहीं की। बस फिर क्या था, तीर्थंकर प्रभु के आगमों की साक्षी बताकर भाग्यशाली भद्र भक्तों से मनचाही क्रियायें करवाई जाने लगीं। इस प्रकार कई शताब्दियों के लम्बे समय तक हमारा आगम साहित्य शिथिलाचारियों के कब्जे में रहा, और जब धर्म प्राण लोंकाशाह ने क्रियोद्धार कर समाज की सड़ान को दूर किया और अनाचार वर्द्धक मूर्ति पूजा को जैनागम विरुद्ध घोषित किया, तब लगभग ३०-४० वर्ष बाद मूर्ति पूजक विजयादान सूरि के हृदय में खलबली मच गई, इन्होंने आगम शुद्धि के बहाने अपना पक्ष मजबूत करने के लिए अनेक प्रकार से कई बार पाठ परिवर्तन किये। श्रीमान् लोकाशाह के स्वर्ग
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