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२२२ मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध ****************************************** पत्र के मुख पृष्ठ पर ही बड़े-बड़े अक्षरों में इसको षड्यंत्र बताकर यह रहस्य प्रकट हुआ कि यह मूर्ति ता० २१-१०-३८ को पींजरापोल की गली वाले जगन्नाथ लक्ष्मीनारायन मूर्ति वाले से रुपये तीस में खरीदी गई और व्यापारी की बहियों के जमा खर्च के दो चित्र भी साथ ही प्रकाशित हुए। इसमें यह भी बताया गया कि जिस स्त्री ने यह पाखण्ड फैलाया वह स्वयं प्रतिमा लेने गई थी तथा उसी स्त्री ने एक मन्दिर के नौकर से मूर्ति के लिए नेत्र खरीदने का स्थान पूछा था, उसके पास उस समय वह मूर्ति भी थी। इसके दूसरे या तीसरे दिन ही यह अफवाह फैली। इसके बाद ता० २७-१०-३८ के जन्म भूमि देनिक के अग्रलेख (सम्पादकीय लेख) में यह भी बताया गया कि - “यह कार्य अकेली बीस वर्ष की लीलाबाई नामक स्त्री का नहीं होकर किसी चालाक व्यक्ति का इसमें हाथ होना पाया जाता है, फिर यह भी शंका की गई कि उस समय बम्बई में विराजते हुए मू० पू० आचार्य श्री प्रेमसूरिजी ने उस मूर्ति को अलौकिक जाहिर कर इस पाखण्ड का समर्थन क्यों किया? आचार्य श्री के समर्थन से हजारों जैन
और जैनेतरों को हानि हुई आदि तथा मू० पू० समाज के प्रसिद्ध पत्र जैन (भावनगर) के ता० ६-११-३८ पृ० १०३२ पर इस विषय में एक लेख प्रकाशित हुआ है उसमें यहाँ तक लिखा कि -
“सूरि श्री (प्रेमसूरिजी) ना उतावला अने मूर्खता भर्या अभिप्राय थी एम पण मानवाने कारण मले छे के एवा कोई सूरिओ के साधुओ नो आ व्यवस्थित पाखण्ड मां हाथ न होय एनी शी खात्री। धारो के साधुओ अने सूरिओ नो तो पाखण्ड नीपजाववां अने नीभाववा नो एक प्रकार नो व्यवसाय छे? पण आपणा धर्म घेलड़ा "राव साहेबो अने राव बहादुरो' नी दुरंदेशी क्यां परवारी गई हती।"
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