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________________ - जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १३१ ***************************************** उक्त उल्लेख में केवल सुखोपभोग सम्बन्धी ही वर्णन है इसमें धर्म व्यवहार या आचारादि विषयों को किचित् भी स्थान नहीं किन्तु यहाँ भी स्नान के साथ “बलिकर्म" शब्द आया है, इस पर से एक साधारण से साधारण बुद्धि वाला भी समझ सकता है कि इस विषय में देव पूजा अर्थ करने वाले केवल मतमोही ही हैं। क्योंकि स्नान बलिकर्म कर वस्त्रालङ्कार से विभूषित हो रानी के साथ भोग भोगने में देव पूजा का सम्बन्ध ही क्या? यहां देव पूजा तो एक मूर्ख भी नहीं मानता। (७) इसी प्रकार विपाक सूत्र के दूसरे अध्ययन में राजा के स्नान बलिकर्म करने के बाद वेश्यागमन करने के लिए जाने का उल्लेख है और अ० ४ में सुसेण प्रधान का भी ऐसा ही उल्लेख है, इन स्थलों पर विचार करने से भी इन मूर्ति पूजक बन्धुओं का किया अनर्थ प्रकट हो जाता है, इन्हें इतना भी भान नहीं कि- देव-पूजा और वेश्या-गमन में क्या सम्बन्ध? स्नान विशेष तो सर्वथा उचित है, क्योंकि स्नान तो स्वभाव से ही कामोद्दीपक है। ___इस प्रकार उक्त प्रमाणों पर विचार करते मरुधर केशरी महानुभाव की हवाई दीवार एकदम टूट जाती है। सुन्दर मित्र स्वयं जानते होंगे कि जहाँ स्नान का विस्तृत वर्णन है वहाँ तो इस कयबलिकम्मा (बलिकर्म) शब्द को स्थान ही नहीं मिला है। जिसके लिए औपपातिक सूत्र में सम्राट कोणिक का विस्तृत स्नानाधिकार और जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में चक्रवर्ती महाराजा भरतेश्वर का स्नान वर्णन, जैन जनता में प्रसिद्ध है और जहाँ स्नान को संक्षिप्त में ही बताया है वहीं प्रायः स्नान बलिकर्म कहा है, फिर पक्षपात में पड़कर क्यों अनर्थ करते हैं? जबकि इनके टीकाकार भी इन्हीं तुंगिया के श्रमणोपासकों के “बलिकर्म' को बलिकर्मयै 'स्वगृह देवतानां' कहकर गृहदेव की पूजा करना बताते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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