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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
"बौद्धों तथा जैनों के स्तूप और चैत्य पहले स्मारक चिह्न थे, फिर पूज्य हो गये (नागरी प्रचारिणी पत्रिका)
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इस लेख से स्पष्ट होता है कि प्राचीन मूर्तियें इतिहास बताने में सहायक हो सकती है, किन्तु इससे तत्त्वज्ञान का कोई सम्बन्ध नहीं है और हमारा विवाद तत्त्वज्ञान विषयक ही है । अतएव इसमें मूर्तियों की प्राचीनता का कुछ भी असर नहीं हो सकता । किन्तु महदाश्चर्य है कि सुन्दरजी ने तत्त्वज्ञान के प्रश्न को तो एकदम उड़ा दिया, आप मूर्ति की प्राचीनता बताते हुए पृ० १५६ में लिखते हैं कि
'अन्यथा केवल कहने मात्र से कि हाँ ? मूर्ति पूजा प्राचीन तो है पर. . इस थोथी उक्ति से कोई भी काम नहीं चल सकता।" इस लेख में आप मूर्तियों की प्राचीनता से ही आत्म-कल्याण का सम्बन्ध मानकर तत्त्वज्ञान या आगम प्रमाण को थोथी युक्ति बतलाते हैं। मैं सुन्दर बन्धु से सानुनय पूछता हूँ कि आपने इस बिंदु अंकित रिक्त स्थान में क्या छुपाया ? क्या मैं उसे पूर्ण कर दूँ? मेरे विचार से आपने लजाते हुए इस रिक्त स्थान में यही भाव छुपाये हैं कि - " धर्म से इसका कोई सम्बन्ध नहीं" या इसके लिये " आगम आज्ञा नहीं " बस ऐसा ही भाव आपने छुपाया है, जो कि अत्यन्त महत्त्व का है, जिसे श्रीमान् जिनविजयजी ने भी स्वीकार किया है, इतना ही नहीं खुद सुन्दर मित्र ही अपने 'मेझरनामें' में लिखते हैं कि "धर्म आज्ञा वीतरागनी, आज्ञा लोपी हो करे गणी धर्म | आचारंग पहला अंग मां, नहीं जाण्यो हो? तेणे धर्म नो मर्म १० (ढाल १३ द्वितीयावृत्ति पृ०४५) सूत्रसूयगडांग मां क आज्ञाबाहर हो ? बधुं आल पंपाल ॥ ६ ॥
(ढाल २५ पृ० ७६ )
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