SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३४ क्या जैन साधु ऐसा उपदेश दे सकते हैं? "धर्म छे ते वीतरागनी आज्ञामा छे अने आज्ञा थी न्यूनाधिक करवू ते तो अधर्मज छ।" (ढाल २२ वीं के तात्पर्य में पृ० ६६) मित्रवर! अपने उक्त लेख का तो विचार करो? हम इससे अधिक और क्या कहते हैं? हम भी यही कहते हैं कि मूर्ति पूजा वीतराग आज्ञा से रहित है, इसलिए अनुपादेय है फिर आज्ञारूप प्रमाण मांगने पर उसे थोथी युक्ति बताना क्या पक्षव्यामोह नहीं है? अवश्य है, यहाँ आपका “वदतो व्याघातः” सिद्ध होता है। वास्तव में मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है, न इसके लिए आगम आज्ञा ही है, यदि प्राचीन मूर्तियों की उपयोगिता मानी जाय तो केवल स्मारक या कला की दृष्टि से ही , पर धर्म के साथ इसका सम्बन्ध जोड़ना अधर्म समर्थन है। ओर है उत्सूत्र प्ररूपणा रूप महान् पाप, इस भयंकर पाप से वंचित रहकर आगमानुसार आत्म-कल्याण साधना में और इसी का प्रचार करने में जीवन बिताना ही सच्चे साधक का कार्य है। (३४) क्या जैन साधु ऐसा उपदेश दे सकते हैं? जैन मुनियों का उपदेश सर्व प्राण, भूत, जीव, सत्त्व को शांति देने वाला होता है। आत्मशांति एवं कल्याणकारी उपदेश जैन महात्माओं का होता है, उनकी वाणी से किसी स्थावर प्राणी को भी कष्ट नहीं हो सकता, ये पृथ्वी से लगाकर सभी जीव काय की दया के प्रचारक होते हैं। भगवान् महावीर स्वामी ने इन महन्तों को ऐसी ही उपदेश देने की आज्ञा दी है, जैसे कि - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy