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________________ २१८ मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध **李李李李李李****************來****李学学会学家来*** कारण जैसा चाहा वैसा बना डाला है, किन्तु है यह स्मारक का एक प्रकार ही, अन्य कुछ नहीं, हम पहले “स्तूप निर्माण” नामक प्रकरण में पं० चन्द्रधर शर्मा के ऐतिहासिक उल्लेख से यह सिद्ध कर आये हैं कि - जैन समाज में पहले स्तूप स्मारक रूप में थे, बाद में पूज्य हुए और यही मत पं० बेचरदास जी का है, इसलिए मूर्ति निर्माण के कारण में अब विशेष ऊहापोह करने की आवश्यकता ही नहीं रही। (२) ___ मूर्तियों के सभी लेख सच्चे नहीं हैं सुन्दर मित्र कहते हैं कि अमुक मूर्ति इतनी प्राचीन है उस पर प्राचीन संवत् लिखा हैं, आदि किन्तु मूर्ति पर प्राचीन संवत् लिखे होने मात्र से वह प्राचीन नहीं हो सकती क्योंकि चैत्यवाद और चैत्यवास के जमाने में स्वार्थी लोग अपना उल्लु सीधा करने के लिए कई प्रकार की चालाकियें करते थे यहाँ तक कि अनेक कल्पित ग्रन्थ सर्वज्ञ के नाम से गढ़ डाले जाते थे, पर्वतों के मन माने मिथ्या माहात्म्य बनाकर प्रभु के मुख से अपनी तारीफ करवाई जाती थी, अमावस्या की पूर्णिमा, वह भी केवल अपना चमत्कार दिखाने के लिए बताते थे। वहाँ मूर्तियों पर मनमाना संवत् लगाया जाय तो कौन रोक सकता है? इस मूर्ति प्राचीनता के विषय में संघपट्टककार ने एक स्थल पर यह भी लिखा है कि स्वार्थी लोग भोले लोगों को यह कह कर ठगते थे कि देखो यह मूर्ति प्राचीन है, तुम्हारे पूर्वज उन्हें पूजते थे, तुम भी इनकी पूजा आदि करो। बस भोले भक्त जल्दी से चक्कर में आ जाते थे, अधिक दूर जाने की जरूरत नहीं, इस बीसवीं शताब्दी के ही कुछ नमूने जो मेरे जानने में आये हैं देखिये - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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