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स्तूप निर्माण का कारण ******************************************** ... "चिति वेतिय खातिय आराम विहार थूम, पागार.......आयण चेतिय देवकुल।" आदि
इस प्रकार हिंसा जनक कार्यों में स्तूप, चैत्य, देवायतन का भी समावेश है, इनके बनाने में भी हिंसा होती है, धार्मिक दृष्टि से तो हिंसा को पापकारी तथा कष्टप्रद ही माना जायगा, लौकिक व्यवहार से भले ही इसे अपनाया जाय, किन्तु जो श्रमण अहिंसादि महाव्रतधारी हैं वे तो किसी भी तरह इनके बनवाने या इन्हें पूजने पूजवाने का उपदेश नहीं दे सकते, न इस क्रिया में धर्म का होना ही कह सकते हैं। किन्तु बड़ा आश्चर्य है कि कितने ही साधु नामधारी लोग श्रमणधर्म के विरुद्ध मन्दिर मूर्तियें बनवाने का उपदेश और आदेश देते हैं, पूजा करने व करवाने का आग्रह कर आस्रव वृद्धि करते हुए उसमें धर्म होना मानते हैं। यह अमृत में विष और पानी में आग के समान नहीं तो क्या है? ___ जबकि आचारांग सूत्र धर्मार्थ स्थावर जीवों की भी हत्याकरने वाले को वह हत्या अहितकारी बताते हैं और एक अन्य स्थान पर धर्म के लिए हिंसा करने वाले का पापी श्रमण के कुविशेषण से परिचय कराते हैं, तब जैन श्रमण का नाम रखकर भी ऐसी हिंसा को जानबूझकर करवाने वालों के लिए केवल दया लाने के सिवाय और क्या किया जाय?
सुन्दर मित्र! चैत्य या स्तूप पूजा में आत्म कल्याण नहीं है, यह तो सिर्फ लौकिक प्रवृत्ति है, इसकी पूजा में आत्म-कल्याण रूप धर्म मान लेना अपनी बुद्धि का दिवाला पीटना है, यदि आपको इन स्तूपों
और चैत्यों का विशेष हाल जानना है तो आप अपनी ही मूर्ति पूजक समाज के लब्ध प्रतिष्ठ विद्वान् पं० बेचरदास जी दोशी लिखित “जैन साहित्य मां विकार थवाथी थयेली हानी' नामक पुस्तक पढ़ें, उसमें स्पष्ट बताया गया है कि मूल में ये चैत्य स्तूपादि पूजा की वस्तु नहीं
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