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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ******************************** ** आत्मपदार्थ जड़-पुद्गल के आधीन होकर परतन्त्रता में भी आनन्द मानता है। इसीलिए अनन्त ज्ञानी, सर्वदर्शी, वीतराग प्रभु ने समस्त जीवों के कल्याण की कामना से प्रेरित होकर पुद्गल त्याग रूप धर्म का उपदेश किया है। और ऐसा ही उपदेश करने का अपनी वंश परम्परा में होने वाले अनगार भगवन्तों को आदेश दिया है। ... संसार में जीवों की प्रकृति पुद्गलों की ओर अधिक रही है। अधिकांश लोग प्रवृत्ति मार्ग में ही आनन्द मानकर अपना जन्म व्यर्थ व्यय कर रहे हैं। जिसके लिए खेदज्ञ महात्माओं को दुःख होना स्वाभाविक ही है। किन्तु इससे अधिक दुःख की बात तो यह है कि निवृत्ति प्रधान ऐसे परम पवित्र जैन धर्म की मिथ्या ओट लेकर कितने ही लोग भोले मनुष्यों को प्रवृत्ति मार्ग की ओर बढ़ाकर स्व-पर अहित कर रहे हैं। ऐसे भ्रम जाल में कोई भद्र बन्धु न पड़ जाय इसीलिये यह उद्यम किया जा रहा है।
इस पुस्तक में हम श्री ज्ञानसुन्दरजी (जो मरुधर केशरी कहलाते हैं) के प्रकाशित “मूर्ति-पूजा का प्राचीन इतिहास' नामक पुस्तक पर विचार कर उनके फैलाये हुए भ्रम (आत्म-कल्याण में बाधक मत) का उन्मूलन करेंगे। यद्यपि सत्य बात को स्वीकार करना सुज्ञता का कर्त्तव्य है, किन्तु श्री ज्ञानसुन्दरजी ने सत्य को हृदय में स्थापन कर कार्य किया हो, ऐसा मालूम नहीं होता। इस पोथे के अन्दर सुन्दर बन्धु ने कई स्थानों पर साधुमार्गियों की निंदा करके मजाक उड़ाई है। कई बातें निरर्थक लिख मारी है, कई कुतर्क भी किये हैं। हम उन सब बातों का उत्तर देना निरर्थक समझकर विशेष और आवश्यक विषयों को चुनकर उसी पर विचार करेंगे। यदि विषय चुनने में किसी विषय पर हमारा ध्यान न भी जाय तो सुज्ञ पाठक
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