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[5] ******************************************* अबोहिए" उस जीव के लिए अहितकर तथा बोधि(सम्यक्त्व गुण) का नाश करने वाली होती है।
हाँ तो हिंसा (आरम्भ समारम्भ) चाहे किसी भी नाम पर क्यों न किया जाय वह हिंसा अधर्म है, संसार परम्परा को बढ़ाने वाली है
और यदि वह हिंसा धर्म के नाम पर अथवा उसमें धर्म मान कर की जाय तब तो वह बहुत ही ज्यादा अहितकर है। आगमकार फरमाते हैं कि ऐसे जीवों को भविष्य में धर्म की प्राप्ति होना भी दुर्लभ हो जाता है। इतना ही नहीं प्रश्नव्याकरण सूत्र के प्रथम अध्ययन में धर्म के नाम पर भगवान् के नाम पर हिंसा करने वाले को "मंदबुद्धी" विशेषण देकर उसे हीनमति, विवेक-विकल, मिथ्यादृष्टि हिताहित धर्म-अधर्म और पुण्य पाप के ज्ञान से रहित कहा है। “मदबुद्धि' के साथ उसे “दृढमूढा' अत्यन्त मूर्ख और दारुणमई-कठोरमति वाला भी बतलाया है। मंदबुद्धि वाले केवल वे ही नहीं जो पढ़े लिखे नहीं हों, जिन्हें बोलने-लिखने का ख्याल न हों, बल्कि जो अपने समान प्राण रखने वाले जीवों की हिंसा करते हों, हिंसाकारी उपदेश देते हों, हिंसा में धर्म की प्ररूपणा करते हों, लोगों को हिसंक प्रवृत्तियों में जोड़ते हों, ऐसे सभी लोगों को प्रभु ने मंदबुद्धि कहा है। जड़पूजा, मूर्ति पूजा में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों की हिंसा होती है। अतएव मूर्ति पूजा प्रभु महावीर के अहिंसा व्रत को दूषित करने वाली होने से इसे “जिनाज्ञा विरुद्ध" कहा है।
इसके अलावा जैन धर्म में अहिंसा के साथ गुणों को प्रमुखता दी गई है, गुण होने पर ही व्यक्ति विशेष वंदनीय पूजनीय माना गया है। कहा भी है कि-"जैन धर्म में गुण लारे पूजा, निर्गुणा ने पूजे वह धर्म है दुजा"।
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