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जब तक किसी भी व्यक्ति में गुण विद्यमान है तब तक वह वंदनीय पूजनीय माना जाता है। यह बात सामान्य साधु साध्वी तक ही सीमित नहीं बल्कि तीर्थ के संस्थापक तीर्थंकर भगवन्तों पर भी लागू होती है। जब तीर्थंकर प्रभु का जन्म होता है, तब इन्द्रादि देवों के द्वारा किये गए जन्मोत्सव से मालूम हो जाता है कि जिनका इन्द्रों ने जन्मोत्सव किया, वे तीर्थंकर प्रभु संसार का कल्याण कर इसी भव में मोक्ष पधारेंगे। इतना सब कुछ जानते हुए भी जब तक तीर्थंकर महाराज गृहस्थावस्था में रहते हैं, तब तक कोई भी व्रती श्रावक या साधु उन्हें तीर्थंकर रूप में वंदन-नमस्कार नहीं करते और जब तीर्थंकर प्रभु का निर्वाण हो जाता है, तब देह रूप शरीर के लोक में रहते हुए भी तीर्थंकर प्रभु का विरह हो जाता है, उनके शव को देव अग्नि संस्कारित कर देते हैं। क्योंकि वंदनीय पूजनीय जो गुण आत्मा थी वह तो गमन कर गई।
सम्पूर्ण जैन समाज के सर्वमान्य नमस्कार सूत्र में पांचों पद गुण निष्पन्न है, कोई भी ऐसा पद नहीं जिसमें गुण नहीं हो और उस पद को वंदन किया गया हो पहला एवं दूसरा पद तो सर्वज्ञता को लिए हुए हैं, अतएव वे तो गुणों के भंडार हैं ही पर शेष के तीन पदों के लिए भी बता दिया गया है कि आचार्य के छत्तीस, उपाध्याय के पच्चीस एवं साधु के सत्तावीस गुण हों तो ही वे उस पद के योग्य एवं वंदनीय पूजनीय हैं, अन्यथा नहीं।
आगमों में पांच प्रकार के असाधु कुशीलिए बतलाए गए हैं यानी जो साधु के वेश में होते हुए भी गुणों से साधुता के गुणों से रहित हैं, वे वंदनीय पूजनीय तो दूर बल्कि प्रभु ने तो उनसे संसर्ग रखने का भी निषेध किया है। इससे कुछ आगे चले, प्रभु के शासन
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