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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
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सुन्दरजी! फिर आज्ञा से एकदम रहित ऐसी मूर्ति पूजा के लिए क्यों व्यर्थ के प्रपंच करते हो? आपने तो अपने इसी पोथे के पृ० १५६ में यहाँ तक प्रपंच कर डाला कि -
“अन्यथा केवल कहने मात्र से कि - हाँ, मूर्ति पूजा पूजा प्राचीन तो है पर......इस थोथी उक्ति से कोई भी काम नहीं चल सकता।"
.. क्यों मित्र! फिर यह प्रपंच जाल क्यों? सत्य कहिये, आपने इस बिन्दु अङ्कित रिक्त स्थान में क्या रहस्य छिपा रखा है? क्या मैं इस रिक्त स्थान की पूर्ति कर दूं? लीजिये, आपने जो रहस्य छुपा रखा है वह मैं ही प्रकट किये देता हूँ। मेरे विचार से आपने इस रिक्त स्थान में "प्रभु आज्ञा नहीं है" यही वाक्य छुपा रखा है, इसके सिवाय और हो ही क्या सकता है? क्योंकि हमारी ओर से आप लोगों के मिथ्या तर्कों पर आपसे प्रभु आज्ञा रूप प्रमाण मांगा जाता है और ऐसा प्रमाण आपके पास है ही नहीं। इसीलिए आपको प्रपंची बनना पड़ा, किन्तु सुन्दरजी आप एकबार क्या हजार बार भी प्रपंच करें, तो भी आपसे या आपके मूर्तिपूजक आचार्यों से मूर्ति पूजा की आगम आज्ञा कभी भी सिद्ध नहीं हो सकती। हाँ इस प्रपंच जाल से भोले भक्तों को तो भ्रम में डाल सकते हैं और इस प्रकार आप व आपके भक्त भव भ्रमण को तो अवश्य बढ़ा सकते हैं।
बड़े आश्चर्य की बात है कि एक तरफ तो आप स्वयं आज्ञा युक्त क्रिया में ही धर्म मानते हैं और आज्ञा से बाहर की करणी को सर्वथा व्यर्थ बताते हैं, किन्तु दूसरी ओर मूर्ति पूजा के चक्कर में पड़कर आज्ञा धर्म को थोथी युक्ति बताते हैं। क्या आपका ऐसा कहना अपने ही वचनों से (स्व वचन विरोध रूप दूषण से) दूषित नहीं है?
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