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कथाओं के उदाहरण
"प्रथमानुयोग का कथा रूप कथन आज्ञा नहीं मानी जा सकती कारण कि जिसने जैसा किया वैसा ही कथा में लिखा जा सकता है। (चर्चासागर समीक्षा पृ० २०१ )
उपरोक्त प्रबल एवं अकाट्य प्रमाणों से यह भली भांति सिद्ध ह गया कि चरितानुवाद ( कथाओं) के प्रमाण विधिवाद में किसी काम के नहीं, फिर ऐसी हालत में कि जहाँ मतभेद हो वहां तो सिवाय विधिवाद के अन्य कथाओं आदि के प्रमाण देने वाले विद्वानों के सन्मुख पराजय को ही प्राप्त होते हैं।
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सुन्दर मित्र ! हम तो फिर भी आपको इतना भी कहते हैं कि यदि आप कथाओं के प्रमाण देवें तो भी ऐसे प्रमाण देवें कि जो विधिवाद सम्मत हो। जिसके लिए विधिवाद का प्रबल सहारा हो । जो आचार विधान में किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचाता हो यदि ऐसा प्रमाण हो या आपके प्रमाणों में विधिवाद का कुछ भी सहारा हो तो आप प्रसन्नता पूर्वक पेश कीजिये, किन्तु बिना विधिवाद की सहायता के चारित्रमार्ग में बाधक ऐसी मूर्ति पूजा किसी भी तरह उपादेय नहीं हो सकती।
मित्रवर! जब आप स्वयं ही अपने मेझरनामे की २५ वीं ढाल में इस प्रकार लिखते हैं कि -
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" सूत्र सूयंगडांग मां कह्यु, आज्ञा बाहर हो ? बधुं आल पपाल ||६ ॥ "
और इसी "मेझरनामे " की २३ वीं ढाल के तात्पर्य में साफ लिख दिया कि
"धर्म छे ते वीतरागनी आज्ञा मां छे, अने आज्ञा थी न्यूनाधिक करवुं ते तो अधर्मज छे।"
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