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२३६ क्या जैन साधु ऐसा उपदेश दे सकते हैं? *********学法学*************************次*** सोयवियं, अज्जवियं, मदवियं, लाघविय, अणतिवातियं, सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूताणं जाव सत्ताणं अणुवाई किट्ठिए धम्म॥३॥ ___अर्थात् - उग्रविहारी एवं उद्यमी साधु धर्मोपदेश करते हुए धर्मफल भिन्न-भिन्न कहे, धर्म की कीर्ति करे, शांति विरति, उपशम, निर्वाण, पवित्रता, आर्जव, मार्दव, लाघव अहिंसा आदि का विचार पूर्वक सर्व प्राणियों का हितकारी धर्म कहे। (सूयगडांग श्रु० २ अ० १)
इतना ही नहीं स्वयं स्वयं प्रभु ने भी संसार रत जीवों के कल्याण के लिए तथा रक्षा और दया के लिए ही धर्मोपदेश किया, इसीलिए प्रवचन प्ररूपणा की, प्रश्नव्याकरण सूत्र उत्तरार्द्ध के प्रथम अध्ययन में खुलासा उल्लेख है कि -
"सव्व जगजीव रक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं।"
अर्थात् - जगत के सभी जीवों की रक्षा और दया के लिए भगवान् ने प्रवचन कहा।
- जो भगवान् का प्रवचन और आज्ञा है उसी अनुसार मुनि महात्माओं का भी प्रवचन-उपदेश होना चाहिये। महात्माों के उपदेश से किसी प्राणी की व्यर्थ हिंसा हो, आरम्भ समारम्भ बढ़े निरर्थक और उल्टे मार्ग में द्रव्य नाश हो, तो फिर महात्माओं और संसारी आत्माओं में भेद ही क्या? किन्तु पाठकों को आश्चर्य होगा कि इस मन्दिर मूर्ति के चक्कर में पड़कर कितने ही जैन साधु और जैनाचार्य कहलाने वाले, अपने उत्तरदायित्व एवं अधिकार को भूलकर जोर शोर से
आरम्भ समारम्भ एवं क्लेश बढ़ाने वाले आदेशात्मक वाक्य बोलते हैं, वो भी सीमा छोड़कर। जिनको सुनने से श्रमण धर्म के सच्चे
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