________________
जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
२६६ *********************************************
आगे चलकर पृ० १३८ पर लिखते हैं कि -
"हूं दृढ़ता पूर्वक एटलुं जणावी शकुं छं अने आगल जणावी चुक्यो छु के जे मूर्तिवाद - विधान अने देवद्रव्यनो गंध सूत्र (अंग) ग्रंथों मां मलतो नथी तेनो समर्थन पूर्वक उल्लेख हरिभद्रसूरि करे छे तेनुं मूल शुं होवू जोइए?" ___इसके पूर्व पृ० १३१ में इस प्रकार लिखा है -
"हुँ तो त्यां सुधी मार्नु छु के श्रमण ग्रन्थकारो जेओ पांच महाव्रत ना पालक छे सर्वथा हिंसाने करता नथी, करावता नथी अने तेमां सम्मति पण आपता नथी, जेओ माटे कोइ जात नो द्रव्यस्तव विधेय रूपे होइ शकतो नथी तेओ हिंसा मूलक आमूर्तिवाद ना विधान नो अने तदवलम्बी देव द्रव्यना विधाननो उल्लेख शीरीते करे?
(१७) दिगम्बर समाज के “पात्र केशरी' स्तोत्र के ३७ तें श्लोक में लिखा है कि - विमोक्षसुख चैत्यदान परि पूजनाधात्मिकाः। क्रिया बहुविधासुभृन्मरण पीडना हेतवः॥ त्वयाज्वलित केवलेन नहि देशिता किंतुतास्त्वयि प्रसृत भक्तिभिः स्वय मनुष्टिता: श्रावकैः ॥३७॥ ___अर्थात् - मोक्ष सुख से रहित करने वाली “चैत्य वंदना, दान, पूजा” आदि स्वरूप में सभी क्रियाएं नाना प्रकार से प्राणियों के मरण और पीड़ा करने की कारण है, हे जिनेन्द्र! ज्वाजल्यमान केवलज्ञान से युक्त होकर आपने उन दान पूजादि क्रियाओं का उपदेश नहीं दिया है। केवल तुम्हारी भक्ति करने वाले श्रावकों ने उन क्रियाओं को स्वयमेव कर लिया है।"
(पन्नालालजी बाकलीवाल द्वारा प्र० पृ० ३६)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org