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________________ १४४ द्रौपदी और मूर्ति पूजा .. सुसाधुओं की बराबरी के गृहस्थ जैसे यति तो क्या पर आपकी समाज के साधु भी नहीं कर सकते, फिर आपकी यह सज्जनता (?) एक राजपूत्र को डाकू के वंशज कहने के बराबर है। आपके इस सज्जनता पूर्ण व्यवहार के लिए आपको बारबार धन्यवाद (?) है। ..... सुन्दर मित्र! मूर्तिमोह में मस्त होकर मायाचार का सेवन मत करो। ये मूर्तिये आपको हर्गिज तारने वाली नहीं हैं। यदि आत्मकल्याण प्रिय है तो इस माया को हृदय से निकालकर समभाव पूर्वक संयम पालन करो। अन्यथा परभव में पश्चात्ताप करना पड़ेगा। (२०) द्रौपदी और मूर्ति-पूजा श्री ज्ञानसुन्दरजी ने चौथे प्रकरण के पृ० १०३ से सती द्रौपदी को अर्हत् प्रतिमा पूजने वाली बताकर हमें भी मूर्ति पूजा करने की प्रेरणा साथ ही सत्य को दबाने की कोशिश भी की। किन्तु जनता की जानकारी के लिये हम द्रौपदी का पूर्व सम्बन्ध संक्षेप में बताकर बाद में वस्तु स्थिति को स्पष्ट करेंगे। इस कारण "श्री ज्ञाताधर्म कथांग सूत्र के १६ वें अध्ययन में विस्तार पूर्वक कथन है कि - "धर्मरुचि नाम के तपोधनी महात्मा को मासिक तपश्चर्या के पारणे के दिन नाग श्री नाम की ब्राह्मणी ने कटु तुम्बिका के हलाहल समान आहार बहिराया। जिसके सेवन से उन महान् तपोधनी को दारुण वेदना होकर उनके प्राण पखेरु उड़ गये। तपस्वी हत्या के कारण नागश्री के पति ने उसे घर से निकाल दिया। नागश्री भिखारिणी हुई और अशुभ कर्मोदय से भयंकर रोगिणी बनकर मृत्यु पाकर नस्क में मई। लरक सम्बन्धी महान् वेदना को भोगती हुई और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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