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चम्पानगरी और अरिहन्त चैत्य ********************************** **京***
फिर पृ० ७० में पाठ और लोंकागच्छीय अमृतचन्द्र सूरि कृत टब्बार्थ दिया है, जो अक्षरशः उद्धृत किया जाता है।
"आयारवंत चेइया जुवइ विविह सण्णिविट्ठ बहुला अरिहन्त चेइय जणवएसंणिवट्ठ बहुला।" (इतिपाठांतर)
टब्बार्थ जिण नगरीइ आकारवंत-सुन्दाकार चैत्यप्रासाद देहरा छाइ। वैश्याना विविध नाना प्रकार संनिवट्ठ पाडा छेइ बहुला कहतां घणां तीण नगरी छई, अरिहन्तना चैत्य प्रासाद देहरा घणा छई (पाठान्तर)।"
उक्त पाठ और टब्बार्थ पर से यह नहीं मालूम होता कि इसमें कितना अंश पाठ का है, ओर कितना पाठान्तर का। इस पर से तो यही जाना जाता है कि सारा अवतरण ही पाठान्तर का हो। परन्तु खोज करने पर यह पता लगा कि इस पाठ में से केवल “अरिहंत चेइय जणवइ विसण्णिविट्ठ बहुले” इतना अंश पाठान्तर का है, सभी नहीं। इस जगह यह जिज्ञासा भी पैदा होती है कि इस प्रकार पाठ और पाठान्तर के भेद को हटाकर दोनों को शामिल कर देने की करतूत किसने की? क्या अमृतचन्द्रजी ने, या सुन्दर मित्र ने? इसका समाधान हमारे पास नहीं क्योंकि अमृतचन्द्राचार्य वाली प्रति हमारे सामने नहीं है। इसलिए हम इस विषय में दोनों में से किसी एक को दोषी नहीं ठहरा सकते। फिर भी इतना तो अवश्य कहेंगे कि इसमें सुन्दर मित्र की करतूत भी कम नहीं है, क्योंकि यदि सुन्दरजी ने अमृतचन्द्रजी वाली प्रति से यह पाठ लिखा है, तब इन्हें यह तो सोचना चाहिए था कि इस पाठ में पाठान्तर का अंश कितना है? यदि इस पर से पूरी छानबीन कर काम किया जाता तो यह घोटाला तो नहीं होता? सम्भव है सुन्दर मित्र
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