Book Title: Jain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Author(s): Arhatdas Bandoba Dighe
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ विद्याश्रम ग्रन्थमाला : २३: जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन डॉ० अर्हदास बंडोबा दिगे सोहनलाल जैनधर्म प्रचारक समिति Jain Eduction international www.jaipelibrary.org For Private & Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ विद्याश्रम ग्रन्थमाला : २३ सम्पादक 'डॉ० सागरमल जैन जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन लेखक डॉ० अर्हत् दास बन्डोबा दिगे एम० ए०, पी-एच.मे. THESE ETE 15 16 2015 | DEMIEEEERSITEN पलसं नाणं त यो दया सच्चं लोगम्मि सारभूयं प्रकाशक सोहनलाल जैनधर्म प्रचारक समिति अमृतसर प्राप्ति-स्थान पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी-५ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी द्वारा पी.एच० डी० को उपाधि के लिए स्वीकृत शोध-प्रबन्ध प्रकाशक सोहनलाल जैनधर्म प्रचारक समिति गुरु बाजार अमृतसर प्राप्ति-स्थान : पाश्र्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान आई० टी० आई० रोड, वाराणसी-५ प्रकाशन-वर्ष: सन् १९८१ मूल्य: तीस रुपये मुद्रक : एजूकेशनल प्रिंटर्स मोला दीनानाथ, वाराणसी-२२१००१ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय डा. अर्हदास बन्डोबा दिगे पाश्र्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी के शोध-छात्र रहे हैं। इन्हें जैन साहित्य विकास मण्डल, बम्बई के द्वारा प्राप्त आर्थिक सहयोग से शोध छात्रवृत्ति प्रदान की गई थी। आपने "जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन" नामक विषय पर परिश्रमपूर्वक अपना शोध-प्रबन्ध लिखा था, जिस पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के द्वारा सन् १९७० में पी-एच० डी० की उपाधि प्रदान की गई। ___ यद्यपि यह शोध-प्रबन्ध काफी पहले ही प्रकाशित होना चाहिये था किन्तु प्रकाशन हेतु आर्थिक सहयोग उपलब्ध न हो पाने के कारण जैन योग जैसे महत्वपूर्ण विषय पर लिखा गया यह शोध-प्रबन्ध अपने प्रकाशन की लम्बे समय तक प्रतीक्षा ही करता रहा। संस्था के कोषाध्यक्ष श्री गुलाबचन्दजी जैन ने इस शोध-प्रबन्ध के प्रकाशन के सम्बन्ध में महत्तरा साध्वी श्री मृगावती जी से चर्चा की। उन्होंने एवं स्व० प्री० पृथ्वीराजजी जैन ने श्री आत्मवल्लभ जैन स्मारक शिक्षण निधि के अधिकारियों को प्रेरणा देकर इस शोध-प्रबन्ध के प्रकाशन हेतु ५ हजार रुपये का सहयोग प्रदान करवाया। इसके लिए विद्याश्रम साध्वी श्री जी का, श्री आत्मवल्लभ जैन स्मारक शिक्षण निधि के अधिकारियों का एवं संस्था के कोषाध्यक्ष श्री गुलाबचंदजी का अत्यन्त आभारी है कि इन सबके सहयोग के फलस्वरूप आज हम इस शोध-प्रबन्ध को प्रकाशित कर पा रहे हैं । __ आज जब मनुष्य मानसिक तनावों और मानसिक विक्षोभों से आक्रांत है और उसकी मानसिक शान्ति उससे छिन चुकी है, आज जब मानवता भौतिक सुख-सुविधाओं की अच्छी दौड़ में अपने विनाश के कगार पर खड़ी हुई है, ऐसी स्थिति में यदि आज मनुष्य को कोई उसकी शान्ति और आनन्द वापस लौटा सकता है तो वह अध्यात्म ही है । आज मनुष्य के सामने भौतिकवाद की व्यर्थता स्पष्ट हो चुकी है और मनुष्यता आध्यात्म की शीतल छाया में आने के लिए लालायित है, जिसके स्पष्ट संकेत आज हमें पश्चिम के देशों में मिलने लगे हैं। आज विदेशी लोग भारतीय योग साधना के प्रति अधिकाधिक Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकर्षित हो रहे हैं। जैन योग भारतीय योग परम्परा को ही एक विशिष्ट धारा है जो आचारशुद्धि के साथ-साथ विवारशुद्धि पर भी बल देती है । भारतीय योग परम्परा के सम्यक् अध्ययन के लिए जेन योग का अध्ययन भी आवश्यक है। डॉ० अर्हददास बन्डोबा दिगे का जैन योग संबंधी यह शोध प्रबन्ध भारतीय योग परम्परा के अध्येताओं के लिए तो उपयोगी होगा ही साथ ही साथ उन लोगों के लिए भो अयोगो होगा जो जैन योग के सैद्धान्तिक परिचय के साथ-साथ अध्यात्म को साधना में आगे बढ़ना चाहते हैं । हम संस्थान के निदेशक डा. सागरमल जैन के भी आभारी हैं जिन्होंने ग्रन्थ के सम्पादन एवं प्रकाशन में पूरा सहयोग दिया। साथ हो हम शोधछात्र श्री रविशंकर मिश्र एवं श्री मंगल प्रकाश मेहता तथा एजुकेशनल प्रिंटर्स के प्रति भी आभारी हैं जिन्होंने इस ग्रन्थ के प्रूफरीडिंग एवं मुद्रण आदि कार्यों में सहयोग देकर इस प्रकाशन को सम्भव बनाया। भूपेन्द्र नाथ जैन मन्त्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण परमपूज्य जिनशासन रत्न आचार्य प्रवर श्री विजय समुद्र सूरि जी म साo को सादर समर्पित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकी स्मृति में यह ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है ज्ञान प्रभाकर पंजाब केशरी जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्री बिजय बल्लभ सूरि जी म. सा. जन्म दीक्षा आचार्य पद स्वर्गवास वि० सं० १९२७ वि० सं० १९४४ वि० सं० १९८९ वि० सं० २०११ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-जन वल्लभ आचार्य श्री विजयवल्लभ सूरीश्वर -- मानव-सभ्यता के आदिकाल से ही भारत विश्व का आध्यात्मिक गुरु रहा है। इसे देवभूमि, ऋषिभूमि, धर्मधरा आदि के नाम से याद किया जाता रहा है। पाश्चात्य विद्वान् मैक्समूलर का मत था कि भारतीय शिशु को आध्यात्मिकता वंशपरम्परा से प्राप्त है। उपनिषदों में उल्लेख है कि जब ऋषि याज्ञवल्क्य अपनी सांसारिक संपत्ति का बँटवारा अपनी दो पत्नियों में करने लगे तो मैत्रेयी ने कहा, "मैं उस संपत्ति को लेकर क्या करूंगी जिससे अमृतत्व की प्राप्ति नहीं होती।' आत्मजिज्ञासु बालक नचिकेता ने यमराज द्वारा दिए जानेवाले भौतिक वरदानों को ठुकरा कर कहा था कि मुझे तो आत्मविद्या दोजिए। प्रागैतिहासिक काल से प्रवाहित हुई सन्तों और महात्माओं की यह परंपरा इस देवभूमि भारत में अभी भी अक्षुण्ण है। . इसी शृंखला को एक कड़ी हैं ज्ञान-भास्कर, कलिकाल कल्पतह, भारतदिवाकर, पंजाबकेसरी, युगवीर जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद् विजयवल्लभ सूरीश्वर जी महाराज; जिन्होंने प्रातःस्मरणीय, न्यायाम्भोनिधि, नवयुग-प्रवर्तक जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद् विजयानंद सूरि जी ( प्रसिद्ध नाम श्री आत्माराम जी) के पट्टालंकार बनकर उनके मिशन की पूर्ति के लिए सर्वस्व को बाजी लगा दी थी। चरित्रनायक श्री विजयवल्लभ जी ने जिनधर्म-प्रचार, शिक्षा-प्रसार, जिनमन्दिरोद्धार, साहित्य प्रकाशन, साहित्य संकलन, मध्यमवर्ग उत्कर्ष, जैन एकता, राष्ट्र निर्माण आदि के ऐसे अनेक कार्य किए जो इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरों में सुदीर्घकाल तक अंकित रहेंगे। ____ जीवन रेखा : हमारे चरित्र नायक का जन्म कार्तिक शुक्ला द्वितीया ( भाईदूज ) वि० सं० १९२७ के दिन बड़ौदा में हुआ था । बाल्यावस्था का नाम छगनलाल था। धर्ममना पूज्य पिताश्री दीपचंद का निधन उस समय हो गया जब बालक मात्र ९ वर्ष का था। कुछ समय पश्चात् महायात्रार्थ प्रस्थान करती हुई पूज्या माता से बालक छगनलाल ने Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूछा कि मुझे किसके सहारे छोड़ रही हैं। धर्म से ओत-प्रोत माता का उत्तर था-'अरिहंत की शरण'। ये शब्द छगनलाल की आत्मा से अविनाभाव संबंध से बद्ध हो गए और ८४ वर्ष की आयु के अंतिम क्षण तक छगनलाल अरिहंत के पादपंकजों में तल्लीन रहे। बालक गृहवास करता हुआ भी हृदय से संसार-विरक्त था। यही कारण है कि १७ वर्ष की आयु में उसने तत्कालीन जैन समाज के आध्यात्मिक नेता धुरंधर विद्वान् और विश्वविख्यात जैनमुनि श्री आत्माराम जी से 'आत्मधन' की याचना की। अनेक बाधाओं को पार करते हुए वि० सं० १९४४ में छगनलाल जैनमुनि के रूप में दीक्षित हुए और उनका नाम 'वल्लभविजय' रखा गया। नाम ऐसा गुणानुरूप सार्थक सिद्ध हुआ कि वे अपने आदर्श चरित्र, शासनसेवा, समाजसेवा और राष्ट्रसेवा के कारण जन-जन के हृदय के वल्लभ-प्रिय हो गए। साधु-जीवन में प्रवेश करते ही उन्होंने व्याकरण, साहित्य, दर्शन, आगम, न्याय, काव्य, धर्मशास्त्र आदि का अध्ययन किया और उच्चकोटि के प्रतिष्ठित विद्वान् बन गए । लगभग नौ वर्ष तक उन्हें श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वर को छत्रछाया प्राप्त होती रही। वि० सं० १९५३ में इस महान् गुरु का स्वर्गवास हुआ । अंतिम समय में उन्होंने गुरुवल्लभ को सरस्वती मन्दिरों की स्थापना तथा पंजाब के जैनसंघों में धर्म संस्कारों को सुदृढ़ करने का सन्देश दिया। गुरुवल्लभ ने अपने गुरु की इन अभिलाषाओं को साकार रूप देने के लिए अपने समस्त जीवन की आहुति दे दी। वि० सं० १९८१ में लाहौर में उन्हें आचार्य पद से अलंकृत किया गया और वि० सं० २०११ में बंबई में चिरनिद्रा में लीन हो गए। शासनसेवा-जैन परम्परा में आचार्य का पद बहुत महत्त्वपूर्ण है। अरिहंत तीर्थंकर की सद्वाणी के प्रचार और उसके सम्यक् अर्थ का उत्तरदायित्व उन्हीं पर है। साथ ही चतुर्विध संघ के सन्मार्गदर्शन, नेतृत्व, धर्म में स्थैर्य आदि का भार भी उन्हीं के कंधों पर है। वे स्वयं शास्त्रज्ञ, साकार आचार, कुशल नेता, आदर्शरूप और लोकप्रिय होने चाहिए। शास्त्रों के अर्थ का चयन, आचार में उसका संस्थापन और स्वतः आचरण आचार्य के धर्म हैं। श्रीमद् विजयवल्लभ सूरि इस कसौटी पर पूरे उतरे। उन्होंने श्रद्धा को पुष्ट करने के लिए अनेक जिन मन्दिरों का निर्माण और जीर्णोद्धार कराया। कालकोठरी में बन्द सूर्य Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ग ). की किरणों से अस्पृष्ट हस्तलिखित ग्रन्थों को बाहर निकालने की प्रेरणा दी। अहिंसा और शाकाहार का प्रचार किया। स्याद्वाद की उदार व्याख्या कर हमें सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया और मानवता का पुजारी बनाने का भरसक प्रयास किया। एक बार बम्बई में समस्त श्रोतागण उनकी विश्वमैत्री के प्रति नतमस्तक हो गये जब उनके अन्तः करण से दिव्यध्वनि प्रस्फुटित हुई–'न मैं जैन हूँ, न बौद्ध, न वैष्णव न शैव, न हिन्दू न मुसलमान । मैं तो वीतराग परमात्मा को खोजने के मार्ग पर चलनेवाला एक मानव यात्री हूँ।" जैनों के चारों संप्रदायों की एकता के लिए वे इतने उत्सुक थे कि अपना आचार्य पद छोड़ने को सर्वप्रथम तत्पर थे। उनके अन्तिम उद्गार उनकी जीवन साधना के सजीव द्योतक हैं "मेरी आत्मा यही चाहती है कि साम्प्रदायिकता दूर होकर जैन समाज केवल महावीर स्वामी के झण्डे के नीचे एकत्रित होकर श्री महावीर की जय बोले तथा जैनशासन की वृद्धि के लिए एक जैन विश्वविद्यालय नामक संस्था स्थापित होवे।" युगवीर आचार्य श्री के ये उद्गार उनके देवलोकगमन के २० वर्ष बाद साकार हुए। भ० महावीर की २५वीं निर्वाण शताब्दी के पावन प्रसंग पर जैन समाज के चारों सम्प्रदायों ने एक ध्वजा के नीचे एकत्रित होकर अपने निकट उपकारी भगवान् वर्धमान महावीर के जय-जयकार का उद्घोष किया। उस समय की एकता का दृश्य अभूतपूर्व और ऐतिहासिक था। शासनसेवा के लिए उनमें अदम्य उत्साह था । वृद्धावस्था उन्हें पराजित करने में सदैव असफल रही। ८० वर्ष की अवस्था में संघ उन्हें आचार्य सम्राट की पदवी से अलंकृत करना चाहता है और वे उत्तर देते हैं कि 'मुझे पद नहीं, काम दो। मेरी चलने की, बोलने की तथा देखने की शक्ति घटी है। तुम मेरी वृद्धावस्था देखकर मुझे आराम करने की सलाह देते हो। हमारे जैसे साधु को आराम से क्या मतलब? शरीर से समाज का जितना कल्याण हो सके, उतना जीवन के अन्त तक करते रहना, हम साधुओं का धर्म है। मेरी भावना यह है कि अभी भी विहार करूं । शिक्षण संस्थाएं खुलवाऊँ।' शिक्षा प्रचार के अग्रदूत तथा साहित्य सेवी-गुरुवल्लभ की सबसे महत्त्वपूर्ण और महती देन शिक्षा के क्षेत्र में है। अपने गुरुदेव के अन्तिम Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( घ ) आदेश को कार्यान्वित करने के लिए उन्होंने देश के विभिन्न भागों में शिक्षालयों का जाल बिछवा दिया । उनका विश्वास था कि शिक्षा के प्रचार के बिना समाज और देश की प्रगति की कल्पना निराधार है । वे कहते थे - 'डब्बे में बन्द ज्ञान द्रव्यश्रुत है, वह आत्मा में आए तभी भावश्रुत बनता है । ज्ञानमन्दिर की स्थापना से सन्तुष्ट न होवो, उसका प्रचार हो, वैसा उपाय करो ।' श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल गुजरांवाला ( अब पाकिस्तान ), श्रीआत्मानन्द जैन कॉलेज, अम्बाला शहर, श्री उमेद जैन कॉलेज, फालना, श्रीपार्श्वनाथ जैन विद्यालय, वरकाना एवं लुधियाना, मालेर कोटला, अम्बाला शहर तथा जण्डियाला, गुरु के हाई स्कूल, अनेक कन्या विद्यालय, छात्रालय, पुस्तकालय, वाचनालय, गुरुकुल आदि गुरुवल्लभ की प्रेरणा के सुमधुर फल हैं । उनकी कृपा से बीसियों छात्रों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए सहायता और छात्रवृत्तियां मिलीं। देश के यशस्वी नेता महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय द्वारा स्थापित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय को भी उन्होंने दान दिलाया । अजैन छात्रों की भी मदद की । शिक्षा प्रचार के साथ-साथ साहित्य प्रकाशन के कार्यं को भी गति दी | हिन्दी भाषा में गद्य-पद्य में अनेक रचनाएँ कर जैन साहित्य की समृद्धि की । जन्म से गुजराती होते हुए भी उन्हें राष्ट्रभाषा हिन्दी से प्रगाढ़ स्नेह था । उन्होंने जो कुछ लेखनीबद्ध किया अथवा वाणी द्वारा प्रगट किया, वह सब हिन्दी में । उनके गुरु श्रीमद् विजयानन्द सूरि हिन्दी को लोकभाषा कहते थे । उनका साहित्य भी हिन्दी में ही है । अन्तिम दिनों में गुरुवल्लभ ने अनेक सुशिक्षित गृहस्थों से विचार-विमर्श किया कि विदेश में जैन धर्म के प्रचारार्थ किस प्रकार के साहित्य का निर्माण किया जाए । राष्ट्र निर्माण - गुरुवल्लभ सूरीश्वरजी ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन का समर्थन किया । ये शुद्ध खादी और स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग तथा प्रचार करते थे । खिलाफत आन्दोलन में भी उन्होंने आर्थिक सहायता दिलवाई। मद्यनिषेध और शाकाहार प्रचार द्वारा जनता के नैतिक जीवन का स्तर ऊँचा करने का प्रयास किया । अनेक राजनैतिक नेता उन के दर्शन करके आशीर्वाद प्राप्त करते थे । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ङ) उनकी पीयूषवाणी का पान कर पं० मोतीलाल नेहरू ने धूम्रपान का त्याग कर दिया था । सशिक्षा के प्रचार को उन्होंने राष्ट्रनिर्माण का प्रमुख अङ्ग माना था। जैन समाज में शिक्षा प्रचार पर बल देनेवाले सन्तों में गुरुवल्लभ का नाम सर्वोपरि है । समाज का उत्कर्ष - श्रीमद् विजयानन्द सूरि तथा श्रीमद् विजय वल्लभ सूरि जैन इतिहास में इस दृष्टि से सम्भवतः अनुपम स्थान रखते हैं कि उन्होंने आत्मसाधना के साथ-साथ श्रावक, श्राविका रूपी तीर्थ की प्रगति और कल्याण की ओर भी पूरा-पूरा ध्यान दिया । 'न धर्मो धार्मिके : विना' का आदर्श शास्त्रों में सीमित था । उसे मूर्त रूप प्रदान करने के भागीरथ प्रयास का श्रेय गुरुवल्लभ को है । वे मानते थे कि समाज और संघ के उत्थान के लिए कोई भी आवश्यक और विवेकपूर्ण प्रवृत्ति उतनी ही मूल्यवती है जितनी कि सच्चे त्याग की क्रिया । फलतः उन्होंने समाज सुधार और मध्यमवर्ग के उत्कर्ष के लिए भी आत्मानन्द जैन महासभा की स्थापना करवाई, जैन कांफेन्स बम्बई की प्रवृत्तियों को प्रेरणा दी, अनेक उद्योगशालाएँ खुलवाई, सहधर्मीवात्सल्य का वास्तविक अर्थ स्पष्ट करते हुए बताया कि इसका तात्पर्य केवल प्रीतिभोज नहीं, साधर्मी भाई को स्वाश्रयी बनाना है । संक्षेप में कहा जा सकता है कि गुरुवर श्रीविजयवल्लभ सूरीश्वर जहाँ आदर्श त्यागी, संयमी, मधुर प्रभावशाली वक्ता, धर्म और दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान् तथा जैन शासन के उत्रायक थे, वहाँ जैन समाज के उत्थान के लिए एक मसीहा और राष्ट्रनिर्माण की प्रवृत्तियों के मूक प्रेरक भी । उनकी जीवन-ज्योति हमारे लिए प्रकाश स्तम्भ का काम देती रहेगी । जैन समाज उनकी पुनीत स्मृति में भारत की राजधानी दिल्ली में भव्य स्मारक का निर्माण कर अपने पुनीत कर्तव्य का पालन कर रहा है । उसकी पूर्ति जैन शासन की अनूठी सेवा होगी । प्रो० पृथ्वीराज जैन एम० ए०, शास्त्री Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रन्थ प्रकाशन में अर्थ सहयोग दाता संस्था का परिचय श्री आत्मवल्लभ जैन स्मारक शिक्षण निधि, दिल्ली वर्तमान युग में जैन समाज के जिन त्यागी, संयमी, तपःपूत, जिन शासन दीपक आचार्यों ने समाज और देश की प्रगति के लिए अपने जीवन को निष्ठापूर्वक समर्पित किया, उनमें न्यायाम्भोनिधि, प्रातः स्मरणीय नवयुग-प्रवर्तक, जैनाचार्य श्री श्री १००८ स्व० श्रीमद् विजयानन्द सूरि (वि० सं० १८९४-१९५३ ) तथा अज्ञानतिमिरतरणि, कलिकालकल्पतरु, भारतदिवाकर, पंजाबकेसरी, युगवीर जैनाचार्य श्री श्री १००८ स्व० श्रीमद् विजयवल्लभ सूरीश्वर (वि० सं० १९२७-२०११) के नाम विशेष उल्लेखनीय और अविस्मरणीय हैं। जब वि० सं० २०११ ( ई० १९५४ ) में बम्बई में श्री विजयवल्लभ सूरिजो का देवलोकगमन हुआ, तब ही एकत्रित जनसमूह के अन्तर्हृदय से एक विचार उभर रहा था। एकाकी गुरुवल्लभ ने अपने आराध्य गुरुदेव श्रीमद् विजयानन्द सूरि के मिशन की पूर्ति के लिए अपने जीवन की आहुति दी, धर्मप्रचार और समाजसेवा के सैकड़ों महान कार्य किए। हम गुरुवल्लभ के लाखों उपकारों के ऋण से मुक्त होने के लिए क्या करें ? यह निश्चय हुआ कि उनकी पुण्यस्मृति में अखिल भारतीय स्तर पर दिल्ली में भव्य स्मारक का निर्माण किया जाए। कुछ समय बाद श्री आत्मानन्द जैन महासभा पंजाब ने इस योजना को कार्यान्वित करने का निश्चय किया। वन्दनीया साध्वी श्री शीलवती जी तथा श्री मृगावती जी का चतुर्मास उस समय अम्बाला शहर में था। उनकी ओजस्विनी प्रेरणा से श्री आत्मानन्द जैन महासभा के प्रमुख कार्यकर्ता बाबुराम जी प्लीडर, ला० खेतराम जी, श्री ज्ञानदास सीनियर सब जज, ला० सुन्दरलाल जी तथा प्रो० पृथ्वीराज जी आदि इस काम में जुट गए। किन्तु कतिपय कारणों में दिल्ली से भूमि प्राप्त करने में सफलता न मिली। श्री ज्ञानदास जी तथा श्री बाबूराम जी के निधन से कार्य में शिथिलता आ गई। समय का चक्र चलता रहा लगभग १८ वर्ष बीत गए परन्तु इस दिशा में प्रगति नहीं हो सकी। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि समाज की भावना को साकार होने में विलंब अवश्य हो रहा था, किन्तु निराशा नहीं थी। १९७२ ई० में बड़ौदा में स्वर्गस्थ गुरुदेव के पट्टविभूषण, जिनशासन रत्न, शान्त मूर्ति आचार्यश्री विजयसमुद्र सूरीश्वर जी ने अन्तर्दृष्टि और दूरदर्शिता से जैन भारती श्री मृगावती जी को स्मारक योजना का कार्यभार सौंपा। उन्होंने गुरुभक्तिवश इसे सहर्ष स्वीकृत किया। उनके हृदय में स्मारक विषयक आद्यप्रेरणा पुनः बलवती हुई और उन्होंने निश्चय किया कि इस कार्य को पूर्ण करने के लिए उन्हें हर प्रकार का बलिदान करना होगा। अब क्या था ? विघ्न बाधाओं के अन्तराय रूप बादल फटने लगे और आशा की स्वर्णिम किरणे दृष्टिगोचर होने लगीं। साध्वी जी ने ग्रीष्मऋतु की कठिनाइयों की उपेक्षा कर दिल्ली की ओर उन विहार प्रारंभ कर दिया। स्मारक के लिए भूखंड की प्राप्ति के निमित्त शिष्याओं सहित उन्होंने अभिग्रह धारण कर लिया। ला० रतनचंदजी तथा श्री मदनकिशोर ने भी अनुकरण किया। श्री आत्मवल्लभ जैन स्मारक शिक्षण निधि ट्रस्ट की स्थापना हई और १२.६. १९७४ को इसका पंजीकरण हुआ। १५-६-७४ को दिल्ली-पानीपत राष्ट्रीय मार्ग नं० १ के २०वें कि० मी० के निशान के समीप छः एकड़ भमि खरीद ली गई। अभिग्रह पूर्ण हआ। ३०-६-१९७४ को भगवान् महावीर के २५वें निर्वाण शताब्दी महोत्सव के मार्गदर्शन के लिए आचार्य श्री जी भी शिष्यमंडल सहित दिल्ली पधारे । निर्वाण शताब्दी महोत्सव के बाद आचार्य श्री जी ने पंजाब की ओर विहार किया। २७-१२-१९७४ के दिन उन्होंने स्मारक भूमि की यात्रा की तथा परिक्रमा करते हुए चारदिवारी की नींव को वासक्षेप से पवित्र किया। आकाश जयजयकार से गूंज उठा। शिक्षणनिधि ट्रस्ट के संस्थापक श्री रामलाल जी दिल्ली ने सर्वश्री सुन्दरलाल जी तथा खैराती लालजी को आजीवन ट्रस्टी नियुक्त किया। तीनों ने मिलकर १२ अन्य ट्रस्टियों का चयन किया । धारा ८० (जी) के अन्तर्गत ट्रस्ट के लिए आयकर से छूट प्राप्त की गई। इस समय ट्रस्ट बोर्ड के ३५ सदस्य हैं। बोर्ड पंजीकृत विधान के अनुसार कार्य कर रहा है। २४ ट्रस्टी तीन वर्ष के लिए निर्वाचित होते हैं। प्रतिवर्ष एक तिहाई ट्रस्टी अवकाश प्राप्त करते हैं। उनकी स्थानपूर्ति अन्य ट्रस्टी निर्वाचन द्वारा करते हैं। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ज ). तीन आजीवन ट्रस्टी बोर्ड के सदस्य हैं। श्री आत्मानन्द जैन महासभा एक ट्रस्टी की नियुक्ति तीन वर्ष की अवधि के लिए करती है। वर्तमान में श्री धर्मपाल ओसवाल उनकी ओर से नियुक्त ट्रस्टी हैं। शेष ट्रस्टीगण ऑप्ट किए जाते हैं । प्रादेशिक प्रतिनिधियों पर आधारित १०१ सदस्यों की परामर्श परिषद् का भी विधान है ! ट्रस्ट बोर्ड तथा प्रबंधक समिति की नियमानुसार समय-समय पर बैठक होती है। आय-व्यय का हिसाब प्रति वर्ष आडिट होता है। बोर्ड के आद्यसंरक्षक थे-जैन समाज के सर्वसम्मत नेता, भारत के प्रसिद्ध उद्योगपति स्वर्गीय सेठ कस्तूरभाई लालभाई। उन्होंने इस बात में विशेष रुचि ली कि स्मारक का निर्माण भारतीय स्थापत्य कला के अनुसार हो। आजकल उनके सुपुत्र सेठ श्रेणिक कस्तूरभाई तथा बम्बई जैन समाज के प्रतिष्ठित नेता श्री जे. आर० शाह शिक्षण निधि के संरक्षक हैं। वर्तमान में श्री रतनचंद जी जैन (देहली) प्रधान, श्री राजकुमार जैन (अम्बाला) एवं श्री बलदेवकुमार जैन उपप्रधान, श्री राजकुमार जैन (रूपनगर देहली) मन्त्री तथा श्री मनोहरलालजी (रूपनगर देहली) कोषाध्यक्ष हैं । इनके अतिरिक्त श्री सत्यपाल जैन जीरा, श्री इन्द्रप्रकाश जैन, श्री विनोद दजाल, श्री निर्मलकुमार जैन, श्री सूरजप्रकाश जैन, श्री शांतीलाल जैन ( सभी देहलो) सदस्य हैं। इस प्रकार ट्रस्ट का विधान लोकतंत्र की आधारशिला पर तैयार किया गया है। आचार्य श्री जी स्मारक भूमि की यात्रा के पश्चात् पंजाब की ओर चले गए। परन्तु उनका ध्यान स्मारक के काम में केन्द्रित रहा । उन्होंने जैन-भारती साध्वी श्री मृगावती जी को तथा दिल्ली श्री संघ के कार्यकर्ताओं को ३-२-७६ के पृथक्-पृथक् पत्रों में प्रबल प्रेरणा दी कि स्मारक का कार्य शीघ्र संपन्न किया जाए। स्वर्गवास के डेढ़ मास पूर्व जगाधरी में साध्वी जी महाराज को आशीर्वाद देते हुए उन्होंने कहा "मगावती तुम्हें स्मारक का कार्य सिद्ध करना है। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।" मई १९७७ में मुरादाबाद में आचार्य श्री जी का स्वर्गवास हो गया। तत्पश्चात् उनके पट्टालंकार परमार क्षत्रियोद्धारक श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न सूरिजी महाराज का मंगल आशीर्वाद स्मारक के शुभकायों जैसे भूमिखनन, शिलान्यास, कांफ्रेंस अधिवेशन, जिनमन्दिर शिलान्यास Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , ( झ ) यादि के प्रसंगों पर पू० साध्वी जी को तथा दिल्ली श्री संघ को मिलता रहा है । पू० गुरुत्रय की कृपा से और वर्तमान आचार्य महाराज के आशीर्वाद से आज तक सफलता मिली है और भविष्य में भी मिलेगी । २७-७-७९ के शुभदिन साध्वी श्रीमृगावतीजी महाराज के सान्निध्य में ट्रस्ट के प्रधान ला० रतनचन्दजी मालिक फर्म रतनचंद रिखबदास ने भूमिखनन और खाद मुहूर्तं सम्पन्न किया । सैकड़ों गुरुभक्त उपस्थित थे । अब तो भवन निर्माण के डिज़ाइन की स्वीकृति भी सम्बन्धित अधिकारियों से प्राप्त हो गयी है । १५००० वर्ग फीट में भवन निर्माण होगा । २९-११-७९ को अखिल जैन समाज की २५ वर्ष से आरोपित भावना साकार हुई | समारोहपूर्वक समग्र भारत के प्रतिनिधि हजारों गुरुभक्तों की उपस्थिति में एन० के० इण्डिया रबर कं० प्रा० लि० दिल्ली तथा मे० नरपतराय खरायती लाल फर्म के मालिक उदार हृदय, धर्मनिष्ठ, श्रावक रत्न ला० खरायतीलालजी ने अपने शुभ करकमलों से आत्मबल्लभ संस्कृति मन्दिर का शिलान्यास किया । परम हर्ष और सोभाग्य का विषय यह है कि यह शिलान्यास समारोह और अखिल भारतीय जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेन्स का २४वाँ अधिवेशन भी वल्लभ स्मारक की बाद्य प्रेरक महत्तरा साध्वी श्री मृगावतीजी महाराज के सान्निध्य में यानन्दपूर्वक सम्पन्न हुआ । स्मारक निर्माण की ओर इससे अगला चरण बढ़ा २१-४-८० को, चब स्मारक के प्रांगण में श्री वासु पूज्य स्वामी के नूतन जिनालय का शिलान्यास महत्तरा साध्वी श्री मृगावतीजी के सान्निध्य में श्रीराम मिल्स के प्रधान तथा मे० बाटलीबाय कम्पनी लिमिटेड के अध्यक्ष श्रीप्रताप भोगी लाल, उनके कनिष्ठ भ्राता महेश भाई, पूज्या माता श्रीमती चम्पा बहन तथा परिवार के अन्य सदस्यों के शुभ करकमलों से सम्पन्न हुआ । स्मारक के अन्तर्गत सम्भावित गतिविधियाँ १. भारतीय एवं जैन दर्शन पर शोध कार्य २. संस्कृत एवं प्राकृत विद्यापीठ ३. विजयवल्लभ प्राच्य जैन पुस्तकालय ४. प्राचीन भारतीय दर्शन पर तुलनात्मक विवेचन ५. जैन एवं भारतीय स्थापत्य कला का संग्रहालय : ६. योग और ध्यान केन्द्र Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. प्राकृतिक चिकित्सा शोध कार्य ८. जैन साहित्य और शोध साहित्य का प्रकाशन ९. पुरातन साहित्य का पुनःप्रकाशन १०. नारी शिल्प केन्द्र ११. चलता फिरता औषधालय । भवन की रूपरेखा , श्री आत्मवल्लभ संस्कृति मन्दिर के अन्तर्गत बननेवाले भवन आदि की रूपरेखा सामान्यतः इस प्रकार है कलात्मक प्रवेश द्वार से लगभग ३०० फीट अन्दर, ८४ फीट ऊँचा पुरातन जैन कला के अनुरूप एक भव्य प्रासाद निर्मित होगा। भवन की Plinth ( स्तम्भपीठ ) सड़क से १३' फीट ऊँची होगी। इसके बीच में ६ फीट दीर्घा से घिरा हआ ६३ फीट व्यास का रंगमंडप बनेगा। सीढ़ियों पर श्रृंगार चौकियां तथा ऊपर साभरण इसे सुशोभित करेंगे। पीछे स्थित शोध ब्लाक में प्राकृतिक चिकित्सा पर शोध कार्य, शिवाविद्, प्रबन्धकों तथा पर्यटकों के निवास का प्राविधान है। समूचे भवन के नीचे भूतलघर (बेसमेन्ट ) में पुस्तकालय, विद्यापीठ, संग्रहालय तथा प्रकाशन विभाग होगा। प्रवेशद्वार से भवन तक पहुंचने का रास्ता फूलवारियों तथा फव्वारों से युक्त होगा। पक्के रास्ते के मध्य क्वचित् छोटी-छोटी सीढ़ियाँ होंगो जिससे दर्शनार्थी सहज में १३ फुट को चौकी तक पहुंच सकेगा । सार्वजनिक सभाओं के लिए पीछे खुला प्रांगण होगा। पर्यटकों के लिए जलपान गृह की भी व्यवस्था होगी। निर्माणाधीन स्मारक का नाम 'आत्मवल्लभ संस्कृति मन्दिर' रखा गया है। स्मारक भवन के निर्माण में पाँच-सात वर्ष का समय अपेक्षित है। व्यय का अनुमान एक करोड़ है, सम्भव है परिस्थितिवश इससे भी अधिक हो। आज तक पू० महत्तरा साध्वी श्री मृगावतीजी महाराज की ओजस्वी प्रेरणा से ५५ लाख की धनराशि के वचन मिले हैं। प्रबन्धकों की अभिलाषा है और प्रयास है कि जहाँ स्मारक भवन भारतीय ओर जैन स्थापत्य कला का अतीव सुन्दर भव्य और आकर्षक प्रतीक हो वहाँ साहित्यिक, अनुसंधान, अध्ययन, प्रकाशन आदि प्रवृत्तियों का प्रमुख केन्द्र हो। हम चाहते हैं कि देश विदेश के जिज्ञासु यहाँ से लाभान्वित हों और यह परम पावन स्मारक स्वाध्याय, योग, ध्यान और साधना का प्रेरणा केन्द्र बने। -राजकुमार जैन, मन्त्री Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन को प्रेरणा स्रोत महत्तरा साध्वी श्री मृगावती जी म. सा. लगभग ५२ वर्ष पूर्व विक्रम संवत् १९४२ में चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में सप्तमी के दिन राजकोट ( सौराष्ट्र ) से १६ मील दूर सरधार नगर में श्री डूंगरशी भाई की धर्मपरायणा अर्धागिनी श्रीमती शिवकुवंरबहिन ने सरस्वतीरूपा एक पुण्यशीला बालिका को जन्म दिया। दो भाइयों को एकमात्र बहिन भानुमती को पाकर समस्त परिवार प्रसन्नचित था। किन्तु सुख और दुःख का चक्र अबाध गति से चलता रहता है। अभी बालिका को दो वर्ष की आयु भो पूर्ण न हुई थो कि पिता स्वर्गवासो हो गए । कुछ हो वर्षों बाद दोनों प्रिय भ्राता अपनी पूज्य माता और प्यारो बहिन को असहाय छोड़कर अपने पिताश्री के पास हो पहुंच गए। इससे माता के हृदय को बड़ा आघात लगा। संसार की अनश्वरता का बोध इतना तोव बन गया कि सांसारिक मोह-माया को तोड़कर भागवतो दीक्षा लेने की प्रेरणा बलवती हो गई। माता शिवकुंवर साध्वी शोलवतो बनी और पुत्रो निजशिष्या के रूप में साध्वी मृगावतो बन गई। पूज्य साध्वी शीलवतो जो का लक्ष्य यहो रहा कि "मृगावतो" अधिक से अधिक आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर जगत् को ज्ञान-प्रकाश दे सके। साध्वी श्री मृगावतो जी ने भी विद्या अध्ययन में अपना मन लगा दिया। श्री छोटेलाल जो शास्त्रो, पं० बेचरदास जो दोशी, पं० सुखलाल जी, पं० दलसुखभाई मालवणिया, आगम प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजय जी आदि विद्वत् वर्ग के सान्निध्य में आपका अध्ययन हुआ। १९५३ में कलकत्ता में हुई सर्व-धर्म-परिषद् में जब आपने जैन धर्म का प्रतिनिधित्व किया तो आपको भाषण कला और ज्ञान को धाक चारों ओर फैल गयो। लाखों को संख्या में जैन और अजैन आपका सार्वजनिक भाषण सुनने को लालायित रहने लगे। _ पंजाब केसरी श्री गुरुवल्लभ ने आपको योग्य जानकर पंजाब पधारने का आदेश भेजा। गुरु-आज्ञा शिरोधार्य कर आपने तुरन्त कलकत्ता से विहार कर दिया। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( उ ) मार्ग में पावापुरी में भारत सेवक समाज का शिविर लगा था । श्री गुलजारीलाल नन्दा ने जब सुना कि महासती जी शीलवती व मृगावती जी उधर आ रही हैं तो उन्होंने तुरन्त आगे जाकर शिविर में पधारने की विनती की। आप श्री जी का सारगर्भित प्रवचन सुनकर बहुत प्रभावित हुए। उस प्रवचन में लगभग ८०,००० की उपस्थिति थी । मार्ग में आपने झरिया में देवशी भाई को मन्दिर और उपाश्रय बनवाने की प्रेरणा दी । १२०० मील का लम्बा रास्ता तय करते हुए आपने पंजाब में प्रथम चातुर्मास अम्बाला में किया । अम्बाला में जनजागरण कर वल्लभविहार की नींव रखी। अम्बाला के कॉलेज के दीक्षान्त समारोह में श्री मुरारजी भाई आपके प्रवचन को सुनकर बहुत ही प्रभावित हुए । पंजाब में फैली कुरीतियों को देखकर आपका मन बड़ा दुःखी हुआ और समाज के लिए कुछ ठोस कार्यं करने की मन में धारणा लिये आपने लुधियाना नगर में इन कुरीतियों के विरुद्ध युद्ध का बिगुल बजा दिया | समाजसुधार के सार्वजनिक भाषणों की धूम मच गयी, जैन-अजैन पूरी रुचि और श्रद्धा से आपकी शरण में आने लगे । सैकड़ों युवकों ने दहेज न लेने की प्रतिज्ञाएँ कीं, सैकड़ों परिवारों ने कुटुम्बी के मरणोपरान्त स्यापा इत्यादि का त्याग किया। जैन स्कूल के निर्माण के लिए दान की महिमा पर आपके ओजस्वी भाषण को श्रवण कर उपस्थित लोगों ने अपने आभूषण तक उतारकर दान कर दिये । जन-जागरण करते हुए आपने सारे पंजाब का भ्रमण किया और आपकी ही योजना से लुधियाना में सन् १९६० में जिनशासन- रत्न आचार्य श्री विजयसमुद्र सूरीश्वर जी के सान्निध्य में अखिल भारतीय जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेन्स का सफल आयोजन हुआ । स्थानकवासी सम्प्रदाय के प्रकाण्ड विद्वान् सरलात्मा जैनागमरत्नाकर आचार्य सम्राट श्री आत्मारामजी महाराज आपके विद्याभ्यास से विशेष प्रभावित हुए और आपको मार्ग-दर्शन देते रहे । कुछ वर्ष पंजाब में विचरकर विद्याभ्यास के लिए आप फिर अहमदाबाद में आगम प्रभाकर श्रीपुण्यविजयजी म० सा० के पास विद्याध्ययन करने चली गयीं। वहाँ से सौराष्ट्र, बम्बई, मैसूर, बंगलोर, मद्रास इत्यादि क्षेत्रों मे विचरते हुए दिगम्बरं सम्प्रदाय के तीर्थ क्षेत्र मूलबिद्री में जाने Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाली प्रथम श्वेताम्बर जैन साध्वी आप थीं। बम्बई में वल्लभ शताब्दी के सफलतापूर्वक सम्पन्न होने में आपका सक्रिय योगदान रहा, चाहे आप उस समय बंगलोर में थीं। बड़ोदा में गुरुदेव की आज्ञा से आपने साध्वी-सम्मेलन किया और साध्वी वर्ग को समाज-कल्याण के कार्यों में आगे आने की प्रेरणा दी। वल्लभ-स्मारक देहली का काम कई वर्षों से रुका हुआ था, अतः वहीं गुरुवर्य श्री विजयसमुद्र सूरिजी ने आदेश दिया कि इस कार्य को आप ही सम्पन्न करें। गुरु-आज्ञा पाकर आप साहस के साथ उस कार्य में जुट गयीं तथा समाज को योग्य मार्ग-दर्शन देकर वह कार्य सम्पन्न करवाया। गुरुदेव श्री विजयसमुद्र सूरीश्वर जब पंजाब से मुरादाबाद प्रतिष्ठा करवाने हेतु जा रहे थे, तब उन्होंने आपको जगाधरी में आदेश दिया था कि पंजाब की सार-संभाल लें तथा लुधियाना, कांगड़ा और लहरा के काम पूरे करें, गुरु का विश्वास आपका शक्तिसम्बल बना, आपके सद्-प्रयासों के फलस्वरूप सभी अधूरे रहे हुए कार्य सम्पन्न हुए। ____आपकी तीन शिष्याएँ श्री सुज्येष्ठा श्री जी, श्री सुब्रता श्री जी और श्री सुयशा श्री जी जहाँ आपके प्रत्येक कार्य में अपना पूरा सहयोग देती हैं, वहीं अपने आत्मसाधना के पथ को भी प्रशस्त कर रही हैं। -गुलाबचन्द जैन कोषाध्यक्ष पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक भारतीय संस्कृति की अविच्छिन्न और विशाल परम्परा में विभिन्न मत. वादों या आचार-विचारों का अद्भुत समन्वय है। यद्यपि वे विभिन्न आचारविचार अपनी विशिष्टताओं के कारण अपना अलग-अलग अस्तित्त्व रखते हैं, तथापि उनमें एकसूत्रता भी पर्याप्त है। कितने ही ऐसे तत्त्व हैं, जो प्रकारान्तर से एक दूसरे के पर्याय अथवा एक दूसरे के पूरक हैं। भारतीय योग-परम्परा भी इस दृष्टि-बोध का अपवाद नहीं है। योग परम्परा में भी भारत की प्रमुख तीन धाराएँ अन्तर्भुक्त हैं--वैदिक, बौद्ध एवं जैन । कुछ संदर्भो में साम्य होते हुए भी तीनों का अपना वैशिष्टय है, जिन पर इनकी अपनी संस्कृति की छाप स्पष्ट है। वैदिक धारा में योग विषयक विवेचन-विश्लेषण अधिकता से हुआ है; बौद्ध धारा में भी योग की व्याख्या अनेकविध हुई है, लेकिन जैनधारा में योग के सम्यक् एवं आलोचनात्मक उपवृहण की अपेक्षा सर्वदा रही है और इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर प्रस्तुत शोध-प्रबंध का उपस्थापन हुआ है । वस्तुतः जैन योग परम्परा की सम्यक् व्याख्या, उसके बिखरे हुए अवयवों का संगठन तथा विशाल योग वाङमय का सुसम्बद्ध अध्ययन तथा तत् प्रसूत तत्त्वों का प्रस्तुतीकरण अपने आप में एक महार्थ प्रयास की अपेक्षा रखता है। इस दृष्टि से लेखक का यह प्रयास श्रमसाध्य अवश्य है, लेकिन समयसाध्य भी है । लेखक ने प्रयास किया है कि जैन योग का एक स्पष्ट स्वरूप, उसकी व्याख्या, सम्बद्ध अवयवों का उद्घाटन यथाशक्य प्रस्तुत किया जाय ताकि भारतीय योग के अध्येताओं को एक सुलझी दृष्टि प्राप्त हो सके, क्योंकि बिना जैन योग का अध्ययन चिन्तन किए सम्पूर्ण भारतीय योग परम्परा का ज्ञान अधूरा ही रहेगा। इसी सिलसिले में लेखक ने यह भी ध्यान रखा है कि जैन योग के विभिन्न संदर्भो में भारतीय अन्य योग परम्पराओं के विचारों का भी यथाशक्य तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत हो। प्रस्तुत शोध-प्रबंध सात अध्याओं में विभक्त है। 'भारतीय परम्परा में योग' नामक पहले अध्याय में सर्वप्रथम योग-परम्परा की पृष्ठभूमि, योग शब्द एवं उसका अर्थ, योग का स्रोत एवं उसके क्रमिक-विकास पर प्रकाश डालने का प्रयास है। इसमें वेद, उपनिषद्, महाभारत, गीता, स्मृति, भागवतपुराण, योगवासिष्ठ आदि ग्रंथों में प्रतिपादित योग-विषय की चर्चा की गई है। साथ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही हठयोग, नाथयोग, शैवयोग, पातंजल-योग, अद्वैत दर्शन आदि के अनुसार भी योग के विभिन्न अंगों का विवेचन-विश्लेषण हुआ है, क्योंकि वैदिक वाङ्गमय के सर्वेक्षण के बिना योग-परम्परा का न विकास ही दिखाया जा सकता है और न भारतीय योग परम्परा का समुचित मूल्यांकन ही हो सकता है । इसी अध्याय में बौद्ध परम्परा सम्मत योग का भी दिग्दर्शन कराया गया है क्योंकि इसके अभाव में जैन योग का समुचित विश्लेषण कर पाना संभव नहीं । अतः इस अध्याय का उपयोग वस्तुतः इस शोध-प्रबंध में पीठिका स्वरूप है।। दूसरे अध्याय में 'जैन योग साहित्य' का समुचित परिचय दिया गया है, क्योंकि जैन योग-विषयक ग्रंथों के विवेचन-विश्लेषण से ही जैन योग का समुचित स्वरूप स्थिर किया जा सकता है और विकास-क्रम भी स्थिर किया जा सकता है। जैन योग विषयक प्रमुख ग्रंथ इस प्रकार हैं--ध्यानशतक, मोक्षपाहुड, समाधितंत्र, तत्त्वार्थसूत्र, इष्टोपदेश, योगबिन्दु, परमात्मप्रकाश, योगसार, योगशतक, ब्रह्मसिद्धान्तसार, योगविशंति, योगदृष्टिसमुच्चय, षोडशक, आत्मानुशासन, योगसार-प्राभृत, ज्ञानसार, ध्यानशास्त्र अथवा तत्त्वानुशासन, योगशास्त्र, ज्ञानार्णव आदि । ___'योग का स्वरूप' नामक तीसरे अध्याय में योग का महत्त्व एवं लाभ योग के लिए मन की समाधि एवं प्रकार, योगसंग्रह, गुरु की आवश्यकता एवं महत्त्व, आत्मा-कर्म का संबंध, योगाधिकारी के भेद, आत्मविकास में जीव की स्थिति, चित्तशुद्धि के उपाय, योग के विभिन्न प्रकार एवं अनुष्ठान, योगी के प्रकार, जप तथा उसका फल, कुण्डलिनी का महत्त्व आदि विषयों का वर्णन किया गया है, ताकि जैन योग के स्वरूप का विवेचन स्पष्टतापूर्वक हो सके । वस्तुतः उक्त विषयों के प्रतिपादन से ही जैन योग की सर्वांगीण व्याख्या प्रस्तुत की जा सकती है। चौथे अध्याय में 'योग के साधन-आचार' के विषय में विचार किया गया है । इस अध्याय के दो परिच्छेद हैं--प्रथम परिच्छेद के अंतर्गत वैदिक एवं बौद्ध परम्परान्तर्गत आचार पर संक्षिप्त टिप्पणी प्रस्तुत की गई है और प्रमुख रूप से जैन आचार के अन्तर्गत श्रावकचार-विषयक आचार-नियमों का उल्लेख किया गया है। इस संदर्भ में अणुव्रत, रात्रिभोजनविरमणव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत, प्रतिमाएँ एवं सत्कर्मों का निरूपण क्रमशः हुआ है। दूसरे परिच्छेद में श्रमण के आचार-नियमों का प्रतिपादन किया गया है। इसमें पंचमहाव्रत एवं उनकी भावनाएं, गुप्तियाँ एवं समितियां, षडावश्यक, धर्म, अनुप्रेक्षाएं, Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ग ) संलेखना, परीषह, तप, उसका महत्त्व एवं उसके भेद, विभिन्न परंपराओं में तप का विवेचन, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार एवं धारणा का यथाशक्य प्ररूपण हुआ है । जैन योग की स्पष्टता के लिए इस अध्याय का भी बड़ा महत्त्व है, क्योंकि योग और आचार का संबंध परम्परावलम्बी है। अतः उक्त आचार-नियमों के पर्यालोचन से ही जैनयोग के पोषक तत्त्वों का परिज्ञान हो सकता है। ___ 'योग के साधन रूप-ध्यान' की व्याख्या करना पांचवें अध्याय का प्रतिपाद्य है, जिसके अन्तर्गत सर्वप्रथम वैदिक एवं बौद्ध योग में ध्यान की स्थिति, स्वरूप एवं प्रकार आदि की चर्चा है और बाद में जैन योग के अनुसार ध्यान की विस्तृत व्याख्या की गई है । व्याख्या के क्रम में प्रयत्न किया गया है कि जैनयोगानुसार ध्यान के विभिन्न अंगों प्रत्यंगों का समुचित प्रतिपादन हो, क्योंकि ध्यान योग का प्रमुख अंग है और बिना इसके समुचित विवेचन के जैनयोग संबंधी ज्ञान का सम्यक्रूप से प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। छठे अध्याय का विषय आध्यात्मिक-विकास है, जिसके अन्तर्गत क्रमशः वैदिक एवं बौद्ध योग के अनुसार क्रमिक आध्यात्मिक विकास का वर्णन हुआ और इसके बाद जैन योगानुसार आध्यात्मिक विकास की विस्तृत भूमिकाएं. प्रस्तुत की गई हैं। इन्हीं सन्दर्भो में क्रमशः कर्म, आत्मा तथा कर्म का सम्बन्ध, लेश्याएं, गुणस्थानों का वर्गीकरण तथा योगविहित आठ दृष्टियों का समुचित प्रतिपादन किया गया है। इसी क्रम में आध्यात्मिक विकास के अन्यान्य सोपानों की भी चर्चा हुई है। वस्तुतः यह अध्याय योग-फलित अध्यात्म विकास की ही विवृत्ति करता है । इसलिए यह अध्याय भी योग का ही पूरक सन्दर्भ है। सातवें अध्याय का विषय 'योग का लक्ष्य-लब्धियां एवं मोक्ष' है, जिसमें वैदिक, बौद्ध एवं जैन परम्पराओं में वर्णित विभिन्न लब्धियों का तथा मोक्ष का विचार किया गया है और योगानुसार सिद्धजीवों के प्रकारों तथा उनकी स्थिति का वर्णन किया गया है। अध्याय का सर्वोपरि महत्त्व इसलिए है कि इसमें योग के लक्ष्य-तत्त्व निर्वाण या मोक्ष का प्रतिपादन हुआ है। ___ इस प्रकार जैन योग पर सर्वाङ्गीण विवेचन प्रस्तुत करते हुए शोध-प्रबंध के अन्त में 'उपसंहार' लिखा गया है, जिसमें जैन योग की मौलिक विशिष्टताओं का निदर्शन हुआ है। यद्यपि जैन योग कुछ अंशों में सामान्य भारतीय योग परंपरा का ही अनुकरण करता है तथापि कुछ अंशों में अपना स्वतन्त्र वैशिष्टय भी रखता है, जो इसकी मौलिक देन है । इस शोध प्रबन्ध के सन्दर्भ में लेखक सर्वप्रथम गुरुवर डॉ. मोहनलाल मेहता ( अध्यक्ष; पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी ) का आभारी Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (घ ) है जिनके सम्यक् निर्देशन, स्नेह तथा प्रेरणा से यह शोध प्रबन्ध यथासमय पूरा हो सका । गुरुवर डॉ० आर० एस० मिश्र ( कार्यकारी अध्यक्ष, भारतीय दर्शन एवं धर्म-विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ) के प्रति लेखक नम्रीभूत है, जिनसे वह समय-समय पर शोधसम्बन्धी विचारों से उपकृत होता रहा है । डॉ० ए० एन० उपाध्ये ( डीन, फैकल्टी ऑफ आर्टस्, शिवाजी युनिवर्सिटी, कोल्हापुर ) डॉ० टी० जी० कलघटगी. (प्रिन्सिपल, कर्नाटक कॉलेज, मारवाड़) और डॉ० जी० सी० चौधरी ( प्रो० नवनालन्दा पाली शोधसंस्थान, बिहार ) वस्तुतः लेखक के प्रेरणास्रोत ही रहे हैं, इसलिए लेखक उनका हृदय से कृतज्ञ है । लेखक उपाध्याय श्री अमरमुनिजी महाराज और मुनि श्री विद्यानन्दजी महाराज आदि का भी अत्यन्त ऋणी है, क्योंकि उन्होंने सदा स्नेह तथा ज्ञान द्वारा उसे प्रोत्साहित किया है । इनके अतिरिक्त लेखक डॉ० वा० के० लेले ( रीडर, मराठी विभाग, का० हि० वि० वि० ), डॉ० एल० एन० शर्मा, ( अध्यापक, दर्शन विभाग, का० हि० वि० वि०), श्री एन० एच० हिरेमठ स्वामी, ( तन्त्रयोग विभाग, वा० स० विश्वविद्यालय ) डॉ० ए० एस० डी० शर्मा, ( सीनियर फेलो, भारतीय दर्शन एवं धर्म विभाग, का० हि० वि० वि०), डॉ० बी० एन० सिन्हा, श्री हरिहर सिंह, श्री कपिलदेव गिरि तथा केसरीनन्दनजी को भी नहीं भूल सकता, जिनका स्नेह और सद्भाव पाकर उसने सतत् गतिशील बने रहने का प्रयास किया है। पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी का तो लेखक अत्यन्त आभारी है ही, जहाँ से उसे दो वर्ष तक शोधवृत्ति प्राप्त हुई है तथा अन्य अनेक सुविधाएं मिली हैं। एल० डी० इन्स्टिट्यूट, अहमदाबाद तथा स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी के प्रति भी लेखक आभारी है जिनकी पुस्तकों का उपयोग किया गया है। अन्त में, लेखक यह स्पष्ट कर देना चाहता है कि उसने अहिंदी भाषी होते हुए भी राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति अनुराग के कारण ही प्रस्तुत शोधप्रबन्ध हिन्दी में लिखने का उपक्रम किया है । इसलिए भाषाविषयक त्रुटियों का होना स्वाभाविक ही है इसके लिए सुधी पाठकगण उसे स्नेहपूर्वक क्षमा करेंगे ऐसी अपेक्षा है | अध्यक्ष दर्शन शास्त्रविभाग, कराड कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय सतारा ( महाराष्ट्र ) अर्हद्दास बंडोबा दिगे Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका पृष्ठ संख्या प्रास्ताविक क-च पहला अध्याय : भारतीय परम्परा में योग १-३६ . . योग शब्द एवं उसका अर्थ-२, योग का स्रोत एवं विकास-४, वेदकालीन योग परम्परा-८, उपनिषदों में योग-१०, महाभारत में योग-१३, गीता में योग-१५, स्मति ग्रंथों में योग-१८, भागवत पुराण में योग-१९, योगवासिष्ठ एवं योग-२२, हठयोग-२३, नाथयोग-२५, शैवागम एवं योग-२७, पातंजल योगदर्शन-२९, अद्वैतवेदान्त एवं योग-३१, बौद्ध योग-३३ ) दूसरा अध्याय : जैन योग-साहित्य ३७-५३ ध्यानशतक-३८, मोक्षपाहुड-३८, समाधितंत्र-३९, तत्वार्थसूत्र-३९, इष्टोपदेश-३९, समाधिशतक-४०, परमात्म प्रकाश-४०, योगसार-१४, हरिभद्र कृत योगग्रंथ-४१, योग शतक-४१, ब्रह्मसिद्धान्त सार-४२, योगविशिंका-४२, योगदृष्टिसमुच्चय-४२, योग बिन्दु९-४३, षोडशक-४४, आत्मानुशासन-४४, योगसार प्राभृत-४५, ज्ञानसार-४५, ध्यानशास्त्र अथवा तत्त्वानुशासन-४५, पाहुडदोहा-४६, ज्ञानार्णव अथवा योगार्णव अथवा योगप्रदीप-४६, योगशास्त्र अथवा अध्यात्मोपनिषद्-४७, अध्यात्मरहस्य अथवा योगोद्दीपन-४८, योगसार-४८, योगप्रदीप-४८, यशोविजयकृत योगपरक ग्रंथ-४९, अध्यात्मसार-४९, अध्यात्मोपनिषद्-४९, योगावतार बतीसी-४९, पातंजल योगसूत्र वृत्ति एवं योगविशिका की टीका-४९, योगदृष्टिनी संझायमाला-५०, ध्यानदीपिका-५०, ध्यान विचार-५०, वैराग्यशतक-५०, अध्यात्मकमल मार्तण्ड-५०, अध्यात्मतत्त्वालोक-५१, साम्यशतक-५१, योगप्रदीप-५१, अध्यात्म कल्पद्रुम-५२, जैन योग ( अंग्रेजी )-५२, तथा जैन योग के कुछ अन्य योग ग्रंथ-५३। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अध्याय : जन योग का स्वरूप ५४-७४ पृष्ठभूमि-५४, योग का अर्थ-५६, योग का महत्त्व एवं लाभ-५६, योग के लिए मन की समाधि एवं प्रकार-५७, योगसंग्रह-५९, गुरु की आवश्यकता एवं महत्त्व-६१, आत्मा व कर्म का संबंध-६२, योगाधिकारी के भेद-६२, अचरमावर्ती तथा चरमावर्ती-आत्म-विकास में जीव को स्थिति-६४, चित्त शुद्धि के उपाय-६५, वैराग्य-६६, साधन की अपेक्षा से योग के पाँच प्रकार-६७, स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलम्बन एवं अनालम्बन-६८, योग के पाँच अनुष्ठान, विष, गर, अननुष्ठान, तद्धतु अनुष्ठान तथा अमृतानुष्ठान, योग के अन्य तीन प्रकार-६९, इच्छायोग, शास्त्रयोग तथा सामर्थ्ययोग, अधिकारियों की अपेक्षा से योगी के प्रकार-७१, कुलयोगी, गोत्रयोगी, प्रवृतचक्रयोगी, अवंचक्र के प्रकार-७२, निष्पन्न योगी, जप एवं उसका फल-७३, कुण्डलिनी-७३ । चौथा अध्याय : योग के साधन : आचार ७५-१५४ प्रथम परिच्छेद : श्रावकाचार-७१, वैदिक परम्परा सम्मत आचार-७६, बौद्ध परम्परा में आचार-७८, जैन परम्परा में आचार-७९, सम्यग्दर्शन-८०, सम्यक्त्व के पच्चीस दोष-८१, सम्यग्ज्ञान-८२, सम्यक् चारित्र-८३, चारित्र के पांच भेद-८४, चारित्र के दो भेद-८६, श्रावकाचार-८६, अणुव्रत-८८, स्थूल प्राणातिपात विरमण एवं उसके अतिचार-८९, स्थूल मृषावाद विरमण एवं उसके अतिचार-९०, - स्थूल अदत्तादान विरमण एवं उसके अतिचार-९२, स्वदारसंतोष एवं उसके अतिचार-९३, इच्छा परिमाण अथवा परिग्रह परिमाण व्रत एवं उसके अतिचार-९४, रात्रि भोजन विरमण एवं उसके अतिचार-९६, गुणव्रत एवं उसके भेद-९७, दिग्वत एवं उसके अतिचार-९९, अनर्थदण्डवत एवं उसके अतिचार-९९, भोगोपभोग परिमाणव्रत एवं उसके अतिचार-१००, शिक्षाव्रत एवं उसके भेद-१०१, सामयिक एवं उसके अतिचार-१०२, प्रोषधोपवास एवं उसके अतिचार-१०३, देशावकाशिक एवं उसके अतिचार-१०३। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिथि संविभाग एवं उसके अतिचार-१०३, प्रतिमाएँ एवं उसके भेद-१०४, श्रावक के षट्कर्म-१०८; द्वितीय परिच्छेद : श्रमणाचार-११०, पंचमहाव्रत-११२, सर्वप्राणातिपात विरमण एवं उसकी पाँच भावनाएँ-११२, सर्व मृषावाद विरमण एवं उसकी पाँच भावनाएं-११३, सर्व अदत्तादान विरमण एवं उसकी पाँच भावनाएँ-११३, सर्व मैथुन विरमण एवं उसकी पाँच भावनाएँ-११४, सर्व परिग्रह विरमण एवं उसकी पाँच भावनाएँ-११४, गुप्तियाँ एवं समितियाँ-११५, गुप्ति के भेद-११६, समिति एवं उसके भेद-११७, षडावश्यक-११९, दस धर्म-१२०, बारह अनुप्रेक्षाएँ-१२३, संलेखना-१२९, परीषह-१३०, तप का महत्त्व-१३१, वैदिक परम्परा में तप-१३२, बौद्ध परम्परा में तप-१३३, जैन परम्परा में तप-१३४, तप के दोभेद-१३५, बाह्य तप-१३६, एवं उसके प्रकार, आभ्यन्तर तप एवं उसके प्रकार-१३७, आसन-१४२, प्राणायाम-१४५, प्रत्या हार-१५१, धारणा-१५३ ।। पांचवा अध्याय : योग के साधान : ध्यान १५५-१८९ वैदिक योग में ध्यान-१५५, बौद्ध योग में ध्यान-१५७, जैनयोग में ध्यान-१५९, ध्यान की परिभाषा एवं पर्याय-१५९, ध्यान के अंग-१६१, ध्यान की सामग्री-१६१, ध्यान के प्रकार-१६४, आर्तध्यान एवं इसके चार भेद-१६५, अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग, रोग चिन्ता, भोगात रौद्र ध्यान एवं इसके चार भेद-१६७, हिंसानंद, मृषानंद, चौर्यानन्द, संरक्षणानन्दधर्मध्यान तथा उसका स्वरूप-१५९, धर्मध्यान तथा उसके चार प्रकार-१७१, आज्ञा विचय, अपायविचय, विपाकविचय तथा संस्थान, ध्येय के चार भेद-१७३, (१) पिण्डस्थ एवं इसके पांच भेद-१७३, पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी और तत्त्ववर्ती (२) पदस्थ ध्यान-१७१, (३) रूपस्थ ध्यान-१८०, (४) रूपातीत ध्यान-१८१, शुक्ल ध्यान एवं उसके चार भेद-१८२, (अ) पृथकत्त्व वितर्क सविचार-१८४, (आ) एकत्वश्रुत अविचार-१८५, (इ) सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति-१८७, (ई) उत्सन्न क्रिया प्रतिपाति-१८८ । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्याय : अध्यात्म-विकास १९०-२१७ वैदिक योग परम्परा में अध्यात्म विकास-१९०; योगदर्शन में पाँच भूमिकाएँ-१९१, योगवासिष्ठ में अज्ञान की सात एवं ज्ञान की सात भूमिकाएँ-१९१, बौद्ध योग में अध्यात्म विकास-१९४, जैनयोग में अध्यात्म विकास-१९७, कर्म-१९८, आत्मा तथा कर्म का संबंध, लेश्याएँ, गणस्थानों का वर्गीकरण-२०१, आठ दृष्टियाँ-२०४, मित्रा दृष्टि-२०५, तारा दृष्टि-२०६, बला दृष्टि-२०७, दीप्रा दृष्टि-२०८, स्थिरा दृष्टि-२१०, कान्ता दृष्टि-२११, प्रभा दृष्टि-२१२, परा दृष्टि-२१३, अध्यात्म विकास की अन्य पाँच सीढ़ियाँ-२१५, अध्यात्म, भावना-ध्यान-समता एवं वृत्तिसंक्षय-२१६ । .सातवां अध्याय: योग का लक्ष्य-लब्धियां एवं मोक्ष २१८-२३३ वैदिक योग में लब्धियाँ-२१९, बौद्ध योग में लब्धियाँ-२२०, जैन योग में लब्धियाँ-२२०, लब्धियों के प्रकार-२२१, वैदिक योग में कैवल्य अथवा मोक्ष-२२५, बौद्ध योग में , निर्वाण-२२६, जैन योग में मोक्ष-२२८, सिद्ध जीवों के प्रकार-२३२। उपसंहार २३४-२४२ सहायक ग्रंथ-सूची २४३-२५६ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में योग 'योग' शब्द भारतीय संस्कृति तथा दर्शन की बहुमूल्य सम्पत्ति है। योगविद्या ही एक ऐसी विद्या है जो प्रायः सभी धर्मों तथा दर्शनों में स्वीकृत है। यह ऐसी आध्यात्मिक साधना है जिसे कोई भी बिना किसी वर्ण, जाति, वर्ग या धर्म-विशेष की अपेक्षा के अपना सकता है। प्राचीन भारतीय धर्म, पुराण, इतिहास आदि के अवलोकन से ज्ञात होता है कि योग-प्रणाली की परम्परा अविच्छिन्न रूप में चलती आयी है। वैदिक तथा अवैदिक वाङ्मय में आध्यात्मिक वर्णन बहुलता से पाया जाता है। इनका अन्तिम साध्य उच्च अवस्था की प्राप्ति है और योग उसका एक साधन है। __ जैसे चिकित्सा-शास्त्र में चतुर्व्यह के रूप में रोग, रोग का कारण, आरोग्य और उसका कारण वर्णित है, वैसे ही योगशास्त्र में भी चतुव्यंह का उल्लेख है-संसार, संसार का कारण, मोक्ष और मोक्ष का साधन ।' चिकित्सा-शास्त्र के समान ही योग भी आध्यात्मिक साधना के लिए चार बातें स्वीकार करता है : (१) आध्यात्मिक दुःख, (२) उसका कारण ( अज्ञान ), (३) अज्ञान को दूर करने के लिए सम्यग्ज्ञान एवं (४) आध्यात्मिक बन्धन से मुक्ति अथवा पूर्णता की सिद्धि । इस प्रकार सभी आध्यात्मिक साधनाएँ इन चारों सिद्धान्तों को स्वीकार करती हैं, भले ही विभिन्न परम्पराओं में ये विभिन्न नामों से व्यवहृत हुए हों। . __ योगसाधना को एक विशिष्ट क्रिया माना गया है, जिसके अन्तर्गत अनेक प्रकार के आचार, ध्यान तथा तप का समावेश है। परन्तु इन सबका लक्ष्य आत्मा का विकास ही है और इसके लिए मनोविकारों को जीतना आवश्यक है। यौगिक क्रियाओं के आदर्श विभिन्न ग्रन्थों में अलग-अलग हैं, १. यथा चिकित्साशास्त्रं चतु! हम्-रोगो रोगहेतुरारोग्यं भेषज्यमिति । एवमिदमपि शास्त्रं चतुव्यूहम् । तद्यथा संसारः संसारहेतुर्मोक्षो मोक्षोपाय इति । तत्र दुःखबहुल: संसारो हेयः। -योगदर्शन, व्यासभाष्य, २०१५ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन जिनका वर्णन आगे किया जायेगा । यहाँ संक्षेप में उनका सार बता देना अभीष्ट है, जिससे कि प्रस्तुत विषयवस्तु का अर्थ स्पष्ट हो सके। उपनिषद् में जहाँ योग को ब्रह्म के साथ साक्षात्कार करानेवाली क्रिया के रूप में स्वीकार किया गया है, वहाँ गीता में कर्म करने की कुशलता का ही नाम योग है। योगदर्शनानुसार जहाँ चित्तवृत्ति का निरोध ही योग माना गया है, वहाँ बौद्धयोग में उसे बोधिसत्त्व की प्राप्ति करानेवाला कहा गया है। जैनयोग में आत्मा की शुद्धि करानेवाली क्रियाएँ ही योग हैं। इस तरह योग को किसी-न-किसी प्रकार आत्मा को उत्तरोत्तर विकसित करनेवाले साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। 'योग' शब्द एवं उसका अर्थ - 'योग' शब्द 'युज्' धातु से बना है। संस्कृत व्याकरण में दो युज् धातुओं का उल्लेख है, जिनमें एक का अर्थ जोड़ना या संयोजित करना है' तथा दूसरे का समाधि, मनःस्थिरता है । अर्थात् सामान्य रीति से योग का अर्थ सम्बन्ध करना तथा मानसिक स्थिरता करना है। इस प्रकार लक्ष्य तथा साधन के रूप में दोनों ही योग हैं। इस शब्द का उपयोग भारतीय योगदर्शन में दोनों अर्थो में हआ है। 'योग' शब्द का सम्बन्ध 'युग' शब्द से भी है जिसका अर्थ "जोतना' होता है, और जो अनेक स्थलों पर इसी अर्थ में वैदिक साहित्य में प्रयुक्त है। 'युग' शब्द प्राचीन आर्य-शब्दों का प्रतिनिधित्व करता है। यह जर्मन के जोक (Jock), ऐंग्लो-सैक्सन Anglo-Saxon) के गेओक (Geoc), इउक (Iuc), इओक (Ioc), लैटिन के इउगम (Iugum) तथा ग्रीक जुगोन (Zugon) की समकक्षता या समानार्थकता में देखा जा सकता है। गणितशास्त्र में दो या अधिक संख्याओं के जोड़ को योग कहा जाता है । भारतीय दर्शन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति की प्राप्ति है और उसके लिए योगदर्शन, बौद्धदर्शन तथा जैनदर्शन में क्रमशः कैवल्य, निर्वाण तथा मोक्ष शब्द का प्रयोग हुआ है, जो अर्थ की दृष्टि से समान ही हैं। १. युजपी योगे।-हेमचंद्र, धातुमाला, गण ७ २. युजिच समाधौ।-वही, गण ४ ३. दर्शन और चिंतन, प्रथम खण्ड, पृ० २३० ४. Yoga Philosophy, p. 43 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में योग विभिन्न दर्शनों के विभिन्न मार्ग होने पर भी फलितार्थ सबका एक ही है, क्योंकि चित्तवृत्तियों की एकाग्रता के बिना न मोक्षमार्ग उपलब्ध होता है, न आत्मलीनता सधती है। अतः चञ्चल मनःप्रवृत्तियों को रोकना अथवा उनका नियन्त्रण करना सभी दर्शनों का उद्देश्य रहा है। पतंजलि ने चित्तवृत्तियों के निरोध को ही योग कहा है। यहां निरोध का अर्थ चित्तवृत्तियों को नष्ट करना है। लेकिन इस परिभाषा पर आपत्ति उठाते हुए कहा गया है कि चित्तवृत्तियों को दुर्बल या क्षीण किया जा सकता है, परन्तु उनका पूर्ण निरोध सम्भव नहीं है । वृत्तियों के प्रवाह का नाम ही चित्त है, और चित्तवृत्ति के पूर्ण निरोध का मतलब होगा-चित्त के अस्तित्व का ही लोप तथा चित्ताश्रितभूत समस्त स्मतियों और संस्कारों का नाश । निरुद्धावस्था में कर्म तो हो हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार भी नहीं पड़ सकता, स्मृतियाँ नहीं बन पातों, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक होती हैं। योगदर्शन के भाष्यकार महर्षि व्यास ने 'योगः समाधि' 3 कहकर योग को समाधि के रूप में ग्रहण किया है, जिसका अर्थ है समाधि द्वारा सच्चिदानन्द का साक्षात्कार । इस प्रकार वैदिक दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष या प्रकारान्तर से योग के लिए दो उपादानों की अपेक्षा बतायी गयी हैमानसिक चञ्चल वृत्तियों का नियन्त्रण तथा एकाग्रता । मानसिक वृत्तियों के नियन्त्रण के बिना न एकाग्रता सम्भव है और न एकाग्रता के बिना सच्चिदानन्द का साक्षात्कार अथवा पुरुष का स्वरूप में स्थित होना। बौद्ध विचारकों ने योग का अर्थ समाधि किया है, तथा तत्त्वज्ञान के लिए योग का प्रयोजन बताया है। बौद्ध-विचारक ईश्वर और नित्य आत्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, तथापि दुःख से निवृत्ति और निर्वाण-लाभ उनका प्रयोजन रहा है। जैनों के अनुसार शरीर, वाणी तथा मन के कर्म का निरोध संवर है और यही योग है। यहां पतंजलि का 'योग' शब्द 'संवर' शब्द का समानार्थक ही है । हरिभद्र के मतानुसार योग मोक्ष प्राप्त करानेवाला १. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।-योगदर्शन, १२ २. हिन्दी विश्वकोश, भा० ९, पृ० ४९६ ३. योगदर्शन, व्यासभाष्य, पृ० २ ४. बौद्धदर्शन, पृ० २२२ ५. आस्रवनिरोधः संवरः। तत्त्वार्थसूत्र, ९१ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन अर्थात् मोक्ष के साथ जोड़नेवाला है ।" हेमचन्द्र ने मोक्ष के उपाय रूप योग को ज्ञान, श्रद्धान और चारित्रात्मक कहा है ।" यशोविजय भी हरिभद्र का ही अनुसरण करते हैं । इस प्रकार जैनदर्शन में योग का अर्थं चित्तवृत्तिनिरोध तथा मोक्षप्रापक धर्म-व्यापार है। उससे वही क्रिया या व्यापार विवक्षित है जो मोक्ष के लिए अनुकूल हो । अतः योग समस्त स्वाभाविक आत्मशक्तियों की पूर्ण विकासक क्रिया अर्थात् आत्मोन्मुखी चेष्टा है। इसके द्वारा भावना, ध्यान, समता का विकास होकर कर्मग्रन्थियों का नाश होता है । वैदिक, बौद्ध एवं जैन ग्रन्थों में योग, समाधि और ध्यान ( तप ) बहुधा समानार्थक हैं । योग का स्रोत एवं विकास 'योग' शब्द सर्वप्रथम ऋग्वेद में मिलता है । यहाँ योग शब्द का अर्थं केवल 'जोड़ना ' है । ई० पू० ७००-८०० तक के निर्मित साहित्य में इसका अर्थ इन्द्रियों को प्रवृत्त करना तथा उसके बाद के साहित्य में ( लगभग ई०पू० ५०० अथवा ६०० ) इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना भी निर्देशित है । 4 ब्राह्मणधर्म के मूल में 'ब्रह्मन्' शब्द है और यज्ञ को केन्द्र में रखकर ही ब्राह्मणधर्म की परम्परा का विकास हुआ है । फिर भी यज्ञ से सम्बन्धित १. मोक्खेण जोयणाओ जोगो । - - योगविशिका, १ २. मोक्षोपायो योगो ज्ञानश्रद्धानचरणात्मकः । C -अभिधान चिन्तामणि, ३. मोक्षेण योजना देव योगोात्र निरुच्यते । लक्षणं तेन तन्मुख्य हेतु व्यापार तास्य तु । - ४. सघा नो योग आ भुवत् । - ऋग्वेद १।५।३ स धीनां योगमिन्वति । - वही, १1१८1७, · कदा योगो वाजिनो रासभस्य । - वही, १३४/९ वाजयन्निव नू रथान् योगां अग्नेरुप स्तुहि । - वही, २रा८1१ योगक्षेमं व आदायाऽहं भूयासमुत्तम मा वो भूर्धानमक्रमीम् । 5. Philosophical Essays, p. 179 -योगलक्षण (द्वात्रिंशिका, १ १७७ - वही, १०।१६६/५ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में योग वैदिक मन्त्रों और ब्राह्मण-ग्रन्थों में तप की शक्ति एवं महिमा के सूचक 'तपस्' शब्द का निर्देश प्राप्त होता है । अतः यह भी सम्भव है कि 'तप' शब्द योग का ही पर्यायवाची रहा हो। यों उपनिषदों में 'योग' शब्द आध्यात्मिक अर्थ में मिलता है। इसका उपयोग 'ध्यान' तथा 'समाधि' के अर्थ में भी हुआ है। उपनिषदों में योग एवं योग-साधना का विस्तृत वर्णन है, जिसमें जगत्, जीव और परमात्मासम्बन्धी बिखरे हुए विचारों में योग-विषयक चर्चाएँ अनुस्यूत हैं।' मैत्रेयी एवं श्वेताश्वतर आदि उपनिषदों में तो स्पष्ट और विकसित रूप में योग की भूमिका प्रस्तुत हुई है। यहां तक कि योग, योगोचित स्थान, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, कुण्डलिनी, विविध मन्त्र, जप आदि का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। १. त्वं तपः परितप्याजयः स्वः ।-ऋग्वेद, १०।१६७४१ ___२. (क) एत द्वै परमं तपो । अद्वयाहितः तप्यते परमं ह्य व लोकं जयति । -शतपथब्राह्मण, १४।८।११ (ख) अथर्ववेद, ४।३५।१-२ ३. (क) अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरौ हर्षशोको जहाति । -कठोपनिषद, १।२।१२ तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम् । अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययो॥-वही, २।३।११ (ख) तैत्तिरीयोपनिषद्, २।४ ४. जिनमें केवल योग का ही वर्णन हुआ है, ऐसे उपनिषदों की संख्या (१) योगराजोपनिषद्, (२) अद्वयतारकोपनिषद्, (३) अमृतनादोपनिषद्, (४) अमृतबिन्दूपनिषद्, (५) मुक्तिकोपनिषद्, (६) तेजोबिन्दूपनिषद्, (७) त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्, (८) दर्शनोपनिषद्, (९) ध्यानबिन्दूपनिषद्, (१०) नादबिन्दूपनिषद्, (११) पाशुपतब्राह्मणोपनिषद्, (१२) मण्डलब्राह्मणोपनिषद्, (१३) महावाक्योपनिषद्, (१४) योगकुण्डल्योपनिषद्, (१५) योगचूडामण्युपनिषद्, (१६) योगतत्त्वोपनिषद्, (१७) योगशिखोपनिषद्, (१८) वाराहोपनिषद्, (१९) शाण्डिल्योपनिषद्, (२०) ब्रह्म. विद्योपनिषद्, (२१) हंसोपनिषद् । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन महाभारत' एवं श्रीमद्भगवद्गीता में योग के विभिन्न अंगों का विवेचन एवं विश्लेषण उपलब्ध है। यहाँ तक कि गीता के अठारह अध्यायों में अठारह प्रकार के योगों का वर्णन है, जिनमें अनेकविध साधनाएँ कही गयी हैं । भागवत एवं स्कन्दपुराण में कई स्थलों पर योग की चर्चा है । भागवतपुराण में तो स्पष्ट रूप से अष्टांगयोग की व्याख्या, महिमा तथा अनेक लब्धियों का विवेचन है । योगवासिष्ठ के छह प्रकरणों में योग के विभिन्न सन्दर्भो की विस्तृत व्याख्या है, जिनमें योग-निरूपण के साथ-साथ आख्यानकों की सृष्टि हुई है । इन आख्यानकों के माध्यम से योगसम्बन्धी विचारों को पुष्टि मिली है। न्यायदर्शन में भी योग को यथोचित स्थान मिला है। कणाद् ने वैशेषिकदर्शन में १. देखिये, महाभारत के शान्तिपर्व, अनुशासनपर्व एवं भीष्मपर्व । २. गीतोक्त अठारह प्रकार के योग इस प्रकार हैं (१) समत्वयोग, २०४८, ६।२९, ३३; (२) ज्ञानयोग, ३।३; १३।२४; १६।१; (३) कर्मयोग, ३६३, ५।२, १३।२४; (४) दैवयोग, ४।२५, (५) आत्मसंयमयोग, ४।२७; (६) यज्ञयोग, ४।२८; (७) ब्रह्मयोग, ५।२१, (८) संन्यासयोग, ६२, ९।२८; (९) ध्यानयोग, १२१५२, (१०) दुःखसंयोगवियोग-योग, ६।२३; (११) अभ्यास-योग, ८८, १२।९; (१२) ऐश्वरीयोग, ९।५, ११।४,९; (१३) नित्याभियोग, ९।२२; (१४) शरणागति-योग, ९।३२-३४, १८।६४-६६; (१५) सातत्ययोग, १०।९, १२।१; (१६) बुद्धियोग, १०।१०, १८६५७; (१७) आत्मयोग, १०।१८, ११।४७; (१८) भक्तियोग, १४।२६ ३. भागवतपुराण, ३।२८; ११।१५; १९-२० ४. स्कन्दपुराण, भाग १, अध्याय ५५ ५. देखिये, योगवासिष्ठ के वैराग्य, मुमुक्षु व्यवहार, उत्पत्ति, स्थिति, उपशम और निर्वाण प्रकरण । ६. समाधि विशेषाभ्यासात् ।-न्यायदर्शन, ४।२।३६ अरण्यगुहापुलिनादिषु योगाभ्यासोपदेशः । -वही, ४।२।४० तदर्थ यमनियमाम्यात्म संस्कारो योगाच्चात्मविध्युपायैः । -वही, ४।२।४६ ७. अभिषेचनोपवास ब्रह्मचर्यगुरुकुलवास वानप्रस्थयज्ञदान मोक्षणदिङ् नक्षत्र मन्त्रकाल नियमाश्चादृष्टाय.।-वैशेषिकदर्शन, ६।२।२ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में योग यम, नियमादि योगों का सम्यक् उल्लेख किया है। पतंजलि का योगदर्शन तो योगराज ही है, जिसमें सम्यक्रूप से योग-साधना का सांगोपांग विवेचन हुआ है । ब्रह्मसूत्र' के तीसरे अध्याय का नाम साधनपाद है, जिसमें आसन, ध्यान आदि योगांगों की चर्चा है । तन्त्रयोग के अन्तर्गत हठयोग - सिद्धान्त की स्थापना करते हुए आदिनाथ ने योग की क्रियाओं द्वारा शरीर के अंग-प्रत्यंगों पर प्रभुत्व प्राप्त करने तथा मन की स्थिरता प्राप्त करने का रहस्य बताया है । बौद्ध परम्परा निवृत्ति- प्रधान है, इसलिए इस परम्परा में भी आचार, नीति, खान-पान, शील, प्रज्ञा, ध्यान आदि के रूप में योगसाधना का गहरा विवेचन हुआ है । बौद्ध योग साधना का विशुद्धिमार्ग, समाधिराज, दीघनिकाय, शेकोद्देशटीका आदि ग्रन्थों में विस्तृत वर्णन है । यह प्रसिद्ध है कि भगवान् बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्त होने के पहले छह वर्षों तक ध्यान द्वारा योगाभ्यास किया था । योग की विस्तृत और अविच्छिन्न परम्परा में जैनों का भी अपना विशिष्ट स्थान रहा है । बौद्धों की भाँति निवृत्तिपरक विचारधारा के पोषक जैन साहित्य में भी योग की बहुत चर्चा हुई है और उसका महत्त्व स्वीकार किया गया है । सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन आदि आगमों में उल्लिखित 'अज्झप्पजोग' 'समाधिजोग'' आदि पदों में, जिनका अर्थ ध्यान या समाधि है, योग की ही ध्वनि सन्निहित है । वास्तव में देखा जाय तो योग के क्रमबद्ध विवेचन का सूत्रपात आचार्य हरिभद्र ने किया १. ब्रह्मसूत्र, ४।१।७-११ २. हठयोग से संबंधित हठयोग प्रदीपिका, शिवसंहिता, घेरण्डसंहिता, योगतारावलि, विन्दुयोग, योगबीज, गोरक्षशतक, योगकल्पद्रुम, अमनस्कयोग आदि ग्रन्थ द्रष्टव्य हैं । ३. एत्थ वि भिक्खू अणुन्नए विणीए नामए दन्ते दविए वोसट्टकाए संविधुणीय विरूविरूवे परिसहोवसग्गे उवट्ठि ठिअप्पा संखाए परदतमोई भिक्खुत्ति बच्चे । -- सूत्रकृतांग, १ १६ ३ ४. इह जीवियं अणियमेता पब्भट्ठा समाहिजोएहि । ते कामभोगरसगिद्धा उववज्जन्ति आसुरे काए । - उत्तराध्ययनसूत्र, ८1१४ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन है। उन्होंने योग की सांगोपांग व्याख्या योगशतक, योगविन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगविशिका, आदि ग्रन्थों में की है। इस सन्दर्भ में शुभचन्द्र का ज्ञानार्णव, हेमचन्द्र का योगशास्त्र तथा यशोविजय के योगावतारबत्तीसी, (जैनमतानुसार ) पातंजल योगसूत्र, योगविशिका को टीका तथा योगदृष्टिनी सज्झायमाला, अध्यात्मोपनिषद् आदि ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय हैं, जिनमें योगविषयक विस्तृत विवेचन हुआ है। - इस प्रकार योग की परम्परा भारतीय संस्कृति में अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित है और चिरकाल से भारतीय मनीषियों, सन्तों, विचारकों तथा महापुरुषों ने अपने जीवन एवं विचारों में योग को यथोचित स्थान दिया है। वेदकालीन योग-परम्परा __ वेद-मन्त्र रहस्यमय विचारों से भरे हुए हैं। उन मन्त्रों पर गहराई से विचार करने पर पता चलता है कि उनमें योगपरक सामग्री बहत है। ऋग्वेद का प्रत्येक शब्द प्रतीकात्मक है। प्रायः अग्नि, इन्द्र, सोम, आदि का वर्णन प्राप्त होता है, परन्तु इस वर्णन के पीछे आध्यात्मिक अनुभव का मूल है जो उस सन्दर्भ में लक्षित अर्थ को लगाने पर ही समझ में आता है। इस तरह देखा जाय तो वैदिक काल से ही योग-परम्परा प्रारम्भ हो जाती है जो योगमाया नाम से व्यवहृत है। इतना ही नहीं, मोहनजोदड़ो में प्राप्त एक मुद्रा पर अंकिंत चित्र में त्रिशूल, मुकुटविन्यास, नग्नता, कायोत्सर्गमुद्रा, नासाग्रदृष्टि, योगचर्या, बैल का चिह्न आदि हैं, जिससे सिद्ध होता है कि मूर्ति किसी योगी के अतिरिक्त और किसी की नहीं है ।२ मोहनजोदड़ो की सभ्यता का काल अनुमानतः ई० पू० ३२५०-२७५० है, जो करीब-करीब वैदिककाल ही है। इस आधार पर भी कहा जा सकता है कि योग का स्थान भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही रहा है। ___ इस प्रकार वेदों में योग-प्रणाली का अस्तित्व किसी-न-किसी प्रकार १. अथ सैषा योगमायामहिमा परम्परास्माकं वेदेम्य आरभ्य । -वैदिकयोगसूत्र, पृ० २२ 2. Mohen-Jodaro and the Indus Civilization, Vol. I, p. 53 3. History of Ancient India, p. 25 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में योग अवश्य रहा है। कहा गया है कि विद्वानों का भी कोई यज्ञ-कर्म बिना योग के सिद्ध नहीं होता।' इस कथन से योग की महत्ता सिद्ध है। योगाभ्यास तथा योग द्वारा प्राप्त विवेक-ख्याति के लिए प्रार्थना की गयी है कि ईश्वर की कृपा से हमें योगसिद्धि होकर विवेकख्याति तथा ऋतम्भरा प्रज्ञा प्राप्त हो और वही ईश्वर अणिमा आदि सिद्धियों सहित हमारी तरफ आवें। प्रार्थना के ही क्रम में कहा गया है कि हम (साधक लोग) हर योग में, हर मुसीबत में परम ऐश्वर्यवान् इन्द्र का आवाहन करें। दीर्घतमा ऋषि के कथन से भी योग को सार्थकता एवं महनीयता लक्षित होती है। उनका यह कथन है कि “मैंने प्राण का साक्षात्कार किया है, जो सभी इन्द्रियों का त्राता है और कभी नष्ट नहीं होनेवाला है, वह भिन्न-भिन्न नाड़ियों के द्वारा अन्दर-बाहर आता-जाता है, तथा यह अध्यात्मरूप में वायु, आधिदैवरूप में सूर्य है।" इनके अतिरिक्त अभयज्योति" तथा परमव्योमन् ' को प्राप्ति के सन्दर्भ में भी प्रकारान्तर से योग का ही वर्णन हुआ है। प्राणविद्या के अन्तर्गत योग की साधना का उल्लेख भी वेदकालीन योग के प्रचलन की पुष्टि करता है। योग शब्द कई बार प्रयुक्त होकर 'जोड़ना' या 'मिलाना' अर्थ को व्यंजित करता है, जो योग की उपस्थिति का ही प्रमाण है।' ऋग्वेद में लिखा है कि 'सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ ही उत्पन्न हुए जो सम्पूर्ण विश्व के एकमात्र १. यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन । स धीनां योगमिन्वति । । -ऋग्वेद, १८७ २. सामवेद, ३०१।२१०१३; अथर्ववेद, २०१६९।१, ऋग्वेद, १।५।३ ३, योमे योगे तवस्तरं वाजे वाजे हवामहे । सखाय इन्द्रमूतये । -ऋग्वेद, ११३०१७ ४. अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्चरन्तम् । स सध्रीचीः स विषूचीर्वसान आवरीवति भुवनेष्वन्तः ॥ -वही, १११६४।३१, १०११७७३ ५. अदिते मित्र वरुणोत मृळ यद् वो वयं चकमा कच्चिदागः । उर्वश्यामभयं ज्योतिरिन्द्र मा नौ दीर्घा अभि नशन्तमिस्राः ॥ —वही, २।२७।१४ ६. वही, १।१४३।२ ७. ऐतरेयोपनिषद्, २।२।११ ८ कदा योगो वाजिनो रासभस्य । -ऋग्वेद, ११३४।९ - Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन पति हैं, जिन्होंने अंतरिक्ष, स्वर्ग और पृथ्वी सबको धारण किया। उन प्रजापति देव का हम हव्यद्वारा पूजन करते हैं।' इस कथन से ज्ञात होता है कि सृष्टि-क्रम में सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ उत्पन्न हुए और यह प्राचीनतम पुरुष योगशास्त्र के प्रथम वक्ता हैं, अतः यह योगशास्त्र भी प्राचीनतम है। इस तरह वेदों में योग का निरूपण भले ही पारिभाषिक शब्दों में क्रम से न हुआ हो, परन्तु उसमें मन्त्रवाक्यों, प्राकृतिक वस्तुओं तथा अन्य प्रतीकों के आधार पर योग का जो वर्णन हुआ है, वह स्पष्ट ही योगाभ्यास का दर्शक है। उपनिषदों में योग औपनिषदिक काल योगसाधना की अच्छी भूमि रही है, क्योंकि वेदों में अंकुरित योग के बीज का विकास एवं पल्लवन इस काल में पर्याप्त हआ है। वेद-काल में अध्यात्मवाद उन्मख हआ, उसका सर्वांगीण संवर्धन उपनिषद्-काल में ही हुआ है। इक्कीस उपनिषदों में योग की पर्याप्त चर्चा उपलब्ध है। श्वेताश्वतर में योग का स्पष्ट एवं विस्तृत विवेचन है। इसके दूसरे अध्याय में, विशिष्टता के साथ, योग की साधना, उसका परिणाम आदि के बारे में स्पष्टतया वर्णन है, जो योगदर्शन के रूप में एक नया ही सन्दर्भ प्रस्तुतः करता है। इसमें षडंगयोग का वर्णन करते हुए निर्देशित किया गया है कि शरीर को तिरुन्नत अर्थात् छाती, गर्दन और सिर को उन्नत करके हृदय में, मन में, इन्द्रियों को रोककर ब्रह्मरूप नौका से विद्वान् लोग इस भयानक प्रवाह को पार करें, तथा प्राणों को रोककर मुक्त हों और उनके क्षीण होने पर नासिका से श्वास लें। इस प्रकार इन दुष्ट घोड़ों की मनरूपी लगाम को १. हिरण्यगर्भः समवर्तताग्ने भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । स दाधार पृथिवीं चामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ -ऋग्वेद, १०।१२११ 2. The Constructive Survey of the Upanishadic Philosophy,, p. 338 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में योग विद्वान् लोग अप्रमत्त होकर धारण करें।' इस प्रकार की साधना करने के बाद ही ध्यानरूप मन्थन से अत्यन्त गूढ़ आत्मा का दर्शन करने का उपदेश दिया है। इस योग के संदर्भ में पंचकोशों के साथ जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं का भी विशद विवेचन किया गया है। इनमें अन्नमयकोश स्थूल शरीर की अवस्था है तथा जाग्रत अवस्था के अनुरूप है। प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय कोश सूक्ष्मशरीर तथा स्वप्नावस्था को निर्देशित करते हैं । आनन्दमयकोश कारण-शरीर है और सुषुप्ति अवस्था का संकेत करते हैं । सुषुप्ति अवस्था में जीव-ब्रह्म का अस्थायी संयोग होता है और जाग्रत अवस्था आते ही पुनः जीव अपनी वासनाओं के अनुसार कार्यों ने लग जाता है । यहाँ ब्रह्म को ही आत्मा की सत्ता माना गया है, जो चेतन सत्ता है। उपनिषदों में प्रयुक्त 'योग' शब्द आध्यात्मिक अर्थ को संवलित करता है, क्योंकि योग, ध्यान, तप आदि शब्द समाधि के अर्थ में ही प्रयुक्त हुए हैं। आध्यात्मिक अर्थ में प्रयुक्त करने के कारण योग को मोक्ष-प्राप्ति का हेतू माना गया है, क्योंकि बताया गया है कि योग से ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है तथा ब्रह्मज्ञानी परमात्मा को जानता है १. त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं । हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिरुध्य । ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान्, स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि ॥ प्राणान् प्रपीड्येह संयुक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयोच्छ्वासीत् । दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं विद्वान् मनो धारयेताप्रमत्तः ॥ -श्वेताश्वतर उपनिषद्, २।८-९ २. ध्याननिर्मथनाभ्यासाद् देवं पश्येन्निगूढवत् । -वही, १।१४ ३. तैत्तिरीयोपनिषद्, २५१-६ ४. तैत्तिरीयोपनिषद्, २१४; छान्दोग्योपनिषद्, ७।६।१, श्वेताश्वतर उपनिषद्, २।११।६ . ५. तं दुर्दशं गूढ मनुप्रविष्ट, गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम् । अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं, मत्वा धीरो हर्षशोको जहाति ।। -कठोपनिषद्, १।२।१२ ६. (क) एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति ।- वही, २०६ (ख) ब्रह्मविदाप्नोति परम् । -तैत्तिरीयोपनिषद् २।१।१ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन और जो परमात्मा को जानता है वह इस संसार से मुक्त हो जाता है। 'षडंगयोग के प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, तर्क और समाधि के वर्णन में कहा गया है कि विषयासक्त मन बन्धन में फंसाता है तथा निर्विषय मन मुक्ति दिलाता है। इसलिए विषयासक्ति से मुक्त और हृदय में निरुद्ध मन जब अपने ही अभाव को प्राप्त होता है तब वह परमपद पाता है। इस परमगति को प्राप्ति के लिए आचार-विचार अपेक्षित है; जैसे श्रद्धा, तप, ब्रह्मचर्य, सत्य, दान, दया आदि; और इनकी महती आवश्यकता का उल्लेख विभिन्न उपनिषदों में हुआ है। लेकिन आचारनीति का पालन करने मात्र से ही मोक्ष-प्राप्ति असम्भव है; उसके लिए ज्ञान तथा योग का समन्वय अपना प्रमुख स्थान रखता है। मोक्ष-प्राप्ति के लिए तप एवं समाधि की अनिवार्यता बतायी गयी है, जो योग के ही अंग हैं । योग अथवा समाधि अवस्था में वाणी एवं मन निवृत्त हो जाते हैं, साधक निर्भीक बनता है और ब्रह्मानन्द का आस्वादन करता है।" ब्रह्मानन्द की प्राप्ति के बाद वह जन्म-मरण के बन्धन से सर्वथा मुक्त हो जाता है। १. तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय । -श्वेताश्वतर उपनिषद्, ३३८ २. प्रत्याहारस्तथा ध्यानं प्राणायामोऽथ धारणा। तर्कश्चैव समाधिश्च षडंगो योग उच्यते ।।-अमृतनादोपनिषद्, ६ ३. निरस्तविषयासंगा सन्निरुद्धं मनोहृदि । यदा यात्युन्मनीऽभाव तदा तत्परम् पदम् ॥-ब्रह्मबिन्दूपनिषद्, ४ अथोत्तरेण तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया विद्ययात्मानमन्विष्यादित्यमभिजयन्ते। -प्रश्नोपनिषद्, १।१० सत्यमेव जयते नानुतम् । -मुण्डकोपनिषद्, ३३१६ तदेतत् त्रयं शिक्षेमं दानं दयामिति ।-बृहदारण्यकोपनिषद्, ५।२।३, यज्ञेन दानेन तपसा लोकाञ्जयन्ति ते धूममभिसंभवन्ति ।-वही, ६।२।१६ ५. यतो बाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न विभेति कुतश्चनेति ॥-तैत्तिरीयोपनिषद्, ३१९ ६. तेषु ब्रह्मलोकेषु पराः .. परावतः .. वसन्ति तेषां ""न पुनरावृत्तिः । -बृहदारण्यकोपनिषद्, ६।२।१५ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ भारतीय परम्परा में योग __ योग के दो प्रकारों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि विहित कर्मो में, इस बुद्धि का होना कि यह कर्तव्य कर्म है, मन का ऐसा नित्य बन्धन ही कर्मयोग है तथा चित्त का सतत श्रेयार्थ में रहना ज्ञानयोग है। इस तरह योग के दो भेद किये हैं। योग के चार भेद भी उल्लिखित हैं-मंत्रयोग, लययोग, राजयोग और हठयोग ।। इन चारों को महायोग कहा है, जिनमें आसन, प्राणायाम, ध्यान तथा समाधि का विधान है। इस प्रकार उपनिषदों में योगविषयक बिखरी हुई सामग्री के प्रकाश में यह तो कहा ही जा सकता है कि औपनिषदिक योग आध्यात्मिक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है तथा आत्मा को पहचानने के लिए यह एक साधनभूत अर्थ में प्रसिद्ध रहा है। महाभारत में योग महाभारत भारतीय संस्कृति का अनमोल ग्रन्थ-रत्न है, जिसमें आचार-मीमांसा, नीति, कर्म आदि के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के दैनिक कर्तव्यों का निर्देश है। इसी क्रम में कई स्थलों पर योग का निरूपण किया गया है। बताया गया है कि सर्वप्रथम इन्द्रियों को जीतना चाहिए, क्योंकि वे ही चंचल, अस्थिर तथा अनेक प्रकार के कषायों की जड़ हैं। इसमें अन्य धर्मों की तरह साधक योगी को अहिंसा १. कर्म कर्तव्यमित्येव विहितेष्वेव कर्मसु । वन्धनं मनसो नित्यम् कर्मयोगः स उच्यते । यत चित्तस्य सततमर्थं श्रेयसि बन्धनम् । ज्ञानयोगः स विज्ञेयः सर्वसिद्धिकरः शिवः । यस्योक्तलक्षणे योगे द्विविधेऽप्यव्ययं मनः । -त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्, २५-२७ २. योगो हि बहुधा ब्रह्मन्भिद्यते व्यवहारतः। __ मंत्रयोगो लयश्चैव हठोऽसौ राजयोगतः ॥-योगतत्त्वोपनिषद्, १९ ३. आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो। वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्व विदितम् । ___ -बृहदारण्यकोपनिषद्, २।४।५ ४. महाभारत, अनुशासनपर्व, ९६ । २८-३० Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन का पालन करने को कहा गया है। क्योंकि उसके बगैर समता एवं शान्ति नहीं आ सकती। इसी सन्दर्भ में बताया गया है कि मुनि क्षमाभाव, इंद्रियनिग्रह आदि का सम्यक् पालन करें, जो तप के पर्याय हैं। इस ग्रन्थ में योग की क्रियाओं तथा अभ्यास के कथन भी पद-पद पर विभिन्न शैलियों में प्राप्त होते हैं । इस ग्रन्थ के अनुशासन, शान्ति एवं भीष्म पर्वो में योग की विस्तृत चर्चा है। यहाँ भी पातंजल-योग की तरह योग के दो प्रकार वर्णित हैं-सबीज तथा निर्बीज । योग की चर्चा करते हुए मन को सुदृढ़ बनाने, अपनी इन्द्रियों की ओर से उसे समेटने और मनःपूर्वक योगाभ्यास करने का आदेश दिया गया है तथा कभी स्थिर नहीं रहनेवाली अति चंचल इन्द्रियों को वश में करने का उपदेश है। लेकिन ऐसा कर पाना बहुत कठिन है। यही कारण है कि योगी को सम्बोधित करते हए कहा गया है कि वह मन को धीरे-धीरे अभ्यास द्वारा विषयों से विमुख करके चित्त को ध्यान में लगावे ६ तथा संयम और योगाभ्यास करते-करते उसकी चित्तवृत्तियाँ शान्त होंगी तथा वह अपने में सन्तुष्ट होने लगेगा । ऐसा करने से जब उसका मन एकाग्न हो जाय तो उसे चाहिए कि वह रागादि विषयों को छोड़कर ध्यान-योगाभ्यास में सहायक देश, कर्म, अर्थ, उपाय, अपाय, आहार, संहार, मन, दर्शन, अनुराग, निश्चय और चक्षुष इन बारह योगों का आश्रय ले। इस तरह वह सभी दोषों को ध्यान से नष्ट कर पर१. अहिंसा परमो धर्मस्तथा हिंसा परो दमः । ___ अहिंसा परम दानमहिंसा परमं तपः ॥ -महाभारत, अनुशासनपर्व, ११६।२८ २. व्रतोपवासयोगश्च क्षमायेन्द्रियनिग्रहः । दिवारानं यथायोगं शौच धर्मस्य चिन्तनम् ।।--वही, १४२।६ ३. स च योगो द्विधा भिन्नी ब्रह्मदेवर्षिसम्मतः।। समानमुभयत्रापि वृत्तं शास्त्रप्रचोदितम् ।।-वही, १४५ । ११९० ४. वही, १४५ । १२.० ५. शान्तिपर्व, १९५।११ ६. एवमेन्द्रिय ग्रामं शनैः सम्परिभावयेत् । संहरेत क्रमश्चैव स सम्यक् प्रशभिष्यति ।-वही, १९५।१९ ७. छिन्न दोषो मुनिर्योगान युक्तोयुजीत द्वादश । देशकर्मानुरागार्थनुपायापाय निश्चयो । चक्षुराहारसंहारैमनसा दर्शनेन च ।-वही, २२६।५४ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में योग १५ मात्मा के स्वरूप में स्थित होने के योग्य बनता है, जहाँ से वह वापस नहीं लौटता ।" इस प्रकार ब्रह्मोपलब्धि के लिए योगमार्ग का निर्देश है जिसमें योग का अर्थ 'जीव और ब्रह्म का संयोग' करते हुए कहा है कि जीव और ब्रह्म में अभेद का ज्ञान प्राप्त करने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है । साथ ही मोक्ष प्राप्ति के लिए कर्मयोग, भक्तियोग तथा ज्ञानयोग तीनों की उपयुक्तता सिद्ध की गयी है । गीता में योग योग की व्यवस्थित एवं सांगोपांग भूमिका प्रस्तुत करने में श्रीमद्भगवद्गीता का विशिष्ट स्थान है । गीता का प्रत्येक अध्याय 'ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ...........योगो नाम "अध्यायः ' इन शब्दों से समाप्त होता है, जो योग की अनिवार्यता का ही द्योतक है। गीता में विभिन्न योग - पद्धतियों का समन्वय दिखाई पड़ता है, जिनका उद्द ेश्य प्रमुखतः एक ही है । इसमें कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, समत्वयोग, ध्यानयोग आदि के उल्लेख हैं । इनके मुख्य तीन उद्देश्य हैं -- ( १ ) जीवात्मा का साक्षात्कार, ( २ ) विश्वात्मा का साक्षात्कार, तथा ( ३ ) ईश्वर - साक्षात्कार 1 योग-विषयक अनेक विचारों का संग्रह या समन्वय होने के कारण ही जिज्ञासु पाठक तथा विद्वान् अपनी-अपनी दृष्टि और रुचि के अनुसार गीता की व्याख्या करते हैं । विभिन्न योगों की चर्चा के साथ-साथ गीता में योग के कुछ सामान्य लक्षणों का भी निर्देश है, जिन्हें योग के तटस्थ या व्यावहारिक लक्षण कहा जा सकता है । व्यावहारिक योग के लक्षण विभिन्न अध्यायों में विभिन्न प्रकार के हैं; जैसे, कर्मफल की इच्छा का न होना, 3 विषयों १. नावर्तन्ते पुनः पार्थमुक्ता संसारदोषतः जन्मदोष परिक्षीणाः स्वभावेपर्यंवस्थिताः । - वही, १९५३ २. कल्याण, साधनांक, वर्ष १५, अं० १, पृ० ५७५ ३. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥ - गीता, २।४७ तथा ४।२०; ५।१२ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन के प्रति अनासक्ति, समत्वयोग,' निष्कामता,३ सुख-दुःख एवं लाभ में समता' आदि। उक्त सभी अभावात्मक लक्षणों के अतिरिक्त भावात्मक विधान भी हैं; जैसे, सभी कार्य भगवान् को अर्पण करना, सब अवस्थाओं में संतुष्टि मन को भगवान् में एकाग्र रखना आदि। ___ गीता के अनुसार विशेष प्रकार की कर्म करने की कुशलता, युक्ति अथवा चतुराई योग है।' कर्मों के प्रति असंगता की प्राप्ति के लिए अहंकार का नाश आवश्यक हैं, क्योंकि उसकी उपस्थिति से मनुष्य में असंग-भाव, समता, क्षमा, दया आदि योग के लक्षणों का अभाव होता है। क्रोध, काम आदि दुर्वृत्तियां अहंकार से ही उत्पन्न होती हैं और इनके विषय पाँच कर्मेन्द्रियां, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच विषय, पाँच भूत, मन और बुद्धि हैं। इन विषयों की शुद्धि के लिए इन्द्रिय-संयम अत्यावश्यक है, जिससे योग को लब्धि होती है। इस प्रकार योग दुःख से विमुक्त ऐसी अवस्था का नाम है, जिसमें ऊपर से छाये हुए स्थान में रखे दीपक की लौ की भाँति मन प्रकम्पित नहीं होता । जब आत्मा के द्वारा आत्मा का साक्षात्कार होता है, उस समय मनुष्य को पूर्ण सन्तोष मिलता है और परम आनन्द की अनुभूति में वह लीन हो जाता है। उस अवस्था में पहुँचने पर वह विचलित नहीं होता। यही योग मुक्ति की पहचान १. योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजयः । सिद्ध्यसिद्धयोः समोभूत्वा समत्वं योग उच्यते । -वही, २।४८ तथा ३३१९ २. यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।-वही, ४।१९ ३. सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालामी जयाजयो। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ -वही, २०३८ ४. ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः । अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥ -वही, १२१६ ५. मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।। कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।। -वही, १०९ ६. योगः कर्मसु कौशलम् । -वही, २१५० ७. यत्रोपरमते चित्तं निरुद्ध योगसेवया। यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति । -वही, ६।२० Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में योग १७ है । क्योंकि मुक्ति की अवस्था में साधक का मन शुद्ध होता है और उसका अन्तःकरण स्थिर रहता है । उसका कोई भी कर्म फल, भोग, अथवा लाभ की आशा से नहीं होता । वह सिद्धि-असिद्धि दोनों में समबुद्धि रहता है । यह समत्वभाव ही योग है । " गीता के छठे अध्याय के १० से २६ तक के श्लोकों में मन की एकाग्रता के साधनरूप राजयोग का निरूपण है, जिसमें समत्वयोग में आरूढ़ साधक को एकान्त में रहकर चित्त और इन्द्रियों को वश में करने तथा एकाग्रतापूर्वक ध्यान करने का आदेश है । वहाँ यह भी निर्देशित है कि वह सुविधाजनक आसन के अनुसार आसीन होकर काया, सिर, गर्दन को समरेखा में रखते हुए अचल रहे । वह अपनी दृष्टि नासाग्र रखकर निर्भय होते हुए अपनी अन्तःकरण की वृत्तियों को शान्त रखे तथा संयमित होकर ब्रह्मचर्य का पालन करे और मन को संयमित करके अपने आपको मुक्त करता हुआ ध्यानयोग में लीन हो जाय । ऐसे परम निर्वाण शान्त स्वरूप को प्राप्त योगी ही योगी है । अतः योगाभ्यास करने के लिए शारीरिक समस्त चेष्टाओं को शान्त करना आवश्यक माना गया है, क्योंकि शारीरिक क्रियाओं में समता रहने पर ही मन में एकाग्रता की प्रतिष्ठा होती है। इसी सन्दर्भ में आहार, शयन, रहन-सहन, जागरण आदि क्रियाओं को यथायोग्य समप्रमाणित करने का भी निर्देश है । 3 तेरहवें अध्याय के ८ से १२ तक के श्लोकों में ज्ञान के लक्षण बताते हुए अमानित्व, अदम्भित्व, अहिंसा, क्षमा, आर्जव, आचार्योपासना, शुचिता, स्थिरता, आत्मनिग्रह, आदि गुणों की चर्चा है । ये सभी नैतिक गुण आत्मा को ऊपर उठानेवाले हैं । १३वें और १४वें अध्याय में आत्मा का स्वरूप और संसार के साथ उसके संबंध का वर्णन है । १५ वें अध्याय में पुरुषोत्तम योग का प्ररूपण है जिसमें पुरुषोत्तम का साक्षात्कार ही सर्वोत्तम अनुभूति है तथा यह प्राप्त करने के लिए साधक को श्रद्धाशील बनने का विधान है; क्योंकि श्रद्धा के बिना ज्ञान एवं कर्म व्यर्थ है । श्रद्धा के स्वरूप एवं उसके विविध भेदों का वर्णन १७ वें अध्याय में है । इस प्रकार गीता में प्रत्येक योग का वास्तविक अथवा स्वरूप भूत लक्षण वर्णित है और हर हालत में आत्मसंयम, कामनात्याग, प्राणि १. गीता, २।४८ २. गीता का व्यवहारदर्शन, पृ० २१८ २ ३. वही, पृ० २२२ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन मात्र से प्रेम, अहंकारशून्यता, निर्भयता, शीतोष्णता, सुख-दुःख एवं निंदास्तुति में समताभाव आदि गुणों की अपेक्षा रखी गयी है। फिर भी कर्मयोग, राजयोग, भक्तियोग एवं ज्ञानयोग क्रमशः कर्म, ध्यान, भक्ति एवं ज्ञान पर विशेष जोर देते हैं। यहाँ प्रत्येक योग का अपना एक निश्चित भावात्मक लक्षण है, जो उसके लक्ष्य का निर्देशक भी है। जैसे कर्मयोग का निश्चित लक्ष्य लोकसंग्रह अर्थात् सब लोगों का कल्याण है। ज्ञानयोग का लक्ष्य 'वासुदेवः सर्वमिति' ज्ञान है । सांख्ययोग का लक्ष्य ब्राह्मी स्थिति है, राजयोग एवं ध्यानयोग का लक्ष्य ब्रह्मसंस्पर्शरूप अक्षय सुख की प्राप्ति है। इसी प्रकार विश्वरूपदर्शन-योग का लक्ष्य भगवान् के विश्वरूप का दर्शन है और भक्तियोग का लक्ष्य भगवान् का अतिशय प्रिय होना है। संक्षेप में गीता एक कल्पना-पद्धति है और जीवन का विधान भी है । यह बुद्धि के द्वारा सत्य का अनुसंधान है और सत्य को मनुष्य की आत्मा के अन्दर क्रियात्मक शक्ति देने का प्रयत्न भी है। इसलिए प्रत्येक अध्याय के उपसंहारपरक वाक्य से यह स्पष्ट हो जाता है, जो एक अनिश्चित काल से प्राप्त होता जा रहा है, वह यह कि यह एक योगशास्त्र है अथवा ब्रह्मसंबंधी दर्शनशास्त्र का धार्मिक अनुशासन है। स्मृति ग्रन्थों में योग सम्पूर्ण स्मृतिशास्त्रों को आचार-विचार की नीतियों का अमूल्य खजाना कह सकते हैं, जिनमें वैदिक परम्परा-विहित चारों आश्रमों५ की विभिन्न नीतियों की विस्तृत भूमिका प्रस्तुत की गयी है। याज्ञ१. एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति । स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाण मृच्छति ॥-गीता, २०७२ २. युंजन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः । मुखेन ब्रह्म संस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ।। -वही, ६।२८ ३. ये तु धामृतमिदं यथोक्त पर्युपासते । __श्रद्धधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव में प्रियाः ॥-वही, १२।२० ४. भारतीय दर्शन, राधाकृष्णन्, भाग १, पृ० ४९१ ५. चत्वारः आश्रमाः ब्रह्मचारी गृहस्थ वानप्रस्थ परिव्राजकाः । - वसिष्ठस्मृति, २०६ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में योग १९ वल्क्यस्मृति, मनुस्मृति, पाराशरस्मृति आदि स्मृतियों में साधकों के अनेक कर्तव्यों तथा गृहस्थों के सत्कर्मों की चर्चा है ।' विहित वर्णो तथा आश्रमों के सम्यक् धर्म का पालन करने से ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है । क्योंकि ऐसी अवस्था में साधक अपनी इन्द्रियों पर संयम रखता है, जिससे कि उसकी सारी क्रियाओं का संपादन सम्यक् रूप से होता है । यही कारण है कि गृहस्थाश्रम में भी धर्म- पालन करने से मोक्षप्राप्ति का विधान किया गया है । योग की क्रियाओं तथा अभ्यास के द्वारा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करें तथा आचार, दम, अहिंसा आदि क्रिया एवं योगाभ्यास से आत्मदर्शन की प्राप्ति करें ।" इस प्रकार प्राचीन कालीन इन स्मृतियों में भी योगाभ्यास की उन सभी क्रियाओं का विवरण मौजूद है जिनसे मोक्ष प्राप्ति होती है । भागवतपुराण आदि में योग योगशास्त्र के इतिहास की दृष्टि से भागवतपुराण का स्थान औपनिषदिक योग तथा पातंजल योग के बीच के काल में है । इसमें भक्तियोग के साथ अष्टांगयोग का भी विवेचन है । इसमें कथाओं के माध्यम से यौगिक क्रियाओं एवं साधनाओं की विस्तृत चर्चा है जिसमें योग-सम्बन्धी शब्दों के अनेक संकेत प्राप्त होते हैं, यथा १. संध्यास्नानं जपो होम स्वाध्याय देवतार्चनम् । विश्वदेवातिर्यच षट् कर्माणि दिने दिने । – पाराशरस्मृति, ३९ २. योगशास्त्र प्रवक्ष्यामि संक्षेपात् सारमुत्तमम् । यस्य च श्रवणाऽद्यान्ति मोक्षचेव मुमुक्षवः ॥ हारीतस्मृति, ८२ इंद्रियम् । ३. प्राणायामेन वचनं प्रत्याहारेण च धारणाभिशकृत्वा पूर्वं दुर्घषणं मनः ॥ - वही, ८|४ ४. अरण्यनित्यस्य जितेन्द्रियस्य सर्वेन्द्रिय प्रीति निवर्तकस्य । अध्यात्मचिन्तागत मानसच्य ध्रुवा ह्यनावृत्ति पेक्षकस्य इति ॥ इज्याचार दमाहिंसादानं स्वाध्यायकर्मणाम् । अयं तु परमो धर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम् ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, ८ - वसिष्ठस्मृति, २५४ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन मनः प्रणिधान' आसन' मांडकर भगवान् में अपना मन भक्तिपूर्वक लगाना; मन, वचन एवं दृष्टि की वृत्तियों से अपनी आत्मा को एकाग्र करके अन्तःश्वास लेना तथा शान्त होना, अन्तिम बार श्वास को भीतर खींचकर ब्रह्मरन्ध्र से प्राण त्याग करना आदि। ___इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि समाधि द्वारा ही कपिल की माता ने अपनी देह त्यागी थी। नारद ने ध्रुव को आसन लगाकर, प्राणायाम के द्वारा प्राण, इन्द्रिय तथा मन के मल को दूर करके ध्यानस्थ हो जाने का उपदेश दिया था । श्रीकृष्ण की अलौकिक घटनाओं के प्रदर्शन भी योग-साधना की ही देन माने जाते हैं। भागवत के तीन स्कन्धों में योग का विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है। दूसरे स्कन्ध के प्रथम तथा द्वितीय अध्यायों, तीसरे स्कन्ध के २५वें तथा २८में अध्यायों एवं ११वें स्कन्ध के १३वें तथा १४वें अध्यायों में ध्यानयोग का सविस्तार वर्णन हुआ है। १५वें अध्याय में अणिमा, महिमा आदि अठारह सिद्धियों का उल्लेख है। १९ तथा २८-२९ अध्यायों में क्रमशः यम, नियमादि तथा अष्टांगयोग का वर्णन है। पतञ्जलि ने जहाँ आठ योगों में यम-नियम के पाँच-पाँच भेदों का विधान किया है वहाँ इसमें प्रत्येक के बारह भेद वर्णित हैं। यम के बारह भेद इस प्रकार. १. तस्मिन्निर्मजेऽरण्ये पिप्पलोपस्थ आस्थितः। आत्मनाऽऽत्मानमात्मस्थं यथाश्रुतमचिन्तयम् ।। ध्यायतश्चरणाम्भोजः भावनिर्जितचेतसा । औत्कण्ठयाश्रुकुलाक्षस्य हृद्यासीन्मे शनैर्हरि ॥ -भागवतपुराण, १।६।१६-१७ २. तस्मिन् स्व आश्रमे व्यासी बदरीषण्डमण्डिते । आसीनोऽप उपस्पृश्य प्रणिदध्यौ मन: स्वयम् ॥ --वही, ११७।३ ३. कृष्ण एवं भगवति मनोवारदृष्टि वृत्तिभिः । आत्मन्यात्मानमावेश्य सोऽन्तश्वास उपामत् ॥-वही, १।९।४३ ४. नित्यारूढसमाधित्वात्परावृत्तगुणभ्रमा। न सस्मार तदाऽऽत्मानं स्वप्ने दृष्टमिवोऽत्थितः॥ -वही, ३।३३।२७. ५. प्राणायामेन त्रिवृता प्राणेन्द्रियमनोमलम् । शनैव्यु दास्याभिध्यायेन्मनसा गुरुणां गुरुम् ॥ -वही, ४।८।४४ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में योग हैं --(१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अस्तेय, (४) असंग, (५) ही, (६) असंचय, (७) आस्तिक्य, (८) ब्रह्मचर्य, (९) मौन, (१०) स्थैर्य, (११) क्षमा तथा (१२) अभय । नियम के बारह भेद इस प्रकार हैं(१) बाह्य शौच, (२) आभ्यन्तर शौच, (३) जप, (४) तप, (५) होम, (६) श्रद्धा, (७) आतिथ्य, (८) भगवदर्शन, (९) तीर्थाटन, (१०) परार्थ चेष्टा, (११) संतोष और (१२) आचार्य सेवन । शिवपुराण में प्राणायाम के दो भेद बताये गये हैं-(१) सगर्भ और (२) अगर्भ । सगर्भ ध्यान के अन्तर्गत जप और ध्यान के बिना प्राणायाम किया जाता है तथा अगर्भ के अन्तर्गत जप एवं ध्यान सहित प्राणायाम किया जाता है। विष्णपुराण में इन्हीं दोनों सगर्भ एवं अगर्भ को क्रमशः सबीज एवं अबीज कहा है। इनके अतिरिक्त कुम्भक, पूरक एवं रेचक के द्वारा प्राण के मार्ग को शुद्ध करने को कहा गया है।" इस प्रकार भागवत में अष्टांगयोग का यथेष्ट विवरण प्राप्त होता है, जिसके द्वारा साधक को इस संसार से ऊपर उठने तथा चित्त को एकाग्र करने का उपदेश दिया गया है, जिससे कि उसे सहज निर्वाण की प्राप्ति हो सके । कहा भी है कि भगवान् की उत्तम भक्ति से आप्लावित योगी के लिए योग का उद्देश्य मात्र कायाकल्प तथा शरीर को सुदृढ़ बनाना ही नहीं है, बल्कि उसका मुख्य ध्येय भगवान् में चित्त को लगाना भी है।' १. अहिंसा सत्यमस्तेयमसंगो हीरसंचयः । आस्तिक्यं ब्रह्मचर्य च मौनं स्थैर्य क्षमाऽभयम् ।। -भागवतपुराण, ११।१९।३३ २. शौचं जपस्तपो होमः श्रद्धाऽऽतिथ्यं मदर्चनम् । तीर्थाटनं परार्थेहा तुष्टिराचार्यसेवनम् ॥ -वही, ११।१९।३४ ३. अगर्भश्च गर्भसंयुक्त प्राणायामः शताधिकः । तस्मात्गर्भ कुर्वन्ति योगिनः प्राणसंयमम ॥ -शिवपुराण, वायवीयसंहिता, ३७३३३ ४. विष्णुपुराण, ६७।४० ५. प्राणस्य शोधयेन्मार्ग पूरककुम्भकरेचकैः । -भागवतपुराण, ३।२८।९ ६. योगं निषेवतो नित्यं कायश्चेत् कल्पतामियात् । तच्छृद्रध्यान्न मतिमान् योगमुत्सृज्य मत्परः ॥ --वही, ११।२८।४३ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन इस तरह भागवतपुराण में योग का प्रतिपादन, भगवद्भक्ति में चित्त को एकाग्र करने के अतिरिक्त सिद्धि-प्राप्ति के साधन के रूप में भी हुआ है, क्योंकि अखिल आत्मस्वरूप भगवान् में लगी हुई भक्ति के समान कल्याणप्रद मार्ग योगियों के लिए और दूसरा नहीं है।' योगवासिष्ठ में योग योगवासिष्ठ वैदिक संस्कृति का एक ऐसा प्राचीन ग्रन्थ है, जिसमें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मुख्यतः योग का ही निरूपण हुआ है तथा इसकी कथाओं, उपदेशों, प्रसंगों आदि में संसार-सागर से निवृत्त होने की युक्ति बतलायी गयी है। वास्तव में योग द्वारा मानव अपने वास्तविक स्वरूप की अनुभूति प्राप्त करता है एवं अन्त में संसार के आवागमन से मुक्त हो जाता है। इस ग्रन्थ में मन का विस्तृत वर्णन है। मन को ही शक्तिशाली एवं पुरुषार्थ का सहायक माना गया है । बुद्धि, अहंकार, चित्त, कर्म, कल्पना, स्मति, वासना, इन्द्रियाँ, देह, पदार्थ, आदि को मन के ही रूप बताया गया है। यहाँ तक कि मन की पूर्ण शान्ति होने पर ही ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है। मन को शान्त करने के अनेक उपायों का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि संकल्प करने का ही नाम मन है तथा उसके ही हाथ में बन्धन और मोक्ष है। योग द्वारा ही मन स्थिर एवं पूर्ण शान्त होता है एवं जाग्रति, स्वप्न, और सुषुप्ति से भिन्न तुरीयावस्था की स्थिति में पहुँचने में समर्थ होता है। इन अवस्थाओं का विस्तृत विवेचन यहाँ विभिन्न सन्दर्भो में किया गया है। योगवासिष्ठ में योग की तीन रीतियों का प्ररूपण हुआ है जो क्रमशः इस प्रकार हैं-(१) एकतत्त्वघनाभ्यास, (२) प्राणों का निरोध एवं (३) १. न युज्यमानया भक्त्या भगवत्यखिलात्मनि । सदृशोऽस्ति शिवः पन्था योगिनां ब्रह्मसिद्धये ॥ -वही, ३।२५।१९ २. योगवासिष्ठ, ६।११४।१७; ६७।११; ६।१३९।१; ३।११०।४६ ३. वही, ५।८६९ ४. वही, ४।१९।१५-१८, ५।७८।१० ५. योगमनोविज्ञान, पृ० १२ । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में योग २३ मनोनिरोध । एकतत्त्वघनाभ्यास के अन्तर्गत ब्रह्मभ्यास द्वारा अपने को उसीमें लीन कर देना होता है। प्राणों के निरोध में प्राणायाम आदि की अपेक्षा की जाती है एवं कुण्डलिनी-शक्ति को जाग्रत करके ब्रह्मत्व प्राप्त किया जाता है। मनोनिरोध में समस्त इच्छाओं का पूर्ण परिशमन किया जाता है। इस ग्रन्थ में भी सदाचार एवं विचार के सम्यक् परिपालन पर जोर दिया गया है एवं विचार को परमज्ञान कहा गया है ।' सदाचार एवं ज्ञान की उपमा क्रमशः दीपक एवं सूर्य से दी गयी है और कहा है कि जब तक ज्ञान का सूरज प्रकट नहीं होता तब तक अज्ञान के गहन अन्धकार में सदाचार का ही दीपक मार्गदर्शक होता है। अविद्या को दुःखों का मूल कारण माना गया है तथा इसका विनाश सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से होता है। इसके अनुसार चित्त की एकदम क्षीण अवस्था हो जाने पर मोक्ष होता है, जबकि वह समस्त क्रियाओं एवं वासनाओं से रहित हो जाता है। वैसी संकल्प-विकल्परहित आत्मस्थिति में मिथ्याज्ञान से उत्पन्न अहंभावरूपी अज्ञानग्रन्थि का सर्वथा समाप्त हो जाना ही मोक्ष है। हठयोग हठयोग-सिद्धान्त की चर्चा योगतत्त्वोपनिषद् तथा शाण्डिल्योपनिषद् में है। हठयोग के अवान्तर भेद भी हैं, जिनकी चर्चा यहां अनपेक्षित है । शिव हठयोग के आदि प्रवर्तक माने जाते हैं ।" हठयोग का अर्थ है-चन्द्र-सूर्य, इडा-पिंगला, प्राण-अपान का मिलन अर्थात् ह सूर्य, ठचन्द्र यानी सूर्य और चन्द्र का संयोग । हठयोग का उद्देश्य शारीरिक तथा मानसिक उन्नति है । यह योग सर्वप्रथम शारीरिक विकास या १. विचारः परमं ज्ञानं । -योगवासिष्ठ, २।१६।१९ २. साधु संगतयो लोके सन्मार्गस्य च दीपिकाः । हाधिकारहारिण्यो भासो ज्ञानविवस्तवः ॥ -वही, २।१६।९ ३. प्राज्ञं विज्ञातविज्ञेयं सम्यग्दर्शमाधयः।। न दहन्ति वनं वर्षासिक्तमग्निशिखा इव ॥ -वही, २।११।४१ ४. वही, ३३१००३७-४२ ५. हठयोगप्रदीपिका, ११ ६. वही, १।१; ३१५ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन उन्नति की ओर विशेष ध्यान देता है, क्योंकि शरीर की सुदृढ़ता और स्वस्थता से ही इच्छाओं पर नियन्त्रण होता है और इससे मन शान्त अवस्था को प्राप्त होता है, जो योग धारण के लिए परम आवश्यक है। हठयोग में सात अंग प्रमुख हैं।--षटकर्म,२ प्राणायाम, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि । इनमें आसन, मुद्रा एवं प्राणायाम का विशेष महत्त्व दृष्टिगोचर होता है। इन प्राणायाम आदि यौगिक क्रियाओं के द्वारा शरीर हलका करने एवं भारी बनाने की लब्धि प्राप्त होती है, लेकिन इन लब्धियों की प्राप्ति ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है । उसका उद्देश्य आन्तरिक देह की शुद्धि करके राजयोग की ओर जाना है। अतः हठयोग के बिना राजयोग और राजयोग के बिना हठयोग असम्भव है ।' अभिहित मुद्राओं तथा प्राणायामों द्वारा नाड़ियों को शुद्ध किया जाता है, जिनपर हठयोग आधत है। हठयोग का सम्बन्ध शरीर से अधिक है और मन तथा आत्मा से कम ।" ऐसी स्थिति में मन निरोधावस्था में पहुँचता है, जहाँ से राजयोग का प्रारम्भ होता है । नाड़ियों के शुद्ध होने पर कुण्डलिनी-शक्ति जाग्रत होती है तथा यह षट्चक्रों का भेदन करती हुई सहस्राधार में पहुँचती है। ऐसी स्थिति में साधक का चित्त निरालम्ब एवं मृत्यु-भय-रहित होता है जो योगाभ्यास की जड़ है, इसीको कैलाश भी कहते हैं । १. षट्कर्मणा शोधनं च आसनेन भवेदृढम् । मुद्रया स्थिरता चैव प्रत्याहारेण धीरता। प्राणायामल्लाघवं च ध्यानात्प्रत्यक्षमात्मनि । समाधिना निर्लिप्तश्च मुक्तिरेव न संशयः ।।-घेरण्डसंहिता, १।१०-११ २. धौतिर्वस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिक तथा । कपालभातिश्चेतानि षट्कर्माणि प्रवक्षते ॥ -हठयोगप्रदीपिका, २।२२ ३. नाथयोग, पृ० १९ ४. हठयोगप्रदीपिका, २१७५ ५. सन्त मत का सरभंग सम्प्रदाय, पृ० ६६-६८ ६. भारतीय संस्कृति और साधना, भा॰ २, पृ० ३९७ ७. अतऊध्वं दिव्यरूपं सहस्रारं सरोरुहम् । ब्रह्माण्ड व्यस्त देहस्थं बाह्य तिष्ठति सर्वदा। कैलाशो नाम तस्यैव महेशो यत्र तिष्ठति ॥ -शिवसंहिता, ५ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में योग हठयोग में यम एवं नियमों के पालन का विधान है। और अनेक वस्तुओं को त्यागने का भी आदेश है। अर्थात् आचार एवं विचार को विशेष महत्त्व दिया गया है। इस प्रकार यम-नियमों का पालन करता हुआ हठयोगी स्थूल शरीर द्वारा अपनी शक्ति को अन्तर्मुखी बनाकर, सूक्ष्म शरीर को वश में करके चित्तनिरोध करता है और क्रमशः परमात्मा का साक्षात्कार करता है। यह पद्धति ही हठयोग है। नाथयोग __ नाथयोग के उद्भव के विषय में निश्चितरूपेण कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन माना जाता है कि इसका प्रारम्भ अथवा पुनर्स्थापन गोरखनाथ से हुआ है। गोरखनाथ का समय १०वीं अथवा ११वीं शती से पूर्व का है, जो इस सम्प्रदाय का समय माना जा सकता है । ऐसी धारणा है कि शिव ने मत्स्येन्द्रनाथ को योग की दीक्षा दी थी और मत्स्येन्द्रनाथ ने गोरखनाथ को। नाथपन्थीय परम्परा इस प्रकार मानी जाती है-आदिनाथ (शिव), मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ, गाहिनीनाथ, निवृत्तिनाथ एवं ज्ञानदेव ।" नाथ-सम्प्रदाय में मुख्यतः नौ नाथ माने गये हैं-गोरखनाथ, ज्वालेन्द्रनाथ, कारिणनाथ, गाहिनीनाथ, चर्पटनाथ, खेणनाथ, नागनाथ, भर्तनाथ तथा गोपीचन्दनाथ ।। यह पन्थ अलग-अलग नामों से भी जाना जाता है, यथा-सिद्धमत, योगमार्ग, योग-सम्प्रदाय, अवधूत-सम्प्रदाय, अवधूतमत आदि । दीक्षा धारण करने के समय कान फड़वाकर कुण्डल धारण करने के कारण इन्हें कनफटा योगी भी कहते हैं।' इस योगमार्ग का परमपद नाथ है । इस योगमार्ग की क्रियाएँ तथा १. हठयोगप्रदीपिका, १०५७-६३ 2. Siddha Siddhanta Paddhati and Other Works of Nath Yogis, p. 7 ३. Ibid. p. 10 ४. Gorakhnath and the Kanfata Yogis, pp. 235-36 ५. कबीर, पृ० ३८ ६. गोस्वामी, प्रथम खण्ड, वर्ष २४, अ० १२, १९६०, पृ० ९२ १७. कबीर की विचारधारा, पृ० १५३ ८. नाथ सम्प्रदाय, पृ० ५९ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन योग-साधना हठयोगियों से मिलती-जुलती है, फिर भी दोनों के अन्तिम साध्य नितान्त भिन्न हैं । जहाँ तन्त्र, हठ तथा रसशास्त्र शरीर को अमर बनाते हैं, वहाँ नाथयोग आत्मा का अमरत्व, नादमधु का आनन्द तथा शिवभक्ति के साथ समरसता स्थापित करता है, क्योंकि इसका उद्देश्य शाश्वत आत्मा की अनुभूति प्राप्त करना है। इस योग में मनःशुद्धि के अतिरिक्त कायशुद्धि पर भी जोर दिया जाता है, क्योंकि मनःशुद्धि के लिए कायशुद्धि अपेक्षित है। इस योग में हठ तथा तन्त्र के समान ही गुरु की महत्ता बताते हुए कहा गया है कि गुरु की कृपा से ही संसार-बन्धन को तोड़कर शिव की प्राप्ति सम्भव है । नाथ-सिद्धान्तयोग द्वैताद्वैत विलक्षणी कहा जाता है, क्योंकि शिव द्वैत या अद्वैत नहीं हैं, वरन् वे अवाच्य तथा निरुपाधि हैं। 3 वे द्वैत तथा अद्वैत अथवा साकार तथा निराकार से परे हैं। वे शिव ही चित्तनित्यतत्त्व तथा स्वयंसिद्ध हैं। नाथयोग के अनुसार मोक्ष वह है जिसमें मन के द्वारा मन का अवलोकन किया जाता है अर्थात् आत्मशक्ति को यथार्थ रूप से जानना ही जीवन्मुक्ति है और इस मुक्ति के लिए मन एवं शरीर दोनों की शुद्धि अनिवार्य है। हठयोग एवं तन्त्र की तरह इस सम्प्रदाय में भी कुण्डलिनी-शक्ति की मान्यता प्राप्त है। इसके अनुसार यह शक्ति सर्पाकार वृत्ति में सुप्त रहती है और वह आत्मसंयम द्वारा जाग्रत होती है। जब वह जागती है तो शरीरस्थ षट्चक्रों को भेदती हुई ब्रह्माण्ड अर्थात् सहस्राधार तक पहुँचती है और वहां शिव के साथ एकरूप हो जाती है। इस प्रकार शिव के साथ यह मिलन जीवात्मा का परमात्मा में लीन होने का प्रतीक है। शिव और शक्ति का मिलन ही इस योग का ध्येय है।" १. ज्ञानेश्वरी ( मराठी ), प्रस्तावना, पृ० ४३ २. (क) एवं विधु गुरोः शब्दात् सर्व चिन्ताविव जितः । स्थित्वा मनोहरे देशे योगमेव समभ्यसेत् । --अमनस्क योग, १५ (ख) Siddha Siddhant Paddhati and other works of Nath Yogis, p. 5,54-80 ३. अमनस्क योग, पृ० २५ ४. संतमत का सरभंग सम्प्रदाय, पृ० ६९ शिवस्याभ्यन्तरे शक्तिः शक्तेरभ्यन्तरः शिवः । अन्तरं नैव जानीयांच्चंद्रचंद्रिकयोरिव ।--सिद्धसिद्धान्तपद्धति, ४।२६ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में योग इस प्रकार नाथों की योग-साधना का आदर्श पातंजलयोग से ही तत्त्वतः भिन्न नहीं है, अपितु पूर्ववर्ती और पश्चात्वर्ती बौद्धमतवादों के साथ भी बहुत दूर तक शांकरवेदान्त से भिन्न है । प्राचीन और मध्यकालीन आगमानुयायी अद्वैतवादी मतवादों से नाथादर्श की पर्याप्त समानता है, जिसे सामरस्य कहा गया है ।" शैवागम एवं योग शैवागम शिव के पाँच मुखों से निर्गत अनुभूतियों का साहित्य है । इसमें मूलत: पूर्णस्वरूप को शिव और परमशिव नाम से सम्बोधित किया गया है । यह शिव परम अखण्ड महाप्रकाशस्वरूप है और इसे समस्त सृष्टि-स्थिति का अर्थात् अभिव्यक्त सृष्टि का केन्द्र माना जाता है । इस केन्द्र बिन्दु से स्फुटित पांच बिन्दु ही शिव के पाँच मुख हैं - १. सद्योयान, २. वामदेव, ३. अघोर, ४. ईशान्य तथा ५ तत्त्वांश । २ इन पाँच मुखों से निर्गत आगम को शिव, रुद्र एवं भैरव आगम भी कहते हैं । ये आगम अट्ठाईस माने गये हैं । शैवमतानुसार योग के चार पाद हैं - क्रिया, चर्या, ज्ञान एवं योग । इनसे निर्गत दार्शनिक योग धाराएँ प्रवाहित होती हैं जिनमें बताया गया है कि पूर्ण स्वरूप से मिलने पर भी अपने स्वरूप को अलग रखना द्वैत है । इसी प्रकार इसमें द्वैताद्वैत एवं विशिष्टाद्वैत का भी निरूपण हुआ है । इसके अनुसार जीव सामान्यतया पशुतुल्य माना गया है, जो तीन मल से आवृत है । ये तीन मल आणव, माया तथा कर्म हैं । इसके अनुसार जीव अपने स्वरूप को भूलकर सुख-दुःखादि का अनुभव करता रहता है | शिवस्वरूप बनने के लिए जीव को शक्तिपात एवं दीक्षा के द्वारा अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना होता है । ऐसा करने में मल से निवृत्ति होती है एवं विशेष साधना का भी सहारा लेना होता है । इन १. Philosophy of Gorakhnath, Introduction, p. 26 २. तंत्रालोक, कण्ठसंहिता, भाग १, पृ० ३७-३८ ३. सर्वदर्शनसंग्रह, पृ० ३२२ ४. आणव- मायीय - - कर्म मलावृतत्वात् त्रिमयः । - प्रत्यभिज्ञाहृदयम्, पृ० १५. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन मलावरणों को हटाकर स्वरूप को प्राप्त होना ही मोक्ष है, अर्थात् स्वरूपशक्ति का बोध ही मोक्ष कहलाता है।' काश्मीर के प्रत्यभिज्ञ दार्शनिकों ने 'योग' की जगह 'समवेश' शब्द का प्रयोग किया है और उसका योग शब्द से विलक्षण अर्थ प्रतिपादित किया है। आणव, शाक्त एवं सांभव इन तीन उपायों के द्वारा स्वरूपसाक्षात्कार सम्भव होता है। इस मत में दीक्षा का विशेष महत्त्व है, क्योंकि गुरु-दीक्षा द्वारा ही स्वरूप का सम्बन्ध होता है और शक्तिपात या ईश्वर-प्रपात द्वारा अन्तस्तल की सुप्त कुण्डलिनी जाग्रत होकर स्वरूप का बोध कराती है और फिर अखण्ड पद प्राप्त होता है। यह सामरस्य अवस्था या अखण्ड सामरस्य अवस्था है, जो शिवयोग के नाम से अभिहित है । शिवयोग का विशेष वर्णन करते हुए परमार्थसार" में कहा गया है कि शिवयोगी के लिए समाधि-उत्थान का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि वह स्वयं शिवस्वरूप में स्थित होता है । इसके अनुसार साधना की अनुभूति को विशेष स्थान प्राप्त है।। ___ इस परम्परा में अज्ञान के दो प्रकार माने गये हैं -बुद्धिगत अज्ञान और पौरुष-अज्ञान । चित् शक्ति का संकोच अज्ञान है तथा इस संकोच की चरम सीमा ही संसार है। स्वरूप-संकोच के कारण स्वयं चेतन ही जड़ बन जाता है । चैतन्य को ही प्रमाण, प्रमेय माना गया है और चित्शक्ति को विशेष स्थान दिया गया है। परमात्मा के पाँच कृत्य इस प्रकार हैं-(१) सृष्टि, (२) स्थिति, (३) संहार, (४) अनुग्रह, तथा (५) विलय । इन कृत्यों की निरन्तरता अव्या१. तन्त्रालोक, ११६२ २. Abhinavagupta : An Historical and Philosophical Study., p. 312 ३. Ibid., p. 293 ४. Ibid., p. 304 ५. परमार्थसार, ५६-६० ६. द्विविधं च अज्ञानं-बुद्धिगतं पौरुषं च ।-तन्त्रसार, अध्याय १, पृ० २-३; तन्त्रालोक, ११३६, पृ०७३ ७. तथापि तद्वत् पंचकृत्यानि करोति । सृष्टि संहारकर्तारं विलय स्थिति कारकम् । अनुग्रहकरं देवंप्रणताति विनाशनम् ।—प्रत्यभिज्ञाहृदयम्, पृ. ३२ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में योग हत है। यह वस्तुतः परमात्मा का ही खेल है। इसके फलस्वरूप जीव में स्वरूपबोध की आन्तरिक इच्छा बलवती होती है, वह अपने में अभाव का बोध करता है। वैसी स्थिति में वह कर्मसाम्य एवं मलपरिपाक की अपेक्षा करता है। यहाँ कर्मसाम्य का तात्पर्य मनुष्य के पुण्य और पाप कर्म के साम्य के फलस्वरूप उत्पन्न सहजकृपा का उन्मेष है और कालानुगत मल ( अज्ञान ) अवस्था की परिपक्व अवस्था होते ही ज्ञान का आविर्भाव होना मलपरिपाक है। इन दोनों क्रियाओं के अनुसार जीव की प्रवृत्ति अन्तर्मुखी हो जाती है, फिर गुरु अथवा किसी माध्यम द्वारा कुण्डलिनी जाग्रत होती है और वह ऊर्ध्वमुख होकर सहस्राधार तक पहुँचती है, जिसके फलस्वरूप इन्द्रिय, प्राण, बुद्धि एवं अहंकार शक्तिस्वरूप बनकर शिव से तादात्म्य होकर खेलने लगते हैं। इस प्रकार सप्त शक्ति का शिव से मिलन ही योग है । इसे नित्ययोग अथवा नित्यमिलनयोग भी कहा जाता है। पातंजल-योग यों तो योग का उल्लेख योगपद्धति-संहिता, ब्राह्मण-ग्रन्थों तथा उपनिषदों में हुआ है, लेकिन योग को व्यवस्थित एवं सम्यक् स्वरूप प्रदान किया है महर्षि पतंजलि ने । पातंजल योगसूत्र पर अनेक टीकाएँ लिखी गयी हैं, जिनमें व्यास-भाष्य सबसे प्रामाणिक माना जाता है तथा अनेक प्रमुख टीकाकारों में विज्ञानभिक्षु, भोज एवं वाचस्पति मिश्र के नाम उल्लेखनीय हैं। पातंजल-योग सांख्यसिद्धान्त की नींव पर खड़ा है। योगसूत्र चार पादों में विभक्त है। प्रथम पाद में योग के लक्षण, स्वरूप तथा उसकी प्राप्ति के उपायों का वर्णन है। द्वितीय पाद का नाम साधनपाद है जिसमें दुःखों के कारणों पर प्रकाश डाला गया है। तृतीय विभूतिपाद में धारणा, ध्यान, समाधि, एवं सिद्धियों का वर्णन है तथा चतुर्थ कैवल्यपाद में चित्त के स्वरूप का प्रतिपादन है। महर्षि पतंजलि की योग की परिभाषा है : 'चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है।' इस परिभाषा के अनुसार चंचल मनःप्रवृत्तियों का संयमन योग के लिए अनिवार्य है। चित्त की ये वृत्तियाँ पांच प्रकार की हैं२-प्रमाण, १. योगश्चित्तवृतिनिरोधः।-योगदर्शन, १२ २. प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।-वही, १६ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० विपर्यय, विकल्प, निद्रा एवं योगसिद्धि नहीं हो जाती । और इन सूक्ष्म संस्कारों को अपेक्षित है । जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन स्मृति । इन वृत्तियों के निग्रहमात्र से ही इन वृत्तियों के साथ संस्कार भी जुड़े होते हैं भी रोकने की प्रक्रिया योगसिद्धि के लिए योग के दो भेद हैं- सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात । चित्त में अनेक वृत्तियाँ रहती हैं। किसी एक वस्तु में ध्यानस्थ होने पर, उनमें से एक ही वृत्ति कार्यशील होती है और अन्य वृत्तियाँ क्षीण होती हैं । उसको प्रज्ञा कहते हैं । अतः एकाग्र भूमि में एक वस्तु के सतत भाव में लगे रहना सम्प्रज्ञात समाधि है । असम्प्रज्ञात समाधि अथवा योग के अन्तर्गत सभी वृत्तियों का पूर्णतः निरोध आवश्यक है । सम्प्रज्ञात के चार भेद निर्दिष्ट हैं--वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत | असम्प्रज्ञात समाधि कैवल्य की स्थिति है, क्योंकि इस समाधि में चित्त की अवस्था बिलकुल शान्त एवं संस्काररहित होती है; लेकिन ऐसी अवस्था में संस्कार बहुत बाधक बनते हैं, जिनका पूर्वजन्मानुसार जीव में आगमन होता रहता है । इनका कारण अविद्या अर्थात् मिथ्यात्व है, इसीसे कर्म बँधते हैं और ये कर्म क्लेशों से उत्पन्न होते हैं । इन कर्म-क्लेशों के पाँच भेद हैं- अविद्या, अस्मिता, राग, द्व ेष तथा अभिनिवेश | अतः इन वासनाओं, कर्मों तथा क्लेशों का सर्वथा नाश विवेक अथवा सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर लेने पर ही होता है और तभी आत्मतत्त्व पहचानने की शक्ति उत्पन्न होती है । ऐसी स्थिति की प्राप्ति ही आत्मलीनता अथवा कैवल्यधाम है, जो योग का लक्ष्य है । 3 इस प्रकार मनः शुद्धि करके क्रमशः आत्मस्वरूप में स्थित होने के लिए आठ योगांग बताये गये हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि । अहिंसा, सत्य, अस्तेयादि १. वितर्कविचारानन्दा स्मितारूपानुगमात् सम्प्रज्ञातः । - योगदर्शन, १|१७ २. अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशा: पंचक्लेशाः । - वही, २१३ ३. पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति । - वही, ४१३४ ४. यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावंगानि । -- वही, २।२९ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भारतीय परम्परा में योग ३१ यम' तथा शौच, संतोषादि नियमों के अनुष्ठान का विधान है, जिनसे साधक संयम में स्थित होता है। साधना के दौरान योगी के समक्ष अनेक अन्तराय3 आते हैं। - क्रियायोग तथा समाधियोग के सतत अभ्यास से योग की सिद्धि होती है। यहाँ क्रियायोग का तात्पर्य तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर-प्रणिधान है।' तप का मतलब है चांद्रायण, काछामणादि व्रत। वेदों का अध्ययन, चिन्तन-मनन करना स्वाध्याय है तथा ईश्वर को सम्मुख रखकर बार-बार उसके गुणों का स्मरण करना ईश्वर-प्रणिधान है। इस क्रियायोग से इन्द्रियों का दमन होता है। अभ्यास और वैराग्य की सतत भावना उसके लिए अनिवार्य है। इस तरह सावधानीपूर्वक अष्टांगयोगयुक्त योग-समाधि संलोन योगी ही दीर्घकाल तक योग में रमण कर सकता है ।' योगदर्शन में अनेक लब्धियों का भी वर्णन है। अद्वैतवेदान्त एवं योग ___ भारतीय दर्शनों में वेदान्त का प्रमुख स्थान है। यह दर्शन केवल सैद्धान्तिक ही नहीं, व्यावहारिक भी है। इसमें परमलक्ष्य अथवा आत्मोपलब्धि के लिए उन साधनों का विचार किया गया है जो योगसाधना के लिए आवश्यक हैं। ___अद्वैतवेदान्त के अनुसार माया के कारण ही जीव संसार में भ्रमण करता है। आत्मदर्शन में मग्न रहकर तथा योगारूढ़ होकर ही इस संसार से पार हुआ जा सकता है। योग का उद्देश्य आत्मा पर पड़े १. अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः। -वही, २०३० २. शोचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ।-वही, २०३२ ३. व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थित त्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः । -वही, १६३० ४. तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः। -वही, २११ ५. अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः। -वही, १।१२ ६. योगेन योगों ज्ञातव्यो योगो योगात्प्रवर्तते । यो प्रमत्तस्तुऽयोगेन स योगे रमते चिरम् । -योगदर्शन, व्यासभाष्य, पृ० ५१७ ७. उद्धरेदात्मनात्मानं मग्नं संसारवारिधौ। योगारूढत्वभासाद्य सम्यग्दर्शननिष्ठया ॥ -विवेकचूड़ामणि, ९ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन आवरण या अविद्या को हटाना है। इस अविद्या के कारण ही जीव अपनी चित् शक्ति को पहचान नहीं पाता है। इस आवरण को हटाने के लिए ही वेदान्त में साधन-चतुष्टय बतलाये गये हैं, जिनके द्वारा अज्ञान नष्ट होता है तथा साधक को ब्रह्मजिज्ञासा होती है। ये चार साधन हैं-(१) नित्यानित्य वस्तुविवेक, (२) वैराग्य, ( ३) षट् सम्पत्तियाँ : शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा तथा समाधान, और (४) मुमुक्षत्व । वेदान्त की साधना ज्ञान पर आधृत है, इसलिए श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन द्वारा ज्ञान प्राप्त करके यह भव पार करने को कहा गया है। वेदान्त-योग में ब्रह्म तथा जीव एक हो जाते हैं। ब्रह्म के सगुण रूप का एकनिष्ठ ध्यान करना और उसमें लीन होना ही योग का वास्तविक स्वरूप है। जब जीव और ब्रह्म एक हो जाते हैं, तब जीव के समस्त अहंकारादि दोष नष्ट हो जाते हैं। माया के कारण जीव आत्मस्वभाव को भूला हुआ है। ज्ञान-प्राप्ति के बाद उसका ब्रह्म के साथ तादात्म्य हो जाता है। यही मोक्ष है और मोक्ष प्राप्त करना ही अद्वैत-वेदान्त-योग का साध्य है। श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योग ये मुक्ति के कारण हैं और इनसे ही देहबन्धन का उच्छेद होता है। इस निर्विकल्प समाधि से ही अज्ञान' नष्ट होता है, क्योंकि अविद्या संसार का मूल कारण है और इस बंधन को तोड़ना ही मोक्ष है । इसके लिए मन, वचन तथा काया का निरोध १. आदौ नित्यानित्यवस्तुविवेकः परिगण्यते । इहामूत्रफलभोगविरागस्तदनन्तरम् । शमादिषट्कसम्पत्तिर्मुमुक्षुत्वमिति स्फुटम् ॥ -वही, १९ २. ततः श्रुतिस्तन्मननं सतत्वध्यानं चिरं नित्यनिरंतरं मुनेः। -वही, ७० ३. योगमनोविज्ञान, पृ० २९ ४. श्रद्धाभक्तिध्यानयोगान्मुमुक्षोर्मुक्तेहेतून्वक्ति साक्षाच्छु तेर्गीः । यो वा एतेष्वेव तिष्ठत्यमुष्य मोक्षोऽविद्याकल्पितादेहबन्धात् ॥ -विवेकचूडामणि, ४६ ५. अज्ञानहृदय ग्रंथिनिःशेष विलयस्तदा।। समाधिऽविकल्पेन् यदा द्वैतात्मदर्शनम् । -वही, ३५३ ६. अविद्यास्तभयो मोक्षः सा बन्ध उदाहृतः । -सर्वदर्शनसंग्रह, पृ. ७६३ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में योग आवश्यक है, क्योंकि वाणी का मन में, मन का बुद्धि में और बुद्धि का आत्मा में तथा आत्मा का पूर्ण ब्रह्म में लय करने पर ही परम शान्ति प्राप्त की जा सकती है। बौद्ध योग यौगिक क्रियाओं के आदर्श विभिन्न आध्यात्मिक शास्त्रों में भिन्नभिन्न हैं। उपनिषदों में योग का प्रतिपादन ब्रह्म के साक्षात्कार के रूप में हुआ है। पतंजलि के योगदर्शन में इसका अर्थ सत्य का अन्तर्वेक्षण है और बौद्धधर्म में इसकी संज्ञा बोधिसत्त्व की प्राप्ति अथवा जगत् की निःसारता का ज्ञान प्राप्त करना है। बौद्धधर्म में भी तत्त्वज्ञान के लिए योग का प्रयोजन स्वीकृत है । बौद्ध ग्रन्थों में प्रयुक्त समाधि एवं ध्यान शब्द योग को ही व्यंजित करते हैं। निर्वाण की प्राप्ति के साधन में योग की अनिवार्यता स्वीकार की है, जैसा कि मोक्ष-प्राप्ति के साधन के रूप में योग की महत्ता जैन ग्रन्थों में प्रतिपादित है। यही कारण है कि बुद्ध ने बोधिसत्त्व की प्राप्ति होने से पहले प्राणायाम द्वारा श्वासोच्छ्वास के निरोध का प्रयत्न किया था और इसी साधन के द्वारा वे बोधि प्राप्त करना चाहते थे। परन्तु इसमें सफलता नहीं मिली। फलतः हठयोग-पद्धति का निषेध करके उन्होंने अष्टांग-मार्ग' की प्रतिष्ठापना की। उल्लेखनीय है कि प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, अनुस्मृति एवं समाधि' योग के इन छह अंगों में प्राणायाम को महत्त्व दिया गया है। यद्यपि बौद्धधर्म के प्रारम्भिक काल में योग का निरूपण स्पष्ट रूप में नहीं १. वाचं नियच्छात्मनि तं नियच्छ बुद्धौ धियं यच्छ च बुद्धिसाक्षिणि । तं चापि पूर्णात्मनि निर्विकल्पे विलाप्य शांति परमां भजस्व । -विवेकचूडामणि, ३६९ २. राधाकृष्णन्, भारतीय दर्शन, भाग० १, पृ० ३९२ ३. कुसलचित्तेकग्गता समाधि। -विशुद्धिमार्ग, ३११ ४. योगशास्त्र : एक परिशीलन, पृ० ३० ५. संयुक्तनिकाय, ५११० ६. प्रत्याहारस्तथा ध्यानं प्राणायामोऽथधारणा। अनुस्मृतिः समाधिश्च षडंगयोग उच्यते ।।-शैकोद्देशटीका, पृ० ३० Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन मिलता, परन्तु महायानियों ने योग पर विस्तृत एवं व्यापक रूप में विचार किया है । बौद्ध योग में 'समाधि' का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसको प्राप्त करने के लिए ध्यान' का प्रतिपादन किया गया है जो इस प्रकार है : ( १ ) वितर्क विचार प्रीति सुख एकाग्रता सहित, (२) प्रीति सुख एकाग्रता सहित, (३) सुख एकाग्रता सहित और (४) एकाग्रता सहित । ध्यान की एकाग्रता के लिए योगी को आचार-विचार एवं नीतिनियमों का सम्यक्रूपेण पालन करना चाहिए, क्योंकि संयम के बिना ध्यान अथवा समाधि लगाना वैसे ही निरर्थक है, जैसे कि फूटे घड़े में पानी भरना व्यर्थ है । चित्तवृत्तियों की पूर्ण शान्ति एवं एकाग्रता के लिए भी संयमी तथा सदाचारी रहना वांछनीय है । इन सारे आचारविचारों का विस्तृत वर्णन सुत्तपिटकों में हुआ है । बौद्धागम में प्राणायाम को आनापानस्मृति कर्मस्थान कहा है । प्राणायाम की विधि के उपयोग की सार्थकता बताते हुए कहा है कि चित स्थिर रखने के लिए साधक को चाहिए कि वह शरीर स्थिर करके श्वासोच्छ्वास ले । यदि इस पर भी उसका चित्त शान्त नहीं होता है तो साधक को चाहिए कि वह गणना, अनुबन्धा, स्पर्श, स्थापना का प्रयोग करे । २ बौद्ध योग में नैतिक जीवन के सिद्धान्त इस प्रकार माने गये हैंदान, वीर्य, शील, शान्ति, धैर्य, ध्यान और प्रज्ञा; 3 क्योंकि इनके द्वारा व्यक्ति में उच्च भावों का विकास होता है तथा दृष्टि क्षिति का विस्तार होता है । बौद्ध योग-साधना में चार स्मृतियाँ अर्थात् कायानुपश्यना, वेदनानुपश्यना, चित्तानुपश्यना और धर्मानुपश्यना महत्त्वपूर्ण हैं । इन स्मृतियों के अन्तर्गत ही इन्द्रिय-संयम, चार आर्यसत्य, अष्टांगिक मार्ग, सप्त बौध्यंग, चार ध्यान तथा अनात्मवाद आते हैं ।" इस प्रकार शरीर को निश्चल करने का मार्ग बतलाकर संसार के चार कारणों अर्थात् चार १. दीघनिकाय, १२; पृ० २८-२९ २. विशुद्धिमार्ग, भाग १, परिच्छेद ८ ३. उत्तरोत्तरतः श्रेष्ठा दानपारमितादयः । नेतरार्थी त्यजेच्छ्रे ष्ठामन्यत्राचार सेतुतः ॥ - बोधिचर्यावतार, ५।८३ ४. दीघनिकाय, २/९; बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, भा० १, पृ० ३४३ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा में योग . ३५ आर्य सत्यों का उल्लेख किया गया है, जो इस प्रकार हैं : (१) दुःख, (२) दुःख समुदाय, (३) दुःखनिरोध और (४) दुःख-निरोध के उपाय । बौद्ध-दर्शन के अनुसार संसार में दुःख ही दुःख है। इन दुःख समुदायों की जड़ें बहुत हैं, जिन्हें द्वादश निदान अथवा प्रतीत्यसमुत्पाद कहा जाता है। वे इस प्रकार हैं-(१) अविद्या, (२) संस्कार, (३) विज्ञान, (४) नामरूप, (५) षडायतन, (६) स्पर्श, (७) वेदना, (८) तृष्णा, (९) उपादान, (१०) भव, (११) जाति, और (१२) जरामरण । इन सबका सम्बन्ध भूत, वर्तमान एवं भविष्य के साथ है। इन आर्यसत्यों का निरोध करने के लिए अविद्या का निरोध अत्यावश्यक है, क्योंकि केवल अविद्या ही इन द्वादश निदानों की जड़ है। इस सन्दर्भ में दुःख-निरोध-मार्ग को चर्चा करते हुए बुद्ध ने मध्यम प्रतिपदा का मार्ग बतलाया है जो अष्टांगमार्ग से भी जाना जाता है । यह अष्टांग मार्ग इस प्रकार है--(१) सम्यग्दृष्टि, (२) सम्यक्संकल्प, (३) सम्यक्वचन, (४) सम्यक्कर्मान्त, (५) सम्यक्आजीव, (६) सम्यकव्यायाम, (७) सम्यक्स्मृति, तथा (८) सम्यकसमाधि । इन मार्गों के सम्यक् सेवन से प्रज्ञा का उदय होता है एवं निर्वाण प्राप्त होता है। सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के तीन साधन बतलाये गये हैं--शोल,समाधि और प्रज्ञा । शील अर्थात् सात्विक कर्म जिनका पालन भिक्षु-भिक्षुणी एवं श्रावकों के लिए अनिवार्य है।' अहिंसा, अस्तेय, सत्य, ब्रह्मचर्य तथा व्यसन-निरोध को पंचशील कहा गया है। ये पंचशील आचार-विचार को नियन्त्रित एवं शुद्ध करते हैं, जो बोधि-लाभ करनेवाले साधक के लिए आवश्यक हैं। इन पंचशीलों के साथ-साथ भिक्षु-भिक्षुणियों के लिए अपराह्न में भोजन करने का त्याग, माला धारण न करना, संगीत से परहेज, सुवर्ण-रजत के व्यामोह का त्याग तथा महाघ शय्या का भी परित्याग करना आवश्यक है। १. विशुद्धिमार्ग, भाग २, परिच्छेद १६, पृ० १०५ २. विशुद्धिमार्ग, भाग २, परिच्छेद १७, पृ० १२९ ३. विशुद्धिमार्ग, भाग २, परिच्छेद १६, पृ० १२१. ४. दीघनिकाय, पृ० २४-३३ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन इस प्रकार संयमपूर्ण आचार-विचार की अनिवार्यता प्रतिपादित करते हुए बुद्ध ने शील, समाधि एवं प्रज्ञा का विधान किया है, जो योग केही स्रोत हैं । इनके अतिरिक्त योग-साधना के विभिन्न अंगोपांगों की विस्तृत चर्चा 'मिलिन्दप्रश्न' में है ।' बौद्ध योग में यद्यपि पातंजल योग की भाँति व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध योग की चर्चा नहीं हुई है, तथापि बुद्ध ने बोधिप्राप्ति के लिए जो-जो उपाय बतलाये हैं, वे निश्चय ही आध्यात्मिक अथवा योग मार्ग के सोपान हैं । ३६ १ मिलिन्दप्रश्न, ६।१।१ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग-साहित्य प्रस्तुत प्रकरण में केवल जैन योग सम्बन्धी प्रमुख ग्रन्थों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है, ताकि जैन योग की परम्परा एवं विकासक्रम का परिचय प्राप्त हो सके। जैन योग की मौलिकता, व्यापकता तथा विविधता पर विशेष विचार तृतीय अध्याय में किया गया है। भारतीय वाङ्मय में योग विषयक ऊर्जस्वी वित्रार अपने मूलरूप में अत्यन्त प्राचीन हैं। अथर्ववेद में योग द्वारा प्राप्त अलौकिक शक्तियों का वर्णन, कठ-तैत्तिरीयादि उपनिषदों में 'योग' की परिभाषा, महाभारत, गीता तथा बौद्ध ग्रंथों में वर्णित योग विषयक प्रचुर सामग्री को देखकर योग-दर्शन एवं साधना की अतिव्यापकता एवं प्राचीनता का अनुमान सहज ही लग जाता है। 'योग-विद्या' के प्रवर्तकों में महर्षि पतंजलि अग्रगण्य एवं प्रधान आचार्य हैं, जिन्होंने अनेक प्राचीन ग्रन्थों में बिखरे हुए योग सम्बन्धी विचारों को अपनी असाधारण प्रतिभा तथा प्रयोगों द्वारा सजा-सँवार कर 'योगदर्शन' ग्रन्थ का प्रणयन किया। यह ग्रन्थ उनकी असाधारण प्रतिभा तथा गम्भीर मेधाशक्ति का परिचायक है। जैन परम्परा में सर्वप्रथम, (ई० ८वीं शती में) हरिभद्रसूरि ने 'योग' शब्द का प्रयोग आध्यात्मिक अर्थ में किया है। 'योग' शब्द के समानार्थक संवर, ध्यान, तप आदि शब्द आगमों में मिलते हैं। आगमों में ध्यान के भेद-प्रभेद तथा आचार-संहिता आदि का विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। आगमों में योग से सम्बन्धित विषयों का विशद वर्णन नियुक्ति में मिलता है। इनमें ध्यान के साथ कायोत्सर्ग तप का विशेष रूप से वर्णन है। १. स्थानांगसूत्र, ४११; भगवतीसूत्र, २५।७ समवायांगसूत्र, ४ उत्तराध्ययनसूत्र, ३०।३५ २. आवश्यकनियुक्ति, १४६२-१४८६ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन ध्यानशतक' . जैन योग विषयक प्राचीन ग्रन्थ 'ध्यानशतक' है। इसके रचयिता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ( ई० सातवीं शती) हैं । यह ग्रन्थ आगम-शैली में लिखा गया है। इसमें ध्यान के चारों प्रकारों का वर्णन है। प्रथम दो ध्यान आर्त और रौद्र कषाय तथा वासनाओं को बढ़ाते हैं, तथा अन्य दो ध्यान धर्म और शुक्ल मोक्ष के कारणभूत हैं। धर्मध्यान मोक्ष का सीधा कारण नहीं है। वह शुक्लध्यान का सहयोगी मात्र है। शुक्लध्यान मोक्ष का सीधा कारण है । इस ग्रंथ में बताया गया है कि जीव को कषायें, वासनाएँ एवं लेश्याएं कैसे बाँधती हैं। इसमें आसन, प्राणायाम, अनुप्रेक्षाओं का भी वर्णन है । मोक्षपाहुड इस ग्रन्थ के प्रणेता आचार्य कुन्दकुन्द हैं। इनका समय अनुमानतः ई० पू० द्वितीय शताब्दी के आसपास है। मोक्षपाहुड में १०६ गाथाएँ हैं। इसमें जैन योग सम्बन्धी बहुत महत्त्वपूर्ण बातों का वर्णन है। इस छोटे-से ग्रन्थ में आत्मा के विभिन्न स्वरूपों का परिचय कराते हए बताया है कि मिथ्यात्व के कारण जीव की कैसी दशा होती है। आत्मध्यान में प्रवृत्त होने के लिए कषायों के आवरण को हटाने का उपदेश है, क्योंकि इसमें सभी आस्रवों का निरोध होता है और संवर-निर्जरा से संचित कर्मों का क्षय होता है । मुनि के लिए पांच महावत, तीन गुप्ति, पाँच समिति आदि चारित्र का भी वर्णन है। बहुत से योगी विषय-वासना से मोहित होकर तपोभ्रष्ट हो जाते हैं, अतः योगी मुनि को ध्यान-साधना में सावधान रहने के लिए कहा है। इसमें श्रावक-धर्म का भी वर्णन है। यथार्थतः यह रचना योग-शतक रूप से लिखी गयी प्रतीत होती है और इसको 'योगपाहुड' भी कहा जा सकता है। पातंजल योग-दर्शन में योग के जिन यम-नियमादि आठ अंगों का निरूपण है, उनमें से प्राणायाम को १. इस पर हरिभद्र की टीका है। २. शुक्लशुचिनिर्मलं शकलकर्ममलक्षयहेतुत्वात् । -योगशास्त्रप्रकाश ४, श्लोक १५, स्वोपज्ञ विवरण: ३. स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा, प्रस्तावना, पृ० ७० Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैन योम-साहित्य छोड़, शेष सात का विषय यहाँ स्फुट रूप से जैन परम्परानुसार पाया जाता है।' समाधितन्त्र __ यह भी कुन्दकुन्दाचार्य की रचना है। इसमें ध्यान तथा भावना का निरूपण है । इस पर पर्वतधर्म और नाथूमल रचित दो टीकाएँ भी थीं, जो अनुपलब्ध हैं। तत्वार्थसूत्र __ इस ग्रन्थ के प्रणेता आचार्य उमास्वाति या उमास्वामी हैं। इनका समय विक्रम की पहली से चौथी शती के बीच में आंका जाता है। इस ग्रन्थ में जैनदर्शन का पूर्णरूपेण समावेश हुआ है। इस ग्रन्थ पर श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों आम्नायों के आचार्यों ने अनेक टीकाएँ अथवा भाष्य लिखे हैं। यह मोक्ष-मार्ग प्रतिपादक एक अनूठा सूत्रग्रन्थ है। इसमें दस अध्याय हैं। पहले अध्याय में ज्ञान-क्रिया का वर्णन है। दूसरे से लेकर पांचवें अध्याय तक ज्ञेय का और छठे से लेकर दसवें तक चारित्र का वर्णन है। योग-निरूपण में प्रायः चारित्र का ही वर्णन होता है, क्योंकि चारित्र के पालन से ही आध्यात्मिक विकास होता है। इष्टोपदेश योग विषयक आचार्य पूज्यपादकृत जो दो संस्कृत रचनाएँ उल्लेखनीय हैं, उनमें एक इष्टोपदेश है। आचार्य पूज्यपाद का समय विक्रम की पाँचवीं-छठी शती है । इष्टोपदेश ५१ श्लोकों की छोटी-सी रचना १. डा. हीरालाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ० ११६ २. इस नाम से पूज्यपाद एवं यशोविजयगणि की भी रचनाएँ प्राप्त हैं । -जिनरत्नकोश, पृ०४२१ ३. वही। ४. तत्त्वार्थसूत्र ( पं० सुखलाल-विवेचन ), प्रस्तावना, पृ० ९ ५. विशेष के लिए देखिए, वही। ६. आशाधर-टीका, अनुवादक-धन्यकुमार तथा चम्पतराय, प्रकाशक-रायचन्द्र जैन शानमाला, बम्बई, १९५४ ७. इष्टोपदेश, पृ०६ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yo जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन है। इसमें योग के निरूपण के साथ-साथ साधक की उन भावनाओं का उल्लेख भी है, जिनके चिन्तन से वह अपनी चंचल वृत्तियों को तज कर अध्यात्ममार्ग में लीन होता है तथा बाह्य व्यवहारों का निरोध करके आत्मानुष्ठान में स्थिर होकर परमानन्द की प्राप्ति करता है। समाधिशतक' पूज्यपाद का योग से सम्बन्धित यह दूसरा ग्रन्थ है। इसमें १०५ श्लोक हैं, जिनमें आत्मा की तीन अवस्थाओं ( बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा) का वर्णन है। ध्यान-साधना में अविद्या, अभ्यास एवं संस्कार के कारण अथवा मोहोत्पन्न राग-द्वेष द्वारा चित्त में विक्षेप उत्पत्र होने पर साधक को प्रयत्नपूर्वक मन को खींचकर आत्मतत्त्व में नियोजित करने का उपदेश दिया गया है । इस छोटे-से किन्तु महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ में ध्यान तथा समाधि द्वारा आत्मतत्त्व को पहचानने के उपायों का सुन्दर विवेचन है। विषय को दृष्टि से इसका कुन्दकुन्दकृत मोक्षपाहड से बहत-कुछ साम्य के अतिरिक्त उसकी अनेक गाथाओं का शब्दशः अथवा किंचित् भेद-सहित अनुवाद पाया जाता है। इस पर प्रभाचन्द्र, पर्वतधर्म तथा दशचन्द्र की टीकाएँ और मेघचन्द्र की एक वृत्ति भी मिलती है। परमात्मप्रकाश इस अपभ्रंश ग्रन्थ के रचयिता योगीन्दुदेव हैं। डा. हीरालाल . यह कृति सनातन जैन ग्रन्थमाला ने सन् १९०५ में; फतेहचन्द देहली ने वि० सं० १९७८ में तथा अंग्रेजी अनुवाद के साथ एम० एन० द्विवेदी ने अहमदाबाद से सन् १८९५ में प्रकाशित की है। मराठी अनुवाद के साथ इसकी द्वितीय आवृत्ति आर० एन० शाह ने शोलापुर से सन् १९४० में प्रकाशित की है। २. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ० १२० ३. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ४, पृ० २५८ ४. परमात्मप्रकाश और योगसार, रायचन्द्र जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, ई० सन् १९१५, संपादक डा० ए० एन० उपाध्ये, ई• सन् १९३७; दूसरा संस्करण, ई० स० १९६० Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग - साहित्य ४१ जैन और डॉ० ए० एन० उपाध्ये के अनुसार इस ग्रन्थ का समय अनुमानतः ई० छठी शताब्दी है । परमात्मप्रकाश पर अनेक टीकाएँ रची गयी हैं, जिनमें ब्रह्मदेव, बालचन्द्र, पण्डित दौलतरामजी तथा मुनिभद्रस्वामी ( कानड़ी की टीका ) प्रमुख हैं । इस पुस्तक में मानसिक दोषों के परिहार के उपाय एवं त्रिविध आत्मा के सम्बन्ध में समुचित विवेचन किया गया है । इस ग्रन्थ में ३४५ दोहे हैं । परमात्मप्रकाश के कुछ दोहे आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में उद्धृत हैं । योगसार यह भी योगीन्दुदेव की ही अपभ्रंश भाषा की छोटी-सी १०७ दोहों की रचना है । इन दोहों के माध्यम से आध्यात्मिक गूढ तत्त्वों का सुन्दर विश्लेषण हुआ है । इस ग्रन्थ पर इन्द्रनन्दी की टीका है। योगसार नाम के अन्य ग्रन्थ भी हैं, जिनका उल्लेख आगे आयेगा । हरिभद्र की योग विषयक रचनाएँ आचार्य हरिभद्र का समय ई० सन् ७५७ से ८२७ तक है । योग सम्बन्धी उनकी छह रचनाएँ इस प्रकार हैं : (१) योगशतक, (२) ब्रह्मसिद्धान्तसार, (३) योगविंशिका, (४) योग दृष्टि समुच्चय, (५) योगबिन्दु और (६) षोडशक । इनमें से योगशतक और योगविशिका प्राकृत में हैं एवं शेष कृतियाँ संस्कृत में हैं । यहाँ संक्षेप में आचार्य हरिभद्र की रचनाओं का परिचय दिया जा रहा है । 3 (अ) योगशतक - १०१ प्राकृत गाथाओं के इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही निश्चय और व्यवहार योग का स्वरूप निरूपित है | गाथा ३८ से ५० १. डा० हीरालाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ० ११८ २. परमात्मप्रकाश तथा योगसार, सम्पादक ए० एन० उपाध्ये, प्रकाशक परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई, १९३७, पृ० ११५ १. यह ग्रन्थ सन् १९६५ में स्वोपज्ञवृत्ति तथा ब्रह्मसिद्धान्तसमुच्चय के साथ लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है । डा० इन्दुकला झवेरी द्वारा सम्पादित योगशतक हिन्दी अनुवाद के साथ गुजरात विद्यासभा, अहमदाबाद से सन् १९५९ में प्रकाशित हुआ है । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन तक साधक के आध्यात्मिक विकास के उपाय बर्णित हैं। गाथा ५९ से ८० तक बताया गया है कि चित्त को स्थिर करने के लिए साधक को किस तरह अपने रागादि दोष तथा परिणामों का चिन्तन करना चाहिए। इनमें शयन, आसन, आहार तथा योगों से प्राप्त लब्धियों का भी वर्णन है । इस तरह योग का स्वरूप, योगाधिकारी के लक्षण एवं ध्यानरूप योगावस्था का सामान्य वर्णन जैन- परम्परानुसार किया गया है । (आ) ब्रह्मसिद्धान्तसार - इस ग्रन्थ में ४२३ श्लोक हैं, जिनमें ब्रह्मादि सिद्धान्तों का वर्णन जैन योगानुसार किया गया है । इस ग्रन्थ में सर्व दर्शनों का समन्वयवाला अंश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । (इ) योगविशिका' - यह २० गाथाओं की छोटी-सी रचना है जिसमें अति संक्षिप्त रूप से योग की विकसित अवस्थाओं का निरूपण है, जिनमें कुछ नये पारिभाषिक शब्द हैं । हरिभद्र ने इस ग्रन्थ में आचारनिष्ठ एवं चारित्र सम्पन्न व्यक्ति को योग का अधिकारी माना है और मोक्ष के साथ सम्बन्ध जोड़नेवाले धर्मव्यापारों को योग कहा है। योग के इन पाँच भेदों का वर्णन भी है - स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलम्बन तथा अना - लम्बन । इस ग्रन्थ में चैत्यवन्दन की क्रिया का महत्त्व भी वर्णित है । इनके अतिरिक्त इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता एवं सिद्धि इन चार यमों एवं प्रीति, भक्ति, वचन और असंग अनुष्ठानों का भी वर्णन है । इस पर यशोविजयजी की एक टीका भी है। २ (ई) योगदृष्टिसमुच्चय - इसमें २२७ संस्कृत पद्य हैं, जिनमें आध्या १. (क) पं० सुखलालजी द्वारा सम्पादित यह ग्रन्थ श्री जैन आत्मानन्द महासभा, भावनगर से सन् १९२२ में प्रकाशित हो चुका है । (ख) ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम से सन् १९२७में प्रकाशित । (ग) प्रो० के० वी० अभ्यंकर द्वारा सम्पादित, सन् १९३२ पूना से प्रकाशित | (घ) श्री बुद्धिसागरसूरि जैन ज्ञानमन्दिर, बीजापुर ( उत्तर गुजरात ) द्वारा वि० सं० १९९७ में प्रकाशित । २. यह कृति स्वोपज्ञवृत्ति के साथ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था, सूरत से सन् १९११ में प्रकाशित हुई है । ताराचन्द मेहता द्वारा सम्पादित योगदृष्टिसमुच्चय सविवेचन बम्बई से सन् १९५० में प्रकाशित । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग - साहित्य ४३ "त्मिक विकास की भूमिकाओं का तीन प्रकार से वर्गीकरण किया गया है और उनमें अपनी कुछ नवीन विशेषताओं के साथ योगबिन्दु में वर्णित विषयों की पुनरावृत्ति भी की गयी है। योगबिन्दु में वर्णित पूर्वसेवा का वर्णन इसमें योगबीज रूप से हुआ है । यहाँ आध्यात्मिक विकास की भूमिकाओं का तीन प्रकार से वर्गीकरण किया गया है । प्रथम प्रकार जिसे योगदृष्टि कहते हैं, इसमें योग की प्रारम्भिक अवस्था से लेकर उसके अन्त तक की भूमिकाओं को क्रमशः दिखलाया गया है । वे आठ दृष्टियाँ इस प्रकार हैं- मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा । दूसरे प्रकार के वर्गीकरण के अन्तर्गत इच्छायोग, शास्त्रयोग एवं सामर्थ्ययोग का समावेश किया गया है । तृतीय वर्गीकरण के अन्तर्गत योगाधिकारी के रूप में गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रयोगी और सिद्धयोगी का वर्णन है । प्रथम वर्गीकरण में निर्दिष्ट आठ योगदृष्टियों में ही १४ गुणस्थानों की योजना कर ली गयी है । इस ग्रन्थ पर स्वयं ग्रन्थकार ने एक स्वोपज्ञवृत्ति रची है, जो १९७५ श्लोकप्रमाण है । इस ग्रन्थ पर एक और वृत्ति की रचना हुई है जिसके लेखक सोमसुन्दरसूरि के शिष्य साधुराजगणि हैं । यह ग्रन्थ ४०५ श्लोकप्रमाण है । ' ध्यातव्य है कि उक्त आठ योगदृष्टियों ( मित्रा, तारा, बला आदि ) पर यशोविजयजी ने चार द्वात्रिंशिकाएँ भी लिखी हैं और गुजराती में यो दृष्टिनी सज्झाय नामक छोटी-सी पुस्तक लिखी है । इन दृष्टियों की समुचित विवेचना जैनदृष्टिए योग ( गुजराती भाषा ) तथा अध्यात्मतत्त्वालोक ( संस्कृत ) में क्रमश: मोतीचन्द कापड़िया और मुनि न्यायविजयजी ने की है । ( उ ) योगबिन्दु - हरिभद्र के इस ग्रन्थ में ५२७ संस्कृत पद्य हैं, १. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा० ४, पृ० २३७ २. योगबिन्दु, हरिभद्रीय स्वोपज्ञटीका, सम्पादक, डा० एल० सुआलि, प्रकाशक - जैनधर्मं प्रसारक सभा, भावनगर, सन् १९११; जैन ग्रन्थ प्रसारक सभा, भावनगर, सन् १९४० ; बुद्धिसागर जैन ज्ञानमन्दिर, सुखसागर ग्रंथमाला, तृतीय प्रकाशन, सन् १९५० Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन जिनमें जैन योग के विस्तृत प्ररूपण के साथ-साथ अन्य परम्परासम्मत योग की भी चर्चा है और उन योगों के साथ जैन योग की समालोचना 'भी की गयी है । योगाधिकारियों के सम्बन्ध में बतलाया गया है कि चे दो प्रकार के होते हैं : (१) चरमावर्ती तथा (२) अचरमावर्ती । चरमावर्ती योगी ही मोक्ष के अधिकारी हैं । विभिन्न प्रकार के जीव के भेदों के अन्तर्गत अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि अथवा भिन्न ग्रन्थि, देशविरति तथा सर्वविरति की चर्चा की गयी है । पूर्वसेवा के सन्दर्भ में योगाधिकार प्राप्ति के विविध अपेक्षित आचार-विचारों का वर्णन है । आध्यात्मिक विकास के क्रमशः अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षेप- इन पाँच भेदों का निर्देश है, जिनके सम्यक् पालन से कर्मक्षय होता है तथा मुक्ति प्राप्त होती है । प्रत्येक योगाधिकारी के अनुष्ठान की - कोटियों का वर्णन भी है, जिन्हें लेखक ने विष, गरल, सद्-असद् अनुष्ठान, तद्धेतु और अमृतानुष्ठान द्वारा निर्दिष्ट किया है । ४४ (ऊ) षोडशक' - इस ग्रन्थ के कुछ ही प्रकरण योग विषयक हैं | - ग्रन्थ के चौदहवें प्रकरण में योग-साधना में बाधक खेद, उद्व ेग, क्षेप, उत्थान, भ्रान्ति, अन्यमुद्, रुग् और आसंग इन आठ चित्त दोषों का वर्णन किया गया है । सोलहवें प्रकरण में उक्त आठ दोषों के प्रतिपक्षी अद्वेष, जिज्ञासा, शुश्रूषा, श्रवण, बोध, मीमांसा, प्रतिपत्ति और प्रवृत्तिइन आठ चित्त-गुणों का निरूपण है । योगसाधना द्वारा क्रमशः स्वानुभूति - रूप परमानन्द की प्राप्ति का निरूपण है । इस ग्रन्थ पर योगदीपिका नाम की एक वृत्ति है जिसके लेखक यशोविजयगणि हैं । इस पर यशोभद्रसूरि का विवरण भी है । -आत्मानुशासन र आचार्य गुणभद्र की संस्कृत श्लोकों की यह कृति योगाभ्यास की १. यशोभद्रसूरि के विवरण सहित, ऋषभदेवजी केसरीमलजी जैन श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, वीर नि० सं० २४६२ २. आत्मानुशासन, टीकाकार एवं अंग्रेजी अनुवादक जे० एल० जैनी, सैक्रेड बुक्स ऑफ दि जैनाज ग्रन्थमाला, ई० सन् १९२८; पं० टोडरमल्ल रचित टीका के साथ, संपादक इन्द्रलाल शास्त्री, मल्लिसागर दि० जैन ग्रन्थमाला, जयपुर, वीर नि० सं० २४८२ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग-साहित्य ४५. पूर्वपीठिका है। इसमें बताया गया है कि मन को बाह्य विषयों से हटाकर आत्मध्यान की ओर प्रेरित करना चाहिए। इस ग्रन्थ का रचना-काल ई० ९वीं शताब्दी का मध्यभाग है। योगासारप्राभृत* ___इस संस्कृत ग्रन्थ के रचयिता मुनि अमितगति हैं, जिसमें ५४० श्लोक हैं। रचना-काल ई० १०वीं शताब्दी है। इसमें ९ अधिकार हैं--(१) जीव, (२) अजीव, (३) आस्रव, (४) बन्ध, (१) संवर, (६) निर्जरा, (७) मोक्ष, (८) चारित्र, एवं (९) चूलिका । इस ग्रन्थ में योगसम्बन्धी अपेक्षित विषय का विस्तृत वर्णन है। इनके अतिरिक्त जीव-कर्म का सम्बन्ध, जीव-कर्म के कारण, कर्म से छूटने के उपाय, ध्यान, चारित्र आदि का भी वर्णन है। अन्त में मोक्ष के सम्बन्ध में भी प्रकाश डाला गया है । मुनि एवं श्रावक के व्रतों की भी चर्चा है। ज्ञानसार यह योगपरक एक नातिदीर्घ महत्त्वपूर्ण प्राकृत ग्रन्थ है। इसमें कुल ६३ गाथाएं हैं। इसके रचयिता मुनि पद्मनन्दि हैं जिनका समय विक्रम सं० १०८६ है। यद्यपि इस ग्रन्थ के वर्ण्यविषय ज्ञानार्णव के ही अनुसार हैं और इसमे ध्यान के भेद-प्रभेद, विविध प्रकार के मन्त्र एवं जप, शुभ-अशुभ के फल आदि का वर्णन हुआ है; तथापि इन विषयों के प्रतिपादन में रोचकता एवं स्पष्टता अधिक है। ध्यानशास्त्र अथवा तत्त्वानुशासन . इस ग्रन्थ के लेखक रामसेनाचार्य हैं, जिनका समय विक्रम की १०वीं १. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ० १२१ २. (अ) हिन्दी अनुवाद के साथ पन्नालाल बाकलीवाल द्वारा सम्पादित, कल कत्ता, प्रथम संस्करण, १९१८ (ब) भाष्य के साथ जुगलकिशोर मुस्तार द्वारा सम्पादित, भारतीय ज्ञान पीठ, वाराणसी, सन् १९६९ ३. सम्पादक, मूलचन्द किसनदास कापड़िया, दिगम्बर जैन पुस्तकालय, काप डिया भवन, सूरत, वीर नि० सं० २४७० ४. (अ) माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, शोलापुर, प्रथम संस्करण, वि० सं० १९७५ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन शताब्दी है।' इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय मुख्यतः ध्यान है और ध्यान के नैमित्तिक एवं सहायक तत्त्वों का विश्लेषण-विवेचन भी हैं। मोक्ष-प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यकचारित्र की अनिवार्यता निरूपित है। मन को एकाग्रता के लिए ध्यान का महत्त्व बतलाया गया है, इसलिए ध्यान के भेदों का विशेष वर्णन है । मन्त्र, जप, आसन आदि का भी वर्णन है। पाहुडदोहा" इस ग्रन्थ के रचयिता मुनि रामसिंह हैं। डा० हीरालाल जैन के अनुसार इनका समय ई० सन् ९३३ और ११०० के बीच अर्थात् १००० के आसपास होना चाहिए । यद्यपि इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य योगिन्दुदेवकृत परमात्मप्रकाश और योगसार से साम्य रखता है, तथापि इस ग्रन्थ में बहुत से ऐसे दोहे हैं जिनमें बाह्य क्रियाकाण्ड की निष्फलता तथा आत्मसंयम और आत्मदर्शन में ही सच्चे कल्याण का उपदेश है। झूठे जोगियों को खूब फटकारा गया है। इसमें योग एवं तन्त्र सम्बन्धी पारिभाषिक शब्दों के भी दर्शन होते हैं, जैसे शिव, शक्ति, देहदेवली, सगुण-निर्गुण, दक्षिण-मध्य आदि । इस ग्रन्थ में २२२ दोहे हैं । यह अपभ्रश भाषा में है। ज्ञानार्णव आचार्य शुभचन्द्रकृत इस ग्रन्थ के दो अन्य नाम भी मिलते हैं (ब) सम्पादक, जुगलकिशोर मुख्तार, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट, दिल्ली, सन्, १९६३ १. तत्त्वानुशासन, प्रस्तावना, पृ० ३४ २. सम्पादक, डा. हीरालाल जैन, कारंजा जैन पब्लिकेशन कारंजा, सन् १९३३ ३. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ० ११९ ४. (अ) रायचन्द जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, ई० सं० १९०७ इस ग्रन्थ पर तीन टीकाएं प्राप्त होती हैं, जिनके टीकाकार हैं श्रुतसागर, नमविलास और अज्ञात । (आ) जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, ई० स० १९७७, श्री पं० बालचन्दजी शास्त्री द्वारा सम्पादित संस्करण । .. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग - साहित्य यथा योगार्णव अथवा योगप्रदीप । ये सम्भवतः राजा भोज के काल में अर्थात् विक्रम की १२वीं शती में हुए हैं।' इस ग्रन्थ में ३९ प्रकरण और २२३० श्लोक हैं । यह एक उत्कृष्ट योगपरक ग्रन्थ है । इसमें बारह भावनाओं के स्वरूप, संसारबन्धन के कारण, कषाय, मन के विषय, आत्मा एवं बाह्य पदार्थों के सम्बन्ध, यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि का विस्तृत एवं सुस्पष्ट वर्णन है । ध्यान एवं ध्यान के भेदों का विशेष विश्लेषण - विवेचन है; साथ ही मन्त्र, जप, शुभ-अशुभ, शकुन, नाड़ी आदि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है । योगशास्त्र अथवा अध्यात्मोपनिषद् * यह ग्रन्थ १२वीं शताब्दी के कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रकृत है । वस्तुतः यह योगशास्त्र का एक बहुचर्चित ग्रन्थ है, जो एक हजार श्लोक -प्रमाण है । इस पर उनकी एक स्वोपज्ञवृत्ति भी है, जिसके द्वारा योगशास्त्र के ही विषयों को कथाओं एवं दृष्टान्तों के माध्यम से और अधिक स्पष्ट किया गया है । यह वृत्ति बारह हजार श्लोकप्रमाण है । योगशास्त्र पर ज्ञानार्णव का अत्यधिक प्रभाव परिलक्षित होता है । योगशास्त्र में बारह प्रकाश अथवा अध्याय हैं । प्रथम से तृतीय अध्याय तक साधु एवं गृहस्थों के आचारों का निरूपण है । चौथे अध्याय में कषायों पर विजय पाने तथा समतावृत्ति के स्वरूपादि का वर्णन है । १. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ० १२१ ; जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकार, पृ० ३० २. ( अ ) हेमचन्द्रीय स्वोपज्ञवृत्ति, प्रकाशक एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता, सन् १९२१ (आ) स्वोपज्ञवृत्ति सहित, जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, ई० १९२६, (इ) सम्पादक मुनि समदर्शी, ऋषभ जौहरी, दिल्ली, सन् १९६३ (ई) गुजराती भाषा में अनूदित एवं सम्पादित, जगजीवनदास, बम्बई, सन् १९४१ (उ) गो० जी० पटेल द्वारा सम्पादित, अहमदाबाद, सन् १९३८ (ऊ) इस पर इन्द्रनन्दी की एक टीका प्राप्त है जो कारंजा के ग्रन्थभण्डार में सुरक्षित है । इसका समय वि० सं० ११८० है | (ऋ) इस पर दूसरी टीका संवत् १३३४ में लिखी हुई देवपत्तन में प्राप्त है । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन पाँचवें अध्याय में प्राणायाम का विषय है और बताया गया है कि प्राणायाम मोक्ष - साधना के लिए अनावश्यक है । छठे अध्याय में परकायाप्रवेश, प्रत्याहार एवं धारणा के स्वरूप और उनके फलों का वर्णन है । सात से दसवें अध्याय तक आर्त्त, रौद्र और धर्मध्यान के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा है । ग्यारहवें एवं बारहवें अध्याय में क्रमशः शुक्लध्यान तथा स्वानुभव के आधार पर योग का सम्यक् विवेचन है । अध्यात्मरहस्य अथवा योगोद्दीपन' योगविषयक इस ग्रन्थ के रचयिता पं० आशाधरजी हैं । उन्होंने वि० सं० १३०० में अपने अनगारधर्मामृत ग्रन्थ की स्वोपज्ञटीका पूरी की और उसमें इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है । अतएव उससे कुछ समय पहले ही इस ग्रन्थ की रचना हुई होगी । इस ग्रन्थ की पदसंख्या ७२ है। इस ग्रन्थ में विशेषतः अध्यात्मयोग की चर्चा है और उसके सन्दर्भ में ही आत्मा एवं परमात्मा से सम्बन्ध रखनेवाले गूढ़ तत्त्वों का भी वर्णन है । अवान्तर रूप में कर्म, ध्यान आदि विषयों का भी विवेचन है | योगसार # विक्रम की १२वीं शती के पूर्व विनिर्मित यह ग्रन्थ अज्ञातकर्तृक है । इस ग्रन्थ में कुल १०६ संस्कृत पद्य हैं, जिनमें पाँच प्रस्तावों के विधान हैं, यथा -- (१) यथावस्थित देवस्वरूपोपदेश, (२) तत्त्वसार धर्मोपदेश, (३) साम्योपदेश, (४) सत्वोपदेश और ( ५ ) भावशुद्धिजनकोपदेश । योगप्रदीप * इस संस्कृत ग्रंथ के प्रणेता का नाम एवं उनका समय अज्ञात है । १. जुगलकिशोर मुख्तार द्वारा सम्पादित, वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली, सन् १९५७ २. अध्यात्म रहस्य, प्रस्तावना, पृ० ३४ ३. गुजराती अनुवाद अमृतलाल कालीदास दोशी, जैन विकास साहित्य मण्डल, बम्बई, सन् १९६८ ४. ( अ ) सम्पादक जीतमुनि, जोधपुर, वीर नि० सं० २४४८ (आ) प्रकाशक- जैन साहित्य विकास मण्डल, बम्बई, ई० सन् १९६० Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग - साहित्य ४९ इसमें कुल १४३ श्लोक हैं, जिनमें परमात्मा के साथ शुद्ध मिलन, परमपद की प्राप्ति आदि की विस्तृत चर्चा है । प्रसंगवश उन्मनीभाव, समरसता, रूपातीत ध्यान, सामायिक, शुक्लध्यान, अनाहतनाद. निराकार ध्यान आदि विषयों का प्रतिपादन भी है। यशोविजयकृत योगपरक ग्रन्थ यशोविजयजी का समय ई० १८वीं शताब्दी है । इन्होंने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, योगावतार बत्तीसी, पातंजल योगसूत्रवृत्ति, योगविंशिका की टीका तथा योगदृष्टिनी सज्झायमाला की रचना की है । इन ग्रन्थों में इन्होंने योगसम्बन्धी बहुत सी बातों का विवेचन व स्पष्टीकरण किया है। रचनाओं का संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जा रहा है । १. अध्यात्मसार ' - यह ग्रन्थ सात प्रकरणों में विभक्त है । योगाधिकार एवं ध्यानाधिकार प्रकरण में मुख्यतः गीता एवं पातंजल योगसूत्र के विषयों के सन्दर्भ में जैन योग-परम्परा के प्रसिद्ध ध्यान के भेदों का समन्वयात्मक विवेचन है । इस दृष्टि से इस ग्रन्थ की उपयोगिता स्वयंसिद्ध है । २. अध्यात्मोपनिषद् - इस ग्रन्थ में शास्त्रयोग, ज्ञानयोग, क्रियायोग और साम्ययोग पर समुचित प्रकाश डाला गया है और औपनिषदिक एवं योगवासिष्ठ की उद्धरणियों के साथ जैन दर्शन की तात्त्विक समानता दिखलायी गयी है । ३. योगावतार बत्तीसी' - इस ग्रन्थ में ३२ प्रकरण हैं जिनमें आचार्य हरिभद्र के योग-ग्रन्थों की ही विस्तृत एवं स्पष्ट व्याख्या प्रतिपादित है | ४ ४. पातंजलयोगसूत्र एवं योगविशिका -- पातंजलयोगसूत्र के सन्दर्भ में जैन योग का विश्लेषण एवं विवेचन इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य है । १. श्री यशोविजयगणि, प्रकाशक, केशरबाई ज्ञान भण्डार स्थापक, जामनगर वि० सं० १९९४ २ . वही ३. सटीक, प्रकाशक- जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, वि० सं० १९६६ ४. सम्पादक - पं० सुखलाल, प्रकाशक- जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, सन् १९२२ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययने प्रसंगवश दोनों परम्पराओं के योगों में समानता एवं असमानता पर भी प्रकाश डाला गया है। योगविशिका में योगसूत्रगत समाधि की तुलना जैन ध्यान से की गयी है। ___५. योगदृष्टिनी सज्झायमाला-यह गुजराती भाषा की रचना है। योगदृष्टिसमुच्चय में प्रतिपादित आठ दृष्टियों का ही सम्यक् विवेचन प्रस्तुत करना इस का प्रतिपाद्य है । ध्यानदीपिका यह देवेन्द्रनन्दि की वि० सं० १७६६ में लिखी गुजराती रचना है। छह खण्डों में विभक्त इस कृति में बारहभावना, रत्नत्रय, महाव्रत, ध्यान, मन्त्र तथा स्याद्वाद का निरूपण है। ध्यानविचार: इसकी हस्तलिखित प्रति पाटन के शास्त्र-भण्डार में है। यह गद्यात्मक है । इसमें भावना, ध्यान, अनुप्रेक्षा, भावनायोग, काययोग एवं ध्यान के २४ भेदों का विवेचन है। वैराग्यशतक' यह धनदराज की कृति है। इसमें १०८ पद्य हैं । दूसरे श्लोक में इस ग्रन्थ को शमशतक भी कहा गया है । इसमें योग, काल की करालता, विषयों की विडम्बना और वैराग्यपोषक तत्त्वों का निरूपण है। अध्यात्मकमलमार्तण्ड' कवि राजमल्ल विरचित इस ग्रन्थ में २०० श्लोक हैं। इसमें चार परिच्छेद तथा मोक्षमार्ग, द्रव्य-लक्षण, द्रव्य-विशेष और जीवादि सात तत्त्वों का निरूपण है। १. अध्यात्मज्ञान प्रसारक मण्डल द्वारा सन् १९२९ में प्रकाशित । २. यह ग्रन्थ जैन साहित्य विकास मण्डल, बम्बई से सन् १९६१ में प्रकाशित हुआ है। ३. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा० ४, पृ० २२३ ४. यह कृति माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला से वि० सं० १९९३ में प्रकाशित है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग-साहित्य अध्यात्मतत्त्वालोक' इस ग्रन्थ के रचयिता मुनि न्यायविजय हैं। इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय योग है । इसमें आठ प्रकरणों के निर्देश इस प्रकार हैं : प्रथम प्रबोधन नामक प्रकरण में आत्मा के विकास का वर्णन है। द्वितीय पूर्वसेवा नामक प्रकरण में गुरु, माता-पिता तथा अपने से बड़ों की पूजा का वर्णन है। तृतीय अष्टांग नामक प्रकरण में आठ योगों का निरूपण है। चतुर्थ कषाय नामक प्रकरण में कषायों पर जय पाने का विस्तृत वर्णन है। पञ्चम ध्यानसामग्री प्रकरण में चञ्चल मानसिक वृत्तियों को स्थिर रखने के उपाय बतलाये गये हैं। पष्ठ ध्यानसिद्धि प्रकरण में आगमोक्त चार प्रकार के ध्यानों का विवेचन है। ___ सप्तम योगश्रेणी प्रकरण में योग की विभिन्न श्रेणियों को बतलाते हए योग की उस उच्चतम अवस्था का उल्लेख है, जहाँ से आत्मा कभी लौटती नहीं। ___ अष्टम या अन्तिम उद्गार नामक प्रकरण में साधु-असाधु अथवा ज्ञानी-अज्ञानी के आत्मतत्त्व पहचानने के उपाय बतलाये गये हैं। साम्यशतक' यह १०६ श्लोकों में निबद्ध विजयसिंहसूरि की रचना है। इस पुस्तक की विषयवस्तु समाधिशतक जैसी ही है । योगप्रदीप २३ प्रकाशों में विभक्त इस ग्रन्थ के कर्ता उपाध्याय श्रीमंगलविजयजी महाराज हैं। इस ग्रन्थ का दूसरा नाम 'आहत-धर्म प्रदीप' भी है। ग्रन्थकार ने पूर्ववर्ती जैन ग्रन्थों का अनुगमन किया है, फिर भी अपनी १. श्री हेमचन्द्राचार्य जैन सभा, पाटन द्वारा वीर नि० सं० २४६९ में प्रकाशित । २. ए० एम० एण्ड कम्पनी, बम्बई की ओर से सन् १९१८ में प्रकाशित । ३. हेमचन्द सवनचन्द शाह, कलकत्ता द्वारा वीर नि० सं० २४६६ में प्रकाशित । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन विशिष्ट शैली द्वारा इसको अनूठा बना दिया है । इसमें जैन योग के साथ-साथ पातंजल योगसूत्र, हठयोग, गीता एवं बौद्ध योग की तुलना की गयी है । अध्यात्म कल्पद्रुम' इस ग्रन्थ की रचना मुनिसुन्दरसूरीश्वर महाराज ने की है। इस ग्रन्थ के १६ अधिकारों में योगी के लिए अपेक्षित सामग्रियों की चर्चा है । प्रथम अधिकार में चार भावनाओं का निरूपण हुआ है । दूसरे अधिकार में स्त्री को परिग्रह - स्वरूप बतलाकर उसका परित्याग करने का उपदेश है । तीसरे, चौथे तथा पाँचवें अधिकार में क्रमशः पुत्र, धन और शरीर की व्यर्थता बतलाकर उनसे मोहरहित होने का उपदेश है । छठे तथा सातवें अधिकार में संसार के मूल कारणरूप कषायों का निरूपण है और संयमी जीवन बिताने का निर्देश है । आठवें अधिकार में शास्त्रपूजा तथा चतुर्गंति का विवेचन है । नवें तथा दसवें अधिकार में मनोनिग्रहतथा वैराग्य का उपदेश है । ग्यारहवें, बारहवें तथा तेरहवें अधिकार में धर्म-शुद्धि, देव-शास्त्र-गुरु-पूजा तथा मुनि के आचार सम्बन्धी विचार वर्णित हैं | चौदहवें अधिकार में संवर, पन्द्रहवें अधिकार में आवश्यक क्रियाओं और सोलहवें अधिकार में समता - फलरूपो मोक्ष का वर्णन है । जैन योग (अंग्रेजी) इस अंग्रेजी पुस्तक के लेखक आर० विलियम्स हैं । इसमें योग का वर्णन न करके योग के आधारभूत अर्थात् श्रावकाचार का ही मुख्यत: प्रतिपादन किया गया है | श्रावकाचार की पूरी आचारसंहिता इसमें आलोचनात्मक ढंग से वर्णित है । इस प्रकार योग-विषयक उन्हीं ग्रन्थों का परिचय यहाँ अभीष्ट रहा १. निर्णयसागर मुद्रणालय, बम्बई से सन् १९०६ में प्रकाशित; मूलकृति धनविजयगण की टीका के साथ मनसुखभाई तथा जमनाभाई भगुभाई ने वि० सं० १९७१ में; जैनधर्म प्रसारक सभा ने सन् १९११ में; देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था ने सन् १९४० में; तथा भोगीलाल साकलचन्द, अहमदाबाद द्वारा सन् १९३८ में । २. ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, लन्दन द्वारा सन् १९६३ में प्रकाशित । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ जैन योग-साहित्य है जो प्रमुखतः जैन योगपरक हैं। इनके अतिरिक्त जिनरत्नकोश' में अध्यात्म नाम से शुरू होनेवाले ग्रन्थों की नामावली इस प्रकार दी गयी है-अध्यात्म-भेद, अध्यात्मकलिका, अध्यात्मपरीक्षा, अध्यात्मप्रदीप, अध्यात्मप्रबोध, अध्यात्मलिंग और आध्यत्मसारोद्धार । जिनरत्नकोश में योगविषयक अन्य ग्रन्थों का भी उल्लेख है, जिनके कर्ता अज्ञात हैं और कृतियाँ प्रायः अनुपलब्ध हैं। वे ग्रन्थ इस प्रकार हैं-योगदृष्टिस्वाध्यायसूत्र, योगभक्ति, योगमाहात्म्य, योगरत्नसमुच्चय, योगरत्नावलि, योगविवेकद्वात्रिंशिका, योगसंकथा, योगसंग्रह, योगानुशासन एवं योगावतारद्वात्रिंशिका । योगकल्पद्रुम एवं योगतरंगिणी ये दो ग्रन्थ उपलब्ध हैं, परन्तु उनके कर्ता अज्ञात हैं। इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी योगविषयक ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है, जिनके लेखकों का निर्देश किया गया है१. योगदीपिका -पं० आशाधर २. योगभेद द्वात्रिंशिका -पं० परमानन्द ३. योगमार्ग -पं० सोमदेव ४. योगरत्नाकर -~-मु० जयकीर्ति ५. योगलक्षणद्वात्रिंशिका -मु० परमानन्द ६. योगविवरण -श्री यादवसूरि ७. योगसंग्रहसार -श्री जिनचंद्र ८. योगसंग्रहसारप्रक्रिया -मु० नन्दीगुरु ९. योगसार -पं० गुरुदास १०. योगांग -श्री शान्तरस ११. योगामृत -श्री वीरसेनदेव १. जिनरत्नकोश, वि० १, पृ० ५-६; जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा० ४, पृ० २६४। २. वही; तथा जैन साहित्य का बृहद् इतिहास; भा० ४, पृ० ३२१-२२ । ३. वही, पृ० २५१। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३ : पृष्ठभूमि भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक दृष्टि से निवृत्तिपरक विचारधारा का अपना मूल्य एवं महत्त्व है । निवृत्ति जैनधर्म का प्राणतत्त्व है । आत्मिक अथवा आध्यात्मिक विकास के लिए निवृत्ति पर विशेष बल दिया गया है और इसके लिए योग नितान्त अपेक्षित है । यही कारण है कि जैन संस्कृति आचार-विचार एवं तपोमूलक प्रवृत्ति को लेकर अपनी विशिष्टता को सुरक्षित रख सकी है। ऋग्वेद' में वातरशना मुनि के सम्बन्ध में बताया गया है कि अतीन्द्रियार्थदर्शी वातरशना मुनि मल धारण करते हैं, जिससे वे पिंगलवर्ण दिखाई देते हैं । जब वे वायु की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं, अर्थात् रोक लेते हैं, तब वे अपने तप की महिमा से दीप्त होकर देवतास्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं । अतएव यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि तप अर्थात् योग की परम्परा, जैन संस्कृति में प्रारम्भ से रही है । उपनिषदों में तापस और श्रमण को एक माना गया है । इन तथ्यों से स्पष्ट है कि श्रमणों की तपस्या और योग की साधना अत्यन्त पुरानी है और आध्यात्मिक विकास के लिए अनिवार्य मानी गयी है । मोहनजोदड़ो से प्राप्त जैन योग का स्वरूप १. ऋग्वेद, १०।१३६।२ २. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ० १३ ३. अत्र पिताऽपिता भवति माताऽमाता लोका अलोका देवा अदेवा वेदा अवेदाः । अत्र स्तेनोऽस्तेनो भवति भ्रूणहाऽभ्रूणहा चाण्डालोऽचाण्डाल: पौल्कसोऽपौल्कसः श्रमणोऽश्रमणस्तापसौ तापसौऽनन्वागतं पुण्येनानन्वागतं पापेन तीर्णो हि तदा सर्वांछौकान्हृदयस्य भवति । - वृहदारण्यक उपनिषद्, ४।३।२२ ४. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा० १, (प्रस्तावना), पृ० २१ 5. Modern Review, August, 1932, pp. 155-56 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूप कायोत्सर्ग-मुद्रा से युक्त मूर्ति तथा पटना के नजदीक लोहानीपुर से प्राप्त नग्न कायोत्सर्ग मूर्ति से भी इस बात की पुष्टि होती है। महर्षि पतंजलि ने जैसे 'योग' शब्द का प्रयोग 'आत्मसाधना' के अर्थ में किया है, वैसे 'योग' शब्द का प्रयोग जैनधर्म में आत्मसाधना के लिए नहीं हुआ है। जैन-परम्परा में मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को योग कहा गया है। यह आस्रवरूप है। फिर भी योगसाधना को व्यक्त करनेवाले अंगभूत ऐसे अनेक शब्दों का व्यवहार आगमों में हुआ है जैसे ध्यान, तप, समाधि, संवर आदि । समाधि, तप, ध्यान आदि शब्दों का उपयोग योग की तरह ही हुआ है और वीर्य, स्थान, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति एवं सामर्थ्य शब्द प्रकारान्तर से योग के अर्थ को ही व्यंजित करनेवाले माने गये हैं। जैनधर्म-दर्शन का पारिभाषिक शब्द संवर कर्मास्रवों को रोकता है और साधना की दृष्टि से योग से साम्य रखता है । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग (प्रवृत्ति) से रंजित कर्म ही आस्रव है तथा इन प्रवृत्तियों का निरोध ही संवर है।" योगसूत्रानुसार चित्तवृत्तियों का निरोध योग है। संवर शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में जैन-परम्परा में हुआ है। जैन-परम्परा में योग का अर्थ है मन, वचन और काय की प्रवृत्ति । जैसे वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम या क्षय होने पर मन, वचन एवं काय के निमित्त से आत्मप्रदेशों के चंचल होने को योग कहा गया है, क्योंकि इन तीनों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म व्यापारों से ही कर्मों का आस्रव होता है। अतः जैनपरम्परा में 'योग' शब्द योगदर्शन के 'योग' शब्द से साम्य नहीं रखता, १. जैन साहित्य का इतिहास : पूर्वपीठिका, प्राक्कथन, पृ० १० २. झाणसंवरजोगे य ।-अभिधानराजेन्द्रकोश, भा० ४, पृ० १६५. ३. जोगो विरियं यामो उच्छाह परक्कमो तहा चेट्ठा। सति सामत्थं चिय जोगस्स हवन्ति पज्जाया ।। -पंचसंग्रह, भा० २, ४ ४. पंचआसवदारा पण्णत्ता, तं जहा, मिच्छत्तं, अविरई, पमायो, कसाया, जोगा।-समवायांग, ५ ५. आस्रवनिरोधः संवरः।-तत्त्वार्थसूत्र, ९।१ ६. विशेषावश्यकभाष्य, ३५८ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन क्योंकि योगदर्शन के अनुसार वृत्तियों का निरोध योग है और वह पुरुष के कैवल्य की प्राप्ति में प्रधान कारण है। किन्तु यह योग एक शक्ति विशेष है, जो कमरज को आत्मा तक लाता है।' जैन-परम्परा में 'योग' शब्द का पातंजल-योगदर्शनसम्मत सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य हरिभद्र द्वारा किया गया है। योग को पारिभाषित करते हुए उन्होंने कहा है कि मोक्ष-प्राप्ति के लिए जो धर्म-क्रिया अथवा विशुद्ध व्यापार किया जाता है, वह धर्म-व्यापार 'योग' है ।२ यमनियमादि व्यापार जीव के परिणामों की शुद्धि के लिए ही किये जाते हैं तथा इनका उद्देश्य मन, वचन एवं काय द्वारा अर्जित कर्मो की शुद्धि करना ही है। इस दृष्टि से समिति, गुप्ति आदि आचार-विचारों का अनुष्ठान उत्तम योग है, क्योंकि इनसे संयम वृद्धि होती है और योग भी आत्मा की ही विशुद्धावस्था का मार्ग है, जिससे जीव को सर्वोच्च अवस्था की प्राप्ति होती है । योग का महत्त्व एवं लाभ ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी रत्नत्रय-योग ही परम उच्च मोक्षपद को प्राप्त करने का उत्तम साधन है। यह योग शास्त्रों का उपनिषद् है, मोक्षप्रदाता है तथा समस्त विघ्नबाधाओं को शमन करनेवाला है, इसलिए कल्याणकारी है। यह इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति करानेवाला कल्पतरु एवं चिन्तामणि है। धर्मो में प्रधान यह योगसिद्धि स्वयं के अनुग्रह अथवा अध्यवसाय से मिलती है। सच्चा १. पंचम कर्म ग्रन्थ, विवेचनकर्ता पं० कैलाशचंद्र शास्त्री, पृ० १५० २. मुक्खेण जीयणाओ, जोगी सम्वो वि धम्मवावारो।—योगविंशिका, १ ३. यतः समितिगुधिना प्रपंची योग उत्तमः ।-योगभेदद्वात्रिंशिका, ३० ४. ज्ञानदर्शनचारित्ररूप रत्नत्रयात्मकः । योगौमुक्तिपदप्राप्तानुप्रायः परिकीर्तितः ।।-योगप्रदीप, ११३ ५. शास्त्रस्योपनिषद्योगो योगो मोक्षस्य वर्तनी । अपायशमनो योगो, योगकल्याणकारकम् ।। -योगमाहात्म्यद्वात्रिशिका, १ ६. योगकल्पतरु श्रेष्ठौ योगश्चिन्तामणि परः । योगः प्रधानं धर्माणां, मोगः सिद्धेः स्वयंग्रहः ।।-योगबिन्दु, ३७ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन' योग का स्वरूप ५७ योगी वही है जिसने श्वास को जीत लिया है, जिसके लोचन निस्पन्द हो गये हैं।' जो इन्द्रियों के वश में होते हैं, वे योगी नहीं हैं। योग के लिए मन की समाधि एवं प्रकार योगसिद्धि के लिए मन की समाधि परम आवश्यक है। योगाभ्यास के लिए सर्वप्रथम मन को संयमी करना अनिवार्य है; क्योंकि मन के कारण ही इन्द्रियाँ चंचल होती हैं, जो आत्मज्ञान में बाधक हैं तथा एकोन्मुखता के मार्ग में भटकाव पैदा करती हैं। मन की अस्थिरता के कारण ही रागादि भाव की वृद्धि होती है तथा कर्म-प्रकृतियों का बन्ध होता है। कर्म चाहे पुण्यप्रकृति के हों या पापप्रकृति के, अन्ततः दोनों ही संसार-बन्धन के कारण हैं। इसलिए दोनों प्रकार के कर्मों को नष्ट करना यौगिक स्थिरता के लिए आवश्यक है। चञ्चल मन को सर्वथा स्थिर करना योग की पहली शर्त है। अतः मन की समाधि योग का हेतु तथा तप का निदान है, क्योंकि मन को केन्द्रित करने के लिए तप आवश्यक है, तप शिवशर्म का, मोक्ष का मूल कारण है। योगशास्त्र के अनुसार मन के चार प्रकार हैं : (१) विक्षिप्त मन, (२) यातायात मन, (३) श्लिष्ट मन, (४) सुलीन मन। विक्षिप्त मन का स्वभाव चञ्चल होता है और यातायात मन का स्वभाव विक्षिप्त मन की अपेक्षा कुछ कम चञ्चल होता है तथा मन को शान्ति प्रदान करनेवाला भी होता है। इसलिए योग-साधकों के लिए इन दो प्रकार के मन पर नियन्त्रण करना आवश्यक है। योग की प्रथम १. णिज्झियसासो णिप्फद लोमणो मुक्कसयलवावारो। एयाइं अवत्थ गो सो जोयउ पत्थि संदेहो ॥-पाहुडदोहा, २०३ २. सो जोयउ जो जागयई णिम्मलि जोइ यजोइ ।। जो पुणु इंदियवसि गयउ सो इह सावयलोई ॥-वही, ९६ ३. योगस्य हेतुर्मनसः समाधिः परं निदानं तपस्यश्चः योगः । तपश्च मूलं शिवशर्म मनः समाधि भज तत्कथंचित् । -अध्यात्मकल्पद्रुम, ९।१५ ४. इह विक्षिप्तं यातायातं श्लिष्ट तथा सुलीनं च । चेतश्चतुः प्रकारं तज्ज्ञचमत्कारकारि भवेत् ॥-योगशास्त्र, १२।२ ५. विक्षिप्तं चलमिष्टं यातायात च किमपिसानन्दम् । प्रथमाभ्यासे द्वयमपि विकल्प-विपयग्रहं तत्स्यात् ।।- योगशास्त्र, १२॥३ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन अवस्था में साधक की स्थिति मर्कटलीला की तरह होती है अर्थात् वह क्षण-क्षण एक विषय से दूसरे विषय में संचरित होता है, जिसके फलस्वरूप अनेक कर्म-पुद्गलों के परिणाम बँधते हैं और चित्त की विकलता बढती है । यद्यपि विक्षिप्त मन की अपेक्षा यातायात मन में इन्द्रियाँ कुछ शान्त रहती हैं, लेकिन शान्ति कुछ समय के लिए ही होती है । जेसे ही विषयों के साधन समक्ष आते हैं, वैसे ही रागादि भाव उमड़ पड़ते हैं । अतः इन दोनों को आन्तरिक शान्ति के लिए, अभ्यासपूर्वक शान्त करने का प्रयास योगी के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है। श्लिष्ट मन की भूमिका यातायात मन के बाद प्रारम्भ होती है । इस मन के निरोध के अभ्यास से चित्तवृत्तियाँ शान्त हो जाती हैं तथा आन्तरिक शान्ति का अनुभव होने लगता है । सुलीन मन में आनन्द की अनुभूति के कारण चित्त एकाग्र होकर आत्मलीन हो जाता है । यही कारण है कि इस मन के अभ्यास से साधक को परमानन्द अर्थात् स्वानु. भूति का आनन्द होता है ।' इस सन्दर्भ में कहा गया है कि मन स्थिर करने के लिए साधक को सर्वप्रथम अपनी प्रिय वस्तु पर मन को केन्द्रित करना चाहिए। इस चुनाव में साधक को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मन शुभ प्रवृत्ति की ही ओर प्रवृत्त रहे । इस प्रकार प्रिय वस्तु का बारम्बार चिन्तन-मनन करने से एक स्थिति ऐसी आयेगी कि साधक का मन अपने आप उस वस्तु से ऊब जायेगा और दूसरी वस्तु की ओर उन्मुख होगा । उस वस्तु के बारम्बार चिन्तन-मनन से पुनः कब पैदा होगी और स्वभावतः उसका मन दूसरी वस्तु की ओर प्रवृत्त होगा। ऐसा करने से दो लाभ होते हैं। एक तो ऐसे मन की एकोन्मुखता का अभ्यास होता जाता है, जो ध्यान तथा योग के लिए आवश्यक है। दूसरे, वस्तु की यथार्थता तथा व्यर्थता का ज्ञान होता है और स्वभावतः मन परमतत्त्व की ओर आकर्षित होता जाता है। अतः मन के इस प्रकार के अभ्यास से साधक की द्विविधा नष्ट हो जाती है और उसका मन किसी एक ही विषय में स्थिर हो जाता है । इन चार प्रकार के मन का क्रमशः अभ्यास करते-करते साधक ध्यान का स्थिरीकरण भी कर लेता है, क्योंकि ध्यान और मन का १. श्लिष्ट स्थिरसानन्दं सुलीनमतिनिश्चलं परमानन्दम् । तन्मात्रकः विषयग्रहमुभयमपि बुद्यस्तदाम्नातम् ।।-वही, १२।४ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूप सम्बन्ध अत्यन्त घनिष्ठ है । ध्यान का स्थिरीकरण मन की स्थिरता पर ही निर्भर करता है। जिसने मन को वश में कर लिया उसके लिए संसार में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जो वश में न की जा सके। इस प्रकार मन की विजय योग की सफलता की कुञ्जी है। ___ योग की साधना में संलग्न होने के लिए साधक को विभिन्न आचारविचारों का सम्यकप से पालन करने का विधान है। यहाँ तक कि अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत, समिति, गप्ति आदि चारित्राचार का पालन योगसाधना को प्राथमिक भूमिका से लेकर निष्पन्न अवस्था तक किया जाता है । श्रावकों और श्रमणों के लिए अलग-अलग आचार-चर्या का विधान है। श्रमणों की अपेक्षा श्रावकों को परिस्थिति एवं काल की अपेक्षा से मर्यादित व्रत-नियमों का पालन करना पड़ता है, फिर भी योग-साधना के लिए उसे भी पूरी छट है। वह भी श्रमण की भाँति सम्पूर्ण परिग्रह से मुक्त होकर अर्थात् वैराग्य धारण करके योग-साधना में संलीन हो सकता है। अतः चारित्र-विकास की दृष्टि से दोनों श्रेणियों के योगी साधकों के लिए आवश्यक-अनावश्यक वस्तुओं के त्याग एवं ग्रहण करने का विधान है, जिनका उल्लेख योग-संग्रह के अन्तर्गत हुआ है। योग-संग्रह योग-संग्रह संक्षेप में ३२ प्रकार का है१. आलोचना-गुरु के निकट अपने दोषों को स्वीकार करना । २. निरपलाप-शिष्य के दोष दूसरों पर प्रकट नहीं करना।। ३. व्रतों में स्थिरता-आपत्ति-काल में अंगीकृत व्रत-नियमों का परि त्याग न करना। ४. अनिश्तिोपधान-दूसरों की सहायता के बिना तप करना । ५. शिक्षा शास्त्रों का पठन-पाठन । ६. निष्प्रतिकर्मता-शरीर-संस्कार न करना । ७. अज्ञातता-तप के बारे में गप्तता रखना। ८. अलोभता-किसी वस्तु के प्रति लोभ न रखना। १. ध्यानं मनःसमायुक्त मनस्तत्र चलाचलम् । ___ वश्यं येन कृतं तस्य भवेद्वश्यं जगत्त्रयम् ।।-योगप्रदीप, ७९ २. समवायांगसूत्र, ३२; स्थानांगसमवायांग, पृ० १७ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन ९. तितिक्षा-परीषहजय । १०. ऋजुभाव-भावों में सरलता। ११. शुचि-सत्य और संयमवृद्धि । १२. सम्यग्दृष्टि-साधना व चर्या में श्रद्धा। १३. समाधि-एकाग्रता रखना। १४. आचार-आचार में दृढ़ता। १५. विनय-भावों में मदुता रखना। १६. धृतिमति-धैर्यप्रधान दृष्टि । १७. संवेग-संसारभय । १८. प्राणिधि-मायारहित होना। १९. सुविधि-सदनुष्ठान । २०. संवर-कर्मो के कारणों को रोकना। २१. आत्मदोषोपसंहार-अपने दोषों का निरोध । २२. सर्वकाम विरति-कामनाओं के प्रति विरक्ति । २३. प्रत्याख्यान-मूलगुणविषयक । २४. प्रत्याख्यान-उत्तरगुणविषयक । २५. व्युत्सर्ग-त्याग। २६. अप्रमाद-प्रमाद से बचना । २७. लवालव-प्रत्येक समय में साध्वाचार का पालन करना। २८. ध्यान-संवरयोग। २९. मारणांतिक उदय-मरणकाल में दुःख-क्षोभ प्रकट नहीं करना। ३०. संग का त्याग । ३१. प्रायश्चित्त । ३२. मारणांतिक आराधना-शरीर-त्याग और कषाय क्षीण करते समय का तप । इस योगसंग्रह को योग की आधार-भूमि माना गया है और इसे सुदृढ़ तथा फलीभूत बनाने का आदेश दिया गया है। यहाँ तक कहा गया है कि श्रावक व्यावहारिक जीवन बिताते हुए भी इन योग-संग्रहों का सम्यक् पालन करने से पूर्ण योगी की भूमिका पर पहुंच सकता है। गृहस्थ-धर्म में मार्गानुसारी' के कई ऐसे गुण हैं जो उनके लौकिक १. मार्गानुसारी के ३५ गुण बतलाये हैं । -योगशास्त्र, ११४७-५६ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूप जीवन से सम्बन्ध रखते हैं तथा समतायुक्त एवं अनासक्त होने और आत्मकल्याण हेतु प्रयत्नशील बनने का आदेश देते हैं। वस्तुतः इन आधारभूमिकाओं के स्थिर हो जाने पर गृहस्थ साधक भी श्रमणों की भांति योगसाधना में सफल होते हैं, क्योंकि मोही साधु की अपेक्षा निर्मोही श्रावक श्रेष्ठ होता है।' ___ योग-संग्रह को ही प्रकारान्तर से योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय तथा योगशतक' में क्रमशः पूर्वसेवा, योगबीज तथा लौकिक धर्म-पालन की संज्ञा दी गयी है और कहा है कि इनका पालन साधक के लिए आवश्यक है। गुरु को आवश्यकता एवं महत्ता योगी पूर्वसेवा अर्थात् प्रारम्भिक क्रियाओं के सम्यक्पालन के साथसाथ योग्य गुरु का सत्संग भी करता है, क्योंकि बिना सद्गुरु के विषयों तथा कषायों की चञ्चलता में वृद्धि होती है तथा शास्त्र एवं शुद्ध भावनाओं का नाश होता है। अत: गुरु द्वारा साधक शास्त्र-वचनों का मर्म तथा तत्त्वज्ञान की प्राप्ति करता है, जिनसे आध्यात्मिक ज्ञान में वृद्धि होती है और आत्मविकास होता है। कहा भी है कि तत्त्वज्ञान अर्थात् ज्ञान की लब्धि दो प्रकार से होती है-(१) पूर्वसंस्कार से तथा (२) गुरु की उपासना से ।' पूर्व-संस्कार से उत्पन्न ज्ञान में भी गुरु-संवाद अर्थात् आत्मचर्चा निमित्त कारण होती है । संयम की वृद्धि, तत्त्वज्ञान आदि के लिए गुरु का सान्निध्य आवश्यक है, क्योंकि उनके सान्निध्य और उपदेश १. गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । अनगारो गृही श्रेयान्, निर्मोहो, मोहिनो मुनेः । रत्नकरण्डश्रावकाचार, १३३ २. योगदृष्टिसमुच्चय, २२-३; २७-८ ३. योगशतक, २५-२६ तावद् गुरुवचः शास्त्रं तावत् तावच्च भावनाः । कषायविषयैर्यावद् न मनस्तरली भवेत् । -योगसार, ११९ ५. तत्र प्रथमतत्त्वज्ञान संवादको गुरुर्भवति।। दर्शयिता त्वपरस्मिन् गुरुमेव भजैत्तस्मात् ॥ -योगशास्त्र, १२-१ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन से योगसाधना में सफलता प्राप्त होती है । गुरु सेवादि धर्मकृत्य बाधारहित करने से लोकोत्तर तत्त्व की सम्प्राप्ति होती है ।" गुरु की भक्ति एवं सानिध्य से साधक का मन ध्यान में इतना एकाग्र हो जाता है कि उस अवस्था में उसे तीर्थंकर - दर्शन का साक्षात् लाभ होता है और साधक मोक्षगति भी प्राप्त करता है । * आत्मा व कर्म का सम्बन्ध आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि है । दोनों का स्वभाव परस्परविरोधी है । आत्मा जहाँ स्वभाववश चेतन व ज्ञानादिरूप है; वहाँ कर्म अचेतन व रागादिभाव से युक्त है। हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह आदि जो मन की पाप प्रवृत्तियाँ हैं, उन्हीं से कर्मों की उत्पत्ति एवं स्थिति होती है । इस प्रकार जीव अर्थात् आत्मा जब परद्रव्य में राग तथा द्वेषवश शुभ एवं अशुभ भाव को ग्रहण करता है, तब वह कर्मास्रवों का कारण बनता है, क्योंकि जीव अपने स्वरूप को भूलकर परद्रव्यों के अवलम्बन में ही लगा रहता है और भ्रमवश उन्हीं विषयों को अपने लिए सुखद अथवा दुःखद मान बैठता है । अतः योगसाधना में उपार्जित कर्मो का पूर्णतः क्षय किया जाता है तथा आनेवाले कर्म - पुद्गलों का भी वर्जन कर दिया जाता है । योगाधिकारी के भेद योगबिन्दु के अनुसार योगाधिकारी साधक की दो कोटियाँ हैंअचरमावर्ती तथा चरमावर्ती । अचरमावर्ती जीव पर मोहादि भावों का चरम दबाव रहता है, जिसके फलस्वरूप उसकी प्रवृत्ति घोर सांसारिक, १. एवं गुरुसेवादि च काले सद्योगविघ्नवर्जनया | इत्यादिकृत्यकरणं लोकोत्तरतत्त्वसम्प्राप्ति ॥ २. गुरुभक्तिप्रभावेन तीर्थकृद्दर्शनं मतम् । समापत्यादिभेदेन निर्वाणैकनिबन्धनम् ॥ ३. योगसारप्राभृत, ५३८९ ४. वही, ३।३०-३१ ५. पंचाक्षविषयाः किंचिन् नास्य कुर्वन्त्यचेतनाः । मन्यते स विकल्पेन सुखदा दुःखदा मम । — षोड़शक; ५।१६ - योग दृष्टिसमुच्चय, ६४ — वही, ५१२८ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूप विवेकरहित एवं अध्यात्म-भावनादि क्रिया-कर्मो से विमुख होती है।' सांसारिक पदार्थो में लोभ-मोह के कारण ही जीव को भवाभिनन्दी कहा गया है। यद्यपि अचरमावर्ती अथवा भवाभिनन्दी जीव धार्मिक व्रतनियमों का अनुष्ठान भी करता है, लेकिन यह सब श्रद्धाविहीन होता है। सद्धर्म एवं लौकिक कार्य भी वह कीर्ति, प्रतिष्ठा आदि की कामना से करता है। इस दृष्टि से उसे लोकपंक्ति कृतादर भी कहा गया है।' ऐसी भावनावाले जीव की वृत्ति कभी स्थिर नहीं रहती और आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह में लिप्त रहने के कारण वह सदैव दुःखी एवं संतप्त रहता है। वह सदा दूसरों की बुराइयों एवं प्रतिघातों में लगा रहता है। इस प्रकार वह जीव क्षुद्रवृत्ति, अपरोपकारी, भयभीत, ईर्ष्यालु, मायाचारी और मूर्ख होता है। ऐसे स्वभाववाले साधक भले ही यम-नियमों का पालन करें, लेकिन अन्तःशुद्धि के अभाव में वे योगी नहीं हो सकते । वे भी योगी होने के अधिकारी नहीं हो सकते, जो लौकिक हेतु अथवा लौकिक प्रदर्शन या आकर्षण के भाव से योग-साधना में प्रवृत्त होते हैं। __ चरमावर्त में चरम और आवर्त दो शब्द हैं। चरम का अर्थ है अन्तिम और आवर्त का अर्थ है पुद्गलावर्त । अतः इस आवर्त में स्थित जीव चरमावर्ती कहलाता है। इसमें जीव की धार्मिक, यौगिक अथवा आध्यात्मिक जागृति होती है अर्थात् योगदृष्टि का प्रादुर्भाव यहीं से होता है। चरमावर्ती जीव स्वभाव से मृदु, शुद्ध तथा निर्मल होते हैं। १. प्रदीर्घभवसद्भावान्मालिन्यातिशयास्तथा । अतत्त्वाभिनिवेशाच्च; नान्येष्वन्यस्य जातुचित् । -योगबिन्दु, ७३ तस्मादचरमावर्तेष्व अध्यात्म नैव युज्यते ॥ -योगबिन्दु, ९३ भवाभिनन्दिनः प्रायस्त्रिसंज्ञा एव दु:खिता, केचित् धर्मकृतोऽपि स्युलॊकपंक्तिकृतादराः। लोकाराधनहेतोर्या मलिनेनान्तरात्मना । क्रियते सक्रियासात्र लोकपंक्तिरुदाहृता ॥ -योगबिन्दु, ८६-८८%) तथा योगसारप्राभृत, ८1१८-२१ ३. क्षुद्रोलाभरतिर्दीनो मत्सरी भयवान् शठः ।। __अज्ञो भवाभिनन्दि स्यानिष्फलारम्भसंगतः ॥ -योगबिन्दु; ८७ ४. योगशतक, परिशिष्ट, पृ० १०९; मात्मस्वरूपविचार, १७३-७४ ५. नवनीताविकल्पस्तच्चरमावर्त इष्यते । अत्रैव विमलौ भावी गोपेन्द्रोऽपि यदभ्यद्यात् । -योगलक्षणद्वात्रिंशिका, १८ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोच नात्मक अध्ययन वे संसारप्रवाह में मर्यादित तथा परिमित काल के लिए होते हैं तथा संसार-बन्धनों का उच्छेद करने की शक्ति रखते हैं। वे जीव शुक्लपाक्षिक, भिन्नग्रन्थि एवं चारित्रिक जैसे अध्यात्म उपायों के अधिकारी होते हैं, क्योंकि उन पर मोह का अथवा मिथ्यात्व-परिणामों का तीव्र दबाव भी नहीं रहता और न मन में मलिनता ही रहती है। वे मुक्ति के निकट होते हैं ।' चरमावर्त में आया हुआ प्राणी मुक्ति के निकट होता है । उसने बहुत से पुद्गल-परावर्तों का उल्लंघन कर दिया है। उसका एक बिन्दु स्वरूप मात्र एक आवर्त शेष है, जैसे कि समुद्र में एक बिन्दु जल अवशिष्ट रहे । अर्थात् चरमावर्ती साधक सम्पूर्ण मिथ्यात्वों से रहित होकर मुक्ति के द्वार पर पहुँच गया होता है । चरमावतं-काल में जीव सम्पूर्ण आन्तरिक भावों से परिशुद्ध होकर जिन क्रियाओं का सम्पादन करता है, उन क्रियाओं के साधनों को योग कहा गया है। तथा जीव आध्यामिक विकास की ओर अग्रसर होते हुए समता की प्राप्ति करता है, जहाँ उसे न सुन्दर-असुन्दर का मोह होता है, न किसी प्रकार का सांसारिक प्रलोभन रहता है और न मिथ्यात्व का परिणाम ही रहता है। आत्मविकास में जीव की स्थिति ____ आत्मविकास की ओर अग्रसर होने के क्रम में चरमावर्ती जीव जिन-जिन स्थितियों से गुजरता है, उन स्थितियों की चार कोटियाँ हैं(१) अपुनर्बन्धक, (२) सम्यग्दृष्टि, (३) देशविरति एवं (४) सर्वविरति ।' अपुनर्बन्धक वह स्थिति है, जहाँ साधक मिध्यात्व परिणामी रहते १. चरमेपुद्गलावर्ते, यतो यः शुक्लपाक्षिकः । भिन्न ग्रंन्थिश्चरित्री च तस्यैवैतदुदाहृतम् । -योगबिन्दु; ७२, मुक्तिमार्गपरं युक्त्या युज्यते विमलं मनः । सबुढ्यासन्न भावेन, यदमीषां महात्मानाम् ।। -वही, ९९ चरमावर्तिनो जन्तोः सिद्धरासन्नता ध्रुवम् । भूयास्रोऽमी व्यतिक्रान्तास्तेष्वेको बिन्दुरम्बुधौ ॥ -मुक्त्यद्वेषप्राधान्यद्वात्रिंशिका, २८ ३. योगलक्षणद्वात्रिंशिका, २२ ४. योगशतक, १३-१६; योगबिन्दु, १७७-८, २५३, ३५१-२; १०२ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूप हुए भी विनय, दाक्षिण्य, दया, वैराग्य आदि सद्गुणों की प्राप्ति में तत्पर रहता है। अर्थात् अचरमावर्ती जीवों के विपरीत इस स्थान में साधक ज्ञान एवं चारित्रयुक्त होकर ग्रंथिभेद करने में समर्थ होता है । इसके बाद सम्यग्दृष्टि की स्थिति प्रारम्भ होती है, जिसमें साधक सांसारिक प्रपञ्चों से व्यामोहित होते हए भी मोक्षाभिमख होता है। अर्थात योगी संसार में रहते हुए भी आन्तरिक भावनाओं के द्वारा मुक्ति के उपायों के विषय में चिन्तन करता रहता है। इस कारण उसे भावयोगी भी कहा जाता है।' भावयोगी घर-गृहस्थी में रहते हुए भी लोभ, ममता आदि बन्धनों से विमुक्त और आत्मध्यान में लीन रहता है । वस्तुतः यह स्थिति देशविरति की है। इस प्रकार वह आचार-विचारों से संवलित और विकसित होकर अनेक प्रकार के कायक्लेश सहता हुआ, मार्गानुसारी की विधियों - का सम्यकपेण पालन करता हुआ, श्रद्धालु, लोकप्रिय एवं पुरुषार्थी बनकर, शुभपरिणामों को धारण करता हुआ सर्वविरति की अन्तिम भूमिका में पहुंचता है। यहाँ पहुँचकर वह क्रमशः सर्वप्रकार के परिग्रहों के त्याग के बाद सर्वज्ञ बन जाता है । वहाँ उसकी योग-साधना पूर्ण हो जाती है। चित्तशुद्धि के उपाय - जैन योग के अन्तर्गत धर्म-व्यापार के रूप में अष्टांगयोग का निर्देश है जिसके क्रम में पाँच प्रकार को चित्तशुद्धि का वर्णन है, जिनसे क्रियाशुद्धि होती है और जिनके सम्यक् पालन से साधक की प्रवृत्ति धार्मिक अनुष्ठानों की ओर उन्मुख होती है। फलतः शुभ-विचारों के निरन्तर चिन्तन से कर्मों की शुद्धि होती जाती है । चित्तशुद्धि के पाँच प्रकार ये १. भवाभिनन्दि दोषाणां प्रतिपक्षगुणैर्यतः । वर्धमानगुणप्रायो, ह्यपुनर्बन्धको मतः ॥ -योगबिन्दु, १७८ २. भिन्नग्रन्थेस्तु यत्प्रायो मोक्षे चित्तं भवे तनुः । तस्य तत्सर्व एवेह योगो योगो हि भावतः ॥ न चेह ग्रन्थिभेदेन पश्यतो भावमुत्तमम् । इतरेणाकुलस्यापि तत्र चित्तं न जायते ॥ -वही, २०३, २०५ ३. वही, ३५१-५२ ४. योगप्रदीप, ५१-५२ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन हैं-(१) प्रणिधान, (२) प्रवृत्ति, (३) विघ्नजय, (४) सिद्धि और (५) विनियोग ।। १. प्रणिधान-अपने आचार-विचार में अविचलित रहते हुए निम्न कोटि के जीवों के प्रति किसी भी प्रकार का राग-द्वेष न रखना प्रणिधान चित्तशुद्धि है । साधक को स्वार्थी, दम्भी एवं दुराग्रही जीवों के प्रति भी श्रद्धा, परोपकार, विनय आदि भावना रखनी चाहिए। २. प्रवृत्ति-विहित धार्मिक व्रत-नियमों अथवा अनुष्ठानों का एकाग्रतापूर्वक तथा सम्यक् पालन करना प्रवृत्ति है-निर्दिष्ट योगसाधनाओं में मन को प्रवृत्त किया जाता है। ३. विघ्नजय-योग-साधना के दौरान आनेवाले विघ्नों पर जय पाना विघ्नजय क्रियाशुद्धि है। क्योंकि यम-नियमों का पालन करते समय अनेक प्रकार की बाह्य, आन्तरिक एवं मोहदशाजन्य कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं और बिना उन पर विजय पाये साधना पूर्ण नहीं हो सकती। ४. सिद्धि-इस चित्तशुद्धि की अपेक्षा तब होती है, जब साधक को सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होती है और उसको आत्मानुभव होने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती। समताभावादि की उत्पत्ति से साधक की कषायजन्य सारी चंचलता नष्ट हो जाती है और वह निम्नवर्ती जीवों के प्रति दयाभाव, आदर-सत्कारादि सहज ही बरतने लगता है। ५. विनियोग-सिद्धि के बाद विनियोग-चित्तशुद्धि प्रारम्भ होती है, क्योंकि तब तक साधक की धार्मिक वृत्तियों में क्षमता, शक्ति आ जाती है तथा उत्तरोत्तर आत्मिक विकास होने लगता है। इस अवस्था में परोपकार, कल्याण आदि भावनाओं की वृद्धि करने के प्रयत्न को ही विनियोग-जय कहते हैं। वैराग्य योगसिद्धि के लिए जितना महत्त्व तप, उपवास, आसन आदि शारीरिक क्रियाओं का है, उससे अधिक महत्त्व आन्तरिक विषय-वास१. प्रणिधिप्रवृत्तिविघ्नजयसिद्धिविनियोग भेदतः प्रायः । धर्म राख्यातः शुभाशयः पंचधाऽत्र विधो ।। -षोडशक, ३१६ २. षोडशक, ३१७-११ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूप नाओं को हटाकर मन को परिशुद्ध करने का है। अतः मनोविजय के लिए अथवा विषय-वासनाओं के क्रमशः क्षय के लिए इन्द्रियों का संयम रखना तथा संसार के प्रति वैराग्य का भाव रखना आवश्यक है। क्योंकि संयम जहाँ साधक की इन्द्रियों को अपने वश में करने का प्रयत्न करता है, वहाँ वैराग्य की भावना सांसारिक लोभ, मोह आदि कषायों से क्रमशः निवृत्ति का उपक्रम करती है। अतः साधक के लिए संसार के प्रति निःसारता का भाव रखना आवश्यक है। वैराग्य के तीन प्रकार हैं-१. दुःखगर्भित, २. मोहगर्भित, ३. ज्ञानगर्भित ।' १. दुःखगभित वैराग्य-जीवन के प्रति निराश होकर कुटुम्ब का त्याग करके साधु बनना। २. मोहभित वैराग्य-आप्तजनों के मर जाने पर मोहवश अथवा असह्य वियोग के कारण साधुवृत्ति अपनाना। ३. ज्ञानभित वैराग्य-पूर्व-संकार अथवा गुरूपदेश से आत्मज्ञान की . प्राप्ति होने पर संसार त्यागना । अर्थात् इस वैराग्य में संस्कारवश अथवा गुरु के उपदेशों से संसार के प्रति निवृत्ति की भावना पैदा होती है। ___अतः इन तीनों प्रकार के वैराग्यों में प्रथम दो प्रकार के वैराग्य कषायोजनक हैं। उनमें पूर्ण अनासक्ति अथवा वीतरागता का अंश नहीं होता । परन्तु तीसरे प्रकार के ज्ञानभित वैराग्य में सांसारिक वस्तुओं के प्रति तनिक भी मोह-माया नहीं होती। इस प्रकार वैराग्य धारण करने से योग-साधना में यथोचित सहायता मिलती है और साधक सरलतापूर्वक साधना में विकास करता रहता है। साधन की अपेक्षा से योग के प्रकार प्रमुख रूप से योग के उत्कृष्ट साधन इस प्रकार हैं-(१) स्थान, (२) ऊर्ण ( वर्ण ), (३) अर्थ, (४) आलम्बन तथा (५) अनालम्बन । इन साधनों को दृष्टि में रखकर योग के भी पाँच प्रकार माने गये हैं। इनमें से प्रथम दो प्रकार के साधन कर्मयोग के अन्तर्गत आते हैं, क्योंकि इनमें कायोत्सर्गादि आसन, तप, मंत्र, जप आदि क्रियाओं को करना पड़ता है। वस्तुतः ये साधन आचार-मीमांसा से सम्बन्धित माने गये हैं। शेष १. कर्तव्यकौमुदी, भा॰ २, पृ. ७०-७१ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन तीन प्रकार के साधन ज्ञान-योग में परिगणित होते हैं, क्योंकि इनमें क्रिया की अपेक्षा ज्ञान पर विशेष बल दिया गया है ।" १. स्थान - इसमें आसनादि क्रियाओं का विधान है । २. ऊर्णं अथवा वर्णं - इसमें शास्त्रविहित सूत्रों का पाठ होता है तथा सूत्र के उच्चारण में उसके स्वर, सम्पदा, मात्रा आदि पर ध्यान दिया जाता है । इस साधन को वर्णयोग भी कहते हैं । ३. अर्थ - वस्तुतः अर्थं का तात्पर्य उन सूत्रों से है, जो सही-सही उच्चारणपूर्वक पढ़े जाते हैं । अर्थात् आत्मतत्त्व के गूढ़ रहस्य को समझने के लिए सूत्र का सम्यक् अर्थ समझना आवश्यक है और इसके लिए सूत्रों का शुद्ध उच्चारण अपेक्षित है । यह साधन ज्ञानयोग का प्रारम्भ बिन्दु है । ४. आलम्बन - इसमें साधक किन्हीं बाह्य साधनों को ध्येय मानकर ध्यान की क्रिया करता है, जो मन की एकाग्रता के लिए आवश्यक है । इस साधन को उत्तम योगानुष्ठान कहा गया है । ५. अनालम्बन - बाह्य आलम्बनों का त्याग करके केवल आत्मस्वरूप का ही चिन्तन करने को अनालम्बन योग कहा जाता है। इस योग में बाह्य पदार्थों का सम्पूर्णतः बहिष्कार हो जाता है, मन केन्द्रित हो जाता है, आत्मस्वरूप की प्रतीति होने लगती है और योग की प्रक्रिया पूरी हो जाती है। योग के पाँच अनुष्ठान योग-साधना की सिद्धि के लिए अनुष्ठान अर्थात् क्रियाएँ आवश्यक हैं । आध्यात्मिक विकास में सहायक अनुष्ठान पाँच प्रकार के हैं - (2) विषानुष्ठान, (२) गरानुष्ठान, (३) अननुष्ठान, (४) तद्धेतु अनुष्ठान तथा (५) अमृतानुष्ठान। इन अनुष्ठानों में पहले तीन असदनुष्ठान हैं, क्योंकि ये रागादिभाव से युक्त होने के कारण लौकिक हैं । अन्तिम दो अनुष्ठान रागादिभाव से रहित होने के कारण सदनुष्ठान माने जाते हैं इसलिए पारलौकिक हैं । १. ठाणुन्नत्थालम्बण-रहिओ तंतम्मि पंचहाएसी । दुग्गमित्य कम्मजोगो. तहातियं नाणजोगो उ ॥ २. योगबिन्दु, १५५ - योगविंशिका, २ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूप १. विष-अनुष्ठान-इस अनुष्ठान में साधक का उद्देश्य इस जन्म में लब्धि अथवा अलौकिक शक्तियों के द्वारा कीर्ति, सन्मान आदि प्राप्त करना होता है। इस दृष्टि से चारित्र का पालन करना विष-अनुष्ठान कहा गया है। विष-अनुष्ठान इसलिए कहा जाता है कि इसमें रागादिभावों की अधिकता होती है। २. गरानुष्ठान-इस जन्म के बाद अनेक प्रकार के स्वगिक सुख भोगने की अभिलाषा रखना और इसी दृष्टि से धार्मिक अनुष्ठानों को करना गरानुष्ठान है। ३. अननष्टान-इस अनुष्ठान में गुरु-देवादि की पूजा अथवा सत्कार किया जाता है, लेकिन यह क्रिया संमछेन' जीवों की मानसिक शन्यता जैसी होती है; फलतः इन क्रियाओं के प्रति न श्रद्धा होती है, न विवेक ही। इस अनुष्ठान में मात्र शरीर-निर्वाह ही होता है। ४. तद्धेतु अनुष्ठान-इसमें साधक यम, नियम, ध्यान, जपादि धार्मिक अनुष्ठानों को अपनी शुभ प्रवृत्ति द्वारा करता है। यद्यपि इस अनुष्ठान में भी रागादि भावों का अंश होता है, परन्तु वह सांसारिक न होकर मोक्षाभिमुखी होता है। इसलिए अद्वेष बुद्धि के कारण इस अनुष्ठान को अमृतानुष्ठान का कारण माना गया है। ५. अमृतानुष्ठान--सर्वज्ञ द्वारा कथित मार्ग का समझ-बूझकर एवं श्रद्धापूर्वक आचरण कर मोक्ष प्राप्त करना अमृतानुष्ठान है। साक्षात् मोक्षदायक होने के कारण यह उत्तम अनुष्ठान माना गया है। इसमें समस्त इच्छाएँ फलीभूत होती हैं । योग के अन्य तीन प्रकार साधनों की अपेक्षा से योग के पाँच प्रकारों के अतिरिक्त तीन प्रकार के योगों का भी उल्लेख मिलता है। वे इस प्रकार हैं-(१) इच्छायोग, (२) शास्त्रयोग तथा (३) सामर्थ्ययोग । १. इच्छायोग:-इस योग में मात्र अनुष्ठान करने की इच्छा जाग्रत १. बिना गर्भ के उत्पन्न होनेवाले जीवों को संमूर्च्छन कहते हैं । २. योगबिन्दु, १५९-१६० ३. कर्तुमिच्छोः श्रुतार्थस्य ज्ञानिनोऽपि प्रमादतः । विकलो धर्मयोगो य: स इच्छायोग उच्यते॥-योगदृष्टिसमुच्चय, ३ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन होती है । यद्यपि साधक अनुष्ठानों को क्रियान्वित करने के लिए प्रयत्नशील होता है, तथापि वह आलसवश उनको कार्यान्वित नहीं कर पाता। २. शास्त्रयोग-इस योग में साधक आलसरहित एवं श्रद्धायुक्त होकर अनुष्ठानों का पालन करता है, जिससे तात्त्विक बोध अर्थात् सम्यग्दृष्टि प्राप्त होती है। ३. सामर्थ्ययोग-आत्मकल्याण के लिए शास्त्रों में योग के जिनजिन उत्तम अनुष्ठानों की चर्चा है, उनका अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य के अनुसार मोक्ष-प्राप्ति के लिए पालन करना सामर्थ्ययोग है। यह योग वस्तुतः मोक्ष का साक्षात् कारण है, क्योंकि यह :प्रातिभज्ञान से युक्त तथा सर्वज्ञता की प्राप्ति करानेवाला है। इस योग के साधक का अनुभव अनिर्वचनीय होता है । ___ सामर्थ्ययोग के भी दो भेद हैं।- १. धर्मसंन्यासयोग तथा २. योगसंन्यासयोग । धर्मसंन्यासयोग उसे कहते हैं जिसमें रागादि से उत्पन्न क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि भाव होते हैं तथा व्रतों का पालन करते समय कभी जीव उन्नतावस्था में रहता है तो कभी अवनतदशा में। योगसंन्यासयोग में जीव को ऊपर-नीचे होने का प्रश्न ही नहीं रहता, क्योंकि तब तक उसने सम्पूर्ण मन, वचन एवं काय के व्यापार का पूर्णतः निरोध कर लिया होता है। धर्मसंन्यास-योगी आत्मविकास करते-करते क्रमशः योगसंन्यास की अवस्था तक पहुँचता है। इसी अवस्था को शैलेशीकरण की अवस्था भी कहते हैं। इस अवस्था का १. शास्त्रयोगस्त्विह ज्ञेयो यथाशक्त्यऽप्रमादिनः । .. श्राद्धस्य तीव्रबोधेन वचसाऽविकलस्तथा ॥ -वही, ४ २. शास्त्रसंदशितोपायस्तदतिक्रान्तगोचरः । शक्त्पुद्रेकाद्विशेषेण सामर्थ्याख्योऽयमुत्तमः॥-वही, ५ ३. न चैतदेवं यत्तस्मात् प्रातिभज्ञानसंगतः। सामर्थ्ययोगोऽवाच्योऽस्ति सर्वज्ञस्वादिसाधनम् ॥ -वही, ८ ४. द्विधा यं धर्मसंन्यासयोगसंन्याससंज्ञितः । क्षायोपशमिकाधर्मा योगो कायादिकर्म तु । -वही, ९ ५. द्वितीयाऽपूर्वकरणे प्रथमस्तात्त्विको भवेत् । आयोज्यकरणादूध्वं द्वितीय इतितद्विदः । -वही, १० Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूव अपरनाम अयोग-अवस्था अथवा सर्वसंन्यासयोग अवस्था है, क्योंकि इस अवस्था में योगी की आत्मा मुक्ति के साथ सम्बन्ध स्थापित करती है । इस अवस्था को प्राप्त करना ही सर्वोत्तम योग माना गया है।' अधिकारियों की अपेक्षा से योगी के प्रकार यद्यपि योगी के प्रकारों के सम्बन्ध में प्रकाश डाला जा चुका है, तथापि यहाँ अधिकारी की अपेक्षा से योगी के प्रकारों पर दृष्टिपात कर लेना उचित है। अधिकारी की दृष्टि से योगी के प्रमुख चार प्रकार हैं१. कुलयोगी, २. गोत्रयोगी, ३. प्रवृतचक्रयोगी तथा ४. निष्पन्नयोगी। कुलयोगी-जो योगी योगसाधना में लीन रहकर यथाविधि धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करता है और किसी प्रकार का आलस नहीं करता, उसे कुलयोगी कहते हैं। कुलयोगी का अधिकारी कोई भी सामान्य जन हो सकता है, क्योंकि वह इच्छानुसार धर्म में प्रवृत्त रहते हुए भी अन्य जीवों के प्रति राग-द्वेष नहीं रखता, देवगुरु के प्रति श्रद्धा रखता है, ब्रह्मचर्य में रत रहता है, ब्राह्मणों का प्रिय होता है, इन्द्रियों को वश में रखता है तथा विवेकी, विनम्र और दयालु होता है ।२ गोत्रयोगी-साधक के गोत्र में जन्म लेनेवाले योगी को गोत्रयोगी कहते हैं। इस योगी का आचार-विचार कूलयोगी के विपरीत होता है। वह यम-नियमादि का पालन करनेवाला नहीं होता है, क्योंकि उसकी प्रवृत्ति संसाराभिमुख होती है। अतः ऐसे व्यक्ति को योग के लिए अनधिकारी माना गया है। __ प्रवृत्तचक्रयोगी-यह योगी क्रमशः अपनी मोक्षाभिलाषा को बढ़ाने वाला, सेवाशुश्रूषा अर्थात् दया, प्रेम, शील, ज्ञान आदि में यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाला होता है। यह भी योगाधिकारी होता है। १. अतस्त्वयोगो योगानां योगः पुरमुदाहृतः । मोक्षयोजन भावेन सर्वसंन्यास लक्षणः ।। -वही, ११; तथा अध्यात्मतत्त्वालोक, ७।१२ २. योगदृष्टिसमुच्चय, २०८-९ ३. प्रवृत्तचक्रास्तु पुनर्यम द्वयसमाश्रयाः ।। शेषद्वयार्थिनोऽत्यन्तं शुश्रूषादिगुणान्वितः॥ -वहीं, २१० Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन ... यम की अपेक्षा से इस योगी के भी चार विभेद किये गये हैं१. इच्छायम, २. प्रवृत्तियम, ३. स्थिरयम और ४. सिद्धियम । यहाँ यम शब्द का व्यवहार अहिंसा, सत्य आदि के वाचक के रूप में हुआ है। अतः इन पाँचों व्रतों का निष्ठापूर्वक पालन करनेवाला, योग-कथा में अभिरुचि रखनेवाला तथा योगकथाओं द्वारा अपने मन को स्थिर करनेवाला योगी इच्छायम कहलाता है । उपशमादि भावों को धारण करके जो योगी यमादि व्रतों का पालन करता है, वह प्रवृत्तियम है । क्षयोपशमभाव से अतिचारों को चिन्ता न करके, दृढ़ भावना से यमों का पालन करनेवाला योगी स्थिरयम कहलाता है और जिसको अन्तरात्मा विशद्ध होकर परमार्थपद की प्राप्ति के लायक होती है, वह सिद्धियम योगी कहा जाता है । इस प्रकार प्रवृत्तचक्रयोगी अपनी आत्मोन्नति के लिए अनेक प्रकार के चारित्र का पालन करता हुआ, राग-द्वेषादि से रहित होता है तथा आत्मगणों को वृद्धि के क्रम में तीन प्रकार के अवंचक्रों को पूरा करता है। अवंचक्र के प्रकार अवंचक्र तीन प्रकार के हैं-१. योगावंचक्र, २. क्रियावंचक्र तथा ३. फलावंचक्र | जिनके दर्शन से कल्याण एवं पुण्य की प्राप्ति होती है, ऐसे सद्गुरुओं का सत्संग ही योगावंचक्र है । पापक्षय के लिए सद्गुरुओं की प्राप्ति के बाद उनकी पूजा-सत्कार करना क्रियावंचक्र है। गुरु के उपदेशानुसार सम्यक्रूप से यमनियमादि का पालन करते हुए धर्म की सिद्धि को प्राप्त होकर उत्तम योग के फलों को पाना फलावंचक्र कहलाता है। इस प्रकार योग-प्राप्ति की ओर उन्मुख साधक अब योगावंचक्र १. यमाश्चतुर्विधा इच्छाप्रवृत्तिस्थैर्य सिद्धयः । -योगभेदद्वात्रिंशिका, २५ २. योगदृष्टिसमुच्चय, २१३-१६ ३. योगक्रियाफलास्यं यच्छयते वंचक्रत्रयम् । साधूनाश्रित्य परम भिषुलक्ष्यक्रियोपमम् । -वही, ३४ ४. वही, २१७-१८ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूप ७३ नामक प्रथम योग को पूर्णतया सिद्ध कर लेता है और फिर शेष दोन अवंचक्रों को साध लेता है, तब वह प्रवृत्तचक्रयोगी कहा जाता है । " निष्पन्नयोगी -- उस योगी को कहते हैं, जिसका योग निष्पत्र अर्थात् पूरा हो गया है । अतः इस योगी को भी योग का अधिकारी नहीं माना गया है, क्योंकि सिद्धि की प्राप्ति के अधिक निकट होने के कारण इस योग में धर्म-व्यापार का सर्वथा लोप हो जाता है और योगी के लिए कुछ भी करना शेष नहीं रहता । जप एवं उसका फल चूँकि ध्यान के अन्तर्गत ही विभिन्न प्रकार के मन्त्रों, जपों आदि का विधान है, अतः इनके सम्बन्ध में विस्तृत रूप से वर्णन आगे किया जायेगा । इसके सम्बन्ध में कुछ विचार कर लेना यहाँ प्रसंगोचित जान पड़ता है, क्योंकि इनके द्वारा योग के स्वरूप का पूर्ण प्रतिबिम्ब स्पष्ट होता है । किसी मन्त्र का बार-बार चिन्तन-मनन करना ही जप है । मन्त्र देवता अथवा जिनेन्द्र की स्तुति से सम्बन्धित होता है और इन मन्त्रों से जहाँ पाप, क्लेश, विषाद आदि दूर होते हैं, वहाँ मानसिक एकाग्रता भी प्राप्त होती है । ऐसे जापों से मोह, इन्द्रियलिप्सा, काम आदि कषायों का शमन होता है और मनोजय, परीषहजय, कर्मनिरोध, कर्मनिर्जरा, मोक्ष तथा शाश्वत आत्मसुख प्राप्त होता है । कुण्डलिनी जहाँ तक जैन- योग का सम्बन्ध है, कुण्डलिनी की चर्चा न आगम ग्रन्थों १. आद्यावंचक्रयोगाप्त्या तदन्यद्वयलाभिनः । एतेऽधिकारिणो योगप्रयोगस्येति तद्विदः ॥ २. जपः सन्मंत्रविषयः स चोक्तो देवतास्तवः । दृष्टः पापापहारोऽस्माद्विषापहरणं यथा ॥ - योगबिन्दु, ३८१ ३. सन्मंत्रजपनेनाहो, पापारिः क्षीयतेतराम् । -वही, २११ मोहाक्षस्मर चौराद्यैः कषायैः सह दुर्धरैः । १५०; मनः परीषहादीनां जयः कर्मनिरोधनम् । 1 निर्जरा कर्मणां मोक्षः स्यात्सुखं स्वात्मजं सताम् । १५१, , ---नमस्कार स्वाध्याय (संस्कृत), पृ० १४ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन में प्राप्त होती है, न परवर्ती योग-विषयक वाङ्मय में। केवल मन्त्रराजरहस्य' नामक पुस्तक में कुण्डलिनी की चर्चा मिलती है। योगशास्त्र एवं ज्ञानार्णव में ध्यान के अन्तर्गत अवश्य कुछ यौगिक क्रियाओं का वर्णन मिलता है, जिसका सम्बन्ध कुण्डलिनी से है। यद्यपि उन यौगिक क्रियाओं पर आगे विचार किया जायेगा, लेकिन यहां केवल इतना उल्लेख कर देना आवश्यक है कि कुण्डलिनी द्वारा योगी आत्मस्वरूप की प्राप्ति करता है। अर्थात् योगी कुण्डलिनी के नवचक्रों के आधार पर क्रमशः जप एवं मन्त्रों का चिन्तन करते-करते मन को एकाग्र करता है तथा आत्मदर्शन करने में समर्थ होता है। कुण्डलिनी के नवचक्र इस प्रकार हैं-१. गुदा के मध्यभाग में आधार चक्र, २. लिंगमूल के पास स्वाधिष्ठान चक्र, ३. नाभि के पास मणिपूर चक्र, ४. हृदय के पास अनाहत चक्र, ५. कण्ठ के पास विशुद्ध चक्र, ६. घण्टिका के पास ललना चक्र, ७. कपालस्थित आज्ञा चक्र, ८. मूर्ध्वास्थित ब्रह्मरन्ध्र चक्र एवं ९. उर्वभाग स्थित सुषुम्ना चक्र। जैन योग-साधना शारीरिक कष्टों अर्थात् अनेक प्रकार के तपों पर भी जोर देती है, क्योंकि उनके द्वारा इन्द्रियों के विषयों को स्थिर किया जाता है। इन्द्रियों को स्थिर करने पर मन एकाग्र होकर अनेकविध धर्म-व्यापारों द्वारा चित्तशुद्धि, समताभाव आदि गुणों को प्राप्त करता है, जिनसे कि साधक क्रमशः आत्मोन्नति करता हुआ अपने सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करते हुए मोक्षसुख को प्राप्त करता है । १. वि० सं० १३३३ में रचित । - -जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भा० ४, पृ० ३१० २. गुदमध्य लिंगमूलेनाभी हृदि कण्ठ-घटिका भाले । मूर्धन्यूर्वे नवषट्क (चक्र) ठान्ता पंच भालेयुताः॥ -नमस्कार स्वाध्याय (संस्कृत), पृ० १२१ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४ : (१) श्रावकाचार जैन-दर्शनानुसार रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र को, जो कि मोक्ष के कारणभूत हैं, साधन-योग माना गया है । ' अतः योग के लिए चारित्र आधारस्तम्भ है, क्योंकि सम्यक्चारित्र की प्राप्ति होने पर ही साधक अथवा योगी अपनी अन्तर्बाह्य प्रवृत्तियों को संयमित करके अथवा भोग- कषायादि प्रवृत्तियों को नियन्त्रित करने पर आत्मस्वरूप का चिन्तन करने योग्य बनता है | चारित्र का सम्यक् पालक योगी ही वैराग्य तथा समता की ओर उन्मुख होकर आत्म चिन्तन में स्थिर होता है । इस प्रकार योग के लिए चारित्र एक अनिवार्य साधन है, जिससे आत्मिक विकास एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है । योग के साधन : आचार चारित्र में शुद्ध आचार-विचार का बड़ा महत्त्व है, क्योंकि आचार एवं विचार दोनों परस्परावलंबी हैं और दोनों के सम्यक् पालन से ही चारित्र का उत्कर्ष होता है । इसी को ध्यान में रखकर जैन योग में आचार-विचार के सम्यक् पालन का विधान है । बिना आचार-विचार की शुद्धि के चारित्र की प्राप्ति नहीं हो सकती और बिना चारित्र की सम्पन्नता के न योग सम्भव है तथा न मोक्ष की प्राप्ति हो । अतः चारित्र की दृढ़ता एवं सम्पन्नता के लिए जैन-दर्शन में विभिन्न व्रतों, क्रियाओं, विधियों, नियम-उपनियमों आदि का विधान है जिनमें तप, आसन, प्राणायाम, धारणा, प्रत्याहार, ध्यान आदि प्रमुख हैं । इस संदर्भ में निर्देश किया गया है कि ध्यानादि नियम उत्तरोत्तर चित्त की शुद्धि करते हैं, इसलिए ये सभी चारित्र ही हैं। १. चतुर्वर्गेऽग्रणी मोक्षो, योगोस्तस्य च कारणम् । ज्ञान-श्रद्धान- चारित्ररूपं, रत्नत्रयं च सः ॥ - योगशास्त्र, ११५ २. चारित्रिणस्तु विज्ञेयः शुद्धयपेक्षो यथोत्तरम् । ध्यानादिरूपो नियमात् तथा तात्त्विक एव तु ॥ - योगबिन्दु, ३७१ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन योग की सम्पन्नता एवं सफलता अथवा चारित्र की प्राप्ति के लिए गृहस्थों ( श्रावकों ) एवं श्रमणों ( साधुओं) के आचार-विचारों के विधान अलग-अलग हैं; क्योंकि दोनों की साधना-भूमि अथवा जीवनव्यवहार अलग-अलग हैं । इस दृष्टि से श्रावकाचार एवं साध्वाचार का दिग्दर्शन आवश्यक जान पड़ता है । इस सन्दर्भ में यह भी निर्देश कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि जैन श्रावक अपने सम्यक् आचार-विचार के परिपालन से साधुत्व तक पहुँच सकता है एवं साध्वाचार के सम्यक् परिपालन से मोक्ष प्राप्त कर सकता है । इस दृष्टि से योग के विकास एवं महत्त्व के प्रतिपादन के लिए क्रमशः वैदिक, बौद्ध एवं जैन आचार - विकास का सिंहावलोकन करना भी आवश्यक होगा । ७६ वैदिक परम्परासम्मत आचार यद्यपि वेदकालीन साहित्य के अनुसार ऐहिक सुख प्राप्ति ही जीवन का लक्ष्य रहा है, तथापि संहिताओं के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि लोगों के हृदय में सत्य, दान, आदि के प्रति सम्मान था, क्योंकि विविध प्रकार के नियमों, गुणों एवं दण्डों के प्रवर्तकों के रूप में विभिन्न देवों की कल्पना की गयी है । ' उपनिषदों में दार्शनिक भित्ति पर सदाचार, सन्तोष, सत्य आदि आत्मिक गुणों का विधान है और इन्हें आत्मानुभूति के लिए आवश्यक माना गया है, क्योंकि उन गुणों के आचरण से श्रेय की प्राप्ति होती है । यही कारण है कि उपनिषदों में ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, सत्य आदि व्रतों के पालन का आदेश है और साधक के लिए साध्य की ओर बढ़ने के लिए दस यमों का संयमपूर्वक पालन करना तथा शुद्ध आत्म-तत्त्व की पहचान करना आवश्यक माना गया है । " स्मृतिशास्त्रों में आचार, विचार, व्यवहार, प्रायश्चित्त, दण्ड आदि का विधान विस्तारपूर्वक वर्णित है, जिनमें चारों आश्रम ( ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास ) एवं चारों वर्णो सम्बन्धी विधि १. जैन आचार, पृ० ९ २. ब्रह्मचर्यमहिंसां चापरिग्रहं च सत्यं च यत्नेन । - आरुणिकोपनिषद्, ३ ३. तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यं दयाजपक्षमाधृतिमिताहारशौचानि चेति यमा दश । - शाण्डिल्योपनिषद्, १ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार विधानों एवं कर्तव्यों का वर्णन है तथा योगी साधक के लिए गृहस्थाश्रम महत्त्वपूर्ण माना गया है । सदाचार, दम, अहिंसा, दान, कर्तव्य, स्वाध्याय आदि एवं योगाभ्यास द्वारा आत्म-दर्शन करना चाहिए तथा इन्द्रियों को विषयों से रोककर सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए | 3 महाभारत तो वैदिक संस्कृति का आचार - कोश ही है । इसमें पग-पग पर गृहस्थ, योगी, त्यागी आदि के आचार, विचार, आहार आदि सम्बन्धी वर्णन भरा है। इसमें जहाँ मन, इन्द्रिय, सत्य, काम, क्रोधादि कषायों का निरूपण है वहाँ व्रत, उपवास, ब्रह्मचर्य, अतिथि सेवा" का भी विधान है । गृहस्थ सम्बन्धी कर्त्तव्यों का पालन करने पर विशेष जोर देते हुए कहा गया है कि वही साधक परमात्मा को प्राप्त करता है जो गृहस्थ-धर्म का सम्यक् रूप से पालन करता है । ७ ६ ९ गीता महाभारत का ही एक अंग है । इसमें भी विभिन्न योगों के माध्यम से यज्ञ में होनेवाली हिंसा को अनावश्यक' बताया गया है और अहिंसा, समता सन्तोष, तप, कीर्ति आदि भावों के सम्यक् पालन का उपदेश है । इसमें यति मुनि को इन्द्रियसंयमी, इच्छाभयरहित, क्रोधरहित, मोक्षपरायण तथा मुक्त १० माना गया है और वेदविद् तथा वीतराग कहा गया है | 19 इस प्रकार गीता में विभिन्न प्रकार के आचार १. ( क ) मनुस्मृति, अध्याय २, ३७७ (ख) याज्ञवल्क्यस्मृति ( ब्रह्मचारी प्रकरण ), १७-२३; ( गृहस्थप्रकरण ) ९७ - १०३ ; ११८ - २४ २. इज्याचारदमा हिसादानं स्वाध्यायकम्मं च । अयं तु परमो धर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम् ॥ ३. इंद्रियाणां प्रसंगेन दोषमृच्छत्यसंशयम् । संनियम्य तु तान्येव ततः सिद्धि नियच्छति || - मनुस्मृति, २ ९३ ४. महाभारत, आपद्धर्म, अध्याय, १६० ५. वही, मोक्षधर्म, २२१ ७. वही, मोक्षधर्म, २२० ९. अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः । - वही, १०१५ १०. यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः । - - याज्ञवल्क्यस्मृति, ८ ६. वही, शान्तिपर्व, १२ ८. भगवद्गीता, ४ २३- ३३ विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः । - वही ५।२८ 1 ११. वही, ५।२६ ; ८ ११ ७७ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '७८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन विचार का संयोजन है, जिनमें गृहस्थ एवं मुनि धर्मों की झाँकी प्रस्तुत की गयी है। पुराणों में भी कथा एवं आख्यानों के माध्यम से तरह-तरह के आचार-विचार का प्रतिपादन हुआ है, जिनमें वानप्रस्थ के कर्तव्यों का, यतिधर्म का गृहस्थ सम्बन्धी सदाचार का तथा मोक्षधर्म का प्ररूपण है। इन आचार-पद्धतियों के द्वारा सत्य की प्राप्ति, चारित्र का निर्माण तथा जीवन को संयममय बनाने का उपदेश है । वैदिक दर्शनों में भी यमनियम तथा योगशास्त्रविहित अध्यात्मविधि तथा उपायसमूह द्वारा आत्मसंस्कार का उल्लेख है और बताया गया है कि योगियों को आत्मप्रत्यक्ष होता है एवं आत्मकर्म से मोक्ष की प्राप्ति होती है। योगदर्शन में तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्राणिधान को क्रियायोग" कहा गया है, क्योंकि इनसे समाधि की उत्पत्ति तथा क्लेशों का शमन होता है। योग की यह साधना सम्पन्न होने पर ही कैवल्य की प्राप्ति होती है और इस साधना के लिए विभिन्न सम्यक् आचारों का सफल अनुसरण अष्टांगयोग द्वारा होता है। बौद्ध-परम्परा में आचार बौद्ध-परम्परा में भी श्रावकों एवं श्रमणों के आचार एवं विचार पर विशेष बल दिया गया है। इतना अवश्य है कि बौद्ध-परम्परा में गृहस्थों की अपेक्षा श्रमणों के आचार-विचार, खान-पान, रहन-सहन आदि से सम्बन्धित नियम-उपनियमों का विधान विशेष है। यही कारण है कि श्रमणों का मुख्य धर्म है शील एवं प्रज्ञा का समुचित पालन करना। १. श्री भागवतपुराण, स्कन्ध ७, अध्याय १२ २. वही, ३. वही, १४ ४. वही, ५. तदर्थयमनियमाभ्यामात्मसंस्कारोयोगाच्चाध्यात्मविध्युपायैः । -न्यायदर्शन, ४।२।४६ ६. वैशेषिकदर्शन, ६।२।१६ ७. तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ।-योगदर्शन, २।१ ८. समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च ।-वही, २२२ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार यहां शील का तात्पर्य धर्म को धारण करना, कर्तव्यों में प्रवृत्त होना तथा अकर्तव्यों से पराङ्मुख होना है।' समाधि का तात्पर्य चित्त में एकाग्रता अर्थात् एक ही आलम्बन में चित्त को स्थापित करना है। कुशल चित्तयुक्त विपश्य विवेकज्ञान ही प्रज्ञा है। इस प्रकार इन तीनों साधनों के सम्यक् परिपालन द्वारा ही श्रमण साधक को निर्वाण की प्राप्ति होती है। जैन-परम्परा में आचार जैन-परम्परा में आचार अथवा चारित्रधर्म का सर्वाधिक महत्त्व है। जैन-परम्परा में श्रावक तथा श्रमण दोनों के आचार-विचार का अति विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। श्रावक एवं श्रमण के विभिन्न आचार-विधानों का विधिवत् पालन करने का निर्देश है, क्योंकि मुक्ति-लाभ के लिए विशुद्ध विचारों के साथ-साथ विशुद्ध अर्थात् अतिचाररहित आचरण अपेक्षित है। यही कारण है कि मोक्ष के हेतुभूत समस्त धर्म-व्यापारक्रिया को योग कहा गया है और प्रकाशक ज्ञान, शोधक तप तथा गुप्तिकारी संयम इन तीनों के समायोग को जिनशासन में मोक्ष कहा गया है। इसी विचार के समानान्तर मुक्तिलाभ के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा तप का विधान है, जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र में समाविष्ट हैं। इन तीनों को रत्नत्रय कहते हैं। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में मोक्ष प्रमुख है। अतः मोक्ष-प्राप्ति के जो कारणभूत साधन हैं, वही योग है। अर्थात् ज्ञान, श्रद्धा और १. विशुद्धिमार्ग, १।१९-२५ २. वही, ३३२-३ ३. वही, १४।२-३ ४. दर्शन और चिन्तन, खण्ड १, पृ २४१ ५. णाणं पयासगं सोहओ तवो संजमो य गुत्तिकरो। तिण्हपि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ। -आवश्यकनियुक्ति, १०३ ६. नाणं च दंसणं चैव, चरितं च तवो तहा। एस मणुत्ति पन्नतो, जिणेहिं वरदंसिहिं ।। -उत्तराध्यन, २८।२ ७. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:। -तत्त्वार्थसूत्र, १११ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन चारित्र ही योग है । दूसरे शब्दों में सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र निश्चय योग भी है और व्यवहार-योग भी । आत्मा रत्नत्रयस्वरूप है और उसी को सत्यार्थं समझना निश्चयदृष्टि से योग है, क्योंकि वही मोक्ष है । रत्नत्रय के पालन से अथवा स्वरूपाचरण से जीव के परिणामों में शुद्धता आती है और ज्यों-ज्यों परिणामों में उत्तरोत्तर विकास होता जाता है त्यों-त्यों कर्मविकार घटते जाते हैं और साधक मोक्ष का अधिकारी बन जाता है । आत्मविकास के लिए चारित्र के अन्तर्गत अनेक यमनियमों का, शास्त्रीय विधि-निषेधों का अनुसरण आवश्यक है और आध्यात्मिक शिक्षा का सहारा लेना पड़ता है । कारण में कार्य के उपचार की दृष्टि से सम्यग्ज्ञानादि के कारणों का आत्मा के साथ जो सम्बन्ध है, उसे व्यवहारयोग कहते हैं 13 अतः धर्मशास्त्रोक्त विधि के अनुसार गुरु की विनय तथा परिचर्या आदि करना और यथाशक्ति विधिनिषेधों का पालन करना व्यवहारयोग है । सम्यग्दर्शन जैन-दर्शन में दर्शन शब्द अनाकार- ज्ञान का प्रतीक माना गया है " और श्रद्धा के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है । ६ सही दर्शन सही ज्ञान तक और सही ज्ञान ही सही आचरण तक ले जाने की क्षमता रखता है । ७ अतः धर्म का मूल दर्शन है । इस दृष्टि से आप्तवचनों तथा तत्त्वों पर श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है । ' आप्तपुरुष वह है जो अठारह दोषों से विमुक्त १. अभिधानचिन्तामणि, १७७ २. निच्छायओ इह जोगो सन्नाणाईण तिन्ह संबंधो । मोक्खेण जोयणाओ निद्दिट्ठो जोगिनाद्देहिं । - योगशतक, २ ३. ववहारओ य एसो विन्नेओ एयकारणाणं पि । जो सम्बन्धो वि य कारणज्जोवयाराओ । ४. गुरुविणओ सुस्सुसाइया य विहिणा उ धम्मसत्थे । तह चेवाणुट्ठाणं विहिप डिसेहेसु जहसती । - वही, ५ ५. साकारं ज्ञानं अनाकारं दर्शनम् । - तत्त्वार्थराजवार्तिक, पृ० ८६ ६. उत्तराध्ययन, २८ ३५ ७. वही, २८ ३० ८. समयसार, १४ योगशतक, ४ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साना, योग के साधन : आचार हो।' आप्तवचनों के प्रति श्रद्धान, रुचि, अनुराग, आदर, सेवा एवं भक्ति रखने से सत्य का साक्षात्कार होता है। ___जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष के प्रति श्रद्धान या विश्वास ही सम्यक्त्व है। आत्मा परद्रव्यों से भिन्न है, यह श्रद्धा ही सम्यक्त्व है। इस प्रकार सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए सच्चा गुरु एवं धर्म-बुद्धि आवश्यक है, जिनके द्वारा यथार्थ-अयथार्थ का विवेक उत्पन्न होता है। सम्यक्त्व के पांच लक्षण १. शम-क्रोध, मान, माया तथा लोभ का उदय न होना, २. संवेग-मोक्ष की अभिलाषा, ३. निर्वेद-संसार के प्रति विरक्ति, ४. अनुकम्पा-बिना भेदभाव के दुःखी जीवों के दुःख को दूर करने की भावना, ५. आस्तिक्य--सर्वज्ञ वीतराग द्वारा कथित तत्त्वों पर दृढ़ श्रद्धा। सम्यक्त्व के पच्चीस दोष सम्यक्त्व के पच्चीस दोष माने गये हैं, जो सम्यक्त्व की प्राप्ति के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करते हैं। उनसे साधक को रहित होने का १. पुह तण्हा भय दोसो रायो मोहो जरा रुजा चिन्ता । मिच्चू खेओ सेओ अरइ मओ विम्हओ जर्म । निद्दा तहा विसाओ दोसा एएहिं वज्जिओ अता । वयणं तस्य पमाणं संतत्त्थपरुवयं जम्हा ॥ -वसुनन्दि श्रावकाचार, ८-९ अर्थात्-क्षुधा, तृषा, भय, द्वेष, राग, मोह, जरा, रोग, चिन्ता, मृत्यु, खेद, स्वेद, अरति, मद, विस्मय, जन्म, निद्रा और विषाद ये अठारह दोष हैं । जो आत्मा इन दोषों से रहित है, वही आप्त है और इसी आप्त के वचन प्रमाण माने जाते हैं। २. (क) तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । -तत्त्वार्थसूत्र, १२ (ख) जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।-वही, ११४ (ग) रुचिजिनोक्ततत्त्वेषु, सम्यक् श्रद्धानमुच्यते ।-योगशास्त्र, १११७ ३. परद्रव्यनतें भिन्न आपमें रुचि, सम्यक्त्व भला है। -छहढाला, ३१२ ४. शम-संवेग निर्वेदानुकम्पाऽऽस्तिक्य लक्षणेः। लक्षणः पंचभिः सम्यक्, सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते ॥ -योगशास्त्र, २०१५ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन आदेश है। वे दोष इस प्रकार हैं-तीन मूढ़ताएँ, आठ मद, छह अनायतन और आठ शंका आदि । तोन मूढ़ताएँ-१. देवमूढ़ता, २. गुरुमूढ़ता एवं ३. लोक मूढ़ता। आउ मद-(१) ज्ञान, (२) अधिकार, (३) कुल, (४) जाति, (५) बल, (६) ऐश्वर्य, (७) तप और (८) रूप । छह अनायतन-(१) कुदेव, (२) कुदेवमन्दिर, (३) कुशास्त्र, (४) कुशास्त्र के धारक, (५) कुतप एवं (६) कुतप के धारक। आठ शंका आदि (सम्यक्त्व के आठ अंगों से विपरीत)-(१) शंका, (२) कांक्षा, (३) विचिकित्सा, (४) अन्यदृष्टि प्रशंसा, (५) निन्दा, (६) अस्थितीकरण, (७) अवात्सल्य और (८) अप्रभावना। इन्हीं दोषों में सम्यक्त्व के पाँच अतिचारों का अन्तर्भाव है। सम्यग्ज्ञान ___ सम्यग्दर्शनपूर्वक ही सम्यग्ज्ञान होता है। सम्यग्दर्शन के लिए जिन तत्त्वों पर श्रद्धान अथवा विश्वास अपेक्षित है, उनको विधिवत् जानने का प्रयत्न करना ही सम्यग्ज्ञान का लक्ष्य है। अर्थात् अनेक धर्मयक्त स्व तथा पर-पदार्थो को यथावत् जानना ही सम्यग्ज्ञान है। वस्तुतः जीव मिथ्याज्ञान के कारण चेतन-अचेतन वस्तुओं को एकरूप समझता है, परन्तु चेतनस्वभावी जीव या आत्मा अचेतन या जड़ १. मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथाऽनायतानि षड् । ___ अष्टौ शंकादयश्चेति दृग्दोषाः पंचविंशति ।। -उपासकाध्ययन, २११२४१ २. योगशास्त्र में सम्यक्त्व के पाँच दोष क्रमशः शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्याष्टिप्रशंसा तथा मिथ्यादृष्टिसंस्तव बताये गये हैं। शंकाकाङ्क्षाविचिकित्सा-मिथ्यादृष्टिप्रशंसनम् । तत्संस्तवश्च पंचापि, सम्यक्त्वं दूषयन्त्यलम् । -योगशास्त्र, २०१७ ३. नाणेणं जाणई भावे। -उत्तराध्ययन, २८।३५ ४. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् । --प्रमेयरत्नमाला, १ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ 'योग के साधन : आचार पदार्थो के साथ एकीभूत कैसे हो सकता है ? विषय-भेद के कारण इसके चार भेद हैं, जिनका वर्णन यहाँ आवश्यक नहीं है। सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान का होना असंभव है। सम्यग्ज्ञान के तीन दोष-संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय स्व तथा पर पदार्थों के अन्तर को जानने के मार्ग में बाधक हैं। अतः इन तीनों दोषों को दूर करके आत्मस्वरूप को जानना चाहिए।' आत्मस्वरूप का जानना ही निश्चयदृष्टि से सम्यग्ज्ञान है । सम्यकचारित्र सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान होने के बाद चारित्र सम्यक्चारित्र हो जाता है। क्योंकि दृष्टि में परिवर्तन आ जाता है, दृष्टि परिशद्ध, यथार्थ बन जाती है। राग-द्वेषादि कषाय-परिणामों के परिमार्जन के लिए अहिंसा, सत्यादि व्रतों का पालन करने के लिए सम्यक्चारित्र का विधान है।" ज्ञानसहित चारित्र ही निर्जरा तथा मोक्ष का हेतु है। दूसरे शब्दों में अज्ञानपूर्वक चारित्र का ग्रहण सम्यक् नहीं होता, इसलिए चारित्र का आराधन सम्यग्ज्ञानपूर्वक ही सम्यक कहा गया है। १. प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग । -समीचीन धर्मशास्त्र, २, ४३-४६ २. . सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः । ज्ञानाराधनमिष्टं, सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात् ।। कारणकार्यविधानं समकालं जायनोरपि हि । दीपप्रकाशयोरिव, सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् ।। -पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ३३-३४ ३. तातै जिनवरक थित तत्त्वअभ्यास करीजे । संशय विभ्रम मोह त्याग, आपो लख लीजे ॥ --छहढाला, ४।६ ४. आपरूप को जानपनौ सो सम्यग्ज्ञान कला है। ---छहढाला, ३३२ ५. मोहतिमिराऽपहरणे, दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः ।। रागद्वेष निवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।। -समीचीन धर्मशास्त्र, ३१२११४७ ६. नहि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञानपूर्वकं लभते । ज्ञानान्तरमुक्त, चारित्राराधनं तस्मात् ॥ -पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ३८ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन श्रमण एवं गृहस्थ की दृष्टि से चारित्र दो प्रकार का है' - ( १ ) सकलचारित्र और (२) विकलचारित्र । बाह्य तथा आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों के त्यागपूर्वक श्रमण द्वारा गृहीत चारित्र सर्वसंयमी अर्थात् सकलचारित्र है । गृहस्थों या श्रावकों द्वारा गृहीत चारित्र देशसंयत अर्थात् विकलचारित्र है । उक्त दोनों प्रकार के चारित्र को क्रमशः सर्वदेश तथा एकदेश " कहा गया है । चारित्र के पाँच भेदों का भी वर्णन किया गया है - ( १ ) सामायिक, (२) छेदोपस्थापना, (३) परिहारविशुद्धि, (४) सूक्ष्म संपराय तथा ( ५ ) यथाख्यात | २ ८४ १. सामायिक चारित्र - जिसका राग-द्वेष परिणाम शान्त है अर्थात् समचित्त है, उसे सामायिकचारित्र कहते हैं । इस चारित्र की प्राप्ति के बाद मन में किसी प्रकार की ईर्ष्या, मोह आदि नहीं रह पाते । २. छेदोपस्थापनाचारित्र - पहली दीक्षा ग्रहण करने के बाद विशिष्ट श्रुत का अभ्यास कर चुकने पर विशेष शुद्धि के लिए जीवन भर के लिए जो पुनः दीक्षा ली जाती है और प्रथम ली हुई दीक्षा में दोषापत्ति आने से उसका उच्छेद करके पुनः नये सिरे से जो दीक्षा का आरोपण किया जाता है उसे छेदोपस्थापना - चारित्र कहते हैं । ३. सूक्ष्मसंपरायचारित्र - जहाँ सूक्ष्म कषाय विद्यमान हो अर्थात् किंचित् लोभ आदि हों, वह सूक्ष्मसंपरायचारित्र है । ४. परिहारविशुद्धिचारित्र - कर्म - मलों को दूर करने के लिए विशिष्ट. तप का अवलम्बन लेने को अर्थात् आत्मा की शुद्धि करने को परिहारविशुद्धिचारित्र कहते हैं । १. सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंग - विरतानाम् । अनगाराणां विकलं सागाराणां ससंगानाम् ॥ ? २. छहढाला, ४ १० ३. सामाइयत्थ पढमं, छेओवट्ठावणं भवे बीयं । परिहारविसुद्धीयं, सुहुमं तह संपरायं च ॥ अकसायं अहक्खायं, छउमत्थस्स जिणस्स वा । एयं चयरितकरं चारितं होइ आहियं ॥ - उत्तराध्ययन, २८ ३२-३३ - समीचीन धर्मशास्त्र, ३२४|५० " Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार ८५ ५. यथाख्यातचारित्र-आत्मा में स्थित लोभादि कषायों का भी अभाव हो जाना यथाख्यातचारित्र है । यह अवस्था सिद्धपद के पूर्व चारित्र - विकास की पूर्णता की सूचक है । इस संदर्भ में योगाधिकारी की दृष्टि से भी चारित्र के चार भेद वर्णित 'हैं और चारित्र अर्थात् चारित्रशील के क्रमशः चार लक्षणों का प्रतिपादन किया गया है । वे चार लक्षण इस प्रकार हैं – (१) अपुनर्बन्धक, (२) सम्यग्दृष्टि, (३) देशविरति तथा (४) सर्वविरति । १. अपुनर्बन्धक – जो उत्कट क्लेशपूर्वक पाप कर्म न करे, जो भयानक दुःखपूर्ण संसार में लिप्त न रहे और कौटुम्बिक, लौकिक एवं धार्मिक आदि सब बातों में न्याययुक्त मर्यादा का अनुपालन करे, वह अपुनबन्धक है । २. सम्यग्दृष्टि - धर्म-श्रवण की इच्छा, धर्म में रुचि, समाधान या स्वस्थता बनी रहे, इस तरह गुरु एवं देव की नियमित परिचर्या ये सब सम्यग्दृष्टि जीव के लिंग हैं । ३. देशविरति - मार्गानुसारी, श्रद्धालु, धर्म-उपदेश के योग्य, क्रियातत्पर, गुणानुरागी और शक्य बातों में ही प्रयत्न करनेवाला देशविरति चारित्री होता है । ४. सर्वविरति - अन्तिम वीतरागदशा प्राप्त होने तक सामायिक यानी शुद्धि के तारतम्य के अनुसार तथा शास्त्रज्ञान को जीवन में उतारने की परिणति के तारतम्य के अनुसार सर्वविरति चारित्रो होता है । १. पावं न तिव्वभावा कुणइ न बहु मन्नई भवं घोरं । उचिट्ठिइं च सेवइ सव्वत्थ वि अपुणबंधो त्ति ॥ १३ ॥ सुस्सूस धम्मराओ गुरुदेवाणं जहासमाहीए । वेयावच्चे नियमो सम्मद्दिठिस्स लिगाई || १४ || मग्गणुसारी सद्धो पन्नवणिज्जो कियावरो चेव । गुणरागी सक्कारंभसंगओ तह य चारिती ॥१५॥ एसो सामाइयसुद्धिभेयओऽणेगहा मुणेयव्वो । आणापरिणइमेया अंते २. योगबिन्दु, ३५२-५३ जा वीयरागोत्ति ॥१६॥ - योगशतक Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययनः प्रथम अधिकारी ( चारित्री ) में मिथ्याज्ञान के रहने से दर्शन प्रकट नहीं होता, क्योंकि दर्शनमोहनीय कर्म अस्तित्व में रहता है । द्वितीय अधिकारी में मोहनीय कर्म का क्षय होता है, परन्तु वीतरागता की प्राप्ति नहीं होती। तीसरे अधिकारी में कर्म अल्पांश में नष्ट होते हैं, किन्तु पूर्णत: नहीं । और चौथे में जाते-जाते पूरे कर्म ढीले पड़ जाते हैं तथा पूर्ण चारित्र का उदय हो जाता है । " ८६ इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र आत्मविकास की क्रमिक सीढ़ियाँ हैं, मोक्ष मार्ग के साधन हैं; क्योंकि इनके द्वारा क्रमक्रम से आत्मविकास होता है, कषाय एवं कर्म क्षीण होते जाते हैं और स्वानुभूति की परिधि का विस्तार होता जाता है तथा एक ऐसी अवस्था आती है जब साधक मोक्ष का अधिकारी बन जाता है । चारित्र के दो भेद पूर्वं वर्णित चारित्र के दो भेद - सकलचारित्र एवं विकलचारित्र, क्रमशः श्रमण एवं श्रावक के होते हैं; क्योंकि मुनि जहाँ बाह्य एवं आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्यागी होता है वहाँ श्रावक वैसा न होकर कुछ परिग्रहों का त्यागी होता है । मुनि विरक्त एवं गृहत्यागी होने के कारण ऐसा करने में सक्षम हो सकते हैं, लेकिन श्रावक के लिए सर्वसंग परित्यागी बनना अशक्य है । उसे जीविकोपार्जन के लिए विविध उद्योग-व्यवसाय आदि का अवलम्बन लेना पड़ता है । इस प्रकार मोटे तौर पर जैनशास्त्र में दो प्रकार की आचार संहिताओं का विधान है, जिनका वर्णन क्रमशः यहाँ किया जाता है । • श्रावकाचार श्रावक देशसंयमी होता है । उसके आचार में मर्यादापूर्वक आत्मविकास की छूट है । यही कारण है कि आरम्भ समारम्भपूर्ण श्रावकधर्म में सदाचार एवं सद्विचार की प्रतिष्ठा द्वारा निर्वाण, वीतरागता की प्राप्ति का विधान है | श्रावकाचार श्रमणाचार का पूरक अथवा उस दिशा में सहायक होता है । १. योगशतक, पृ० २१ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन ! आचार श्रावक के लिए देशसंयमी, गृहस्थ, श्राद्ध, उपासक, अणुव्रतो, देशविरत, सागार, आगारी आदि शब्दों के भी प्रयोग होते हैं।' श्रावक के विभिन्न दृष्टियों से कई भेद-प्रभेद किये गये हैं। सागारधर्मामृत के अनुसार श्रावक तीन प्रकार के हैं-१. पाक्षिक, २. नैष्ठिक, और ३. साधक । निर्ग्रन्थ धर्म में श्रद्धा रखनेवाला पाक्षिक, श्रावकधर्म का पालन करनेवाला नैष्ठिक तथा आत्मध्यान में लीन होकर संलेखना लेनेवाला साधक है। ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर भी श्रावक तीन प्रकार के कहे गये हैं 3 - १. जघन्य, २. मध्यम तथा ३. उत्कृष्ट । चामुण्डराय ने गृहस्थ को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास इन चार आश्रमों में विभाजित किया है। इसमें वैदिक परम्परा का अनुकरण स्पष्ट दीख पड़ता है। हरिभद्र ने सामान्य और विशेष दो प्रकार के श्रावक बताये हैं।५ श्रावक के भेद-विभेद में न जाकर यहाँ केवल श्रावकाचार का प्रतिपादन करना ही अभीष्ट है। श्रावक-धर्म अथवा श्रावकाचार का प्ररूपण मुख्यतः तीन प्रकार से किया गया है.---(१) बारह व्रतों के आधार पर, (२) ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर तथा (३) पक्ष, चर्या अथवा निष्ठा एवं साधन के आधार पर। उपासकदशांग, तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्ड-श्रावकाचार आदि में संलेखनासहित बारह व्रतों के आधार पर श्रावक-धर्म का प्रतिपादन है। आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्र-प्राभृत में, स्वामि कार्तिकेय ने द्वादश अनुप्रेक्षा में एवं आचार्य वसूनन्दि ने वसनन्दि-श्रावकाचार में ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर श्रावक-धर्म का प्ररूपण किया है। श्रावक के बारह व्रत १. जैन आचार, पृ० ८३ २. पाक्षिकादिभिदा त्रेधा, श्रावकस्तत्र पाक्षिकः । तद्धर्मगृह्यस्तनिष्ठो, नैष्ठिकः साधकः स्वयुक् ।-सागारधर्मामृत, १२० ३. वही, ३३२-३ ४. चारित्रसार, पृ० २० ५. तत्र च गृहस्थधर्मोऽपि द्विविधः --सामान्यतो विशेषतश्चेति । -धर्मबिन्दु, ११२ ६. जैन आचार, पृ० ८३-८४ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन ८८ इस प्रकार हैं--पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत । " उपासक दशांग में तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत के लिए सामूहिक नाम शिक्षाव्रत व्यवहृत हुआ है । कुन्दकुन्द ने ग्यारह प्रतिमाओं के साथ ही बारह व्रतों का उल्लेख कर दिया है । तत्त्वार्थसूत्रकार ने भी बारह व्रतों का ही उल्लेख किया है । पाँच अणुव्रतों को मूलगुण भी माना गया है, लेकिन इन व्रतों के साथ मद्य, मांस एवं मधु का त्याग भी मूलगुण के अन्तर्गत ही है । कहीं-कहीं पाँच अणुव्रतों के साथ जुआ, मद्य एवं मांस-त्याग को भी मूलगुण माना गया है । पद्मपुराण में मधु, मद्य, मांस, जुआ, रात्रि भोजन एवं वेश्यागमन के त्याग को नियम ७ कहा गया है । हरिवंशपुराण के अनुसार पाँच उदुम्बर फल के त्याग एवं परस्त्री - त्याग को नियम कहा गया है | " अणुव्रत श्रावक के लिए विहित पाँच अणुव्रत मुनि के महाव्रतों की अपेक्षा लघु अथवा सरल, स्थूल होते हैं । अहिंसा आदि महाव्रतों का पालन तीन योग ( मन, वचन, काय) तथा तीन करण (कृत, कारित, अनुमोदन ) १. सम्यक्त्वमूलानि पंचाणुव्रतानि गुणात्रयः । शिक्षापदानि चत्वारि, व्रतानि गृहमेधिनाम् । - योगशास्त्र, २1१; ....... तथा विंशतिविंशिका, ९१३ ... पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालस्सविहं सावय धम्मं - - उपासकदशांग, १1५५ ३. प्राभृतसंग्रह, पृ० ५९ ४. तत्त्वार्थसूत्र, ७।१५-१६ ५. (क) रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ६६; ( ख ) सागारधर्मामृत, २२ ६. हिंसाऽसत्यस्तै यादब्रह्मपरिग्रहाच्च बादरभेदात् । द्यूतान्मासान्मद्याद्विरतिर्गुहिणोऽष्ट सन्त्यमीमूलगुणाः ॥ -- चारित्रसार, पृ० १५ ७. मधुनो मद्यतो मांसाद् द्यूततो रात्रिभोजनात् । वेश्यासंग मनाच्चास्य विरतिनियमः स्मृतः ॥ - पद्मपुराण, १४।२०२ ८. हरिवंशपुराण, १८२४८ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार पूर्वक होता है, लेकिन अणुव्रतों का पालन साधारणतः तीन योग तथा दो करणपूर्वक होता है। ___ अणुव्रत पाँच हैं--(१) स्थूल प्राणातिपात-विरमण, (२) स्थूल मृषावाद-विरमण, (३) स्थूल अदत्तादान-विरमण, (४) स्वदारसन्तोष . तथा (५) इच्छा-परिमाण ।' १. स्थूल प्राणातिपात विरमण-इसे अहिंसाणुव्रत भी कहते हैं। अहिंसाणुव्रती श्रावक स्थूल हिंसा का त्यागी होता है । स्थूल हिंसा अर्थात् त्रस जीवों की हिंसा । दो, तीन, चार एवं पाँच इन्द्रियों के जीव त्रसजीव कहलाते हैं। गृहस्थ होने के कारण श्रावक को अनेक प्रकार की प्रवत्तियाँ करनी पड़ती हैं, अतः वह पूर्ण हिंसा का त्याग नहीं कर सकता; वरन् परिस्थिति-विशेष में सूक्ष्म हिंसा किसी-न-किसी प्रकार उससे होती ही है । अतः इस व्रत के अनुसार श्रावक अपनी सुविधा, शक्ति एवं परिस्थिति के अनुसार स्थूल हिंसा का त्याग करता है। . श्रावक की अपेक्षा से हिंसा चार प्रकार की होती है--आरम्भी, उद्योगी, विरोधी और संकल्पी । अहिंसाणुव्रती श्रावक केवल संकल्पी हिंसा का ही त्यागी होता है। महाव्रती मुनि सब प्रकार की हिंसा का त्यागी होता है। ___ इस सन्दर्भ में, उल्लेखनीय है कि हिंसा के प्रमुख दो भेद हैं--(१) भावहिंसा एवं (२) द्रव्यहिंसा । मन, वचन एवं काय में राग-द्वेष आदि कषाय को प्रवत्ति भावहिंसा है तथा कषाय की तीव्रता, दीर्घश्वासोच्छ्वास एवं हस्तपादादिक से किसी को कष्ट पहुँचाना अथवा प्राणघात करना द्रव्याहिंसा है। वास्तव में भाव एवं द्रव्य हिंसा का सर्वथा त्याग १. दशवैकालिक, ४७ २. विरतिस्थूलहिंसादेद्विविधत्रिविधादिना। . __अहिंसादीनि पंचाणुव्रतानि जगदुजिना । -योगशास्त्र, २०१८ ३. स्थूलप्राणातिपातादिभ्यो विरतिरणुव्रतानि पंचेति। -धर्मबिन्दु, ३।१६ ४. (क) प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा। -तत्त्वार्थसूत्र, ७८ (ख) यत्खलुकषाययोगात्प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा । -पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ४३ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन ही अहिंसा है । क्योंकि कषायों की वृद्धि से ही हिंसा का भाव उत्पन्न होता है और मद्य, मांस, मधु आदि चीजों के सेवन करनेवालों के मन में कषायों की वृद्धि अधिक होती है । इसलिए इन वस्तुओं का वर्जन अहिंसा - पालन के लिए आवश्यक है । I सावधानीपूर्वक व्रत का पालन करते हुए भी श्रावक को प्रमाद या अज्ञानवश दोष लगने की सम्भावना रहती है । ये दोष अतिचार कहलाते हैं । प्रथम अहिंसाणुव्रत के पाँच अतिचार इस प्रकार हैं -- (१) बन्ध, (२) वध, (३) छेद अथवा छविच्छेद, (४) अतिभारारोपण, तथा ( ५ ) अन्नपाननिरोध | १. बन्ध -- तीव्र क्रोध से प्रेरित होकर, किसी भी प्राणी को उसके इष्ट स्थान पर जाने से रोकना या बाँधकर रखना । २. वध - किसी भी प्राणी पर लाठी, कोड़े आदि से या अस्त्रशस्त्रादि से घातक प्रहार करना । ३. छेद अथवा छविच्छेद- क्रोध अथवा स्वार्थवश किसी भी प्राणी के नाक-कान, चमड़ी आदि अंगों का भेदन या छेदन करना । ४. अतिभारारोपण - मनुष्यों या पशुओं आदि पर शक्ति से अधिक भार लादना या अधिक कार्य लेना । ५. अन्नपाननिरोध - किसी भी प्राणी के खान-पान में कटौती करना अथवा रुकावट डालना । गृहस्थ को इन दोषों से यथासम्भव वचना चाहिए । किन्तु घरगृहस्थी का कार्य आ पड़ने पर या विशेष प्रयोजनवश इन दोषों का सेवन करना ही पड़े तब भी कोमल भाव से ही काम लेना चाहिए । 1 २. स्थूल मृषावादविरमण - इसे सत्याणुव्रत भी कहते हैं । सत्याणुव्रती श्रावक स्थूल असत्य का झूठे व्यवहार का त्यागी होता है । इससे जहाँ समाज में व्यक्ति की प्रामाणिकता की प्रतिष्ठा होती है, वहाँ अहिंसा का पोषण भी होता है, सत्य और अहिंसा दोनों अन्यो १. बन्धवधच्छ विच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः । २. पं० सुखलालजी, तत्त्वार्थसूत्र, पृष्ठ १८७ - तत्त्वार्थ सूत्र, ७ २० Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार ९१ न्याश्रित हैं तथा एक-दूसरे के पूरक भी । श्रावक नवकोटि से सर्वथा मृषावाद का त्याग नहीं कर सकता, क्योंकि उसे जीवन-यापन के लिए व्यवहार-व्यापार करना पड़ता है । असत् कथन को अनृत' अर्थात् हेय माना गया है । असत्य की विभिन्न ग्रन्थों में कई कोटियाँ वर्णित हैं । पुरुषार्थसिद्धयुपाय एवं अमितगति श्रावकाचार में असत्य के चार भेद किये गये हैं, जैसे (१) सद्आलापन, (२) अस आलापन, (३) अर्थान्तर तथा (४) निंद्य । उपासकाध्ययन के अनुसार असत्यासत्य ( २ ) सत्यासत्य, (३) सत्यसत्य, एवं ( ४ ) असत्य - असत्य - इन चार प्रकारों का उल्लेख है । असत्य के पाँच भेद भी बताये गये है- कन्यालीक, गौअलीक अर्थात् गवालीक, भूम्यलीक, न्यासापहार एवं कूटसाक्षी ।" सागारधर्मामृत में भी यही बात है । कन्यादि के वैवाहिक संबंध की बातचीत में झूठ बोलना कन्यालीक है। पशुओं की खरीद-बिक्री में झूठ का व्यवहार गौअलीक अर्थात् गवालीक है । भूमि की खरीद-बिक्री में मिथ्याभाषण करना भूम्यलीक है । दूसरों की अमानत धरोहर को हजम करना न्यासापहार है । और उसी प्रकार कचहरी के कामों में झूठा व्यवहार करना कूटसाक्षी है । स्थूलमृषावाद अथवा असत्य व्यवहार के त्यागी श्रावक को सत्याणुव्रत के पालन में सावधानी रखनी चाहिए। सत्याणुव्रत के पाँच अतिचार हैं, जो विभिन्न ग्रंथों में अनेक नामों से वर्णित हैं । उपासकादशांग सागारधर्मामृत, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, अमितगतिश्रावकाचार, १० योग १. असदभिधानमनृतम् । - तत्त्वार्थसूत्र, ७।१४ २. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ९१-९८ ३. अमितगतिश्रावकाचार, ६।४९-५४ ४. उपासकाध्ययन, ३८३ कन्यागोभूम्यलीकानि, न्यासापहरणं तथा । कूटसाक्ष्यंच पंचेति, स्थूलासत्यान्यकीर्त्तयन् । – योगशास्त्र, २०५४ ६. सागारधर्मामृत, ४, ३९ ७. उपासकदशांग, १/४६ ८. सागारधर्मामृत, ४ । ४५ ९. पुरुषार्थसिद्धघुपाय, १८४ १०. अमितगतिश्रावकाचार, ७१४ ७ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन शास्त्र, धर्मबिन्दु' आदि में इन अतिचारों का उल्लेख इस प्रकार है(१) सच्चा-झूठा समझाकर किसी को विपरीत मार्ग में डालना मिथ्योपदेश है, (२) रागवश विनोद के लिए किसो पति-पत्नी को अथवा अन्य स्नेहियों को अलग कर देना अथवा किसी के सामने दूसरे पर दोषारोपण करना रहस्याभ्याख्यान है, (३) मोहर, हस्ताक्षर आदि द्वारा झूठी लिखापढ़ी करना तथा खोटा सिक्का आदि चलाना कूटलेखक्रिया है, (४) कोई धरोहर रखकर भूल जाय तो उसका लाभ उठाकर थोड़ी या पूरी धरोहर दबा जाना न्यासापहार है, (५) किन्हीं की आपसी प्रीति तोड़ने के विचार से एक-दूसरे की चुगली खाना, या किसी की गुप्त बात प्रकट कर देना साकार मंत्र-भेद है। ३. स्थूलअदत्तादानविरमण ___इसे अचौर्याणुव्रत भी कहते हैं। अचौर्याणुव्रती श्रावक व्यावहारिक एवं सामाजिक-दृष्टि से चोरी करने कराने तथा चोरी का व्यापार करने का त्यागी होता है। अहिंसा एवं सत्य व्रतों की प्रतिष्ठा एवं संपोषण के लिए श्रावक स्थूलअदत्तादानविरमणव्रत का पालन करता है। बिना किसी की आज्ञा से किसी वस्तु को ले लेने पर मन में अशांति उत्पन्न हो जाती है, दिन-रात, सोते-जागते चौर्य कर्म की चुभन होती रहती है। श्रावक के लिए केवल दो करण तथा तीन योग से ही इस व्रत का पालन करना आवश्यक है। अचौर्याणुव्रत के पाँच अतिचार हैं--(१) प्रतिरूपकव्यवहार अर्थात् १. योगशास्त्र, ३१९१ २. धर्मबिन्दु, ३।२४ ३. मिथ्योपदेशरहस्याभ्याख्यान कूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः । -तत्वार्थसूत्र, ७॥२१ ४. दिवसे वा रजन्यां वा स्वप्ने वा जागरेऽपि वा।। सशल्य इव चौर्येण, नैति स्वास्थ्यं नरः क्वचित् ॥ -योगशास्त्र, २०७० ५. (क) स्तेनानुज्ञा तदानीतादानं दिड्राज्यलङ्घनम् । __ प्रतिरूपक्रिया मानान्यत्वं चास्तेयसंश्रिता ॥ -योगशास्त्र, ३१९२ (ख) स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिकमहीनाधिकमानोन्मान प्रतिरूपकव्यवहाराः। -तत्त्वार्थसूत्र, ७।२२ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार अच्छी वस्तु में खराब वस्तु को मिलाकर बेचना या असली के स्थान पर नकली वस्तु चलाना । (२) स्तेन प्रयोग अर्थात् किसी को चोरी करने के लिए प्रेरित करना अथवा चोरी करनेवालों की मदद करना । (३) स्तेन-आहृतदान अर्थात् चोरी करके लायी गयी वस्तु को लेना। (४) विरुद्धराज्यातिक्रम अर्थात् राज्य की ओर से निर्धारित नियमों का उल्लंघन करना और (५) हीनाधिक मानोन्मान अर्थात् न्यूनाधिक नाप, . बाट तथा तराजू आदि से लेन-देन करना । व्रती-श्रावक को इन अतिचारों से बचना या सावधान रहना चाहिए। अचौर्याणुव्रती श्रावक वही है जो दूसरे की तृणमात्र वस्तु को चुराने के अभिप्राय से न अपने लिए ग्रहण करता है और न दूसरों को देता है।' ४. स्वदारसंतोष इसे ब्रह्मचर्याणुव्रत भी कहते हैं। यह व्रत श्रावक के लिए नितान्त आवश्यक है और उसे अपनी पत्नी में ही संतुष्ट रहना चाहिए। वह अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य सभी स्त्रियों को माँ, बहन एवं बेटी के रूप में देखे । इस व्रत का प्रतिपादन कई ग्रंथों में विभिन्न दृष्टियों से किया गया है, जिनमें रत्नकरण्डश्रावकाचार,' सर्वार्थसिद्धि, पुरुषार्थ सिद्युपाय,' स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा सागारधर्मामृत आदि उल्लेखनीय हैं। ज्ञानार्णव में तो स्त्री-समागम के दस दोषों का उल्लेख है, १. परस्वस्याप्रदतस्यादानं स्तेयमुदाहृतम्। सर्वस्वाधीनतोयादेरन्यत्र तन्मतंसताम् । -प्रबोधसार, ६१ (ख) उपासकाध्ययन, २६।२६४ २. उपासकदशांगसूत्र, १।१६ ३. अमितगतिश्रावकाचार, ६।४६ ४. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ३।१३ ५. सर्वार्थसिद्धि, ७।२० ६. पुरुषार्थसियुपाय, ११८ ७. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३३८ ८. सागारधर्मामृत, १३१५२ ९. ज्ञानार्णव, ११७-९ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन जिनको टालकर मन, वचन, एवं कायपूर्वक स्वदारसन्तोषव्रत का पालन करना चाहिए। इस व्रत के पाँच अतिचार हैं'-(१) इत्वरपरिगृहीतागमन अर्थात् रुपये देकर किसी दूसरे के द्वारा स्वीकृत स्त्री या वेश्या के साथ अमुक समय तक गमन करना, (२) अपरिगृहीतागमन अर्थात् वेश्या, कुलटा, वियोगिनी आदि का उपभोग करना, (३) अनंगक्रीड़ा अर्थात् सृष्टि विरुद्ध या अस्वाभाविक कामसेवन, (४) परविवाहकरण अर्थात् कन्यादान के फल की भावना से दूसरों की संतति का ब्याह करवाना, एवं (५) तीव्र कामभोगाभिलाषा अर्थात् बारबार विविध प्रकार से कामक्रीड़ा करना। इन अतिचारों के प्रति श्रावक के साथ-साथ श्राविका को भी सावधानी रखनी चाहिए। श्राविका को भी चाहिए कि स्वपति संतोष रूप, स्थूलमैथुनविरमणव्रत का पालन करे और किसी भी दूसरे पुरुष के साथ वैषयिक सम्बन्ध न रखे। ५. इच्छा-परिमाण व्रत . इसे अपरिग्रहाणुव्रत या परिग्रह-परिमाणवत भी कहते हैं । इच्छाएँ अनन्त हैं और मनुष्य इच्छाओं के अनुरूप अपनी आवश्यकताओं को बढ़ाते-बढ़ाते उनके पीछे ही दुःख, दारिद्रय आदि संकटों में फंस जाता है। यह व्रत इस तथ्य का द्योतक है कि श्रावक देश, काल, परिस्थिति एवं सामर्थ्य के अनुसार अपनी आवश्यकताओं को परिमित करे और किसी वस्तु के प्रति मूर्छा अथवा ममत्व न रखे । क्योंकि मूर्छा ही परिग्रह है, और धन-धान्यादि के संग्रह से ममत्व घटाना अथवा लोभ कषाय को कम करके संतोषपूर्वक वस्तुओं का आवश्यकता भर उपयोग करना परिग्रहपरिमाणवत है। इस प्रकार श्रावक को अपनी इच्छाओं की मर्यादा अवश्य बाँध लेनी चाहिए । आवश्यकतानुसार वस्तुओं को १. (क) इत्वरात्तागमोऽनातागतिरन्य -विवाहनम् । मदनात्याग्रहोऽनंगक्रीडा च ब्रह्मणि स्मृताः ॥ -योगशास्त्र, ३१९३ (ख) परविवाहकरणेत्वरपरिगृहीताऽपरिगृहीतागमनानङ्गक्रीडातीत्र कामाभिनिवेशाः। -तत्त्वार्थसूत्र, ७।२३ २. मूर्छा परिग्रहः । -तत्त्वार्थसूत्र, ७/१२ ३. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३३९-३४० . Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार ९५ परिमित करने का संकल्प व्यावहारिक होना चाहिए, कथन मात्र का नहीं, क्योंकि केवल कथन से वस्तुत्याग का संकल्प कर लेना निरर्थक है।' परिग्रह ही संसार में जन्म-मरण का मूल है । परिग्रह के अनेक भेद-प्रभेद वर्णित हैं । पुरुषार्थसिद्धयुपाय में अन्तरंग एवं बहिरंग दो प्रकार के परिग्रह की चर्चा है, जिसमें अन्तरंग परिग्रह के चौदह तथा बहिरंग के दो भेद बतलाए गये हैं। जबकि उपासकाध्ययन में बाह्य परिग्रह दस प्रकार का कहा गया है। इसी तरह सिद्धसेनगणी ने भी आभ्यंतर परिग्रह के चौदह भेद ही गिनाये हैं। बाहय परिग्रह के नव एवं दस भेद भी मिलते हैं। इन परिग्रहों के परिमाण के निर्णय के संबंध में स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा तथा लाटीसंहिता आदि ग्रंथों में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। इस व्रत के अतिचारों के संबंध में अनेक मत हैं, जिनकी चर्चा यहाँ आवश्यक नहीं है। इस व्रत के भी पाँच अतिचार इस प्रकार के हैं१०-(१) । क्षेत्र वास्तु परिमाण-अतिक्रमण अर्थात् जमीन, आदि वस्तुओं की मर्यादा का उल्लंघन, (२) हिरण्यसुवर्ण-प्रमाणातिक्रम अर्थात् सोने एवं चाँदी १. तस्मादात्मोचिताद् द्रव्याद् ह्रासनं तद्वरं स्मृतम् । ___ अनात्मोचितसंकल्पाद् ह्रासनं तनिरर्थकम् ॥ -लाटीसंहिता, ८६ . २. संसारमूलमारम्भास्तेषां हेतुः परिग्रहः ।। तस्मादुपासकः कुर्यादल्पमल्यं परिग्रहम् ॥ -योगशास्त्र, २१११० ३. पुरुषार्थसिध्युपाय, ११५-११७ ४. उपासकाध्ययन, ४३३ ५. तत्वार्थाधिगमसूत्रम्, भा० २, ७।२४ ६. नवपदप्रकरण, ५८ ७. चारित्रसार, पृ०७ ८. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३३९-४० ९. लाटीसंहिता, ८६-८७ १०. धनधान्यस्य कुप्यस्य, गवादेः क्षेत्रवास्तुनः । हिरण्यहेम्नश्च संख्याऽतिक्रमात्र परिग्रहे । -योगशास्त्र, ३१९४ (ख) क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिकमाः । -तत्त्वार्थसूत्र, ७।२४ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन आदि की मर्यादा का उल्लंघन, (३) धनधान्य- प्रमाणातिक्रम अर्थात् चतुष्पद आदि जानवरों एवं अनाज की मर्यादा का अतिक्रमण, ( ४ ) दासीदास प्रमाणातिक्रम - नौकर चाकरों आदि कर्मचारियों की संस्था मर्यादा का अतिक्रमण, (५) कुप्यप्रमाणातिक्रम अर्थात् बर्तनों एवं वस्त्रों के प्रमाण का अतिक्रमण | रात्रिभोजनविरमण व्रत जैनधर्म मूलत: अहिंसाप्रधान है, इसलिए श्रमण के लिए रात्रिभोजन के त्याग का विधान है । यहाँ तक कि इसे छठा व्रत कहा गया है । रात्रिभोजन में बहुत से जीवों की हिंसा होती है ।" स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा एवं रत्नकरण्ड श्रावकाचार के अनुसार रात्रिभुक्तिविरत श्रमण वे ही हो सकते हैं जिन्होंने रात्रि में चारों प्रकारों के भोजन का त्याग कर दिया है । योगशास्त्र के अनुसार भी रात्रि में किसी प्रकार का भोजन करना विहित नहीं है । सावयवधम्म दोहा " के अनुसार श्रावकों को रात्रि में केवल औषध, पानी एवं पान खाने की छूट है। भोजन तो रात में निषिद्ध ही है । उल्लेखनीय है कि चारित्रसार', उपासकाध्ययन, वसुनन्दि श्रावकाचार, " अमितगति श्रावकाचार', सागारधर्मामृत १० के अनुसार रात्रि में स्त्री-भोग करने एवं दिन में ब्रह्मचर्य का १. घोरांधकाररुद्धाक्षैः पतन्ती यत्र जन्तवः । नैव भोज्ये निरीक्ष्यन्ते, तत्र भुंजीत को निशि । – योगशास्त्र, ३।४९; - दशवैकालिक, ४|१३; १५ १ २. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३८२ ३. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ५।२१ ४. योगशास्त्र, ३१४८-७० ५. सावयवधम्म दोहा, ३७ ६. चारित्रसार, पृ० १९ ७. उपासकाध्ययन, ८५३ ८. वसुनन्दि श्रावकाचार, २९६ ९. अमितगति श्रावकाचार, ७।७२ १०. सागारवर्मामृत, ७।१२ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याग के साधन : आचार ९७ पालन करने को ही रात्रिभुक्तिविरत अथवा दिवामिथुनविरत कहा गया है। यह स्वतंत्र व्रत नहीं है, बल्कि अहिंसाव्रत में ही निहित है, क्योंकि इस व्रत का मूल उद्देश्य मूल व्रतों को विशुद्ध रखना ही है। गुणवत अणुव्रत के साथ-साथ श्रावकों के लिए गुणवतों का भी विधान है। गुणव्रत अणुव्रतों की रक्षा एवं विकास के लिए ही हैं। इन व्रतों के साथ शिक्षा-व्रतों को जोड़कर सामूहिक नाम 'शीलवत' रखा गया है और कहा गया है कि जैसे नगर के चारों ओर बने प्राकार से नगर की रक्षा होती है वैसे ही शीलों से व्रतों की रक्षा होती है। अतः व्रतों का पालन करने के लिए शीलों का पालन करना आवश्यक है । ज्ञातव्य है कि गुणवत अणुव्रत की तरह एक ही बार ग्रहण किये जाते हैं, जबकि शिक्षाबत बारबार ग्रहण किये जाते हैं। अर्थात् अणुव्रत एवं गुणव्रत जीवनभर के लिए होते हैं और शिक्षावत अमुक समय के लिए ही होते हैं । ___ गुणव्रत के भेदों के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं। जहाँ इसके कुछ भेद शिक्षाक्त में गिनाये जाते हैं, वहां शिक्षावत के भी भेद गुणवत में संवलित कर लिये जाते हैं। यहाँ तक कि गुणवतों एवं शिक्षाव्रतों को सामूहिक नाम 'शीलवत' देकर दोनों के भेदों को एक साथ समाहित कर दिया गया है । इस विचारधारा का प्रतिपादन उपासकदशांग', तत्त्वार्थसूत्र', पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, उपासकाध्ययन", चारित्रसार', अमितगति श्रावका १. परिधय इव नगराणि व्रतानि परिपालयन्ति शीलानि । व्रतपालनाय तस्माच्छीलान्यपि पालनीयानि ॥ -पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, १३६ २. जैन आचार, पृ० ११३ ३. उपासकदशांग, १।११ ४. तत्त्वार्थसूत्र, ७।१६ ५. उपासकाध्ययन, ४४८-४५९ ६. चारित्रसार, पृ०८ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन * चार', पद्मनन्दिपंचविशति आदि ग्रन्थों में हुआ है । अर्थात् प्राभृतसंग्रह स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, सागारधर्मामृत ", धर्मबिन्दु, योगशास्त्र, पद्मचरित ', रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि ग्रंथों में नाम एवं क्रम में अन्तर रहते हुए भी गुणव्रत का निर्देश इस प्रकार हुआ है १३ (१) दिग्व्रत, (२) अनर्थ- दण्डव्रत एवं (३) भोगोपभोगपरिमाणव्रत । सर्वार्थसिद्धि १०, हरिवंशपुराण", वसुनदिश्रावकाचार १५, आदिपुराण ३ आदि ग्रंथों में नाम एवं क्रम में अन्तर रहते हुए भी गुणव्रत का वर्गीकरण इस प्रकार हुआ है- (१) दिग्व्रत, (२) देशव्रत एवं (३) अनर्थ - दण्डव्रत | इस तरह पता चलता है कि इन दोनों विचारधाराओं ने दिग्व्रत एवं अनर्थदण्डव्रत को गुणव्रत में स्वीकार किया है, लेकिन जहाँ कुन्दकुन्द, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, सागारधर्मामृत आदि ने गुणव्रत में भोगोपभोगपरिमाणव्रत को लिया है, वहाँ सर्वार्थसिद्धि, वसुनन्दिश्रावकाचार, आदिपुराण आदि ग्रन्थों ने उसका उल्लेख शिक्षाव्रत के अन्तर्गत किया है और उसके बदले देशव्रत का उल्लेख किया है । उसी प्रकार देशव्रत के बदले देशावकाशिक की संज्ञा देकर रत्नकरण्डश्रावकाचार, स्वामिकार्ति केयानुप्रेक्षा आदि ने इसे शिक्षाव्रत के अन्तर्गत रखा है । १. अमितगति श्रावकाचार, ६।७६-९५ २. पद्मन न्दिपंचविंशति, ६।२४ ३. प्राभृतसंग्रह, पृ० ६० ४. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३६१-३८६ ५. सागारधर्मामृत, ५११ ६. धर्मबिन्दु, ३।१७ ७. योगशास्त्र, ३|१|४/७३ ८. पद्मचरित १४।१९८ ९. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ३।२१ १०. सर्वार्थसिद्धि, ७।२१ ११. हरिवंशपुराण, १८ ४६ १२. वसुनन्दिश्रावकाचार, २१४-१६ १३. आदिपुराण, १०/६५ 2 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार १. दिग्वत जिस व्रत द्वारा दिशाओं की मर्यादा स्थिर की जाती है उसे दिग्वत कहते हैं।' इस व्रत द्वारा श्रावक दशों दिशाओं की सीमा बाँधकर संकल्प लेता है कि वह मरणपर्यन्त अमुक दिशा की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेगा। ऐसा करने से लोभ, तृष्णादि का नियन्त्रण होता है और परिणामस्वरूप संग्रह की भावना पर अंकुश लगता है तथा चराचर प्राणियों की व्यर्थ हिंसा से भी बचाव होता है। इस व्रत के पाँच अतिचार हैं, जिनका सम्यरूपेण पालन करना श्रावकों के लिए अनिवार्य है। वे अतिचार इस प्रकार हैं-(१) उर्ध्व दिशा की मर्यादा का उल्लंघन, (२) अधो दिशा की मर्यादा का उल्लंघन, (३) तिरछी दिशाओं की मर्यादाओं का उल्लंघन, (४) दिशाविदिशाओं की मर्यादाओं का उल्लंघन एवं (५) क्षेत्र-वृद्धि अर्थात् क्षेत्र की मर्यादा का उलंघन करना। २. अनर्थदण्डवत निष्प्रयोजन मन वचन काय की अशुभ या पापप्रवृत्ति का नाम अनर्थ दण्ड है। दिव्रत में तो मर्यादा से बाहर पापोपदेश आदि का त्याग होता है, किन्तु अनर्थदण्डव्रत में मर्यादा के भीतर ही उनका त्याग किया जाता है। यह त्यागरूप व्रत ही अनर्थदण्डव्रत है। इस व्रत के मुख्य १. दशस्वपि कृता दिक्षु यत्र सीमा न लंध्यते । ख्यातं दिग्विरतिरिति प्रथमं तद्गुणव्रतम् ॥-योगशास्त्र, ३११ २. दिग्वलयं परिगणितं कृत्वातोऽहं बहिर्न यास्यामि । इति संकल्पो दिग्वतमामृत्यणुपापविनिवृत्त्यै ॥ -रत्नकरण्डश्रावकाचार, ४॥६८ ३. चराचराणां जीवानां विमर्दन निवर्तनात् । -योगशास्त्र, ३२ ४. स्मृत्यन्तर्धानमूर्वाधस्तिर्यग्भागव्यतिक्रमः । क्षेत्रवृद्धिश्च पंचेति स्मृता दिग्विरतिव्रते ॥-वही, ३३९७ ५. पीडापापोदेशाद्यैदेहाद्यर्थाद्विनांगिनाम् । अनर्थदण्डस्तत्यागौऽनर्थदण्डवतं मतम् ॥-सागारधर्मामृत, ५०६ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन पाँच भेद हैं' - (१) पापोपदेश अर्थात् हिंसा, खेती और व्यापार आदि को विषय करनेवाला प्रसंग बारबार उठाना। ऐसे वचन को व्याध, ठग और चोर आदि से नहीं कहने का उपदेश दिया गया है । (२) हिंसादान अर्थात् विष और हथियार आदि हिंसा के कारणभूत उपकरण या पदार्थ दूसरों को देना । ( ३ ) अपध्यान अर्थात् दूसरों के नुकसान, पराजय, मृत्यु आदि का चिन्तन करना । (४) दुःश्रुति अर्थात् आरम्भ, परिग्रह, विषयभोग आदि से चित्त को मलिन करनेवाले शास्त्रों का श्रवण करना और ( ५ ) प्रमादचर्या अर्थात् निष्प्रयोजन पृथ्वी के खोदने, वायु को रोकने, अग्नि को बुझाने, जल को उछालने-गिराने तथा वनस्पति को छेदने का कार्य करना । योगशास्त्र में दुःश्रुति का उल्लेख नहीं है | उक्त कार्यों को किसी भी रूप में न करना श्रावक के लिए व्रत रूप है | अहिंसादि व्रतों के सम्यक् निर्वाह के लिए और आत्मविशुद्धि के लिए अनर्थदण्ड से बचना चाहिए । इस व्रत के पाँच अतिचार कहे गये हैं 3 -- (१) संयुक्ताधिकरणता अर्थात् हल, मूसल आदि हिंसाजनक उपकरणों को जोड़कर रखना जैसे उखल के साथ मूसल, हल के साथ फाल आदि । (२) उपभोगातिरिक्तत्ता अर्थात् आवश्यकता से अधिक भोग, उपभोग की वस्तुएँ रखना, (३) मौखर्यं अर्थात् बिना विचारे बकवाद करना, (४) कौत्कुच्य अर्थात् शारीरिक कुचेष्टाएँ करना, तथा (५) कन्दर्प अर्थात् कामोत्पादक वचन बोलना | इस संदर्भ में ध्यातव्य है कि उक्त अतिचारों के नामों में भिन्नता भी देखी जाती है, लेकिन अर्थ में नहीं । ३. भोगोपभोगपरिमाण जो पदार्थ एक बार भोगने के बाद पुनः भोगने योग्य नहीं रहता, उसे १. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३४४-३४८ २. शरीराद्यर्थदण्डस्य, प्रतिपक्षतया स्थितः । योऽनर्थदण्डस्तत्त्यागस्तृतीयं तु गुणव्रतम् ॥ - योगशास्त्र, ३।७४ २. संयुक्ताधिकरणत्वमुपभोगातिरिक्तता । मौखर्य्यमथ कौत्कुच्यं कन्दर्पोऽनर्थदण्डगाः ॥ - वही, ३।११५ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार १०१ भोग कहते हैं, जैसे भोजन, गंध, माला आदि, और जो पदार्थ बार-बार भोगा जा सकता है, उसे उपभोग कहते हैं, जैसे वस्त्र, आभूषण आदि । दोनों ही प्रकार की वस्तुओं की मर्यादा निश्चित करना भोगोपभोगपरिमाण व्रत है। इस व्रत के द्वारा श्रावक भोग-उपभोग की वस्तुओं की नियत काल तक मर्यादा बांधता है अर्थात् उन वस्तुओं का निषेध अथवा इच्छा करता है। इस व्रत का पालक श्रावक मधु, मांस आदि पदार्थो के एवं साधारण वनस्पतियों के भक्षण का भी त्याग करता है, जिनमें अनेक जीवों की हिंसा होने की सम्भावना रहती है । ___इस व्रत के पाँच अतिचार हैं --(१) सचित्त भोजन अर्थात् चेतना वाली हरितकाय वनस्पति का सेवन, (२) सचित्त वृक्षादि से सम्बद्ध गोंद या पके फल का जैसे खजूर, आम आदि का सेवन, (३) सचित्त संमिश्र अर्थात् ऐसे पदार्थ जिनमें सूक्ष्म जन्तु होते हैं उनका सेवन, (४) दुष्पक्व अर्थात् अनेक द्रव्यों के संयोग से निर्मित सुरा, मदिरा आदि का सेवन अथवा दुष्टरूप से पके, कम पके पदार्थ का सेवन, (५) अभिषव भोजन अर्थात् पतले अथवा गरिष्ठ पदार्थो का सेवन । रत्नकरण्डश्रावकाचार में भिन्न प्रकार के अतिचार वणित हैं। शिक्षाव्रत शिक्षाव्रत भी गुणव्रत की ही तरह अणुव्रतों की सुरक्षा और विकास में सहायक हैं । शिक्षाव्रतों को ग्रहण करने में श्रावक को बार-बार अभ्यास करना होता है। १. सकृदेव भुज्यते यः स भोगोऽन्नलगादिकः ।। पुनः पुनः पुनर्भोग्य उपभोगोऽङ्गनादिकः ॥-वही, ३१५ २. जत्थेक्क मरइजीवो, तत्थ दु मरणं हवे अणंताणं । वक्कमइ जत्थ एक्को, वक्कमणं तत्थ-णंताणं ॥ -गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), १९३ ३. (क) सचित्तं तेन सम्बद्धं, संमिश्रं तेन भोजनम् । दुष्पक्वमभिषवं, भुजानोऽत्येति तद्वतम् ॥-सागारधर्मामृत, ५।२० (ख) योगशास्त्र, ३३९७ ४. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ४९० Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ___जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन शिक्षाव्रत के भेदों में मतभेद है । चारित्रपाहुड़', पद्मचरित', भाव संग्रह',हरिवंशपुराण", आदिपुराण आदि के अनुसार इस व्रत के क्रमशः सामायिक, प्रोषधीपवास, अतिथिसंविभाग और संलेखना चार प्रकार हैं और रत्नकरण्डश्रावकाचार, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा", सागारधर्मामृत आदि के अनुसार देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास एवं अतिथिसंविभाग ये चार प्रकार हैं। वसुनन्दिश्रावकाचार के अनुसार इस व्रत के चार भेद क्रमशः भोगविरति, परिभोग-विरति, अतिथिसंविभाग तथा संलेखना का उल्लेख है । शीलव्रत के निरूपण के क्रम में तत्त्वार्थसूत्र, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, उपासकाध्ययन, उपासकदशांग, चारित्र-सार, योगशास्त्र आदि के अनुसार इस व्रत के चार भेद इस प्रकार हैं--(१) सामायिक, (२) प्रोषधोपवास, (३) देशावकाशिक तथा (४) अतिथिसंविभाग। १. सामायिक-इंद्रियों को स्थिर करके रागद्वेषरूपी परिणामों को छोड़कर, समताभाव धारण करके आत्मलीन हो जाना सामायिक शिक्षाव्रत है। इस व्रत के पाँच अतिचार हैं -(१) मन की सदोष प्रवृत्ति, (२) वचन की सदोष प्रवृत्ति, (३) काय की सदोष प्रवृत्ति, (४) १. चारित्रपाहुड, २५ २. पद्मचरित, १४।१९९ ३. प्राभृतसंग्रह, पृ. ६० ४. हरिवंशपुराण, १८।४७ ५. आदिपुराण, १०६६ ६. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ४१ ७. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३५२, ३५५, ३५८, ३६७ ८. सागारधर्मामृत, ५।२४ । ९. वसुनन्दिश्रावकाचार, २१३ १०. रागद्वेषत्यागान्निखिलद्रव्येषु साम्यमवलम्ब्य । तत्त्वोपलब्धिमूलं बहुशः सामायिकं कार्यम् ॥ -पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, १४८ ११. कायवाङ्मनसा दुष्ट-प्रणिधानमनादरः । स्मृत्यनुपस्थापनंच स्मृताः सामायिक व्रत ।। -योगशास्त्र, ३।११६ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन ! आचार सामायिक के प्रति अनादर भाव एवं (५) सामायिक ग्रहण करने के समय का ज्ञान नहीं होना। २. प्रोषषोपवास--कषायों को त्यागकर प्रत्येक चतुर्दशी एवं अष्टमी के दिन उपवास करके तप ब्रह्मचर्यादि धारण करना प्रोषधोपवास है।' इस व्रत के पांच अतिचार हैं:-(१) बिना देखे भूमि पर मल-मूत्रादि करना; (२) पाट, चौकी आदि को बिना देखे उठाना-रखना, (३) बिना देखे बिस्तर, आसन लगाना, (४) प्रोषधव्रत के प्रति आदर न होना और (५) प्रोषध करके भूल जाना। ३. देशावकाशिक-गमनागमन की मर्यादित निश्चित दिशा को दिन एवं रात्रि में यथोचित और संक्षिप्त करना देशावकाशिकवत है।' इस व्रत के भी पाँच अतिचार हैं--(१) मर्यादित क्षेत्र के बाहर किसी व्यक्ति को काम से भेजना, (२) क्षेत्र के बाहर की वस्तुओं को मंगवा लेना, (३) क्षेत्र के बाहर ध्यान आकर्षित करने के लिए पत्थर फेंकना, (४) क्षेत्र के बाहर के व्यक्ति को आवाज देकर बुलाना और (५) किसी व्यक्ति को आ जाने के लिए बाहरी क्षेत्र में स्थित आदमी को अपना चेहरा दिखाना। ४. अतिथिसंविभाग-त्यागियों, मुनियों आदि को खानपान, रहनसहन आदि वस्तुएँ देकर स्वयं खानपान करना अतिथिसंविभागवत है।" इस व्रत के भी पाँच अतिचार हैं -(१) सचित्त पदार्थों से आहार ढंकना; १. चतुष्पां चतुर्थादि, कुव्यापारनिषेधनम् । ब्रह्मचर्य-क्रिया-स्नानादित्यागः पोषधव्रतम् ॥-वही, ३।८५ २. वही, ३१११७ ३. दिग्व्रते परिमाणं यत्तस्य संक्षेपणं पुनः । दिनेरात्री च देशावकाशिक-व्रतमुच्यते ॥ -वही, ३१८४ ४. प्रेष्यप्रयोगानयने पुद्गलक्षेपणं तथा । शब्दरूपाऽनुपाती च व्रते देशावकाशिके ।। -वही, ३।११७ ५. दानं चतुर्विधाहारपात्राच्छादनसमानाम् । अतिथिभ्योऽतिथिसंविभागवतमुदीरितम् ।। -वही, ३८७ ६. सच्चित्ते क्षेपणं तेन, पिधानं काललंघनम् । मत्सरोऽन्यापदेशश्च , तुर्यशिक्षाव्रते स्मृताः॥-वही, ३।११८ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' १०४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन (२) देय वस्तु को सचित्त पदार्थो के ऊपर रख देना, (३) भिक्षा का समय बीत जाने पर भोजन बनाना, (४) ईर्ष्या से प्रेरित होकर दान देना और (५) परायी वस्तु कहकर दान देना । प्रतिमाएँ प्रतिमा का अर्थ है प्रतिज्ञाविशेष, व्रतविशेष, तपविशेष अथवा अभिग्रहविशेष ।' श्रावक जब श्रमण के सदृश ही जीवन व्यतीत करना चाहता है, तब इन प्रतिमाओं का आश्रय लेता है, क्योंकि गुण-स्थानों की तरह इन प्रतिमाओं के द्वारा क्रमिक आत्मविकास होता है। इस दृष्टि से प्रतिमाएं आत्मविकास की क्रमिक सोपान हैं, जिसके डण्डों पर चढ़ते हुए श्रावक अपनी शक्ति के अनुसार मुनि की दीक्षा ग्रहण करने की भूमिका पर पहुंचता है। प्रतिमाओं की संख्या, क्रम एवं नामों के सम्बन्ध में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा में किंचित् अन्तर दिखाई पड़ता है, लेकिन यह अन्तर नगण्य है। श्वेताम्बर परम्परा के दशाश्रुतस्कन्ध एवं समवायांग' आगमों में क्रमशः दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, नियम, ब्रह्मचर्य, सचित्तत्याग, आरम्भत्याग, प्रेष्यपरित्याग, उद्दिष्टत्याग एवं श्रमणभूत इन ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन है। आचार्य हरिभद्र ने 'नियम' के स्थान पर 'पडिमा' का उल्लेख किया है। दिगम्बर परम्परा के वसुनन्दिश्रावकाचार", सागारधर्मामृत आदि ग्रन्थों में दर्शन, ब्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग एवं उद्दिष्टत्याग इन ग्यारह प्रतिमाओं का १. जैन आचार, पृ० १२५ २. दशाश्रुतस्कन्ध, ६-७ ३. समवायांग, ११ ४. दसणवय सामाइय पोसह पडिमा अवंभ सच्चित्ते । ___आरंभ पेस उदिवज्जए समणभूए य ।। -विशंतिविंशिका, १११ ५. वसुनन्दिश्रावकाचार, २०१-३०१ ६. सागारधर्मामृत, ३।२-३ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ योग के साधन : आचार क्रम वर्णित है और स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा' में सम्यग्दृष्टि नामक एक और प्रतिमा जोड़कर बारह प्रतिमाओं का उल्लेख है। दोनों परम्पराओं के अनुसार प्रथम चार प्रतिमाओं में कोई अन्तर नहीं है। सचित्तत्याग का क्रम दिगम्बर-परम्परा में पांचवाँ है जब कि श्वेताम्बर-परम्परा में सातवां है। दिगम्बराभिमत 'रात्रिभुक्तित्याग' श्वेताम्बराभिमत पाँचवीं प्रतिमा 'नियम' में समाविष्ट है। ब्रह्मचर्य प्रतिमा श्वेताम्बर-परम्परा में छठी है जब कि दिगम्बर-परम्परा में सातवीं है। दिगम्बरसम्मत 'अनुमतित्याग' श्वेताम्बरसम्मत 'उद्दिष्टत्याग' में ही समाविष्ट हो जाती है, क्योंकि इस प्रतिमा में श्रावक उद्दिष्टभक्त ग्रहण न करने के साथ ही किसी प्रकार के आरम्भ का समर्थन भी नहीं करता और श्वेताम्बराभिमत श्रमणभूतप्रतिमा ही दिगम्बराभिमत उद्दिष्टत्यागप्रतिमा है। इन ग्यारह प्रतिमाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है । १. दर्शनप्रतिमा-दर्शन अर्थात् सम्यक्दृष्टि । इस प्रतिमा के धारक श्रावक को सर्वगुण विषयक प्रीति उत्पन्न होती है, दृष्टि की विशुद्धता प्राप्त होती है और वह पंचगुरुओं के चरणों में जाकर दृष्टिदोषों का परिहार करता है। वसुनन्दिश्रावकाचार के अनुसार वह पाँच उदुम्बर फलादि और सात व्यसनों का त्याग करता है। १. सम्मदंसण-सुद्धी रहिओ मज्जाइ-थूल-दोसेहिं । वयधारी सामाइउ पव्ववइ पासुयाहारी ॥३०५॥ .. राइ-भोयण-विरओ मेहुण-सारंम संग चत्तो य । कज्जाणुमोय-विरओ उद्दिट्ठाहार-विरदी य ॥३०६॥ -स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा २. जैन आचार, पृ० १३०-३१ ३. श्रावकपदानि देवैरेकादश देशितानि येषु खलु । स्वगुणाः पूर्वगुणैः सह सन्तिष्ठन्ते क्रमविवृद्धाः ॥ -रत्नकरण्डश्रावकाचार, ७११३६ ४. पंचुबर सहियाई परिहरेइ जो सत्त विसणाई । सम्मत्तविसुद्धमई सो सणसावयो भणिो ॥ -वसुनन्दिश्रावकाचार, २०५ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन २. व्रतप्रतिमा-इस द्वितीय प्रतिमा का धारक श्रावक अणुव्रतों, गुणवतों एवं शिक्षाव्रतों को सम्यक्रूप में धारण करता है और उनका विधिवत् पालन करता है। .३. सामायिकप्रतिमा-इस ततीय प्रतिमा में श्रावक मन, वचन एवं काय से तीनों संध्याओं में सामायिक करता है। इस प्रतिमा में सामायिक, देशावकाशिक व्रतों की आराधना होती है, लेकिन अष्टमीचतुर्दशी आदि पर्व-दिनों में प्रोषधोपवास का पालन नहीं होता। ४. प्रोषधोपवासप्रतिमा-इस चतुर्थ प्रतिमा में श्रावक महीने के चारों पर्वो पर अर्थात् प्रत्येक चतुर्दशी व अष्टमी पर शक्ति के अनुसार शुद्ध भावना से प्रोषधनियमों का पालन करता है। ५. सचित्तत्यागप्रतिमा-पंचम प्रतिमाधारी श्रावक सचित्त अर्थात् हरित वनस्पति का सेवन नहीं करता, परन्तु आरंभी हिंसा का त्याग नहीं कर पाता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के अनुसार श्रावक जिस वस्तु को ग्रहण नहीं करे वह दूसरों को भी ग्रहण करने के लिए न दे, क्योंकि दोनों क्रियाओं में कोई अन्तर नहीं है। ६. रात्रिभुक्तत्यागप्रतिमा-छठी प्रतिमाधारी श्रावक रात्रि में - १. पंचैवणुव्वयाई गुणव्वयाइं हवन्ति पुणतिण्णि । सिक्खावयाणि चत्तारि जाण विदियाम्मि ठाणामि ॥-वही, २०७ २. चतुरावत-त्रितयश्चतुःप्रणामः स्थितो यथाजातः । सामायिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसंध्यमभिवन्दी । -रत्नकरण्डश्रावकाचार, १३९ ३. दशाश्रुतस्कन्ध, ६।३ ४. पर्वदिनेष चतुर्वपि मासे मासे स्वशक्तिमनिगुह्य । प्रोषध-नियम-विधायी प्रणधिपरः प्रोषधानशनः ॥ -रत्नकरण्डश्रावकाचार,७४१४० ५. जाव राओ वरायं वा बंभयारी सचित्ताहारे से परिणाए भवति । आरंभे से अपरिणाए भवति ।-दशाश्रुतस्कन्ध, ६७ ६. स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा, ३८० Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 योग के साधन : आचार १०७ चारों प्रकार के आहार का त्याग करता है ।" इस प्रतिमा का धारक मन, वचन, काय एवं कृत-कारित अनुमोदना से दिवामैथुन का त्याग करता है | श्वेताम्बर परम्परानुसार इस प्रतिमा को नियमप्रतिमा कहा गया है और रात्रि भोजन त्याग, दिवामैथुन आदि क्रिया को वर्जित माना गया है । " ७. ब्रह्मचर्यतिमा- इस सप्तम प्रतिमा में पूर्वोक्त छह प्रतिमाओं का निरतिचार पालन करते हुए मन को वश में करनेवाला श्रावक मन वचन काय से मानवी, दैवी, तिर्यंची और उनकी प्रतिरूप समस्त स्त्रियों के सेवन की अभिलाषा नहीं करता । " ८. आरम्भत्यागप्रतिमा - इस प्रतिमा का धारक श्रावक आरम्भसभारंभ का त्याग कर देता है । वह मन, वचन, एवं काय से कृषि, सेवा, व्यापार विषयक आरम्भ न तो स्वयं करता है. न दूसरों को करने के लिए कहता है ।" ९. परिग्रहत्यागप्रतिमा - नवम प्रतिमाधारी श्रावक पूर्ण परिग्रह का त्यागी होता है । वह शरीर ढँकने के लिए एक-दो वस्त्र रखकर शेष सभी प्रकार के परिग्रहों का त्याग कर देता है तथा मूर्च्छारहित होकर रहता है ।" १. अन्नं पानं खाद्यं लेा नाश्नाति यो विभावर्याम् । स च रात्रिभुक्तिविरतः सत्वेष्वनुकम्पमानमनाः ॥ - रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ७।१४२ २. मणवयणकाय कयकारियाणुमोएहि मेहुणं णवधा । दिवसम्मि जो विवज्जइ गुणम्मि सौ सावओ छट्ठो ॥ ३. दशाश्रुतस्कन्ध, ५०६ ४. तत्तादृक्संयमाभ्यासवशीकृतमनास्त्रिधा । - वसुनन्दिश्रावकाचार, २९६ यो जात्वशेषा नो योषा, भजति ब्रह्मचार्यसौ ॥ - सागारधर्मामृत, ७ १६ ५. निरूढ सप्तनिष्ठोऽङ्गिघातांगस्वात् करोति न । न कारयति कृष्णादीनारम्भ विरतस्त्रिधा ॥ - वही, ७।२१; तथा स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३८५; समीचीन धर्मशास्त्र, ७११४४६. मोत्तूणवत्थमेत्तं परिग्गहं जो विवज्जए सेसं । तत्थ वि मुच्छण्ण करेइ जाण सो सावओ णवमो ॥ - वसुनन्दिश्रावकाचार, २९९ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन १०. अनुमतित्यागप्रतिमा--इस प्रतिमा का धारी अब इतना मोहयुक्त हो जाता है कि कृषि आदि आरंभ, धन-धान्यादि बाह्य पदार्थ, विवाहादि लौकिक कार्यों में मनवचनकाय से अनुमति नहीं देता है।' ११. उद्दिष्टत्यागप्रतिमा-यह अन्तिम और ग्यारहवीं प्रतिमा है । इस प्रतिमा का धारी श्रावक घर को त्यागकर मुनिजनों के निकट चला जाता है और गुरु के निकट व्रतों को ग्रहण करके छोटी चादर मात्र रखकर भैक्ष्यभोजन करता है और तपस्या आदि में लग जाता है। इस प्रतिमा में कोई वस्त्र-खण्ड भी रखते हैं, कोई मात्र कोपीनधारी होते हैं।' इस प्रकार इन प्रतिमाओं के द्वारा श्रावक क्रमशः आत्मविकास के सोपानों पर चढ़ता है और ग्यारहवीं प्रतिमा पर पहुँचकर वह उत्कृष्ट श्रावक अर्थात् श्रमणवत् बन जाता है। प्रतिमाओं के द्वारा जहाँ व्रतों के पालन में एकनिष्ठता, श्रद्धा, आत्मशुद्धि, वैराग्य आदि गुणों का आविर्भाव होता है, वहाँ कलुषता, क्षुद्रता आदि कषायों का स्वतः परिशमन हो जाता है। योगारंभ में इष्ट तथा अनिष्ट वस्तु का त्याग तथा भोग की मात्रा पर ध्यान दिया जाता है। जैसे-जैसे आत्मशुद्धि में वृद्धि होती है, वैसेवैसे सांसारिक मोहबन्ध की आशा छूटतो जातो हैं । श्रावक के छह आवश्यक श्रमण के दैनिक आवश्यकों की भांति श्रावक के दैनिक छह आवश्यकों का भी विधान है। देवपूजा, गुरुसेवा, स्वाध्याय, संयम, तप एवं दान ये श्रावक के षट्कर्म हैं, जो प्रतिदिन करणीय हैं। इनके करने से १. नवनिष्ठापरः सोऽनुमतिव्युपरतः विधा। यो नानुमोदते ग्रन्थमारम्भं कर्म चैहिकम् ।।-सागारधर्मामृत, ७।३० २. गुहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य ।। भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चलखण्डधरः ॥ -समीचीन धर्मशास्त्र, ७।१४७ ३. एयारसेसु. पढम वि जदो णिसिभोयणं कुणंतस्स । ठाणं ण ठाइ तम्हा णिसिभुत्तिं परिहरे णिअमा। -वसुनन्दिश्रावकाचार, ३१४ ४. देवसेवागुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः। दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने । -उपासकाध्ययन, ४६९११ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार . . १०९ संयम में वृद्धि होती है, धर्म-व्यापार में मन स्थिर होता है, आन्तरिक दोषों का नाश होता है, समता, मैत्री, भावना आदि शुद्ध भाव पैदा होते हैं। इनके अभ्यास से आत्मविकास होता है। १. देवसेवा-इसके अन्तर्गत अरहंत प्रभु का अभिषेक, पूजन, गुणों का स्तवन, जप तथा ध्यान की क्रियाएं आती हैं।' २. गुरुपूजा-इसके अन्तर्गत आचार्य तथा गुरु के प्रति श्रद्धा एवं पूजाभाव, शास्त्रों का मनन-विवेचन, सम्यक आचरण आदि क्रियाएँ आती हैं, जो कल्याणप्रद हैं। इसमें बताया गया है कि माता-पिता, विद्या-गुरु, ज्ञाति कुटुम्ब, श्रुतशील एवं धर्म प्रकाशक गुरु हैं और इनका आदर-सत्कार आदि करना धर्म है। इसी संदर्म में गीता के अनुसार उनकी सेवा करना तथा ज्ञान प्राप्त करना विहित माना गया है। ३. स्वाध्याय-स्वाध्याय का अर्थ है आत्मा का अध्ययन अथवा अध्यात्म का चिन्तवन अर्थात् चारों अनुयोगों का एवं गणस्थान, मार्गणा आदि का सम्यक् पठन-पाठन ।' इससे चित्त स्थिर होता है और आत्मा की ओर देखने की प्रवृत्ति जाग्रत होती है। ४. संयम-कषायों का निग्रह, इन्द्रियजय, मन-वचन-काय की १. स्नपनं पूजनं स्तोत्रं जपो ध्यानं श्रुतस्तवः । षोढाकियोदिता सद्भिर्देवसेवासु गेहिनाम् ।। -वही, ४६१९१२, योगशास्त्र, ३११२२-२३ २. आचार्योपासनं श्रद्धा शास्त्रार्थस्य विवेचनम् । तक्रियाणामनुष्ठानं श्रेयःप्राप्तिकरो गणः॥ -वहो, ४६।९१३ ; योगशास्त्र, ३११२४ ३. मातापिताकलाचार्य एतेषां ज्ञातयस्तथा। वृद्धाधर्मोपदेष्टारो गुरुवर्गः सतां मतः ॥-योगबिन्दु, ११० ४. तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः । भगवद्गीता, ४॥३४ ५. अनुयोगगुणस्थानमार्गणास्थानकर्मसु । अध्यात्मतत्वविद्यायाः पाठः स्वाध्याय उच्यते ॥ -उपासकाध्ययन, ४६।९१५ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन प्रवृत्ति का त्याग और व्रतों का नियमपूर्वक पालन करना ही संयम है । ' - संयमपालन से ही धर्मपालन में स्थिरता आती है । गीता के अनुसार भी इन्द्रिय, मन, वाणी, विचार, रसेन्द्रिय, काम, क्रोध आदि पर अंकुश रखना -संयम है । ५. तप - इसके सम्बन्ध में विस्तार के साथ अगले अध्याय में प्रकाश डाला गया है । ६. दान - श्रावक के लिए आवश्यक माना गया है कि वह पात्र, आगम, विधि, द्रव्य, देश और काल के अनुसार अपनी शक्ति एवं मर्यादाओं को ध्यान में रखकर दान करे । 3 दान देने में राग-द्वेष, कीर्ति की लालसा आदि मनोभावों को न आने दे | इस प्रकार ये षट्कर्म या आवश्यक श्रावक के दैनिक कर्तव्य हैं । आदिपुराण में पूजा, वार्ता, दान, स्वाध्याय, संयम एवं तप को 'कुलधर्म' कहा गया है । " ( २ ) श्रमणाचार ( साध्वाचार ) साध्वाचार अथवा श्रमणाचार जैन संस्कृति का मूल आधार है - तथा संयममय योगपूर्ण जीवन का मूल मंत्र है । यही कारण है कि साधु या मुनि योग के सम्पूर्ण स्तरों का सम्यक् रूप से पालन करने में समर्थ होता है । योग के लिए किन-किन नियमों, उपक्रमों आदि की अपेक्षाएँ होती हैं वे अनायास ही अभ्यास क्रम में प्राप्त हो जाती हैं। योग-सिद्धि के लिए श्रमणचर्या सहायक है । अतः उसका उपयुक्त एवं समीचीन विश्लेषण यहाँ किया जाता है । १. कषायेन्द्रियदण्डानां विजयो व्रतपालनम् । संयम संयतैः प्रोक्तः श्रेयः श्रयितुमिच्छताम् ॥ - वही, ४६।९२४ २. त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत् ।। - भगवद्गीता, १६।२१ ३. पात्रागमविधिद्रव्य- देश - कालानतिक्रमात् । दानं देयं गृहस्थेन, तपश्चयं च शक्तितः ॥ - सागारधर्मामृत, २१४८ ४. आदिपुराण, २४ २५ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार ૧૧૧ श्रावक अथवा गृहस्थ के अणुव्रत आदि व्रत-शील साधक को साधुत्व की ओर प्रेरित करते हैं और दीक्षा लेने के उपरांत साधु संसार सम्बन्धी ममता-मोह तथा राग-द्वेष से ऊपर उठकर समभाव में स्थित होते हैं । साधु-सामाचारी के सम्बन्ध में कहा गया है कि गुरु के समीप रहना, विनय करना, निवासस्थान की शुद्धि रखना, गुरु के कार्यो में शांतिपूर्वक सहयोग देना, गुरु-आज्ञा को निभाना, त्याग में निर्दोषता, भिक्षावत्ति से रहना, आगम का स्वाध्याय करना एवं मृत्यु आदि का सामना करना आवश्यक है।' सामाचारी का तात्पर्य ही यह है कि विवेकपूर्वक संयम-चारित्र का पालन करना । उत्तराध्ययनसूत्र में भी कहा है कि विनय की शिक्षा का स्रोत यही है। साधु या निग्रन्थ हिंसा आदि का पूर्णतः त्यागी होता है। उसके अहिंसादिवत महाव्रत कहलाते हैं। पहले कहा ही गया है कि श्रावक देशव्रती होता है और श्रमण सर्वदेशव्रती या सकल चारित्र का पालनकर्ता। साधु के अट्ठाईस मूलगुण और सत्तर उत्तरगुण" कहे गये हैं, जिनका पूरी तरह पालन करना प्रत्येक श्रमण के लिए नितान्त आवश्यक है । इन मूलगुणों एवं उत्तरगुणों में श्रमण की चर्या समाहित हो जाती है, फिर भी क्रमशः पंचमहाव्रतों, त्रिगुप्तियों, पंचसमितियों आदि का वर्णन यहाँ कर देना उपयुक्त होगा। १. योगशतक, ३३-३५ २. वही, पृ० ४६ ३. सामाचारी का सामान्य अर्थ है सम्यक्चर्या या सम्यक् आचरण । यह सब दुःखों से मुक्त करानेवाली है। इसके दस अंग हैं-आवश्यकी, नैषेधिकी, आपृच्छना, प्रतिपृच्छना, छन्दना, इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, अभ्युत्थान, उपसंपदा । -उत्तराध्ययन, २६।१-७ ४. महाव्रत-समित्यक्षरोधाः स्युः पंचचैकशः। परमावश्यकं षोढा, लोचोऽस्नानमचेलता ॥, अदन्तधावनं भूमिशयनं स्थिति-भोजनम् । एकभक्तं च सन्त्येते पाल्या मूलगुणा यते ॥-योगसारप्राभृत, ८॥६-७ ५. पिंडविसोही समिई भावण पडिमा य इन्दियनिरोहो। पडिलेहण गुत्तीओ अभिग्गहा चैवकरणं तु ॥ -ओपनियुक्तिभाष्य, पृ०६ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन पंचमहाव्रत श्रमण के पांच महाव्रत इस प्रकार हैं' - (१) सर्वप्राणातिपातविरमण ( अहिंसाव्रत ) यह प्रथम महाव्रत है | श्रमण को अहिंसा का सम्पूर्णतया पालन तीन योग एवं तीन करण से करना होता है । अहिंसा महाव्रत की पाँच भावनाएँ हैं - ( १ ) ईर्यासमिति - साधु उठने-बैठने, गमनागमन करने आदि में अत्यन्त सावधानी बरते ताकि किसी भी जीव की विराधना न हो । (२) मन की अपापकता - मन में अनेक प्रकार के विचार आते हैं । वे सावकारी, आस्रव करनेवाले, सक्रिय, छेदन-भेदन एवं कलह करनेवाले, दोषपूर्ण एवं प्राणों के घातक हो सकते हैं, जिन्हें मन से हटाना साधु के लिए अनिवार्य है । (३) वचनशुद्धि - वाणी के समस्त दोषों से बचना चाहिए ।" अर्थात् साधु को ऐसे वचनों का प्रयोग करना चाहिए, जिनसे दूसरे जीवों को पीड़ा अथवा तकलीफ न हो और न किसी भी प्रकार के दोष उत्पन्न हों । ( ४ ) भण्डोपकरणसमिति - साधु को पात्रादि उपकरणों के रखने आदि में सावधानी रखनी चाहिए, क्योंकि इनसे अनेक प्रकार की हिंसा होना संभव है । ५ (५) आलोकितपानभोजन — विवेकपूर्वक आहारचर्या की जाय ताकि किसी प्रकार की हिंसा न हो । आहार- पानी की असावधानता से छोटे-मोटे जीवों की हिंसा सम्भव है, इसलिए हिंसा आदि दोषों से युक्त आहार का निषेध है । साधु को शुद्ध, निर्दोष आहार ही लेना विहित है । " १. अहिंस सच्चं च अतेणगं च ततो य बंभं अपरिग्गहं च । पडिवज्जिया पंचमहन्वयाणि, चरिज्जधम्मं जिणदेसियं विऊ || - उत्तराध्ययन, २१।१२ २. तंत्थिमा पढमा भावना इरियासमिए से निग्गंथे. अणहरिया समिइत्ति पढमा भावना । — आचारांगसूत्र, द्वितीय श्रुत० अ० १५ पृ० १४२० ३. वही, पृ० १४२२ ४. वही, पृ० १४२३ ५. आचारांगसूत्र, हि० श्रुत०, अ० १५, पृ० १४२४ ६. वही, पृ० १४२६ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार ११३ (२) सर्वमृषावादविरमण' ( सत्यव्रत) ___ यह द्वितीय सत्य महाव्रत है। साधु को अहिंसा की भांति ही सत्यमहाव्रत का पालन तीन योग तथा तीन करण से करना होता है। इस महाव्रत की पाँच भावनाएं हैं (१) अनुवोचिभाषण-विवेक-विचारपूर्वक बोलना। (२) क्रोघत्याग-साधु को क्रोध या आवेश से बचना चाहिए । (३) लोभत्याग-साधु को लोभ से सर्वथा दूर रहना चाहिए, जिससे कि मिथ्याभाषण का दोष न लगे। (४) भयत्याग-साधु को हर प्रकार के भय से सर्वथा अलग रहना चाहिए। (५) हास्यत्याग-हँसी-मजाक भी असत्य का कारण है। इसलिए साधु को इससे दूर रहना चाहिए। (३) सर्वअदत्तादानविरमण (अस्तेय व्रत ) यह तृतीय अचौर्य महाव्रत है। बिना अनुमति से साधु को एक तिनका भी ग्रहण करना वर्जित है । साधु को तीन योग तथा तीन करण से अचौर्य महाव्रत का पालन करना होता है । इस महाव्रत की भी पांच भावनाएं हैं (१) विचारपूर्वक वस्तु या स्थान की याचना-साधु को सोचसमझकर ही उपयोग के लिए वस्तु या स्थान के स्वामी या श्रावक से याचना करनी चाहिए। (२) गुरु की आज्ञा से भोजन-विधिपूर्वक अन्नपानादि लाने के बाद गुरु को दिखाकर उनकी अनुज्ञापूर्वक उपभोग करना चाहिए। (३) परिमित पदार्थ ग्रहण-साधु को स्थान, उपकरण, आहार आदि के ग्रहण में परिमितता अर्थात् मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए। (४) पुनः पुनः पदार्थों की मर्यादा-साधु को बार बार अवग्रह की मर्यादा निर्धारित करनी चाहिए। १. वही, पृ० १४३०-३१ २. वही, पृ० १४३७-३८ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन (५) साधर्मिक अवग्रहयाचन--साधु अपने समानधर्मी दूसरे साधु से आवश्यक होने पर परिमित स्थान की याचना करे । ___ इस प्रकार साधु को विवेकपूर्वक स्थान या वस्तु ग्रहण करना चाहिए। (४) सर्वमैथुनविरमण (ब्रह्मचर्यव्रत) यह चतुर्थ ब्रह्मचर्य महावत है। अन्य महाव्रतों की भांति ही इस महाव्रत का पालन साधु को मन-वचन-काय एवं कृत-कारित-अनुमोदना पूर्वक करना होता है । इस महाव्रत की भी पाँच भावनाएं हैं-- (१) स्त्रीकथात्याग--साधु को कामवर्धक स्त्रीकथा या बातें नहीं . करना चाहिए। (२) मनोहर क्रियावलोकनत्याग--महाव्रती को अपने से विजातीय व्यक्ति के मुख, स्तन, दण्ड, बाल आदि कामोद्दीपक अंगों का अवलोकन करना वजित है। (३) पूर्वरतिविलासस्मरणत्याग-साधु को चाहिए कि वह ब्रह्मचर्यव्रत स्वीकार करने के पूर्व के काम-भोगों का स्मरण न करे। (४) प्रणीतरसभोजनत्याग-प्रमाण से अधिक अथवा कामवर्धक रसयुक्त आहारपानी ग्रहण नहीं करना चाहिए। (५) शयनासन-त्याग--स्त्री, पशु, नपुसक आदि के आसन अथवा शैया आदि का उपयोग करना साधु को विहित नहीं है ।' . ___ इस तरह सभी प्रकार से मन, वचन एवं काय द्वारा मैथुन-भावनादि की निवृत्ति ही ब्रह्मचर्य है और उसका सम्पूर्णतया पालन करना किसी भी योगी के लिए नितान्त आवश्यक है। (५) सर्वपरिग्रहविरमण (अपरिग्रहवत) ____ यह पाँचवाँ अपरिग्रह महाव्रत है । साधु को सब प्रकार के अन्त रङ्ग एवं बाह्य परिग्रह से मुक्त रहना चाहिए। परिग्रहों से मन कलुषित होता है, अशांति, भय, तृष्णा, बढ़ती है और मन एकाग्र नहीं हो पाता। परिग्रह अर्थात् मूर्छा के कारण अहिंसादि महाव्रतों का पालन १. वही, पृ० १४४५-४६ २. वही, पृ० १४०५-५७ . Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -योग के साधन : आचार ११५ भी नहीं हो पाता । इस महाव्रत को भी पाँच भावनाएँ हैं, जो पाँच इंद्रियों के विषयों से सम्बन्धित हैं- (१) श्रोतेन्द्रिय में अनासक्ति -- साधु प्रिय अप्रिय, कोमल-कठोर शब्दों के प्रति राग-द्वेष नहीं रखे । - (२) चक्षरिन्द्रियों में अनासक्ति -- साधु को प्रिय अप्रिय रूपों के अव-लोकन के प्रति उदासीन रहना चाहिए । (३) प्राणेन्द्रिय में अनासक्ति -- साधु सुगन्ध अथवा दुर्गन्ध के प्रति उदासीन रहे । (४) रसनेन्द्रिय में अनासक्ति -- साधु को प्रिय अथवा अप्रिय वस्तु के स्वाद में, रस में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए । (५) स्पर्शेन्द्रिय में अनासक्ति -- प्रिय स्पर्श में राग और अप्रिय में द्वेष उत्पन्न होता है और ऐसा रागद्वेष रखने से शान्ति भङ्ग होती है । अतः साधु को हर प्रकार के स्पर्श के प्रति उदासीन रहना चाहिए । अपरिग्रह महाव्रत के धारी साधु या योगी को संसार के प्रति सारी आसक्ति का त्याग कर देने का विधान है । अपरिग्रही साधु हो सही अर्थ में योगी होता है । गुप्तियाँ एवं समितियाँ (अष्ट प्रवचनमाता ) मानसिक एकाग्रता एवं विशुद्धि के लिए अशुभ प्रवृत्तियों का शमन और शुभ प्रवृत्तियों का आचरण आवश्यक है । मन की विशुद्धता एवं एकाग्रता श्रमण के महाव्रतों की रक्षा एवं पोषण करती है और आत्मिक विकास अर्थात् योग द्वारा मोक्ष की स्थिति तक पहुँचाने में सहायक है । इसके लिए गुप्तियों और समितियों का विधान है, क्योंकि गुप्तियाँ मन, वचन एवं काय की अशुभ प्रवृत्तियों को रोकती हैं, और समितियाँ चारित्र की प्रवृत्ति के लिए हैं । वस्तुतः गुप्ति एवं समिति से एकाग्रता प्राप्त होतो है तथा शुभ प्रवृत्तियों की ओर उन्मुख होने का अभ्यास प्रबल बनता है । इन दोनों का संयुक्त नाम अष्ट प्रवचनमाता है । " ין १. एयाओ पंच समिईओ, चरणस्स य पवत्तणे । गुत्ती नियत्तणे वृत्ता असुभत्येसु सव्वसो ॥ - उत्तराध्ययन, २४।२६ → २. एताश्चारित्रगात्रस्य, जननात्परिपालनात् । संशोधनाच्च साधूनां मातरोऽष्टौ प्रकीत्तिताः ॥ 1 FOO - योगशास्त्र, ११४५; उत्तराध्ययन, २४|१ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का मालोचनात्मक अध्ययन (अ) गुप्तियाँ गुप्ति का लक्षण-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक त्रियोग ( मन, वचन, काय ) को अपने अपने मार्ग में स्थापित करना गुप्ति है। वस्तुतः मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति सर्वदा राग-द्वेष की ओर रहती है। साधु अपनी साधना द्वारा मन-वचन-काय को शुभ प्रवृत्ति की ओर उन्मुख करता है । तथा कषायरूपी वासनाओं से रक्षा के लिए गुप्ति रूपी अस्त्र का प्रयोग करना काहिए।' गुप्ति के भेद-गुप्तियाँ तीन हैं- मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति। (१) मनोगुप्ति-संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त मन को रोकना मनोगुप्ति है। दूसरे शब्दों में रागद्वेष आदि कषायों से मन को निवृत्त करना मनोगुप्ति है। इसके चार भेद हैं:-सत्या, मृषा, सत्यामृषा एवं असत्यामृषा । सत्य चिंतन करना सत्या मनोगुप्ति है और असत्य चिन्तन करना मृषामनोगुप्ति है। सत्य असत्य का मिश्रित चिंतन सत्यामषा मनोगुप्ति तथा केवल लोक-व्यवहार देखना (न सच न झूठ) असत्या मृषा मनोगुप्ति है। (२) बचनगुप्ति-असत्य भाषणादि से निवृत्त होना या मौन धारण - १. (क) वाक्कायचित्तजानेकसावधप्रतिषेधकं । त्रियोगरोधकं वा स्याद्यत्तद्गुप्तित्रयं मतम् ।।-ज्ञानार्णव, १८१४; (ख) सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वकत्रित्रियोगस्य शास्त्रोक्त विधिना स्वाधीनमार्गव्यवस्थापन रूपत्वं गुति सामान्यस्य लक्षणम् । -आईत्दर्शनदीपिका, ५।६४२ २. सद्धं नगरं किच्चा, तवसंवरमग्गलं ।। - खन्ति निउणपागारं, तिगुत्तं दुप्पधंसयं ॥ -उत्तराध्ययन, ९।२० ३. (क) वही, २४।२१ (ख) जा रागादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगुत्ति । -मूलाराधना, ६।११८७ ४. सच्चा तहेव मोसा य, साच्चमोसा तहेव य । चउत्थी असच्चमोसा, मणगुत्ती चउविहा ।।- उत्तराध्ययन, २४॥२० Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार ११७ करना वचनगुप्ति है । " असत्य, कठोर, आत्मश्लाघी वचनों से दूसरों के मन - का घात होता है अर्थात् वाचना, पृच्छना, प्रश्नोत्तर आदि में वचन का निरोध करना ही वचनगुप्ति है । अत: चाहे सत्य हो या असत्य हो जिससे दूसरों के मन को पीड़ा पहुँचे ऐसे वचन नहीं बोलना चाहिए । इसके चार भेद हैं -- सत्यवाग्गुप्ति, मृषावाग्गुप्ति, सत्यामृषावाग्गुप्ति, असत्यामृषा वाग्गुप्ति | (३) कायगुप्ति - अज्ञानवश शारीरिक क्रियाओं द्वारा बहुत-से जीवों को पीड़ा होती है, उनका घात होता है अतः इससे साधु को बचना चाहिए । इस प्रकार संरम्भ, समारम्भ और आरम्भपूर्वक कायिक प्रवृत्तियों का निरोध करना काय गुप्ति है, जिससे कि खड़े रहने, शयन करने, बैठने, - लंघन अथवा प्रलंघन करने में किसी भी जीव की हिंसा न हो । ४ (आ) समितियाँ संयम में दृढ़ता तथा चारित्र - विकास के लिए - महाव्रतों की रक्षा के लिए -- समितियों का विधान महत्त्वपूर्ण है । समितियाँ पाँच हैं (१) ईर्यासमिति - मार्ग, उद्योग, उपयोग एवं आलम्बन की शुद्धियों का आश्रय करके गमन करने में ईर्यासमिति का व्यवहार किया जाता है । " सावधानीपूर्वक गमन करना, जिससे किसी भी जीव की विराधना न हो, मार्गशुद्धि है । प्रकाश में देखभालकर सावधानीपूर्वक चलना उद्योतशुद्धि और द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से गमन करना उपयोग-शुद्धि है । एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते समय 2 १. संज्ञादिपरिहारेण यन्मौनस्यावलम्बनम् । वाग्वृत्तेः संवृत्तिर्वा या सा वाग्गुप्तिरिहोच्यते ॥ - योगशास्त्र, १/४२ २. वाचन् प्रच्छन् प्रश्नव्याकरणादिष्वपि सर्वथा वाङ्निरोधरूपत्वं सर्वथा भाषानिरोधरूपत्वं वा वाग्गुप्तेर्लक्षणम् । - आर्हतुदर्शनदीपिका, ५/६४४ ३. उत्तराध्ययन, २४।२२ ४. उत्तराध्ययन, २४।२४-२५ ५. मग्गुज्जो दुपओगालंबणसुद्धीहि इरियदो मुणिणो । सुताणवीचि भणिदा इरियासमिदी पवणम्मि | - मूलाराधना, ६।११९१; ज्ञानार्णव, १८/५-७ उत्तराध्ययन, २४-४, , " Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन उपदेश देना, गुरु, तीर्थ एवं चैत्यवंदना का निर्वाह करना आलंबन-शुद्धि है। इस प्रकार सम्यक् रूप से देखभालकर चलना ईर्यासमिति है। (२) भाषासमिति-संयतमुनि क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, मुखरता, विकथा आदि आठ दोषों से रहित यथासमय परिमित एवं निर्दोष भाषा बोले । (३) एषणासमिति-आहारादि की गवेषणा, ग्रहणैषणा तथा परिभोगैषणा में आहारआदि के उद्गम, उत्पादन आदि दोषों का निवारण करना एषणासमिति है। इस समिति के द्वारा साधु को अपने धर्मोपकरणों का शुद्धिपूर्वक उपयोग करने का विधान है। बौद्धयोग के अनुसार गमन, शयन स्थान और निषद्या ये चार ईपिथ हैं, जिन्हें भलीभाँति देखकर धर्मप्रवृत्ति करने का विधान है। (४) आदाननिक्षेपसमिति-सामान्य और विशेष, दोनों प्रकार के उपकरणों को आँखों से प्रतिलेखना तथा प्रमार्जन करके लेना और रखना आदाननिक्षेपसमिति है। चक्षु से सम्यक् रूप से देखना प्रतिलेखना है और वस्तु को साफ करने की क्रिया प्रमार्जना है। (५) परिष्ठापना या व्युत्सर्यसमिति-जीव-जन्तुरहित भूमि पर, साफ करके मलमूत्रादि का, नाक, आँख, कान तथा शरीर के मैल का उत्सर्ग करना परिष्ठापना या व्युत्सर्गसमिति है। यह विसर्जन स्थण्डिलभूमि में १. कोहे माणे य मायाए लोभे य उवउत्तया । हासे भए मोहरिए, विगहासु तहेव य ।। एयाई अट्ट ठाणाइं परिवज्जित्तु संजए। असावज्जं मियं काले, भासं भासेज्ज पन्नवं ।।-उत्तराध्ययन, २४।९-१०, तथा योगशास्त्र, १३७ २. उत्तराध्ययन, २४।११-१२; ज्ञानार्णव, १८।११ ३. विशुद्धिमार्ग, पृथ्विकसिणनिदेश, ४ ४. चक्खुसा पडिलेहिता, पमज्जेज्ज जयं जई । आइए निक्खिवेज्जा वा, दुहओ वि समिए सया॥-उत्तराध्ययन, २४।१४; तथा योगशास्त्र, ११३९ विजन्तुकधरापृष्ठे, मूत्रश्लेष्ममलादिकम् । क्षिपतो ऽतिप्रयत्नेन व्युत्सर्गसमितिर्भवेत् ॥ -ज्ञानार्णव, १८११४, तथा उत्तराध्ययन, २४।१५ . Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : माचार ११९ किया जाता है जो चार प्रकार की होती है, जैसे-अनापात अंसलोक; अनापात संलोक, आपात असंलोक तथा आपात संलोक ।' । इस प्रकार साधु अथवा साधक को गुप्ति-समितिपूर्वक अर्थात् सावधानीपूर्वक क्रियाएँ करने का विधान है। समिति एवं गुप्ति से आंतरिक और बाह्य प्रवृत्तियों का संयमन होता है और साथ-साथ शुभ प्रवृत्तियों का पोषण भी। षडावश्यक जिस प्रकार श्रावक के लिए पूजा-पाठ, स्वाध्याय, वंदनादि दैनिक आवश्यक क्रियाओं का विधान है, उसी प्रकार साधु अथवा श्रमण के लिए भी आवश्यक ( करने योग्य क्रियाओं) का विधान है। ये आवश्यक क्रियाएं छह हैं (१) सामायिक-सम की आय अर्थात् समताभाव का आना ही सामायिक है । अर्थात् देहधारणा और प्राण-वियोग में, इच्छित वस्तु का लाभ-अलाभ, इष्टानिष्ट के संयोग-वियोग, सुखदुःख, भूख-प्यास आदि बाधाओं में राग-द्वेषरहित परिणाम होना सामायिक है । जो मन, वचन और काय की पापपूर्ण प्रवृत्तियों से हटाकर निरवद्य व्यापार में प्रवृत्त कराती है, उसे सामायिक कहते हैं। (२) चतुर्विशतजिनस्तव-चौबीस तीर्थंकरों की श्रद्धापूर्वक स्तुति करना चतुर्विशतिजिनस्तव आवश्यक है । . (३) वन्दना-मन, वचन एवं काय की शुद्धिपूर्वक अरहंत, सिद्ध, गुरु आदि की वंदना करना वन्दना आवश्यक है। (४) प्रतिक्रमण-धर्म-विधि अथवा दैनिक क्रियाओं में प्रमाद आदि के कारण अशुभ परिणाम होने या दोष लगने पर उनकी निवृत्ति के लिए १. उत्तराध्ययन, २४।१६ २. सामायिके स्तवे भक्त्या वन्दनायां प्रतिक्रमे । प्रत्याख्याने तनूत्सर्गे वर्तमानस्य संवरः ॥ -योगसारप्राभृत, ५।४६ ३. यत् सर्व-द्रव्य-संदर्भ राग-द्वेष-व्यपोहनम् । आत्मतत्त्व-निविष्टस्य तत्सामायिकमुच्यते ॥-वही, ५।४७ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन चिंतन करना प्रतिक्रमण आवश्यक है । इससे स्वीकृत व्रतों के छिद्र बन्द होते हैं । आठ प्रवचनमाता के आराधन से विशुद्ध चारित्र को प्राप्त करते हुए साधु सन्मार्ग में सम्यक् समाधिस्थ होकर विचरण करता है।' (५) कायोत्सर्ग-देहभाव के विसर्जन को ही कायोत्सर्ग कहते हैं। इस आवश्यक के अन्तर्गत बैठकर या खड़े रहकर ध्यान करते हुए साधु आत्मस्वरूप का चिंतन करता है । इसके द्वारा जीव अपने अतीत और वर्तमान काल के प्रायश्चित्त योग्य दोषों का शोधन करता है और प्रशस्त ध्यान में लीन होकर सुखपूर्वक विचरण करता है ।२ .. (६) प्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान का अर्थ है सांसारिक विषयों का त्याग । इस आवश्यक द्वारा नित्य के आहारादि में अमक पदार्थ का अमुक काल विशेष के लिए त्याग किया जाता है। प्रत्याख्यान करने से कर्मास्रव रुकते हैं, इच्छाओं का निरोध होता है और संयम की वृद्धि होती है। इनका पालन करने से सम्यक्त्व या चारित्र की प्राप्ति होती है । इन आवश्यकों में जो साधक भक्तिपूर्वक संलीन होता है, उसके कर्मो का आस्रव रुक जाता है, परम शांति एवं समाधि में स्थित होता है। दस धर्म ____ यद्यपि महाव्रतों अथवा अणुव्रतों में आत्मविकासमूलक धर्म का अंतर्भाव हो जाता है, तथापि श्रमण अथवा श्रावक के लिए भाव या गुणमूलक धर्म का विधान अलग से प्ररूपित है, क्योंकि संयम की स्थिरता और आत्मविकास के लिए ये धर्म सहायक और उपयुक्त हैं। यही कारण है कि मुक्तिलाभ के लिए आत्मोन्नति के क्रमिक विकास को धर्म कहा गया है। श्रावक अथवा मुनि के जीवन में कभी भी प्रमाद अथवा रागद्वेषवश कषायों की उत्पत्ति संभव है और किसी व्यक्ति में क्षमादि भावों का अभाव होता है । अतः दैनिक जीवन की मन, वचन एवं कायादि संबंधी १. उत्तराध्ययन, २९।९-१२ २. उत्तराध्ययन २९।१३, योगसारप्राभृत, ५१५२ ३. उत्तराध्ययन, २९।१४, योगसारप्राभृत, ५।५१ ४. अभ्युदयापवर्गहेतुरूपत्वं धर्मस्य लक्षणम् । -आईतदर्शनदीपिका, ३६३५१ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार १२१ अनेक क्रियाओं के परिमार्जन तथा क्षमादि भावों की प्राप्ति के लिए धर्म का चिन्तवन एवं अभ्यास किया जाता है। अर्थात् साधु वही है जो लाभ, अलाभ, शत्रु, मित्र आदि में न द्वेष रखता है न रागादि भाव । वह सदा रत्नत्रय से युक्त क्षमादि भावों में लीन समताभाव का पोषक अथवा अभ्यासी होता है। धर्म दस प्रकार का है२-(१) क्षमा, (२) मार्दव, (३) आजव, (४) शौच, (५) सत्य, (६) संयम, (७) तप, (८) त्याग (९) आकिंचन्य एवं (१०) ब्रह्मचर्य । तत्त्वार्थसूत्रकार ने इन्हें उत्तम कहा है। अर्थात् ये धर्म उत्कृष्ट हैं। नवतत्त्वप्रकरण में इन्हें यति-धर्म की संज्ञा दी गयी है। विशतिविशिका' के अनुसार आर्जव के बाद शौच के स्थान पर 'मुक्ति' है जो त्याग के अर्थ में व्यवहृत है। (१) क्षमा-अज्ञानी लोगों द्वारा शारीरिक कष्ट, अपशब्द, अपमान हँसी तथा दुर्व्यवहार किये जाने पर भी क्रोधकषाय या क्षोभ का प्रकट न होना क्षमाभाव है। (२) मार्दव-जाति, कुल, ऐश्वर्य या सौंदर्य, ज्ञान, शक्ति आदि का गर्व नहीं करना, विनय रखना ही मार्दव है।' ' (३) आर्जव-मन, वचन एवं काय द्वारा कुटिल प्रवृत्तियों को रोकना, सरलभाव रखना आर्जव है। १. जो रयणत्तय जुतो खमादि-भावेहि-परिणदो-णिच्चं । सत्वत्थवि मज्झत्थो सो साह भण्णदे धम्मो। -स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३९२ २. उत्तमक्षमामार्दवावशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः । -तत्वार्थसूत्र, ९१६ ३. नवतत्त्वप्रकरण, २९ ४. खंतीय-मुद्दव अज्जव मुत्ती तव संजमं य बोद्धव्य । सच्चं सीयं अंकिंचणं च बंभं च जइधम्मो ॥ -विंशतिविशिका, ११।२ ५. पद्मनंदि पंचविंशंतिका, १९८५ ६. जात्यादिमदावेशादभिमानाभावो मार्दवम् । --तत्त्वार्थराजवार्तिक, ९।६ ७. योगस्य वक्रता आर्जवम् । --वही, ९१६ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन (४) शौच-लोभ, तृष्णादि वृत्तियों का त्याग करना तथा भोजन में गृद्धि नहीं रखना शोच है ।' अन्तर्बाह्य शुचिता का ही महत्त्व है। (५) सत्य-आचार का पालन करने में असमर्थ होते हुए भी झूठ नहीं बोलना, आप्तवचनों को असत्य नहीं मानना तथा कठोर, निन्द्य बात न कहना ही सत्य है । (६) संयम--प्राणियों को पीड़ा न पहुँचाना तथा इन्द्रिय-विषयों में आसक्ति नहीं रखना संयम है। (७) तप--तप का तात्पर्य अपनी इंद्रियों के विषयों को तपाकर आत्मशुद्धि करने से है और तप की आराधना अनेक प्रकार के कायक्लेशों द्वारा होती है जिनमें इहलोक या परलोक के सुख की अपेक्षा नहीं होती। (८) त्याग-चेतन एवं अचेतन समस्त अन्तर्बाह्य परिग्रह की निवृत्ति ही त्याग है ।" त्याग का स्थूल अर्थ दान भी है। (९)आकिंचन्य-मन, वचन एवं काय से सब प्रकार की धन-सम्पत्ति, गृह-वैभव आदि परिग्रह में ममत्वबुद्धि न रखना ही आकिंचन्य है । ६ त्याग और आकिंचन्य में अन्तर यह है कि त्याग करने के बाद भी त्यक्त पदार्थ में आसक्ति रह जाती है। त्याग करने के बाद साधक जब अपने को अकिंचन, शून्य बना लेता है, तभी उसके आकिंचन्य धर्म होता है। (१०) ब्रह्मचर्य-स्त्री-सहवास, भोगे हुए कामभोगों का चिंतन १. स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा, ३९७ २. जिणवयणमेव भासदि तं पालेंदु असक्क माणोवि । ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्चवाई सो ॥-वही, ३९८ ३. समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणीन्द्रियपरिहारः संयमः। ___-तत्त्वार्थराजवार्तिक, पृ० ५९६ ४. इह पर लोयं सुहाणं णिखेक्खो जो करेदि समभावो। . विविहं कायं-किलेसं तव-धम्मो णिम्मलो तस्स ।। __ - स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा, ४४० ५. परिग्रहनिवृत्तिस्त्यागः।-तत्त्वार्थराजवार्तिक; पृ० ५९५ ६. स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा, ४०२ ** Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार १२३ स्मरण, स्त्री के रूप एवं अंगादि का दर्शन, कामोत्तेजक साहित्य का पाठ आदि प्रवृत्ति से दूर रहना तथा आत्मचर्या में लीनता ही ब्रह्मचर्य है।' इस तरह इन उत्तम धर्मों का पालन करने से दीर्घकाल से संचित राग-द्वेष, मोहादि का शीघ्र ही उपशमन हो जाता है तथा अहंकार, परीषह, कषाय का भी भेदन होता है। अतः योग-साधना में दस धर्मो का आत्यन्तिक महत्त्व है, क्योंकि योग के लिए बाह्य आचारों की अपेक्षा अन्तरंग परिणामों, भावों की शुद्धता ही परम आवश्यक है। बारह अनुप्रेक्षाएँ जिस प्रकार योगदर्शन में क्लिष्ट और अक्लिष्ट दो वृत्तियों का उल्लेख है, उसी प्रकार जैनदर्शन में भी सकषाय और अकषाय इन दो मार्गों का निर्देश है। जैसे क्लिष्ट वृत्ति में अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष एवं अभिनिवेश ये पाँच क्लेश आते हैं, वैसे ही सकषायवृत्ति में भी मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग का वर्णन है। इस प्रकार संसार के मूल कारण में अज्ञान अथवा मिथ्यात्व ही है। जैन-दर्शन के इस मिथ्यात्व को ही योग-दर्शन में अविद्या तथा बौद्ध-दर्शन में अज्ञान कहा गया है । इसी मिथ्यात्व अथवा मोह के कारण जीव इस संसार में अनंत काल से भटकता आ रहा है। इसी संसार-बंधन में पड़कर जीव रागद्वेष, कषाय आदि के कारण स्वभाव को भूलकर जन्म-मरण करता रहता है। अतः पिछले जन्म के कर्म-संस्कारों तथा वर्तमान जन्म के कर्मों को नष्ट करना जीव के लिए अत्यंत आवश्यक है, ताकि वह मोक्ष प्राप्त करने १. वही, ४०३ २. दशविधधर्मानुष्ठायिनः सदा रागद्वेषमोहानाम् । दृढरूढधनानामपि भवत्युपशमोऽल्पकालेन ॥ १७९ ॥ ममकाराहंकारत्यागादतिदुर्जयोद्धतप्रबलान् । हन्ति परीषहगौरवकषायदण्डेन्द्रियव्यूहान् ॥ १८० ॥--प्रशमरतिप्रकरणम् ३. योग-दर्शन, २०१२ ४. सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः । -तत्त्वार्थसूत्र, ६०५ ५. वही, ८१ ६. कषाय चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन में समर्थ हो सके । इस दृष्टि से जैन-योग में श्रावकाचार तथा साध्वाचार के निमित्त विभिन्न आचार - नियमों का प्ररूपण हुआ है । वस्तुतः इन आचार-नियमों के द्वारा जीव में संयम की वृद्धि होती है, जिसे चारित्र कहा जाता है; और कर्मों का आस्रव रुकता है अर्थात् संवर की प्राप्ति होती है । परन्तु साधक की इन्द्रियाँ तथा मन साधक को सर्वदा अपने मार्ग से विचलित करने एवं रागद्वेषादि भावों को बढ़ाने के लिए तत्पर रहते हैं । इसलिए इन पर विजय प्राप्त करने के लिए अनुप्रेक्षाओं का विधान है, जिनके द्वारा चंचल प्रवृत्तियों का संयमन तथा आत्मविकास होता है । अनुप्रेक्षाओं को वैराग्य की जननी भी कहा है । अनुप्रेक्षा का अर्थ है गहन चिंतन, क्योंकि आत्मा का विशुद्ध चिंतन होने के कारण इनमें सांसारिक वासना-विकारों का कोई स्थान नहीं रहता और साधक विकास करता हुआ मोक्षाधिकारी होने में समर्थ होता है । अनुप्रेक्षा से कर्मो का बंधन शिथिल होता है । 3 जब जीव में शुभ विचारों का उदय होता है, तब अशुभ विचारों का आना क्रमशः बंद होता जाता है । अत: अनुप्रेक्षाएँ कर्म-निरोध की साधना भी हैं । साधक को धर्म-प्रेम, वैराग्य, चारित्र की दृढ़ता तथा कषायों के शमन के लिए इनका अनुचितन करते रहना चाहिए, क्योंकि जिसकी आत्मा भावनायोग से शुद्ध होती है, वह सब दुःखों से मुक्त हो जाता है ।" इस -बात का समर्थन योग दर्शन में भी प्राप्त होता है। इसके अनुसार भावना अर्थात् अनुप्रेक्षा तथा जीव में बहुत गहरा संबंध है और भावनाओं का चितवन करने से आत्मशुद्धि होती है । इसलिए ईश्वर का बार-बार जप करने का विधान है । कहा गया है कि जप के बाद ईश्वर-भावना करनी ४ १. आस्रवनिरोधः संवरः । - तत्त्वार्थसूत्र, ९।१ २. वैराग्य उपावन माई, चितो अनुप्रेक्षा भाई | छहढाला, ५।१ ३. उत्तराध्ययन, २९।२२ ४. ताश्च संवेगवैराग्ययमप्रशमसिद्धये । आलानिता मनः स्तम्भे मुनिभिर्मोक्षमिच्छुभिः || - ज्ञानार्णव, २२६ ५. भावणाजोग सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । नावा व तीरसंपन्ना, सम्वदुक्खा तिउट्टइ ॥ - सूत्रकृतांग, १।१५।५ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार १२५ चाहिए और ईश्वर की भावना के पश्चात् जप । इस तरह दोनों योगों की प्राप्ति होने पर परमेश्वर - साक्षात्कार होता है ।" जैन-दर्शन में अनुप्रेक्षाओं की महती प्रतिष्ठा है। अनुप्रेक्षाएँ या भावनाएँ बारह हैं । यथा - अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म, लोक और बोधिदुर्लभ । अनुप्रक्षा के इन प्रकारों का वर्णन वारस अणुवेक्खा, तत्त्वार्थसूत्र, प्रशमरतिप्रकरण", मूलाचार', स्वामिकार्तिकेयानुप्रक्षा, शांतसुधारस', मनोनुशासन ; बृहद् द्रव्यसंग्रह १०, ज्ञानार्णव आदि ग्रंथों में भी है । यद्यपि इनके क्रम में कहीं-कहीं किंचित् अन्तर दीख पड़ता है, परन्तु प्रकारों में अंतर नहीं है । (१) अनित्यानुप्रेक्षा- यह शरीर अपवित्र, अनित्य तथा अनेक अशुचियों से भरा है तथा विनष्ट होनेवाला है । जो जन्मता है वह मरता ही है । इसलिए संसार को अनित्य, अस्थिर, नाशवान् समझना और ऐसा चितवन करना ही अनित्यानुप्र ेक्षा है । १२ (२) अशरणानुप्रेक्षा- इस संसार में क्योंकि जब वह रोगशय्या पर पड़ता है १. तज्जपस्तदर्थभावन्म । — योगदर्शन, व्यासभाष्य, १२८ २. योगशास्त्र, ४/५५-५६ ३. अद्भुवमसरणमेगत्तमण्णत्तसंसारलोय मसुइतं । आसव संवरणिज्जर धम्मं बोधि च चितिज्ज || - बारसअणुवेक्खा, २ ४. तस्वार्थसूत्र, ९।७ ५. प्रशमरतिप्रकरण, ८।१४९-५० जीव का कोई शरण नहीं है, अथवा छेदन भेदन किया जाता ६. मूलाचार, द्वादशानुप्रेक्षाधिकार, पृ० १-७६ ७. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, २-३ ८. शान्त सुधारस, १1७-८ ९. मनोनुशासन, ३।२२ १०. बृहद् द्रव्यसंग्रह, टीका, ३५ ११. ज्ञानार्णव, अध्याय २ १२. इमं सरीरं अणिच्चं, असुइ असुइसंभवं । अासयावास मिणं, दुक्खकेसाण भ्रायणं । - उत्तराध्ययन, १९।१३ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन है तब कोई भी संबंत्री उसके दुःख में हाथ बँटाने नहीं आता ।" यहाँ सभी अपनी रक्षा को ही सोचते हैं । बालपन, यौवन एवं बुढापा क्रमशः आता है, काल किसी का इन्तजार नहीं करता और विद्या, मंत्र, औषधि या जड़ी-बूटी से भी किसी का मरण टलता नहीं है । अतः जीव का एकमात्र सहारा अथवा शरण धर्म ही है । धर्म से ही मोक्षमार्ग की प्राप्ति भी होती है । अतः धर्म की शरण में जाना ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार का चितवन करना अशरणानुप्र ेक्षा है ! 1 (३) संसारानुप्रेक्षा - यह जीव हमेशा यानी जन्म-जन्म में शरीर धारण करता है और छोड़ता है। इस प्रकार जन्म-मरण का चक्र हमेशा चलता रहता है । संसार में सुख लेशमात्र नहीं है, वह दुःखों से भरा है । प्रत्येक जीव संसरण कर रहा है । संसार के स्वरूप का ऐसा चिन्तवन करना संसारानुप्र ेक्षा है । 3 (४) एकत्वानुप्रेक्षा- इस संसार में जीव अकेला ही पैदा होता है। और अकेला ही मरता है । सुख, दुःख, रोग, शोक एवं वेदना उसी को सहन करनी पड़ती है । " चाहे जितना धन वैभव, घर-द्वार, पुत्र- कलत्र हो, मरते समय किसी का कोई साथ नहीं देता । ऐसा चिन्तवन करना एकत्वानुप्रक्षा है । (५) अन्यत्वानुप्रेक्षा - संसार के सभी पदार्थ मुझसे भिन्न हैं और में उनसे भिन्न हूँ । अर्थात् शरीर तथा बाह्य वस्तुओं आदि का चेतन आत्मा से कुछ संबंध नहीं है, क्योंकि वे सभी जीव के स्वभाव नहीं हैं", ऐसा चिन्तवन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है । १. पितुर्मातु: स्वसुर्भ्रातुस्तनयानां च पश्यताम् । अत्राणो नीयते जन्तुः कर्मभिर्यमसद्मनि ॥ - योगशास्त्र, ४।६२ २. विद्यामंत्र महौषधिसेवां, सृजतुवशीकृत - देवां । रसतु - रसायनमुपचयकरणं, तदपि न मुंचति मरणम् ॥ - शान्तसुधारस, २१४ ३. न याति कतमां योनिं कतमां वा न मुञ्चति । संसारी कर्मसम्बन्धादवक्रयकुटीमिव ॥ - योगशास्त्र, ४१६६ ४. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, ७४-७५ ५. क्षीरनीरवदेकत्र स्थितयोर्देहदेहनोः । मेदो यदि ततोऽन्येषु कलत्रादिषु का कथा | - पद्मनंदि पंचविंशतिका, ६।४९; योगशास्त्र, ४ ७० Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार १२७ (६) अशुचित्वानुप्रेक्षा-जिसे हम अपना मानकर चलते हैं, वह शरीर अनेक दुर्गन्धित पदार्थों से भरा है जिसमें रक्त, मांस, रुधिर, चर्बी आदि भरे हैं।' शरीर के प्रति प्रेम अथवा ममत्व रखना व्यर्थ है और फिर यह शरीर भी तो नाशवान है। शरीर एवं संसार की अशुचिता, अपवित्रता का चिन्तवन करना अशुचित्वानुप्रेक्षा है। (६) आस्र वानुप्रेक्षा-मन, वचन, एवं काय के व्यापार को योग कहते हैं । इसी से शुभ-अशुभ कर्मो का आगमन होता है । मन, वचन, काय के व्यापार ही कर्मो के आस्रव के द्वार हैं। शुभाशुभ कर्मास्रव का चिन्तवन करना आस्रवानुप्रक्षा है। (८) संवरानुप्रेक्षा-आस्रवों का निरोध अर्थात् कर्मो के आने के मार्गो को बन्द करके साधना की ओर उन्मुख होना ही संवर है । संवर दो प्रकार का है-(१) द्रव्यसंवर व भावसंवर। कर्मो के आगमन का रुकना द्रव्यसंवर कहा जाता है और भव-भ्रमण की कारणभूत क्रियाओं का स्थान भावसंवर है। इस प्रकार संवर का चितवन करना संवारानुप्रक्षा है। (९) निर्जरानुप्रेक्षा-पूर्वसंचित अथवा बँधे हुए कर्मो को तप के द्वारा नष्ट करना निर्जरा है। निर्जरा दो प्रकार की है-सकाम-निर्जरा तथा अकाम-निर्जरा। तपस्वी या योगीगण तपस्या द्वारा कर्मों को नष्ट करते हैं। अतः उनके सकाम-निर्जरा होती है । आत्मा के शुद्ध-निर्मल रूप का चिन्तवन करना ही निर्जरानुप्रेक्षा है।" १०. धर्मानुप्रेक्षा-इस संसार में अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म उत्कृष्ट मंगल है, जिसे देवता भी नमस्कार करते हैं।' साधक चिन्तवन १. असृग्मांसवसापूर्ण शीर्णकीकसपंजरम् । शिरानद्धं च दुर्गन्धं क्व शरीरं प्रशस्यते ।।-ज्ञानार्णव, २।१०७ २. मनोवाक्कायकर्माणि योगाः कर्म शुभाशुभम् । यदाश्रवन्ति जन्तूनामाश्रवास्तेन कीर्तिताः ।।-योगशास्त्र, ४७४ ३. वही, ४१८० ४. ज्ञानार्णव, २११४०-१४८ ५. दशवैकालिक, ११ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन करता है कि धर्म ही गुरु और मित्र है, धर्म ही स्वामी और बन्धु है, असहायों का सहज प्रेमी है और रक्षक है। इस प्रकार मुनि क्षमादि दस धर्मो का बार-बार चितवन करता है।' ११. लोकानुप्रेक्षा-इस लोक अर्थात् सम्पूर्ण जगत् के स्वरूप का, उसकी स्थिति का विचार करना कि इसको न किसी ने बनाया है और न धारण किया है। यह अनादि अनन्तकाल से स्वयमेव सिद्ध है, तीन वातवलयों से वेष्टित है, निराधार है-यह लोकानुप्रेक्षा है।' १२. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा-जीव सम्यक्त्त्व-प्राप्ति के बाद अपने कर्मो को धीरे-धीरे क्षीण करता हुआ मोक्षमार्ग में अग्रसर होता है। मोक्ष की प्राप्ति दुःसाध्य है, क्योंकि जन्म-जन्मान्तरों के संचित कर्म शीघ्र क्षय नहीं होते हैं। चतुर्गति में भ्रमण करनेवाले जीव के लिए चार बातों की प्राप्ति अति दुर्लभ है-मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा एवं संयम में पुरुषार्थ ।। अतः साधक इन चार दुर्लभ तत्त्वों का सहारा लेकर आत्मस्वरूप की प्राप्ति या ज्ञान-प्राप्ति का पुरुषार्थ करता है। आत्मज्ञान का चिन्तन करना ही बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है । इस प्रकार इन बारह अनुप्रेक्षाओं अथवा भावनाओं के चिन्तवन से चित्त समभावयुक्त होता है जिनसे कषायों का उपशमन होता है और सम्यक्त्व प्रकट होता है। वैराग्य में दृढ़ता आती है। संसार सम्बन्धी दुःख, सुख, पीड़ा, जन्म-मरण आदि का मनन-चिन्तन करने से वृत्ति अन्तर्मुखी होती है, रागद्वेषमोहादि की भावना क्षीण होती है और आत्म-शुद्धि होती है। इसी कारण इन्हें वैराग्य की जननी कहा है और इनका चिन्तवन महाभाग्यशाली मुनि-योगी करते रहते हैं। १. ज्ञानार्णव, २११४९-१७० २. योगशास्त्र, ४।१०४-६ ३. वही, ४।१०७-९ ४. चतारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जन्तुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा संजमंमि य वीरियं ॥-उत्तराध्ययन, ३११ ५. योगशास्त्र, ४॥१११ . Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार संलेखना संलेखना श्रमण तथा श्रावक दोनों के लिए समान रूप से शरीर और आत्मा को शुद्ध करनेवाला अन्तिम व्रत है । इसे व्रत न कहकर व्रतान्त कहना ही अधिक उपयुक्त होगा, क्योंकि इसमें समस्त व्रतों का अन्त होता है । इसमें जैसे शरीर का प्रशस्त - अन्त अभीष्ट है, वैसे ही व्रतों का भी पवित्र अन्त वांछित है । यदि मरते समय मन मैला रहा तो जीवनभर का यम, नियम, स्वाध्याय, तप, पूजा, दान आदि निष्फल है । अतः मृत्यु सन्निकट आ जाने पर अथवा आचार आदि पालन में अशक्तता आने पर आहार आदि का त्याग करके प्राणों का उत्सर्ग करना ही संलेखना है । संलेखना शब्द सत् और लेखना शब्दों के योग से बना है, जिसका क्रमशः अर्थ सम्यक् प्रकार से और कृश करना है अर्थात् सम्यक् - प्रकार से कषाय आदि वृतियों को क्षीण करना ही संलेखना है । संलेखना को आत्महत्या नहीं कह सकते । वास्तव में जो लोग क्रोधादि कषायों के वशीभूत होकर, रागद्वेषपूर्वक श्वास, जल, अग्नि आदि द्वारा शरीरघात करते हैं, वह आत्मघात कहलाता है, परन्तु जो साधक विषयादि से पूर्ण निवृत्त होकर मरणकाल निकट जानकर प्रसन्न रहते हैं वह संलेखना है ।" अतः इसमें आत्म- हनन का भाव लेशमात्र भी नहीं । संलेखना में तो उपवास से शरीर को तथा ज्ञानभावना द्वारा कषायों को कृश किया जाता है । यद्यपि संलेखना धारण करने का १. न इमं सव्वेसु भिक्खूसु, न इमं सब्वेसुगारिसु । - उत्तराध्ययन, ५1१९ २. जैन आचार, पृ० १२१ ३. उपासकाध्ययन, ८९७, पृ० ३२३ ४. यो हि कषायाविष्टः कुम्भकजलधूमकेतुविषशस्त्रैः । व्यपरोपयति प्राणान् तस्य स्यात्सत्यमात्मवधः । ५. (क) मरणं पि सपुष्णाणं जहा मेयमणुस्सुयं । विप्पसण्णमणाघायं संजयाणं वुसीमओ ॥ - उत्तराध्ययन, ५।१८ न सल्लेखनां प्रतिपन्नस्य रागादयः सन्ति ततो नात्मवधदोषः । १२९ - पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, १७८ ६. उपवासादिभिरंगे कषायदोषे य बोधिभावनाया । कृतसल्लेखनकर्मा प्रायाय यतेत गणमध्ये ॥ - सर्वार्थसिद्धि, ७।२२ - - उपासकाध्ययन, ४५।८९६ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 १३० जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन कोई समय निर्धारित नहीं है, तथापि इसे धारण तभी किया जाता है जब शरीर की शक्ति घट जाती है, खाना-पीना छूट जाता है, दूसरा कुछ भी काम करने का उपाय नहीं रहता और स्वयं शरीर ही समाधि-मरण का आकांक्षी हो जाता है । अतः शरीर का निर्जर अथवा पतन होते ही प्रेमपूर्वक संलेखना धारण करना चाहिए ।" संलेखना के काल में साधक मन में किसी भी प्रकार का मोह न रखे, संसार संबन्धी आशा-आकांक्षा के न रहने पर ही समाधि मरण सार्थक है | श्रावक ममत्व-रहित होकर समझे कि जन्म-मरण बाह्य शरीरादि का होता है, आत्मा का नहीं । संलेखना के पाँच अतिचार हैं ४ - जीने की इच्छा, मरने की इच्छा, मित्रों का स्मरण, भोगे हुए भोगों का स्मरण तथा आगामी भोगों की आकांक्षा । इनसे साधक को बचना चाहिए । संलेखना को समाधि-मरण, पंडितमरण, मरण- समाधि आदि भी कहते हैं । परीषह साधना -अवस्था में श्रमण अथवा श्रावक के समक्ष तरह-तरह की बाधाएँ, कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं, जिन्हें परीषह अथवा उपसर्ग कहते हैं । अर्थात् मार्ग से च्युत न होने और कर्मों के क्षयार्थं जो सहन करने योग्य हों, वे परीषह हैं । बाईस परीषह इस प्रकार हैं- क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नत्व, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, १. प्रतिदिवसं विजहद्बलमुज्झद्भुक्तिं त्यजत्प्रतीकारम् । वपुरेव नृणां निगिरति चरमचरित्रोदयं समयम् ॥ -उपासकाध्ययन, ४५१८९३ २. देहे प्रीत्या महासत्वः कुर्यात्सल्लेखनाविधिम् । - सागारधर्मामृत, ८1१२ ३. जन्ममृत्युजरातंका : कायस्यैव न जातु मे । न च कोऽपि भवत्येष ममेत्यं गेऽस्तु निर्ममः ॥ - वही, ८ १३ ४. जीवितमरणाशंसे सुहृदनुरागः सुखानुबन्धविधिः । एते सनिदाना स्युः सल्लेखनहानये पञ्च ॥ - - उपासकाध्ययन, ४५।९०३ ५. मार्गाऽच्यवननिर्जराथं परिसोढव्याः परीषहाः । - - तत्त्वार्थ सूत्र, ९१८ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार १३१ आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, .प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन ।' साधक को इन परीषहों पर विजय प्राप्त करना अनिवार्य है, क्योंकि परीषह-जय के बिना न चित को विकलता हटेगी, न मन एकाग्र होगा, न सम्यक् ध्यान होगा और न कर्मों का क्षय ही होगा। परोषह या उपसर्ग प्राकृतिक और देव मानव-तिर्यंचकृत तोनों प्रकार के होते हैं । उपसर्गजन्य पीड़ा को समभावपूर्वक सहन करने में साधक यह समझता है कि यह उपसर्ग कर्मक्षय में सहायक है। तप का महत्त्व तप' दस धर्मांगों में से एक अंग है। वस्तुतः यह योग को एक ऐसी कड़ी है, जिससे साधक समस्त कर्मों को निर्जरा करने में समर्थ होता है। सभी भारतीय धर्म-परम्पराओं में जीवन के नैतिक तथा सम्यक् उन्नयन के लिए तप की महती प्रतिष्ठा है । तप द्वारा ही कर्म-पाशों ( अज्ञान ) से साधक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र को प्राप्त होता है। आत्मतत्त्व को ज्ञानस्वरूप जानना हो सम्यरज्ञान है तथा इसकी अनुभूति तप से होती है। अतः तपस्या भारतीय दर्शन-परम्परा की ही नहीं, किन्तु उसके सम्पूर्ण इतिहास की प्रस्तावना है । भारतीय संस्कृति में जो कुछ भी शाश्वत है, जो कुछ भो उदात्त एवं महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, वह सब तपस्या से ही सम्भूत है-प्रत्येक चिन्तनशील प्रणालो चाहे वह आध्यात्मिक हो, चाहे आधिभौतिक, सभी तपस्या की भावना से अनुप्राणित है-वेद, वेदांग, दर्शन, पुराण, धर्मशास्त्र आदि सभी विद्या के क्षेत्र में जीवन की साधनारूप तपस्या के एकनिष्ठ उपासक हैं । तप की आराधना गहस्थ एवं साधु दोनों के लिए आवश्यक है। लेकिन गृहस्थ तपस्वी की भांति तप की कठोर आराधना नहीं कर १. (क) क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचनाऽलाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि । -वही, ९९ (ख) देखें, उत्तराध्ययन, अध्ययन २ । २. बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, भाग १, पृ० ७१-७२ । Jairl Education International Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन सकता, क्योंकि व्यावहारिक कर्तव्यों का सम्पूर्ण उच्छेद कर देना उसके लिए संभव नहीं है । तप का अर्थ ही होता है कर्ममल या संचित कर्म को जलाना या नष्ट करना तथा ऐसी साधना के लिए सर्वांशतः तपस्वी अथवा साधक ही उपयुक्त ठहरते हैं । अतः तप का उद्देश्य कर्मों को क्षीण करना अथवा नष्ट करना है तथा आत्मतत्त्व की पहचान भी है। वैदिक, बौद्ध एवं जैन तीनों परम्पराओं में तप का विस्तृत वर्णन मिलता है । यहाँ संक्षेप में तप का विवेचन प्रस्तुत है । वैदिक परम्परा में तप * वैदिक वाङ्मय में तप का उल्लेख कई स्थलों पर हुआ है । प्राचीन ऋषि परम्परा तप पर ही विशेष जोर देती है । यही कारण है कि 'तपस्या से ही ऋत और सत् ' उत्पन्न हुए हैं' तथा 'आत्मा को तप से तेजस्वी करने जैसे विधान मिलते हैं । यह ठीक है कि वैदिक धर्म में यज्ञ का प्रचलन विशेष रूप से रहा है, लेकिन परिस्थिति के अनुसार वह ज्ञान तप में परिवर्तित हो गया । तप प्रथमतः देहदमन के लिए आवश्यक माना जाता रहा, परन्तु जैसे-जैसे आध्यात्मिकता की ओर प्रवृत्ति होने लगी वैसे-वैसे देहदमन के साथ ही साथ इंद्रिय दमन के अर्थ में भी तप प्रयोजनीय समझा जाने लगा । यही कारण है कि उपनिषद्काल में 'तप के द्वारा ही ब्रह्म प्रबुद्ध होता है' ४ तथा कहा गया कि ऋत तप है, सत्य तप है, श्रुत तप है, शांति तप है और दान तप है ।" तपस्वी के लिए तप के साथ श्रद्धा युक्त होना भी आवश्यक है । ' श्रीमद्भगवद्गीता में तप के तीन प्रकार बतलाये गये हैं- दैहिक, वाचिक, तथा मानसिक । दैहिक तप के अन्तर्गत पवित्रता, सरलता १. ऋतं च सत्यं चामीद्धात्तपसोऽध्यजायत् । - ऋग्वेद, १०1१९०।१ २. अजो भागस्तपसा तं तपस्व ।— - वही, १०।१६।४ ३. तपसा ब्रह्मविजिज्ञासस्व । तपो ब्रह्म ेति । - तैत्तिरीय आरण्यक, ९१२ ४. तपसा चीयते ब्रह्म' 1 - मुण्डकोपनिषद्, १1१1८ DOOA ५. तैत्तिरीय आरण्यक ( नारायणोपनिषद् ), १०1८ ६. तपः श्रद्धे ये 'ह्यु पवसन्ति । - मुण्डकोपनिषद् १।२1११ ७. भगवद्गीता, १७।१४-१६ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार १३३ तथा ज्ञानीजनों की पूजा-सेवा करने की प्रवृत्ति का होना और वाणी विषयक तप के अन्तर्गत स्वाध्याय, अकषायी तथा सुभाषी होना आवश्यक है। तथा मानसिक प्रसन्नता, भगवद्-चिंतन, शांति, मनोनिग्रह, पवित्रता को मानसिक तप कहा गया है । वहीं पर आगे तप के सात्विक, राजसिक तथा तामसिक तीन भेद निरूपित हैं, जो साधकों के स्वभाव के द्योतक हैं। अहिंसा, सत्य तथा ब्रह्मचर्य का निष्कामभाव से पालन करना सात्विक तप है। मान, प्रतिष्ठा या अन्य प्रलोभनवश तप करना राजसिक तप है तथा अपने को तथा दूसरों को भी तप द्वारा पीडा पहुँचाना तामसिक तप है। इस तरह गीता में तप के विभिन्न अंगों का विवेचन करते हुए सात्विक तप को ही श्रेष्ठ तथा आत्मशुद्धि का श्रेष्ठ साधन कहा गया है। __ योग-दर्शन में तप की महत्ता में कहा है कि तप से शरीर तथा इंद्रियों की शुद्धि एवं सिद्धि होती है। वैदिक योग में तप के अनेक प्रकार एवं विधियाँ बतलायी गयी हैं । चांद्रायण, कृच्छादि तप, सूर्याग्नि तथा जल में खड़े होकर तप करना आदि सभी तपों का उद्देश्य एक ही है कि शरीर का दमन किया जाय, परन्तु शरीर-दमन के साथ ही साथ इन्द्रियविषयों को जीर्ण कराने का भी भाव उसमें निहित है। बौद्ध-परम्परा में तप बौद्ध-परम्परा के अनुसार चित्तशुद्धि का सतत प्रयत्न करना ही तप का उद्देश्य है। ब्रह्मचर्य, चार आर्यसत्यों का दर्शन और निर्वाण के साक्षात्कार के साथ तप को भी उत्तम मंगल कहा गया है, क्योंकि आत्मा की अकुशल चित्तवृत्तियाँ अथवा पापवासनाएँ तप से क्षीण होती हैं। यही कारण है कि बौद्ध आगमिक साहित्य में तपस्या का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है।" बुद्ध ने भो प्रारम्भ में शरीरदमन के लिए तप १. वही, १७।१७-१९ २. कायेंद्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपसः। -योगदर्शन, २१४३ ३. तपो च ब्रह्मचरियं च, अरियसच्चान दस्सनं । निबाणं सच्छिकिरिया च एतं मंगलमुत्तमं ॥-महामंगलसुत्त, १० ४. बुद्धलीलासारसंग्रह, पृ० २८०-८१ ५. दीघनिकाय, ३२; मज्झिमनिकाय, १।२।२ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन साधना की थी, परन्तु जब उन्हें उससे समाधान नहीं हुआ, तब उन्होंने मध्यममार्ग का प्रतिपादन किया । अतः बुद्ध की तपस्या में शारीरिक यंत्रणा का भाव नहीं था, किन्तु वह सर्वथा सुखसाध्य भी नहीं थी। जैसा कि डा० राधाकृष्णन् ने लिखा है, सैद्धान्तिक रूप में बुद्ध ने तप के बिना भी निर्वाण-प्राप्ति की संभावना को स्वीकार किया है; किन्तु व्यावहारिक रूप में वे प्रायः सबके लिए तप की आवश्यकता मानते हैं।' बौद्ध-परम्परा में तप का वर्गीकरण इस प्रकार निर्दिष्ट है-यथा, (१) जो आत्मन्तप है परन्तु परन्तप नहीं है, (२) दूसरा वह जो परन्तप है परन्तु आत्मन्तप नहीं, (३) तीसरा आत्मन्तप भी है और परन्तप भी है तथा (४) चौथा वह जो आत्मन्तप भी नहीं और परन्तप भी नहीं है। इस तरह भगवान् बुद्ध ने चौथे प्रकार के तप का प्रतिपादन करते हुए मध्यममार्ग के अनुसार उसका आचरण करने को कहा है ।२ जैन-परम्परा में तप . जैन-साधना का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति है और इसके लिए तप को विशेष साधन कहा गया है, क्योंकि तप से समस्त कर्मों की निर्जरा होती है। यही कारण है कि तप का विशेष वर्णन जैन आगमों एवं अन्य ग्रंथों में दृष्टिगोचर होता है। श्रावक तथा श्रमण दोनों के लिए तप का विधान है, क्योंकि तप से शरीर एवं इंद्रियों का संयम सधता है। स्वभावत: इन्द्रियाँ चंचल होती हैं तथा वैराग्य एवं अध्यात्म की ओर उन्मुख होने के बदले विषयवासना की ओर अधिक दौड़ती हैं। लालसा, तृष्णा, इच्छा आदि अनंत और अमर्यादित हैं। और इनकी जितनी हो पूर्ति की जाती है, उतनी ही ये उग्र बनती जाती हैं। इनके वशीभूत मनुष्य कभी भी शांति प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए इनके नियंत्रण के लिए सामर्थ्य के अनुसार जो शारीरिक कष्ट उठाया जाता है, वही तप है। दूसरे शब्दों में तप से १. Indian Philosophy, Radhakrishnan, Vol. I, p. 436 २. मज्झिमनिकाय, २।५।४; २।१।१ ३. तपसा निर्जरा च ।-तत्त्वार्थसूत्र, ९।३ ४. अनिगृहितवीर्यस्य मार्गाविरोधि कायक्लेशस्तपः।-सर्वार्थसिद्धि, ६।२४ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार १३५ आत्मा परिशुद्ध होती है। अतः तप वह विधि है, जिससे जीव बद्ध कर्मो का क्षय करके व्यवदान-विशुद्धि को प्राप्त होता है।' तप के भेद-जैन-आगम के अनुसार तप दो प्रकार का है - (१) बाह्य और (२) आभ्यन्तर । बाह्य तप का उद्देश्य शारीरिक विकारों को नष्ट करना तथा इन्द्रियों पर जय प्राप्त करना है और आभ्यंतर तप के द्वारा कषाय, प्रमाद आदि विकारों को नष्ट किया जाता है। बाह्य तप आंतरिक तप में सहायक या पूरक होते हैं। बाह्यतपों से इंद्रियविषयों की तृष्णा मंद होती है और फिर क्रमशः जब आत्म-शक्ति बढ़ती है तो आंतरिक शुद्धि होती है। इन दोनों प्रकार के तपों का सम्यक् रूप से पालन करनेवाला पंडितमुनि शीघ्र ही सर्वसंसार से मुक्त हो जाता है । शरीर को कष्ट देना आत्मघात नहीं है, क्योंकि उसके पीछे इंद्रियों के दमन का उद्देश्य निहित है। शरीर को कष्ट देना इसलिए भी जरूरी है कि तपावस्था में किसी भी प्रकार के उपद्रव या संकट के आ जाने पर साधक देहेन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर उपस्थित शारीरिक, प्राकृतिक अथवा अन्यकृत पीड़ा अथवा कष्ट को सहन करने में समर्थ हो सके। इस संदर्भ में ध्यातव्य है कि तप में मन हमेशा पवित्र रहे तथा इन्द्रियों की विकार-शक्तियों का ह्रास हो एवं दैनिक चर्या में शिथिलता न आने पाये। जैन-परम्परा में इसे 'समत्वयोग की साधना' कहा गया है और यही समत्वयोग समष्टि की दृष्टि से अथवा आचरण के व्यावहारिक क्षेत्र में अहिंसा कहलाती है और यही अहिंसा निषेधात्मक रूप में तप बन जाता है। १. तवेण परिसुज्झई । -उत्तराध्ययन, २८०३५ २. तवेण भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? तवेणं वोदाणं जणयइ । -वही, २९।२८ ३. सो तवो दुविहो वुत्तो बाहिरब्भतरो तहा । -वही, ३०७ ४. एयं तवं तु दुविहं, जे सम्म आयरे मुणी। से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चई पंडिए ॥-वही, ३०१३७ ५. जिनवाणी, अगस्त-सितम्बर, १९६६, वर्ष २३, अंक ८-९, पृ० ९९ ___ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन बाह्यतप बाह्यतप छह प्रकार का है-(१) अनशन, (२) अवमोदर्य, (३) वृत्तिपरिसंख्यान, (४) रसपरित्याग, (५) विविक्तशय्यासन, तथा (६) कायक्लेश।' १. अनशन-विशिष्ट अवधि तक या आजीवन सब प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन है। अनशन की अवधि एक या दो अथवा तीन दिनों की भी हो सकती है अर्थात् अपनी सामर्थ्य के अनुसार साधक लम्बी अवधि तक का भी अनशन कर सकता है। इसे उपवास भी कहते हैं। २. अवमौदर्य या ऊनोवरी-किसी विशेष स्थान या समय पर जितनी भूख हो उससे कम आहार ग्रहण करना ऊनोदरी या अवमौदर्य तप है। ३. वृत्तिपरिसंख्यान-विविध वस्तुओं की लालसा कम करना, वस्तुओं की संख्या की मर्यादा करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है। ४. रसपरित्याग-दूध, घी, मक्खन, मधु आदि गरिष्ठ विकारवर्धक पदार्थो का त्याग करना रस-परित्याग है। प्रतिदिन एक-एक रस का परित्याग भी किया जाता है। स्वादेन्द्रिय-विजय का अपना महत्त्व है। ५. विविक्तशय्यासन-अपने ध्यान अथवा तप में बाधा उत्पन्न होने की आशंका से बाधारहित एकान्त स्थान में रहना अथवा तप करना प्रतिसंलीनता तप है, क्योंकि इसका अर्थ 'गोपन रखना' ही है। इसके चार भेद हैं--(१) इंद्रिय प्रतिसंलीनता (२) कषाय प्रतिसंलीनता (३) योग प्रतिसंलीनता तथा (४) विविक्तशय्यासन । ६. कायक्लेश-ठंढ, गरमी, अथवा विविध आसनों द्वारा शरीर को कष्ट पहुंचाना कायक्लेश तप है।' १. (क) अनशनावमोदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्य तपः ।-तत्त्वार्थसूत्र, ९।१९ (ख) अनशनमौनोदयं वृतेः संक्षेपणं तथा । रसत्यागस्तनुक्लेशो लीनतेति बहिस्तपः ।।-योगशास्त्र, ४।८९ २. ठाणांग, ६१५११; प्रवचनसारोद्धार, २७०-७२ ३. तत्त्वार्थराजवार्तिक, ९।१९; तत्त्वार्थसूत्र ( पं० सुखलालजी), पृष्ठ २११ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार १३७ ये सब बाह्यतप खाद्य एवं स्वाद्य पदार्थों की अपेक्षा से वर्णित हैं। क्योंकि साधक स्वाभिप्राय के अनुसार उनका सेवन करते हैं। बाह्यतप से जहाँ पाँचों इंद्रियों की विषयवासना क्षीण होती है, वहाँ चित्त के आंतरिक विकारों के परिशमन में भी मदद होती है। आभ्यन्तरतर ___ आभ्यंतरतप से आत्म-परिणामों में विशुद्धि आती है। अतिशय कर्मों को नष्ट करने में समर्थ तप को आभ्यंतरतप कहते हैं।' आभ्यंतर तप भी छह प्रकार का है-(१) प्रायश्चित, (२) विनय, (३) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) व्युत्सर्ग तथा (६) ध्यान ।' १. प्रायश्चित-तप-किसी व्रत-नियम के भंग होने पर उसमें लगे दोष का परिहार करना अथवा गुरु के समक्ष चित्तशुद्धि के लिए दोषों की आलोचना करना और उसके लिए प्रायश्चित स्वीकार करना प्रायश्चित तप है। इस प्रायश्चित तप के भी नौ भेद हैं, जैसे-(१) आलोचना, (२) प्रतिक्रमण, (३) तदुभय, (४) विवेक, (५) व्युत्सर्ग, (६) तप, (७) छेद, (८) परिहार और (९) उपस्थापना । १. अतिशयेन कर्मनिर्दहन समर्थरूपत्वमाभ्यन्तर तपसो लक्षणम् : -आर्हत्दर्शनदीपिका, ६९२ २. ( क ) प्रायश्चित्तं वैयावृत्त्यं स्वाध्यायो विनयोऽपि च । व्युत्सर्गोऽथ शुभं ध्यानं षोढेत्याभ्यन्तरं तपः ॥ -योगशास्त्र, ४।९० ( ख ) प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् । -तत्त्वार्थसूत्र, ९।२० ३. ( क ) प्रमाददोष परिहारः प्रायश्चित्तम् । -सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४७८ (ख) बाहुल्येन चित्तशुद्धि हेतुत्वात् यत् प्रायश्चित्तं । –तत्वार्थसूत्र, ( हरिभद्र), पृ० ४७८ ( ग ) योगशास्त्र, स्वोपज्ञवृत्ति, पृ० ८६० ४. आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनानि । -तत्त्वार्थसूत्र, ९।२२ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन (क) आलोचना-व्रत की मर्यादा का उल्लंघन होने पर, गुरु के पास जाकर, दोष स्वीकार करना तथा उसके बदले नया व्रत ग्रहण करना। (ख ) प्रतिक्रमण-हो चुकी भूल का अनुताप करके उससे निवृत्त होना और नयी भूल न हो उसके लिए सावधान रहना । (ग ) तदुभय-उक्त आलोचन और प्रतिक्रमण दोनों साथ-साथ करना। (घ) विवेक-खाने-पीने आदि की यदि अकल्पनीय वस्तु आ जाय और बाद में पता चले तो उसका त्याग करना या वस्तु की शुद्धताअशुद्धता का विचार करना। (च) व्युत्सर्ग-एकाग्रतापूर्वक शरीर और वचन के व्यापारों को छोड़ना। . (छ ) तप-अनशनादि बाह्य तप करना। (ज) छेद-दोष के अनुसार दिवस, पक्ष, मास या वर्ष की प्रव्रज्या (दीक्षा) कम करना। (झ) परिहार-दोषपात्र व्यक्ति से दोष के अनुसार पक्ष, मास आदि पर्यन्त किसी प्रकार का संसर्ग न रखकर उसे दूर से परिहरना। (ट) उपस्थापन-अहिंसादि व्रतों का भंग हो जाने पर शुरू से उन महाव्रतों का आरोपण करना ।' २. विनय-तप-अपने से वरिष्ठ गुरु अथवा आचार्यो का आदर करना तथा उनकी आज्ञा का पालन करना विनय तप है। इसके भी चार भेद हैं-(क) ज्ञान, (ख) दर्शन, (ग) चारित्र और (घ) उपचार ।' निम्न ग्रंथों में प्रायश्चित्त के दस भेदों का वर्णन है-उत्तराध्ययन, ३०।३१; स्थानांग, ७३३; भगवतीसूत्र, २५७।८०१; जीतकल्प में इस प्रकार कहा गया है: तं दसविहमालोयण-वडिकमणो-भय-विवेग-वोस्सग्गा । तव-छेद-मूल-अणवठ्या य पारंचियं चेव ॥-जीतकल्प, ४ १. तत्त्वार्थसूत्र ( पं० सुखलालजी), पृष्ठ २२० २. पूज्येष्वादरो विनयः ।-सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४३९ ३. ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः।-तत्त्वार्थसूत्र, ९।२३ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार १३९ ( क ) ज्ञान - ज्ञान प्राप्त करना, उसका अभ्यास जारी रखना और भूलना नहीं । हरिभद्र ने मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय तथा केवलज्ञान को ज्ञान विनय कहा है | " (ख) दर्शन - तत्त्व की यथार्थ प्रतीतिस्वरूप सम्यग्दर्शन से विचलित न होना, उसके प्रति उत्पन्न होनेवाली शंकाओं का निवारण करके निःशंकभाव की साधना करना । (ग) चारित्र - सामाजिक आदि चारित्रों में चित्त का समाधान रखना । (घ) उपचार - अपने से सद्ग्रंथों में श्रेष्ठ आचार्यो के समक्ष उठने, बैठने, बोलने, नमस्कार करने आदि क्रियाओं में आदर एवं नम्रतापूर्वक वर्तन करना, वन्दन करना आदि | ३. वैयावृत्त्य तप - शरीर से अथवा योग्य साधनों को जुटाकर उपासना - भाव से गुरु, मुनि, वृद्ध व रोगी साधक आदि की सेवाशुश्रुषा करना वैयावृत्त्य तप है । इस तप के भी दस भेद हैं- (क) आचार्य, (ख) उपाध्याय, (ग) तपस्वी, (घ) शैक्ष्य, (च) ग्लान, (छ) गण, (ज) कुल, (झ) संघ, (ट) साधु और (ठ) मनोज्ञ । ४ (क) आचार्य - व्रत और आचार ग्रहण करानेवाला तथा चतुर्विध संघ को अनुशासित करनेवाला । (ख) उपाध्याय - श्रुताभ्यास करानेवाला । (ग) तपस्वी - महान् एवं उग्र तप करनेवाला । (घ) शैक्ष्य - नवदीक्षित होकर श्रुत का अध्ययन करनेवाला शिक्षार्थी । १. (क) श्रीतत्त्वार्थ सूत्रम् (भिद्र ), पृ० ४८२-८३ (ख) स्थानांगसूत्र में इसके सात भेद हैं- ( १ ) ज्ञान, (२) दर्शन, (३) चारित्र, (४) मनोविनय, (५) वचनविनय, (६) कार्याविनय तथा (७) लोकोपचार विनय । - स्थानांगसूत्र, ५८५ २. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४४२; तत्त्वार्थ सूत्र ( पं० सुखलालजी), पृष्ठ २२० ३. कायचेष्टया द्रव्यान्तरेण चोपासने वैयावृत्त्यम् । - सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४३९. ४. आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षक ग्लानगण कुलसंघसाधुसमनोज्ञानाम् । - तत्त्वार्थ सूत्र, ९।२४ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૦ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन (च) ग्लान - रोग आदि से क्षीण साधक । (छ) गण - भिन्न-भिन्न आचार्यो के सहाध्यायी शिष्यों का समुदाय या संघ | (ज) कुल - एक ही दीक्षाचार्य का शिष्य परिवार । (झ) संघ - धर्मं का अनुयायी समुदाय संघ है, जो साधु और साध्वी, श्रावक और श्राविका के रूप में चतुर्विध है । (ट) साधु- संयम का पालन करनेवाला प्रव्रजित मुनि । (ठ) समनोज्ञ - ज्ञान आदि गुणों में समान या समानशील । " ४. स्वाध्याय - तप - ज्ञान - प्राप्ति के लिए आलस तजकर अध्ययन करना स्वाध्याय तप है । " ज्ञान प्राप्त करने, उसे सन्देहरहित, विशद और परिपक्व बनाने एवं उसका प्रचार करने का प्रयत्न भी स्वाध्याय है । अतः अभ्यास- शैली के क्रमानुसार यह तप भी पांच प्रकार का है - (क) वाचना, (ख) प्रच्छना, (ग) अनुप्रेक्षा, (घ) आम्नाय तथा (च) धर्मोपदेश | (क) वाचना - शब्द या अर्थ का पहला पाठ लेना । (ख) प्रच्छना - जिनागमों के बारे में संशय निवारणार्थं, अथवा विशेष निर्णय के लिए पूछना | (ग) अनुप्रेक्षा -- आत्म-स्वरूप का, शब्द और अर्थ का चिंतन मनन करना । (घ) आम्नाय - सीखी गयी वस्तु का, शास्त्र का शुद्धिपूर्वक बार बार उच्चारण करना । (च) धर्मोपदेश - अनपढ़ अथवा अल्पज्ञानी लोगों के कल्याण के लिए उपदेश द्वारा धार्मिक वातावरण निर्माण करना, धर्म की प्रभावना करना । ५. व्युत्सर्ग- अहंकार, ममकार आदि सभी उपधियों का त्याग १. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४४२; विविध अर्थ के लिए देखें हरिभद्र का - श्रीतत्त्वार्थ सूत्रम्, सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २. ज्ञानभावनाऽऽलस्यत्यागः स्वाध्यायः । - सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४३९ ३. वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः । -- तत्त्वार्थ सूत्र, ९।२५ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार १४१ करना व्युत्सगं तप है । इसके भी दो भेद हैं- (क) बाह्य और (ख) आभ्यंतर । धन, धान्य, मकान आदि बाह्य वस्तुओं की ममता का त्याग करना बाह्योपधि व्युत्सर्ग है । शरीर की ममता का त्याग करना एवं काषायिक विकारों की तन्मयता का त्याग करना आभ्यंत रोपधि व्युत्सर्ग है । ६. ध्यान - चित्त की चंचल वृत्तियों का परित्याग करके एक विषय में अन्त:करण की वृत्ति को स्थापित करना ध्यान- तप है । इस तप के बहुत-से भेद-प्रभेद हैं, जिनके संबंध में आगे विचार किया जायेगा । इस संदर्भ में ज्ञातव्य है कि तप के भी बहुत भेद-प्रभेद हैं, जिनका उल्लेख करना यहाँ अभीष्ट नहीं है ।" इस तरह वैदिक, बौद्ध एवं जैन तीनों ही परम्पराओं में तप का १. आत्माऽऽत्मीय संकल्पत्यागो व्युत्सर्गः । - सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४३९ २. बाह्याभ्यन्तरोपध्योः । - तत्त्वार्थसूत्र, ९।२६ ३. चित्तविक्षेपत्यागो ध्यानम् । सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४३९ ४. योगबिंदु में हरिभद्र ने चार प्रकार के तप का उल्लेख किया है— ( क ) चांद्रायण, कृच्छ्र, मृत्युघ्न और पापसूदन । - योगबिंदु, १३१ ( ख ) तपोरत्नमहोदधि में तो तप के बहुत प्रकार गिनाये हैं जो कि देखने योग्य हैं । ( ग ) स्थानांगसूत्र में - ( १ ) उग्रतप, ( २ ) घोरतप, ( ३ ) रसपरित्याग तथा ( ४ ) जितेन्द्रिय प्रति संलीनता, इस तरह चार तप कहे गये हैं । - स्थानांग, ३०८ (घ) भगवतीसूत्र श० २५, उद्दे० ७, ( च ) प्रकीर्णक तप के अनेक भेद हैं, यथा - चन्द्रप्रतिभ तप के दो भेद हैं- यवमध्य और वज्रमध्य । आवली के तीन भेद हैं- कनकावली, रत्नावली और मुक्तावली । सिंह-विक्रीडित के दो भेद हैंलघु और महान । प्रतिमा के चार भेद हैं- भद्रोत्तर, आचाम्ल, वर्धमान और सर्वतोभद्र । भिक्षु प्रतिमा के बारह भेद हैं- मासिक से लेकर सप्तमासिकी तक सात भेद, सप्तरात्रिकी के तीन भेद, अहोरात्रकी और एक रात्रिकी । ( देखिए - सभाष्य स्वार्थाधिगमसूत्रम्, पृ० ३९१ ) Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "१४२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन विधान है। तप का उद्देश्य कायक्लेश अथवा देहदमन नहीं है, बल्कि इंद्रिय-वृत्तियों का संयम तथा मन की शुद्धि करना है। वैदिक योग में बर्फ में बैठने, नदियों में घंटों खड़े रहने, एक पैर पर खड़े रहने, पंचाग्नि में तपना, महीनों केवल पानी पीकर उपवास करना, धूप में तप करना आदि बहुत प्रकार के तप गिनाये गये हैं, जिनकी गणना तामसिक तथा राजसिक तपों में की गयी है। योग में ऐसे तपों को निन्द्य बताया गया है, क्योंकि इससे शरीर एवं इन्द्रियाँ अनेक रोगों की शिकार बन जाती हैं । बौद्ध योग में भी इस प्रकार के तप अमान्य हैं। जैन योग में भी बाह्य और आभ्यंतर तपों का विधान है, जिनका विवेचन ऊपर कर चुके हैं। इस प्रकार सभी योग-परम्पराओं में तप द्वारा शरीर, इन्द्रियों के विषय, प्राण, मन को उचित रीति से नियंत्रित करने की बात कही गयी है। आत्म-विकास एवं शुद्धिकारक तप से संचित कर्मो का नाश, विषयवृत्तियों का क्रमशः शमन तथा अनेक प्रकार के दुःख-सुख, गर्मी-ठण्ड, भूख-प्यास, मान-अपमान आदि वृत्तियों पर नियंत्रण प्राप्त होता है और योगसाधना में मदद होती है। ऐसे तप से अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, ऐसा भी कहा गया है। आसन यौगिक क्रियाओं की निष्पन्नता अथवा चित्त-स्थिरता के लिए आसनों का महत्त्व है, क्योंकि आसन में शरीर तथा मन अन्य चेष्टाओं से रहित होकर किसी एक दशा में केद्रित हो जाते हैं। यही कारण है कि आसनों के द्वारा संकल्प-शक्ति को विकसित करके वांछित परिणाम प्राप्त किये जाते हैं। अतः आसन मन तथा शरीर दोनों को काबू में करके आत्मा को शक्तिशाली बनाने का साधन है और यही मन एवं शरीर पर अधिकार प्राप्त करना योग का आधार है ।' उपनिषदों में आसनों का वर्णन मिलता है। भगवद्गीता में वर्णन १. योगमनोविज्ञान, पृ० १९० २. (क) तस्मा आसनमाहृत्य । -बृहदारण्यकोपनिषद्, ६।२।४; (ख) तेषां त्वया सनेऽऽन प्रश्वसितव्यम् । -तैत्तिरीयोपनिषद्, १११११३ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार १४३ है कि आसन के द्वारा मन स्थिर होता है ।' भागवतपुराण में भी स्थानस्थान पर आसन का वर्णन है ।२ पातंजल-योग के अनुसार सुखपूर्वक अधिकतम समय तक स्थिर होकर बैठना ही ध्यान है। यह भी कहा गया है कि जो आसन स्थिर तथा सुखद हो, वही करना चाहिए। ऐसे आसनों में पद्मासन, वीरासन, भद्रासन, स्वस्तिकासन, दण्डासन, सोपाश्रय, पर्यंकासन आदि आसनों का वर्णन है। हठयोग के अनुसार आसनों का मुख्य कार्य शरीर को स्वस्थ बनाना, आलस्य दूर करना, तथा शरीर के भारीपन को दूर करना भी है। आसन के साथ ही साथ हठयोग में विभिन्न मुद्राओं का भी निरूपण हुआ है, जो आसन के अंगीभूत साधन हैं। बौद्धयोग-साधना में भी आसनों का महत्त्व है तथा पर्यंकासन को सबसे उत्तम माना गया है। इस आसन के विषय में बताया गया है कि बायीं जांघ पर दाहिना पैर रखना चाहिए तथा दाहिनी जांघ पर बायाँ पैर रखना चाहिए। ऐसा ही लक्षण पद्मासन का है। इसमें बुद्धासन, सिद्धासन, वज्रासन का भी वर्णन है । ६ जैन-परम्परा में यद्यपि चित्त की स्थिरता के लिए अमुक आसन का ही प्रयोग करना चाहिए-ऐसा कोई नियम नहीं है, परन्तु जिस आसन द्वारा मन स्थिर होता है उसी आसन का उपयोग ध्यान-साधना के लिए उपयुक्त माना गया है। इस तरह जिन-जिन आसनों के द्वारा दीर्घकाल १. स्थिरमासनमात्मनः । -भगवद्गीता, ६।११, ६।१२; १११४२ २. श्रीमद्भागवतपुराण, २।१।१६; ३।२८1८; ४।८।४४ ३. स्थिर सुखमासनम् । -योगदर्शन, २०४६ ४. योगदर्शन व्यासभाष्य, पृ० ४८० ५. घेरण्डसंहिता, २।३-६ ६. (क) Tibetan Yoga and Secret Doctrines, p. 184-85 (ख) बौद्धदर्शन, पृ० २३ ७. जायते येन येनेह विहितेन स्थिरं मनः । तत्तदेव विधातव्यमासनं ध्यान साधनम् ॥ -योगशास्त्र, ४।१३४ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन तक ध्यान अथवा तप सहजतया करना संभव है, उन-उन आसनों का विस्तृत निर्देश भी है। आचार्य हेमचन्द्र ने पर्यकासन, वीरासन, वज्रासन, भद्रासन, दण्डासन, उत्कटिकासन, गौदोहिकासन तथा कार्योत्सर्गासन का उल्लेख किया १. (१) पर्यकासन-दोनों जंघाओं के निचले भाग को पैरों के ऊपर रखने पर तथा दाहिना और बायां हाथ नाभि के पास ऊपर दक्षिण-उत्तर में रखना 'पयंकासन' है। (२) वीरासन-बायां पैर दाहिनी जांघ पर और दाहिना पैर बायीं जांघ पर रखना वीरासन है। इसकी दूसरी विधि इस तरह है-एक पैर को पृथ्वी पर रखना और दूसरा पैर घुटने को मोड़कर उसके ऊपर रखते हुए स्थित रहना। (३) वज्रासन-वीरासन के पश्चात् वज्र की आकृति की तरह दोनों हाथों को पीछे रखकर क्रमशः बायें, दाहिने पैर के अंगूठे पकड़ने पर जो आकृति बनती है वह वज्रासन है। (४) पद्मासन-एक जांघ के साथ दूसरी जांघ को मध्य भाग में मिलाकर रखना पद्मासन है। अर्थात् वज्रासन की विधि में स्थित होकर हृदय के चार अंगुल के बीच में दाढ़ी के अग्रभाग को रखना और नासिका के अग्रभाग का निरीक्षण करते हुए स्थित रहना पद्मासन है। (५) भद्रासन-दोनों पैरों के तलभाग वृषण-प्रदेश में-अण्डकोषों की जगह एकत्र करके, उनके ऊपर दोनों हाथों की अंगुलियां एक दूसरी अंगुली में डालकर रखना भद्रासन है । (६) दण्डासन-जमीन पर बैठकर इस प्रकार पैर फैलाना कि अंगुलियां, गुल्फ और जांघे जमीन के साथ लगी रहें । इसे दण्डासन कहा गया है । (७) उत्कटिक और गौदोहासन-जमीन से लगी हुई एड़ियों के साथ जब दोनों नितम्ब मिलते हैं, तब उत्कटिक आसन होता है और जब एड़ियां जमीन से लगी हुई नहीं होतीं, तब वह गौदोहासन कहलाता है। (८) कायोत्सर्गासन-दोनों भुजाओं को नीचे लटकाकर स्थित होना अथवा बैठकर या शारीरिक कमजोरी की अवस्था में लेटकर सभी प्रकार का व्यामोह छोड़कर स्थिर होना कायोत्सर्गासन है। इसकी विशेषता यह है कि इस आसन में किसी प्रकार की कायिक या मानसिक क्रिया नहीं होती । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार १४५ है।' साथ ही आम्रकुब्जासन, क्रौंचासन, हंसासन, अश्वासन, गजासन, आदि आसनों का भी उल्लेख है, परन्तु दण्डासन का नामोल्लेख तक नहीं है । ज्ञानार्णव' तथा उपासकाध्ययन में वर्णित सुखासन का जो सामान्य रूप है वह योगशास्त्र तथा अमितगतिश्रावकाचार' में वर्णित पर्यंकासन से मिलता-जुलता है। सुखासन गृहस्थ तथा साधु दोनों के लिए है। प्रथमतः पद्मासन लगाकर बैठना, तत्पश्चात् बायीं हथेली के ऊपर दायीं हथेली रखना । ऐसी अवस्था में दृष्टि सम हो, शरीर तना हुआ तथा सरल हो। खड्गासन में दोनों पैरों के बीच चार अंगुल का अन्तर होना चाहिए। सिर, गर्दन स्थिर हो, एड़ी, घुटने, भ्रकुटि, हाथ और आँखें समान रूप से निश्चल हों। साधक न तो खाँसे तथा न खुजली खुजाये। यहां तक कि उसे ओंठ का चलाना, शरीर का कंपाना, बोलना, मुस्कराना, दूर तक देखना, कटाक्ष करना, पलक का हिलाना वर्जित है। साधक अपनी दृष्टि नासाग्रभाग पर स्थिर रखे। यह भी उल्लिखित है कि यह ध्यान-विधि हृदय में चंचलता, तिरस्कार, मोह और दुर्भावना के न होने पर तथा तत्त्वज्ञान के होने पर ही सुलभ होती है। प्राणायाम योगसाधना में प्राणायाम नितान्त आवश्यक है और इसके लिए आसन का सिद्ध होना भी अपेक्षित है, क्योंकि प्राण का नियन्त्रण मन के नियंत्रण के लिए तथा मन का नियन्त्रण आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक है। आसन-सिद्धि के बाद मन की चंचलता दूर हो जाती है और श्वास-प्रश्वास की स्वाभाविक गति का नियंत्रण कर मन की १. (क) पयंक-वीर-वज्राब्ज-भद्र-दण्डासनानि च । उत्कटिका-गोदोहिका कायोत्सर्गस्तथासनम् ॥ -योगशास्त्र, ४/१२४ (ख) स्थानांग, ३९६-४९०; वृहत्कल्पसूत्र, पृ० १५७० २. योगशास्त्र, स्वोपज्ञटीका, ४/१२४ ३. ज्ञानार्णव, २६।११ ४. उपासकाध्ययन, ३९१७३३-३७ ५. अमितगतिश्रावकाचार, ८१४६ १० Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन वृत्तियों को पूर्णतः केन्द्रित करने में साधक सफल होता है । श्वास-प्रश्वास को स्वाभाविक गति के अभाव को ही प्राणायाम कहते हैं और इसकी गति के व्युच्छेद के साथ-साथ चित्त की गति का भी व्युच्छेद होना यथार्थ प्राणायाम है।' ऐतरेयोपनिषद् में प्राण ( श्वास ) एवं अपान ( प्रश्वास ) का वर्णन मिलता है। उपनिषदों में तो इस शब्द के विभिन्न संदर्भो पर प्रकाश डाला गया है। गीता के अनुसार प्राण का नियंत्रण ही प्राणायाम है । अर्थात् प्राण. वायु को अपान में अथवा अपानवायु को प्राणवायु में ले जाना और इन दोनों की गति को अवरुद्ध करना ही प्राणायाम है। इन्हीं शब्दों का प्रकारान्तर से समर्थन करता हुआ पातंजल योग-दर्शन भी 'आसन स्थिर होने पर श्वास-प्रश्वास की गति रोकने' को प्राणायाम कहता है। इसके चार भेद भी निर्देशित हैं-(१) बाह्यवृत्तिक, (२) आभ्यंतरवृत्तिक, (३) स्तम्भवृत्तिक, तथा (४) बाह्यांतर विषयाक्षेपि । बताया गया है कि इन्हीं से चित्त-संस्कारों को स्थिर बनाकर अविद्या आदि क्लेशों को नष्ट करके विवेकख्याति की प्राप्ति होती है। शिवसंहिता में श्वासोच्छ्वास की मात्रा पर आधृत प्राणायाम के पूरक, कुम्भक और रेचक इन तीन प्रकारों का वर्णन प्राप्त होता है । १. योगमनोविज्ञान, पृ० १९१ २. ऐतरेयोपनिषद्, ३ ३. अमृतनादोपनिषद्, ६.१४; त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्, ९४-१२९; योगकुण्डल्युपनिषद्, १९-३९; योगचूड़ामणि, ९५-१२१, योगशिखोपनिषद्, ८६-१०० आदि। ४. अपाने जुह्वति प्राण प्राणेऽपानं तथापरे । प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥ -भगवद्गीता, ४।२९ ५. तस्मिन्सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः । -योगदर्शन, २०४९ ६. वही, २१५०-५१ ७. ततः क्षीयते प्रकाशाऽऽवरणम् । --वही, २१५२ ८. शिवसंहिता, ३।२२-२३ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ योग के साधन : आचार घेरण्डसंहिता' में कुम्भक प्राणायाम के आठ भेद उल्लिखित हैं; यथा-(१) सहित, (२) सूर्यभेदी, (३) उज्जायी, (४) शीतली, (५) भस्त्रिका, (६) भ्रामरी, (७) मूर्छा तथा (८) केवली। 'सिद्धसिद्धान्त पद्धति' के अनुसार प्राण की स्थिरता प्राणायाम है और इसके रेचक, पूरक, कुम्भक और संघट्टीकरण ये चार प्रकार हैं ।२ इनसे पाप एवं दुःख का नाश होता है, तेज एवं सौंदर्य बढ़ता है, दिव्यदृष्टि, श्रवणशक्ति, कामाचारशक्ति, वाशक्ति आदि शक्तियां प्राप्त होती हैं। इस प्रकार प्राणायाम से अनेक सिद्धियों की प्राप्ति होती है।। बौद्ध-दर्शन में प्राणायाम को आनापानस्मृति कर्मस्थान कहा गया है। आन का अर्थ है सांस लेना और अपान का अर्थ है सांस छोड़ना । इन्हें आश्वास-प्रश्वास भी कहते हैं ।" कर्मस्थान ४० हैं और इन्हीं कर्मस्थानों की भावना कर सभी बुद्ध, प्रत्येकबुद्ध तथा बुद्ध श्रावकों ने विशेष फल प्राप्त किया था। ___ जैन-परम्परा में प्राणायाम के संबंध में दो मत मिलते हैं। एक मत के अनुसार, प्राण का निरोध करने से शरीर में व्याकुलता उत्पन्न होती है और मन भी विचलित हो जाता है, जिससे मन स्वस्थ तथा स्थिर नहीं रह पाता। पूरक, कुम्भक और रेचक (प्राणायाम ) करने में परिश्रम करना पड़ता है, जिससे मन में संक्लेश पैदा होता है। दूसरे मत के १. सहितः सूर्यभेदश्व उज्जायी शीतली तथा। __ भस्त्रिका नामरी मूळ केवली चाष्ठ कुम्भकः ।। -घेरण्डसंहिता, ५।४६ २. सिद्धसिद्धान्तपद्धति, २०३५ ३. शिवसंहिता, ३।२९, ३०, ५४ ४. Tibetan Yoga and Secret Doctrines. pp. 187-89 ५. बौद्धधर्मदर्शन, पृ० ८१ ६. मज्झिमनिकाय, २।२।२; ३१२१८ ७. विसुद्धिमग्गो, पृ० २६९ ८. तन्नाप्नोति मनःस्वास्थ्यं प्राणायामः कथितम् । प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्याच्चित्त-विप्लवः ।। पूरणे कुम्भने चैव रेचने च परिश्रमः । चित्त-संक्लेश-करणान्मुक्तेः प्रत्यूह-कारणम् ॥-योगशास्त्र, ६।४-५ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जैन योग का मालोचनात्मक अध्ययन अनुसार, प्राणायाम की प्रक्रिया से शरीर को कुछ देर के लिए साधा जा सकता है, रोग का निवारण किया जा सकता है, परन्तु साध्य को सिद्ध नहीं किया जा सकता।' इन मतों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्राणायाम किसी न किसी प्रकार साधना के एक साधन के रूप में अपेक्षित है। वायु का नाम है प्राण तथा इस प्राण को फैलाने अथवा विस्तार करने को आयाम कहते हैं। इस तरह दोनों प्रकार के श्वासों को बाहर निकालने अथवा भीतर लेने की क्रिया को ही प्राणायाम कहा गया है। अर्थात् मुख तथा नासिका से संचरित होनेवाले वायु को प्राण कहते हैं तथा इसका निरोध करना ही प्राणायाम है। इसके तीन प्रकार हैं-(१) पूरक, (२) रेचक और (३) कुम्भक ।२ चार प्रकार के प्राणायाम का भी उल्लेख मिलता है-(१) प्रत्याहार, (२) शान्त, (३) उत्तर एवं (४) अधर । बाहर के वायु को शरीर के भीतर लेकर उसे अपान ( गुदा ) तक भर लेना पूरक है। नाभि से अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक वायु को बाहर निकालना अर्थात् भीतर की वायु को बाहर फेंकना ही रेचक है। पूरक से उपलब्ध वायु को नाभिस्थल में रोकना तथा स्थिर करना कुम्भक है।" १. योगशास्त्र : एक परिशीलन, पृ० ४१ २. (क) त्रिधा लक्षणभेदेन संस्मृतः पूर्वसूरिभिः ।। पूरकः कुम्भकश्चैव रेचकस्तदनन्तरम् ।। -ज्ञानार्णव, २६।४३ (ख) रेचकः स्याद्बहिर्वृत्तिरन्तर्वृत्तिश्चपूरकः । कुम्भकः स्तंभवृत्तिश्च प्राणायामस्त्रिघेत्थयम् ॥ -द्वात्रिंशिका, २२।१७ ३. प्रत्याहारस्तथा शान्त उत्तरश्चाधरस्तथा । एभिर्भेदश्चतुभिस्तु सप्तधा कीर्त्यते परैः ॥ -योगशास्त्र, ५.५ ४. समाकृष्य यदा प्राणधारणं स तु पूरकः । नाभिमध्ये स्थिरीकृत्य रोधनं स तु कुम्भकः ॥ यत्कोष्ठादतियत्नेम नासाब्रह्मपुरातनैः । वहिः प्रक्षेपणं वायोः स रेचक इति स्मृतः ॥ -ज्ञानार्णव में उद्धृत, २६:४९ (१-२) Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार १४९ इस प्रकार वायु को बाहर निकालना, भीतर ग्रहण करना अथवा वायु पर नियन्त्रण रखना आदि क्रियाएँ मन की चञ्चलता को रोकती हैं, क्योंकि मन तथा वायु का घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसीलिए योग में पहले वायु को नियन्त्रित करने का विधान है। योगशास्त्र में वायु के पांच प्रकार वर्णित हैं-(१) प्राण, (२) अपान, (३) समान, (४) उदान तथा (५) व्यान ।' नासिका द्वारा श्वास-प्रश्वास के रूप में संचरित होनेवाला वायु प्राण है। प्राणवायु का स्थान नासिका के अग्रभाग, हृदय, नाभि और पैर के अंगठे तक का है और यह हरे वर्ण का है। शरीर के मलमूत्रादि को बाहर फेंकने में सहयोग देनेवाले अथवा गुदा एवं लिंग से बाहर निकलनेवाले वायु को अपान कहते हैं। इसका स्थान गर्दन के पीछे की नाड़ी, पीठ, गुदा और एड़ी है तथा इसका वर्ण काला है । समानवायु भोजनरस को शरीर के विभिन्न विभागों में पहँचाता है। इसका स्थान हृदय, नाभि तथा शरीर के सभी सन्धिस्थल हैं तथा इसका वर्ण श्वेत है। उसी रस को शरीर के ऊपरी भागों में ले जानेवाले वायु को उदान कहते हैं। इसका स्थान हृदय, कण्ठ, तालु, भृकुटि का मध्य भाग तथा मस्तक है और इसका वर्ण लाल है। सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त वायु को व्यान कहते हैं। इसका स्थान सम्पूर्ण त्वचा बताया गया है और इसका वर्ण इन्द्रधनुषी है। यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि इन वायुओं को रेचक, पूरक एवं कुम्भक प्राणायाम द्वारा जीतना अथवा नियन्त्रित करना चाहिए। नाभि में से वायु को खींचकर हृदय में ले जाना तथा हृदय में से वायु को नाभि में स्थिर करना प्रत्याहार प्राणायाम है अर्थात् एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाना ही प्रत्याहार प्राणायाम है। नासिका एवं मुख द्वारा वायु को नियन्त्रित करना शान्त नामक प्राणायाम है। वाय को बाहर से शरीर के भीतर ले जाकर हृदय में स्थापित करना उत्तर । १. प्राणमपानसमानावुदानं व्यानमेव च । प्राणायामैर्जयेत् स्थान-वर्ण-क्रियार्थ-बीजवत् । -योगशास्त्र, ५।१३; ५/१४-२. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन प्राणायाम है तथा वायु को हृदय से नीचे की ओर (नाभि में ) ले जाना अधर प्राणायाम है। __ ज्ञानार्णव में एक और 'परमेश्वर' नामक प्राणायाम का भी उल्लेख मिलता है अर्थात् जो वायु नाभिस्कन्ध से निकलकर हृदय में आता है और वहाँ से चलकर ब्रह्मरन्ध्र अथवा तालुरन्ध्र में स्थित हो जाता है, उसे परमेश्वर प्राणायाम कहते हैं। ____ इस सन्दर्भ में वायु के अन्य चार प्रकार वर्णित हैं, जो कि नासिका विवर के क्रमशः चार मण्डलों से सम्बन्ध रखते हैं। जैसे-(१) पुरन्दरयह वायु पीला, उष्ण तथा स्वच्छ है और आठ अंगुल नासिका से बाहर तक रहता है। इस वायु का सम्बन्ध पार्थिव मण्डल से है जो पृथ्वी के बीज से परिपूर्ण तथा वनचिह्न से युक्त है। (२) वरुण-यह श्वेत तथा शीतल है और नीचे की ओर बारह अंगुल तक शीघ्रता से बहता है। यह वारुण-मण्डल के अन्तर्गत अक्षर 'व' के चिह्न से युक्त, अष्टमी के चन्द्रमा के आकार का होता है । (३) पवन-वह वायु काला तथा उष्णशीत होता है और छह अंगुल प्रमाण बहता रहता है । यह बायव्य-मण्डल के अन्तर्गत गोलाकार, मध्यबिन्दु के चिह्न से व्याप्त, पवनबीज 'य' अक्षर से घिरा हुआ, चञ्चल होता है। तथा (४) दहन--यह वायु लाल तथा उष्णस्पर्श और बवण्डर की तरह चार अंगुल ऊँचा बहनेवाला है। यह आग्नेय-मण्डल के अन्तर्गत त्रिकोण, स्वस्तिक-चिह्न से युक्त तथा अग्निबीज रेफ '' चिह्न से युक्त होता है। उक्त चारों प्रकार के वायु बायीं तथा दाहिनी नाड़ी से होकर शरीर में प्रवेश करते हैं। इस प्रकार इनका प्रवेश शुभ फलदायक समझा १. स्थानात्स्थानान्तरोत्कर्षः प्रत्याहारः प्रकीर्तितः । तालुनासाननद्वारैनिरोधः शान्त उच्यते ॥ आपीयोध्वं यदुत्कृष्य हृदयादिषु धारणम् । उत्तरः स समाख्यातोऽविपरीतस्ततोऽधरः ।।-योगशास्त्र, ५।८-९ २. नाभिकन्दाद्विनिष्क्रान्तं हृत्पद्मोदरमध्यगम् । द्वादशान्ते तु विश्रान्तं तं ज्ञेयं परमेश्वरम् ॥-ज्ञानार्णव, २६।४७ ३. योगशास्त्र, ५।४८-५१ ४. वही, ५।४२ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार १५१ । जाता है और जब उक्त वायु दोनों नाड़ियों से निकल रहे होते हैं तो अशुभ फलदायक ।' बायीं तरफ की नाड़ी को इडा या चन्द्र कहते हैं और दाहिनी तरफ की नाड़ी को पिंगला या सूर्य कहते हैं तथा इन दोनों के बीच की नाड़ी सुषुप्ना है जिसे मोक्षस्थान भी कहते हैं । ___ अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि योगसाधना के लिए प्राणायाम अपेक्षित है, क्योंकि जहाँ इससे शरीर तथा मन का शुद्धीकरण होता है, वहाँ इसकी सिद्धि से जन्म एवं मृत्यु-काल अथवा शुभाशुभ का ज्ञान होता है। फिर भी विभिन्न प्राणायामों की सिद्धि में मानसिक अवरोध उत्पन्न होने से जैन-योग इसे विशेष महत्त्व नहीं देता, यद्यपि प्राणायाम के विषय में कई प्रकार के विवेचन, विश्लेषण जैन-योग ग्रंथों में उपलब्ध हैं। प्रत्याहार वैदिक-परम्परा में योग-साधना की सिद्धि के लिए प्राणायाम के बाद प्रत्याहार का भी बड़ा महत्त्व है, क्योंकि प्रत्याहार के सिद्ध होने पर चित्त निरुद्ध हो जाता है और चित्त की निरुद्धता से इन्द्रियाँ निरुद्ध हो जाती हैं। प्रत्याहार की सिद्धि से इन्द्रियाँ पूर्णतः वश में हो जाती हैं और इसके अभ्यासी के समस्त सांसारिक रोग तथा पाप पूर्णतया नष्ट हो जाते हैं । उपनिषदों में पाँच प्रकार के प्रत्याहारों का वर्णन है; यथा-(१) ज्ञानेन्द्रियों को विषयों की ओर जाने से शक्तिपूर्वक १. शशांक-रवि-मार्गेण वायवामण्डलेष्वमी। . विशन्तः शुभदाः सर्वे निष्क्रामन्तोऽन्यथा स्मृताः ॥ -योगशास्त्र, ५५७ २. इडा न पिंगलाचैव सुषुम्णा चेति नाडिकाः । शशि-सूर्य-शिव-स्थानं वाम-दक्षिण-मध्यगाः ॥ -वही, ५।६१ ३. प्राणायाम प्रत्याहारः। -मैत्रेयी उपनिषद्, ६।१८ ४. दर्शनोपनिषद्, ७९-१० ५. स पंचविधः विषयेषु विचरतामिन्द्रियाणां बलादाहरणं प्रत्याहारः यद्यत् पश्यति तत्सर्वमात्मेति । नित्यविहितकर्मफलत्यागः प्रत्याहारः । सर्वविषयपराङ्मुखत्वं प्रत्याहारः। अष्टादशसु मर्मस्थानेषु क्रमाद्वारणं प्रत्याहारः । -शाण्डिल्योपनिषद्, १८ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन रोकना, (२) मन के पूर्ण नियंत्रण के साथ समस्त दृश्य-जगत् को आत्मरूप समझना अथवा ब्रह्म के रूप में देखना, (३) समस्त दैनिक कर्मों के फलों का त्याग, (४) समस्त इन्द्रिय-सुखों से निवृत्ति तथा (५) अठारह मर्मस्थानों पर प्राणवायु का एक निश्चित क्रम से स्थापन करते चलना। पतंजलि ने प्रत्याहार की परिभाषा में कहा है कि इन्द्रियों का अपने विषय से संबंध छूट जाने पर चित्त के स्वरूप में विलीन हो जाना ही प्रत्याहार है, जिससे इंद्रियां पूर्णतः वश में हो जाती हैं ।' सिद्धसिद्धान्तपद्धति के अनुसार चित्त में उत्पन्न नाना विकारों से निवृत्ति होना प्रत्याहार है। बौद्ध-दर्शन के अनुसार प्रत्याहार से बिम्बदर्शन होने पर ध्यान का प्रारम्भ होता है, क्योंकि दसों इंद्रियों का अन्तर्मुख होकर अपने स्वरूप मात्र में अनुवर्तन प्रत्याहार है और इस अनुवर्तन के समय इंद्रियों की विषयभावापत्ति अथवा विषयग्रहण नहीं होता। प्रत्याहार से वैराग्य, त्रिकालदर्शन, धूमादि दस निमित्तों के दर्शन की सिद्धि होती है। जैन-परम्परा के अनुसार बाह्य तथा आभ्यंतर विषयों से इन्द्रियों को हटाना प्रत्याहार है। दूसरे शब्दों में शांतयोगी इंद्रियों तथा मन को इंद्रिय-विषयों से निवृत्त करके इच्छानुसार जहाँ जहाँ धारण करता है, उसे प्रत्याहार कहते हैं। अतः सम्पूर्ण रागद्वेष से मन को हटाकर अपने को आत्मा में केन्द्रित कर लेना प्रत्याहार है। इस प्रकार तीनों परंपराओं में प्रत्याहार के द्वारा ध्यान को केन्द्रित तथा रागद्वेष आदि प्रवृत्तियों को नियंत्रित किया जाता है। १. स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्यस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः । __ ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम् । -योगदर्शन, २०५४-५५ २. सिद्धसिद्धान्तपद्धति, २०३६ ३. बौद्धधर्मदर्शन ( भूमिका ), पृ. ३८ । ४. इंद्रियैः सममाकृष्य विषयेभ्यः प्रशान्तधीः । -योगशास्त्र, ६६६ ५. समाकृष्येन्द्रियार्थेम्यः साक्षं चेतः प्रशान्तधीः । यत्र यत्रेच्छया धत्ते स प्रत्याहार उच्यते ॥-ज्ञानार्णव, २७।१ ६. विषयासंप्रयोगेऽन्तः स्वरूपानुकृतिः किल । प्रत्याहारो हृषीकाणामेतदायतताफलः ॥ --द्वात्रिंशिका, २४२ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : आचार १५६ धारणा धारणा योगसमाधि का एक प्रमुख तत्त्व है, जिसके द्वारा साधक मनोविकारों को सर्वथा त्यागकर किसी एक दिशा की ओर उन्मुख होने में सफल होता है; क्योंकि बाह्य विकर्षणों से निवृत होने के लिए आसन और प्राणायाम आवश्यक है और आंतरिक विकर्षणों से निवृत्त होने के लिए प्रत्याहार एवं धारणा जरूरी है। प्रत्याहार के सिद्ध होने पर साधक का बाह्य जगत् से संबंध छूट जाता है जिससे उसे बाह्यजगत्-जन्य कोई बाधा नहीं होती। इसलिए वह किसी बाह्य बाधा के बिना चित्त-निरोध का अभ्यास करने के योग्य हो जाता।' प्रत्याहार के अभ्यास के बाद धारणा का अभ्यास भली-भांति करना सम्भव होता है। यही कारण है कि धारणा में बाह्य विषयों से इंद्रियों को हटाकर अन्तर्मुख किया जाता है तथा मन को किसी एक जगह स्थिर एवं शान्त किया जाता है। योग-दर्शन में धारणा की परिभाषा में कहा गया है कि चित्त को समस्त विषयों से हटाकर किसी विशेष दिशा में परमात्मा में बद्ध करना धारणा है । इस परिभाषा का समर्थन उपनिषदों ने किया है । अमृतोपनिषद् के अनुसार संकल्पपूर्ण मन को आत्मा में लीन करके परमात्मचितन में लगाना धारणा है। योगतत्त्वोपनिषद् के अनुसार पंच ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा योगी जो कुछ देखता, सुनता, सूघता, चखता तथा स्पर्श करता है, उन सबमें आत्मविचार करना धारणा है ।" शिवसंहिता से भी इन बातों की पुष्टि होती है । बौद्धधर्म में धारणा को योग का चतुर्थ अंग माना गया है और कहा १. योगमनोविज्ञान, पृ० २१४ २. देशबन्धश्चित्तस्य धारणा । -योग-दर्शन, ३३१ . ३. त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्, १३३-३४; शाण्डिल्योपनिषद्, ७।४३-४४ ४. मनः संकल्पकं ध्यात्वा संक्षिप्यात्मनि बुद्धिमान् ।। धारयित्वातथात्मानं धारणा परिकीर्तिता ॥-अमृतोपनिषद्, १६ ५. योगतत्त्वोपनिषद्, ६८-७१ ६. शिवसंहिता, ५।४३-१५७ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन है कि अपने इष्ट, मंत्र, प्राण का हृदय में ध्यान करते हुए उसे ललाट में निबद्ध करना चाहिए ( मन का प्राणभूत होने के कारण प्राण ही मंत्र पद का वाच्य है। ऐसी स्थिति में प्राण का संचरण अर्थात् श्वास-प्रश्वास नहीं रहता। धारणा का फल वज्रसत्व में समाविष्ट है, अतः इसके प्रभाव से स्थिरीभूतं महारत्न अर्थात् प्राणवायु नाभिचक्र से चांडाली ( कुण्डलिनी ) शक्ति को उठाता है तथा इसकी सिद्धि होने पर चांडाली (कुण्डलिनी) शक्ति स्वभावतः उज्ज्वल हो जाती है।' जैन-योग के अनुसार भी योग-साधना के लिए धारणा की भूमिका आवश्यक है। ज्ञानार्णव के अनुसार इंद्रियों के विषयों को रोककर और रागद्वेष को दूर कर एवं समताभाव का अवलम्बन कर मन को ललाटदेश में संलीन करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से समाधि की सिद्धि होती है। योगशास्त्र के अनुसार चित्त को स्थिर करना ही धारणा है और नाभि, हृदय नासिका का अग्रभाग, कपाल, भृकुटि, तालु, नेत्र, मुख, कान और मस्तक ये धारणा के स्थान हैं अर्थात् इन स्थानों में से किसी भी एक स्थान पर चित्त को स्थिर करना धारणा के लिए आवश्यक है। निष्कर्ष यह है कि चित्त को किसी एक ध्येय पर एकाग्र करना ही धारणा है। और योग-साधना की दृष्टि से यह आवश्यक तत्त्व है, क्योंकि बिना इसके समाधि की पूर्णता प्राप्त नहीं हो सकती। १. बौद्धधर्मदर्शन (भूमिका), पृ० ३८-३९ २. निरुद्धध करणग्रामं समत्वमवलम्ब्य च । ललाटदेशसंलीनं विदध्यानिश्चलं मनः ।।-शानार्णव, २७।१२ ३. नाभी-हृदय-नासाग्र-भाल-भ्रू-तालु-दृष्टयः। मुखं कर्णी शिरश्चेति ध्यानस्थानान्यकीर्तयन् ॥-योगशास्त्र, ६७ ४. चित्तस्यधारणादेशे प्रत्ययस्यैकतानता । द्वात्रिंशिका, २४।१८ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : ध्यान योग में ध्यान का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है । मन अथवा चित्त कभी स्थिर नहीं रहता और किसी भी ध्येय वस्तु पर अधिक समय तक ध्यान ठहरता भी नहीं । अतः सर्वप्रथम चित्त की विकलता दूर कर उसे स्थिर करने का निर्देश किया गया है । इसके लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम और तप आदि क्रियाओं का विधान है, ताकि साधक इनके सम्यकू पालन से मन की चंचलता, विकलता हटाकर तथा उसे अन्तर्मुख कर अपने ध्यान को आत्मा पर केंद्रित करे । ध्यान की पराकाष्ठा समाधि मानी गयी है । ध्यान की इसी महत्ता और महनीयता की दृष्टि से वैदिक, बौद्ध एवं जैन योगों में ध्यान का महत्त्वपूर्ण स्थान है । वैदिक-योग में ध्यान अनेक उपनिषदों में ध्यान एवं समाधि का सूक्ष्म वर्णन प्राप्त होता है । " ब्रह्मबिंदूपनिषद् में कहा गया है कि हृदय में मन का तब तक निरोध करना चाहिए जब तक कि उसका क्षय न हो जाय । समाधि की ऐसी अवस्था में व्यक्ति परमात्मा को पाकर अपने को उसके जैसा समझने लगता है । अर्थात् ऐसी अवस्था में ज्ञाता, ज्ञान एवं ज्ञेय की त्रिपुटी नहीं रहती । जव साधक ध्यान में स्थूल का आलम्बन लेकर सूक्ष्म की ओर अग्रसर होता है, तब एक ऐसी स्थिति आती है, जहाँ उसे किसी भी वस्तु के आलम्बन की अपेक्षा नहीं रह जाती । समाधि की यही अवस्था सांख्यदर्शनानुसार 'ध्यानं निर्विषयं मनः ५ मन का निर्विषय: १. दर्शनोपनिषद्, ९1१- ६; ध्यानबिन्दूपनिषद्, १४- ३७; योगकुण्डल्यूपनिषद्, ३।१५ - ३२; शाण्डिल्योपनिषद्, १।६।३-४ २. तावदेवं निरोद्धव्यं यावद्धदि- गतं क्षयम् । ब्रह्मबिन्दूपनिषद्, ५ ३. अमृतनादोपनिषद्, १६ ४. शाण्डिल्योपनिषद्, ११ ५. सांख्यसूत्रम्, ६।२५ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “१५६ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन होना ही ध्यान है। योगदर्शनानुसार' आत्म-चिंतन करते-करते ईश्वर के एक ही प्रत्यय में तल्लीन हो जाना ही ध्यान है । इस ध्यान में केवल आत्मतत्त्व अनुभव में आना ही समाधि है । हठयोगसंहिता में बताया है कि प्राणायाम के द्वारा समाधि की सिद्धि अर्थात् वायु के निरोध के द्वारा मन का निरोध होता है। ध्यान अथवा समाधि के विविध प्रकारों का वर्णन विभिन्न बैदिक ग्रंथों में मिलता है। घेरण्डसंहिता के अनुसार स्थूल, ज्योति और सूक्ष्म ये ध्यान के तीन प्रकार वर्णित हैं। पतञ्जलि के अनुसार समाधि के दो भेद हैं"-(१) सम्प्रज्ञात एवं (२) असम्प्रज्ञात ।' सम्प्रज्ञात समाधि में समस्त चित्तवृतियों का निरोध नहीं होता है और असम्प्रज्ञात समाधि में चित्तवृतियों का निरोध हो जाता है । ध्यातव्य है कि असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति के लिए सम्प्रज्ञात समाधि का निरन्तर अभ्यास करना होता है । अतः असम्प्रज्ञात समाधि का कारण सम्प्रज्ञात समाधि है । सम्प्रज्ञात समाधि चार प्रकार की है:-(१) वितर्कानुगत, (२) विचारानुगत, (३) आनन्दानुगत एवं (४) अस्मितानुगत । प्रथम प्रकार में वितर्क, विचार, आनन्द एवं अस्मिता की उपस्थिति के कारण उसे सवितर्क भी कहा जाता है। चित्त को स्थिर करने के लिए इस समाधि में स्थूल वस्तु का आलम्बन लिया जाता है। द्वितीय प्रकार में वितर्करहित शेष तीनों विचार होने के कारण उसे सविचार समाधि भी कहा जाता है। इसमें भी साधक स्थूल का आलम्बन लेता है। तृतीय प्रकार की समाधि आनंद और अस्मिता की समाधि है। चतुर्थ प्रकार में केवल अस्मिता होने के कारण उसे सास्मिता समाधि कहा गया है। इस तरह चारों प्रकारों में चित्त स्थिर करने के लिए साधक को वस्तु का आलम्बन लेना ही पड़ता १. तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम् । -योगदर्शन, ३१ २. तदेवार्थनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः । -वही, ३।२ । ३. हठयोगसंहिता, १०९ ४. घेरण्डसंहिता, ६।१-२० ५. योगदर्शन, व्यासभाष्य, १।१ ६. वही, ११४१ ७. वितर्कविचारानन्दाऽस्मितारूपानुगमात्सम्प्रज्ञातः ।-योगदर्शन, १।१७ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ योग के साधन : ध्यान है, जिसमें चित्त-संस्कार सम्पूर्णतः नष्ट नहीं होते। इस दृष्टि से इनको सबीजसमाधि भी कहते हैं। बताया गया है कि इन चारों का अभ्यास करते-करते चित्तवृत्तियों के सिर्फ संस्कार ही शेष रहते हैं और अभ्यासपूर्वक वैराग्य से उन शेष संस्कारों का भी अभाव हो जाता है। ऐसी स्थिति में उसे निर्बीज समाधि कहा जाता है। ___ इन चारों सम्प्रज्ञात समाधियों को पार करके साधक अथवा योगी विवेकख्याति प्राप्त करता है। विवेकख्याति से उसके समस्त क्लेश तथा कर्म नष्ट होते हैं और चित्त में निरन्तर विवेकख्याति का प्रवाह बहने लगता है। इसी परिपक्व स्थिति को धर्ममेघ समाधि कहा है। बताया गया है कि इससे ऋतम्भरा प्रज्ञाएँ उत्पन्न होती हैं और उनके द्वारा योगी असम्प्रज्ञात समाधि को प्राप्त कर केवल्य प्राप्त करता हैं। बौद्ध-योग में ध्यान वैदिक-परम्परा की ही भाँति बौद्ध-योग में भी चित्त कुशलों को स्थिर करने के लिए ध्यान की महत्ता स्वीकार की गयी है । बौद्ध दर्शनानुसार चित्त के कारण ही साधक को संसार-भ्रमण करना पड़ता है। जिसमें ध्यान के साथ प्रज्ञा है, वही निर्वाण के समीप है।५ अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति ही ध्यान का उद्देश्य है।' हीनयान के अनुसार निर्वाण की प्राप्ति ही जीवन का चरम लक्ष्य है और अर्हत्पद की प्राप्ति करना प्रधान उद्देश्य । इस प्रकार अर्हत्पद की प्राप्ति के लिए चार आयतनों का विधान है, जो निर्वाण-प्राप्ति के साधन हैं। वे आयतन इस प्रकार हैं-(१) आकाशान १. ता एव सबीजः समाधिः । -वही, १।४६ २. विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः। -वही, ११८ ३. तदभ्यासपूर्वकंहि चित्तं निरालम्बनमभावप्राप्तमिव भवतीत्येष निर्बीजः समाधिसम्प्रज्ञातः । -योगदर्शन, व्यासभाष्य, ११५१ स ४. योगसूत्र, ४।२९-३४ ५. यम्हि शानं च पञ्चा च स वे निब्बानसन्तिके । -धम्मपद, २५।१३ ।। ६. ते झायिनो साततिका निच्चं दळह-परक्कमा । फुसन्ति धीरा निन्बानं योगक्खेमं अनुत्तरं ।। -धम्मपद, २॥३ ७. अभिधर्मकोश, पृ० ५० Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन -न्त्यायतन, (२) विज्ञानानन्त्यायतन, (३) अकिंचनायतन एवं ( ४ ) नैवसंज्ञानासंज्ञायतन । साधक जब इन आयतनों को पार करता हुआ अन्तिम अवस्था के पार पहुँचता है, तब उसे निर्वाण की प्राप्ति होती है । इस अन्तिम अवस्था को 'भवाग्र' कहा गया है ।" महायान के अनुसार बुद्धत्व की प्राप्ति करना चरम उद्देश्य है और कहा गया है कि जब तक प्रज्ञापारमिताओं का उदय नहीं होता, तब तक बुद्धत्व की प्राप्ति नहीं होती । प्रज्ञापारमिताओं के उदय के लिए समाधि आवश्यक है " तथा समाधि के चार प्रकार भी वर्णित हैं, जो योगी को क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाते हैं । समाधि के चार प्रकार ये हैं १. वितर्कविचार प्रीतिसुख एकाग्रसहित - यह विषयभोगों और अकुशल प्रवृत्तियों से अलग होकर वित्तकें एवं विचार से उत्पन्न प्रीति और सुख संवाहक ध्यान है । इसमें चित्त हमेशा चंचल रहता है । २. प्रीतिसुख एकाग्रसहित - इस ध्यान में वित्तर्क-विचार न रहने के कारण चित्त शांत रहता है और प्रीति, सुख, एकाग्र इन तीन अंगों के शेष होने के कारण यह ध्यान आन्तरिक चित्त की एकाग्रता सहित प्रीति सुखवाला होता है । ३. सुख एकाग्रसहित - इस ध्यान में प्रीति और विराग के प्रति उपेक्षाभाव रखकर योगी स्मृति और सम्प्रजन्य युक्त होकर सुख का अनुभव करता है, जिसे उपेक्षा, स्मृति, मान, सुखविहारी कहते हैं । ४. एकाग्रतासहित - इस ध्यान में सुखदुःख का प्रश्न ही नहीं उठता, सभी वृत्तियाँ शांत होती हैं, क्योंकि सोमनस्य ओर दौर्मनस्य के अस्त हो जाने पर सुख एवं दुःख भी विनष्ट हो जाते हैं और उपेक्षाभाव से केवल स्मृति ही परिशुद्ध होती है । इस प्रकार योगी चित्तशुद्ध स्वरूप को पाकर उसमें लीन हो जाता है अर्थात् समदर्शी अवस्था प्राप्त कर लेता है । अतः बोद्धयोग में भी अपनी अकुशल प्रवृत्तियों को हटाकर, 1. भवाग्रासंज्ञिसत्वाश्च सत्यावासानव स्मृताः । - वही, ३३६ २. बौद्धदर्शन, पृ० ३९७ ३. दीघनिकाय, १२; मज्झिमनिकाय, ३।२।१; विशुद्धिमार्ग, परि० ४ पृथ्वी कसिणनिर्देश | Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : ध्यान १५९ एकाग्रता से चित्तस्वरूप को जानने के लिए समाधि को साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। जैन-योग में ध्यान ध्यान के भेद-प्रभेद का विस्तृत विवेचन जैन-योग में वर्णित है। वस्तुतः ध्यान-साधना ही जैन-योग में साधना का पर्याय बन गयी है, क्योंकि संसार-भ्रमण का कारण, जैन दर्शनानुसार, इंद्रियों एवं मन की चञ्चलता है और इन पर नियन्त्रण करना ही चारित्र की पहली शर्त है। जैन योगानुसार संयम अथवा चारित्र की वृद्धि के लिए ध्यान सर्वोत्तम साधन माना गया है। ध्यान की परिभाषा एवं उसके पर्याय-चित्त को किसी विषय पर केन्द्रित करना ध्यान कहा गया है, ' तथा उसे निर्जरा एवं संवर का कारण भी बताया है। वस्तुतः चित्त को किसी एक वस्तु अथवा बिन्द्र पर केंद्रित करना कठिन है, क्योंकि यह किसी भी विषय पर अन्तर्मुहूर्त से ज्यादा टिक नहीं पाता तथा एक मुहूर्त ध्यान में व्यतीत हो जाने के पश्चात् यह स्थिर नहीं रहता और यदि हो भी जाय तो वह चिन्तन कहलायेगा अथवा आलम्बन को भिन्नता से दूसरा ध्यान कहलायेगा। प्रकारान्तर से ध्यान अथवा समाधि वह है, जिसमें संसार-बंधनों को तोड़नेवाले वाक्यों के अर्थ का चिन्तन किया जाता है अर्थात् समस्त कर्ममल नष्ट होने पर सिर्फ वाक्यों का आलम्बन लेकर आत्मस्वरूप में लीन हो जाने का प्रयत्न किया जाता है। ध्यान को साम्यभाव बताते हए कहा है कि योगी जब ध्यान में तन्मय हो जाता है, तब उसे द्वरत ज्ञान रहता ही नहीं और वह समस्त रागद्वेषादि सांसारिकता से ऊपर उठकर चित् १. चित्तसेगग्गया हवइ झाणं । -आवश्यकनियुक्त, १४५९; ध्यानशतक, २; . नवपदार्थ, पृ० ६६८ २. तद्व्यानं निजराहेतुः संवरस्य च कारणम् । -तत्त्वानुशासन, ५६ ३. आमुहूर्तात् । -तत्वार्थसूत्र, ९।२८; ध्यानशतक, ३; योगप्रदीप, १५।३३ ४. मुहूर्तात्परतश्चिन्ता यद्वा ध्यानान्तरं भवेत् । वहर्थसंक्रमे तु स्याद्दीर्धाऽपि ध्यान-सन्ततिः ॥-योगशास्त्र, ४/११६ ५. योगप्रदीप, १३८ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन स्वरूप आत्मा के ही ध्यान में निमग्न हो जाता है।' इसी परिभाषा । की पुष्टि करते हुए ध्यान के सन्दर्भ में समरसीभाव तथा सवीर्यध्यान का प्रयोग हुआ है। दूसरे शब्दों में उत्तम संहननवाले के एकाग्र चिन्तानिरोध' को ध्यान कहा गया है तथा वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच एवं नाराच इन तीन प्रकार के संहनन का भी उल्लेख है। यद्यपि तीनों संहननों को ध्यान के कारण के रूप में स्वीकार किया गया है, तथापि मोक्ष का कारण वज्रवृषभनाराचसंहनन ही है, क्योंकि योगी नाना आलम्बनों में स्थित अपनी चिन्ता को जब किसी एक आलम्बन में स्थिर करता है, तब उसे एकाग्रनिरोध नामक योग की प्राप्ति होती है। इसी योग को बौद्ध-परम्परा में समाधि तथा प्रसंख्यान कहा है । . इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि आलम्बन के दो प्रकार माने गये हैं-रूपी और अरूपी । अरूपी आलम्बन मुक्त आत्मा को माना गया है तथा इसे अतींद्रिय होने के कारण अनालम्बन योग भी कहा गया है।" रूपी आलम्बन इन्द्रियगम्य माना गया है और बताया है कि दोनों ही ध्यान छद्मस्थों के होते हैं। यद्यपि रूपी अथवा सालम्बन के ध्यान के अधिकारी योगी छठे गुणस्थान तक अपने चारित्र का विकास करने में सक्षम होते हैं तथा अनालम्बन के अधिकारी सातवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक। जब सालम्बन ध्यान ही सांसारिक वस्तुओं से हटकर आत्मा के वास्तविक स्वरूपदर्शन में तीव्र अभिलषित हो जाता है, तब निरालम्ब ध्यान की निष्पत्ति होती है। आत्मसाक्षात्कार होने पर ध्यान रह ही नहीं जाता, क्योंकि ध्यान एक विशिष्ट प्रयत्न का नाम है, जो केवलज्ञान के पहले या योग-निरोध करते समय किया जाता है। इस १. देखें, ज्ञानार्णव, अध्याय २२, साम्यवैभवम् । २. तत्त्वानुशासन, १३७ ३. देखें, ज्ञानार्गव, अध्याय २८, सवीर्य ध्यानम् । ४. उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् । -तत्त्वार्थसूत्र, ९।२७ ५. तत्त्वार्थराजवार्तिक, पृ० ६२५ ६. तत्त्वानुशासन, ६०-६१ ७. आलंबणं पि एवं रूवमरूवी य इत्थ परमुत्ति । तग्गुणपरिणइरूवी, सुहुमोऽणालंबणो नाम ।। -योगविंशिका, १९ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : ध्यान १६१ प्रकार निरालम्ब ध्यान की सिद्धि हो जाने पर संसारावस्था बंद हो जाती है और इसके बाद केवलज्ञान और केवलज्ञान से 'अयोग' नामक स्थिति प्रकट होती है, जो परमनिर्वाण का ही अपरनाम है। ध्यान के पर्याय के रूप में तप, समाधि, धीरोध, स्वान्तनिग्रह, अंत:संलीनता, साम्यभाव, समरसीभाव, सवीर्य-ध्यान आदि का प्रयोग किया गया है। ध्यान के अंग-ध्यान के लिए प्रमुखतः तीन बातें अपेक्षित हैं-(१) ध्याता, (२) ध्येय और (३, ध्यान । ध्याता अर्थात् ध्यान करनेवाला, ध्येय अर्थात् आलम्बन तथा ध्यान अर्थात् एकाग्रचिन्तन । यानी इन तीनों की एकात्मकता ही ध्यान है। दूसरे शब्दों में जिसके द्वारा ध्यान किया जाता है वह ध्याता है; अथवा जिसका ध्यान किया जाता है वह ध्येय है; अथवा ध्याता का ध्येय में स्थिर होना ही ध्यान है। निश्चय-नय से कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण को षट्कारमयी आत्मा कहा गया है और इनको ही ध्यान कहा है। अतः आत्मा, अपनी आत्मा को अपनी आत्मा में, अपनी आत्मा के द्वारा, अपनी आत्मा के लिए अपनी आत्मा के हेतु से और अपनी आत्मा का ही ध्यान करता है। ____ध्यान की सामग्री-ध्यान की सामग्रियों को स्पष्ट करते हुए बतलाया गया है कि ध्यान में परिग्रहत्याग, कषायों का निग्रह, व्रतधारणा, मन १. एधम्मि मोहसागरतरणं सेढी य केवलं येष । तत्तो अजोगजोगो, कम्मेण परमं च निब्बाणं ।। -वही, २० २. योगो ध्यानं समाधिश्च धी-रोधः स्वान्तनिग्रह । अन्तःसंलीनता चेति तत्पर्यायाः स्मृता बुधैः ।। -आर्ष २१।१२; तत्त्वानुशासन, पृ० ६. ३. ध्यानं विधित्सता शेयं ध्याता ध्येयं तथा फलम् । -योगशास्त्र, ७।१ ४. ध्यायते येन तद्ध्यानं यो ध्यायति स एव वा । यत्र वा ध्यायते यद्वा, ध्यातिवां ध्यानमिष्यते ॥ -तत्त्वानुशासन, ६७ ५, स्वात्मानं स्वात्मनि स्बेन ध्यायेत्स्वस्मैस्वतो यतः। षट्कारकामयस्तस्माद् ध्यानमात्मैव निश्चयात् ॥ -वही, ७४ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१६२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन तथा इन्द्रिय-विजय आवश्यक है, क्योंकि ध्यान की सिद्धि के लिए योगी को अपने चित्त का दुर्ध्यान, वचन का असंयम एवं काया की चपलता का निरोध करना चाहिए और अपने समस्त दोषों से रहित होकर चित्त स्थिर करना चाहिए। सद्गुरु, सम्यक् श्रद्धान, निरन्तर अभ्यास तथा मनःस्थिरता का भी ध्यान की सिद्धि के कारण के रूप में उल्लेख है। बैराग्य, तत्त्वविज्ञानं, निग्रंथता, समचित्तता, परीषहजय,' असंगता, स्थिरचित्तता, उर्मिस्मय, सहनता आदि का उल्लेख भी उसी संदर्भ में मिलता है। इनके अतिरिक्त पूरण, कुम्भक, रेचन, दहन, प्लवन, मुद्रा, मंत्र, मण्डल, धारणा, कर्माधिष्ठाता, देवों का संस्थान, लिंग, आसन, प्रमाण, वाहन आदि-जो कुछ भी शान्त तथा क्रर कर्म के लिए मंत्रवाद आदि के कथन हैं, वे भी सभी ध्यान की सामग्रियों के अन्तर्गत ही हैं। संक्षेप में, आचारमीमांसा की ही सारी बातें ध्यान की सामग्रियों के अन्तर्गत स्वीकृत हैं। वस्तुतः ध्यान, व्रत, जप, आदि सभी आचार बिना निर्मल चित्त के करने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि मन को शुद्धि ही यथार्थ शुद्धि है। १. संगत्यागः कषायाणां निग्रहो व्रतधारणम् । मनोऽक्षाणां जयश्चेति सामग्री ध्यानजन्मने ॥ - वही, ७५ २. निरुन्ध्याच्चित्तदुनिं निरन्ध्यादयतं वचः । निरुन्ध्यात् कायचापल्यं, तत्त्वतल्लीनमानसः ।। -योगसार, १६३ ३. मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह इट्ठणि?अट्ठ सु । थिरमिच्छहि जइ चित्तं विचित्तझाणप्पसिद्धीए ।। -बृहद्रव्य संग्रह, ४८ ४. ध्यानस्य च पुनर्मुख्यो हेतुरेतच्चतुष्टयम् । गुरूपदेशः श्रद्धानं सदाभ्यास: स्थिरं मनः ॥ -तत्त्वानुशासन, २१८ ५. वैराग्यं तस्वविज्ञानं नर्ग्रन्थ्यं समचित्तता । परीषह-जयश्चेति पंचैते ध्यानहेतवः ॥ - बृहद्रव्यसंग्रह, पृ० २०७ पर उद्धृत ६. उपासकाध्ययन, ३९६६३४ ७. तत्त्वानुशासन, २१३-२१६ ८. किं व्रतैः किं व्रताचारैः किं तपोभिर्जपश्च किम् ।। किं ध्यानैः किं तथा ध्येयैर्न चित्तं यदि भास्वरम् ॥ -योगसार, ६८ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : ध्यान १६३ मन को शुद्धि के बिना व्रतों का अनुष्ठान करना वृथा कायक्लेश है। इसके लिए इन्द्रियों के विषयों का निरोध आवश्यक है और जब तक इन्द्रियों पर जय नहीं होती, तब तक कषायों पर जय नहीं होती। अतः ध्यान की शुद्धता या सिद्धि ही कर्मसमूह को नष्ट करती है और आत्मा का ध्यान शरीर-स्थित आत्मा के स्वरूप को जानने में समर्थ होता है, क्योंकि ध्यान ही जहाँ सब अतिचारों का प्रतिक्रमण है.५ वहाँ आत्मज्ञान की प्राप्ति से कर्मक्षय तथा कर्मक्षय से मोक्ष की प्राप्ति होती है। ध्यातव्य है कि ध्यान द्वारा शुभ-अशुभ दोनों की प्राप्ति संभव है। अर्थात् इससे चिंतामणि की भी प्राप्ति होती है और खलो के टुकड़े भी प्राप्त होते हैं। इस प्रकार ध्यानसिद्धि की दृष्टि से बाह्य साधनों के निरोध के साथ स्ववृत्ति तथा साम्यभाव का होना अनिवार्य है, जबकि साधक को आत्मा के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं देता। अगर साधक को सांसारिक चिन्ताओं का ही ध्यान अनायास हो जाय तो भी १. मनःशुद्ध्यैव शुद्धिः स्याद्देहिनां नात्र संशयः । वृथा तव्यतिरेकेण कायस्ययं कदर्थना ।। -ज्ञानार्णव, २०१३ २. अदान्तैरिन्द्रिय-ह्य श्चलैरपथगामिभिः । -योगशास्त्र, ४२५ ३. ज्ञानार्णव, २०१४ ४. एवमभ्यासयोगेन ध्यानेनानेन योगिभिः । शरीरांतः स्थितः स्वात्मा यथावस्थोऽवलोक्यते ॥ -योगप्रदीप, १६ ५. झाणणिलीणो साहू परिचागं कुणइ सब्बदोसाणं। तम्हा दु झाणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिकमणं ॥ -नियमसार, ९३ ६. मोक्ष:कर्मक्षयादेव स चात्मज्ञानतो भवेत् । ध्यानंसाध्यं मतं तच्च तद्ध्यानं हितमात्मनः ॥ -योगशास्त्र, ४।११३ ७. इतश्चिन्तामणिदिव्य इतः पिण्याकखण्डकम् । ध्यानेन चेदुभे लभ्ये क्वाद्रियन्तां विवेकिनः ।। -पूज्यपादकृत इष्टोपदेश, २० ८. ततः स्ववृत्तित्वात् बाह्यध्येयप्राधान्यापेक्षा निवर्तितामवति । -तत्त्वार्थराजवार्तिक, पृ० ६२६ ९. तदा च परमैकाग्रयाबहिरर्थेषु सत्स्वपि । अन्यन्न किंचनाऽभाति स्वमेवात्मनि पश्यतः ॥ -तत्त्वानुशासन, १७२ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૬૪ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन 9 उन व्यापारों को अन्तर्मुख करके गुरु अथवा भगवान् का स्मरण करते हुए निर्जन स्थान में सर्व प्रकार की कायचेष्टाओं से रहित होकर सुखासन बैठना चाहिए, क्योंकि इससे भी ध्यान में शुद्धता आती है । अगर पूर्वसंस्कारवश बार-बार किसी रमणी का ही ध्यान आता हो, तो उस समय उसी का ध्यान करना चाहिए और उसके शरीर की क्षणभंगुरता, सदोषता आदि का चिन्तन करना चाहिए । इससे अपने आप एक ऐसी स्थिति उत्पन्न होगी कि साधक के मन में उस स्त्री के प्रति उदासीनता का भाव पैदा होगा और ध्यान शुभ-प्रवृत्तियों में केन्द्रित होने लगेगा । अतः रागजनित वस्तु का चिन्तन करते-करते भी एकान्त स्थान में बिना प्रत्याघात से ध्यान करने से क्रमशः योग पर अधिकार प्राप्त हो जाता है तथा इस प्रकार के अभ्यास से परिणाम या भाव शुद्ध एवं स्थिर रहने से परममोक्ष निकट आता है । ध्यान के प्रकार जैन आगमों एवं योग संबंधी अन्य जैन वाङ्मय में ध्यान के प्रमुख चार प्रकारों का उल्लेख मिलता है - (अ) आर्त्त, (आ) रौद्र, (इ) धर्म और (ई) शुक्ल । इनमें पहले दो ध्यानों (आर्त, रौद्र) को अप्रशस्त अथवा अशुभ तथा अंतिम दो (धर्म, शुक्ल) को प्रशस्त अथवा शुभ कहा गया है, क्योंकि अप्रशस्त ध्यान दुःख देनेवाले तथा प्रशस्त ध्यान मोक्षप्राप्ति के हेतु हैं । ज्ञानार्णव के अनुसार ध्यान के तीन भेद भी देखने को मिलते हैं - ( १ ) प्रशस्त, (२) अप्रशस्त और (३) शुद्ध ।" यह प्रकारान्तर से चार भेदों का ही समर्थन है । हेमचंद्राचार्य ने ध्यान का ध्याता, ध्यान और ध्येय के रूप में वर्गीकरण किया है, तथा ध्येय के चार प्रकार बताये १. योगशतक, ५९-६० २. स्थानांग, ४।२४७; समवायांग, ४; भगवती सूत्र, श० २५, उद्दे० ७; आवश्यक नियुक्ति, १४५८; दशवैकालिक, अध्ययन १ ३. ध्यानशतक, ५; ज्ञानार्णव, २३|१९; तत्त्वानुशासन, ३४ ४. आतंरौद्रं च दुर्ध्यानं वर्जनीयमिदं सदा । धर्मं शुक्लं च सद्ध्यानमुपादेयं मुमुक्षुभिः ॥ ५. ज्ञानार्णव, ३।२७ - तत्त्वानुशासन, ३४ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : ध्यान १६५ । हैं - ( १ ) पिण्डस्थ, (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ और रूपातीत | ध्येय के इन चार भेदों का उल्लेख ज्ञानार्णव में भी है । रामसेनाचाय ने भी ध्येय के चार भेद गिनाये हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । फिर भी इनके वर्गीकरण की अपनी विशेषता है इनके अनुसार द्रव्य ध्येय ही पिण्डस्थ ध्यान रूप में उपस्थित हुआ है, क्योंकि ध्येय पदार्थ ध्याता के शरीर में स्थित आत्मा ही ध्यान-विषय माना गया है और पिण्डस्थ ध्यान का काम भी वही है । इन सबके अतिरिक्त ध्यान के चौबीस " भेदों का भी उल्लेख मिलता है, जिनमें बारह ध्यान क्रमशः ध्यान, शून्य, कला, ज्योति, बिन्दु, नाद, तारा, लय, मात्रा, पद और सिद्धि है तथा इन ध्यानों के साथ 'परम' पद लगाने से ध्यान के और अन्य भेद बनते हैं । उक्त भेद-प्रभेदों से अलग हटकर आगमों तथा योगग्रंथों में विवेचित ध्यान के सर्वसम्मत चार प्रकारों का विश्लेषण करना यहाँ अभीष्ट है । (अ) आर्त- ध्यान दुःख के निमित से या दुःख में होनेवाला ' अथवा मनोज्ञ वस्तु के वियोग एवं अमनोज्ञ वस्तु के संयोग आदि के कारण अथवा आवश्यक मोह के कारण सांसारिक वस्तुओं में रागभाव करना " आर्तध्यान है अर्थात् राग-भाव से जो उन्मत्तता होती है, वह अज्ञान के कारण होती १. पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् । चतुर्धा ध्येयमाम्नातं ध्यानस्यालम्बनं बुधैः ॥ २. ज्ञानार्णव, ३६ १ ३. नाम च स्थापनं द्रव्यं भावश्चेति चतुर्विधम् । - तत्त्वानुशासन, ९९ ४. धातु पिण्डे स्थितश्चैवं ध्येयोऽर्थो ध्यायते यतः । वही, १३४ ये पिण्डस्थमित्याहुरतएव च केवलं । सुन्न - कुल-जोइ - बिंदु-नादो -तारो-लओ-लवो मत्ता । पय-सिद्धि परमजुया झाणाई हुंति चउवीसं ॥ -५ ६. स्थानांग, ४।२४७ ७. समवायांग, ४ .८. दशवैकालिक अध्ययन १ - योगशास्त्र, ७८, - नमस्कार स्वाध्याय ( प्राकृत), पृ० २२५ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन है और फलतः अवांछनीय वस्तु की प्राप्ति-अप्राप्ति होने पर जीव दुःखी होता है। यही ओर्तध्यान है ।' आर्तध्यान के चार भेद हैं (१)अनिष्टसंयोग-चर अर्थात् अग्नि, सर्प, सिंह, जल आदि तथा स्थिर अर्थात् दुष्ट, राजा, शत्रु आदि द्वारा शरीर, स्वजन, धन आदि के निमित्त मन को जो क्लेश होता है, वह अनिष्टसंयोग नामक आर्तध्यान है। (२) इष्टवियोग-अपने मन की प्यारी वस्तुओं अर्थात् ऐश्वर्य, स्त्री, कुटुम्ब, मित्र, परिवारादि के नष्ट या वियुक्त होने पर अथवा इंद्रियविषयों की क्षति होने पर मोह के कारण जो पीड़ा होती है, वह इष्टवियोग नामक आर्तध्यान है। (३) रोगचिंता या रोगार्त-शूल, सिरदर्द आदि रोगों की वेदना के कारण उत्पन्न चिन्तापूर्ण चिन्तन रोगचिन्ता नामक आर्तध्यान है।" (४) भोगार्त-भोगों की इच्छा से लौकिक एवं पारलौकिक भोग्य वस्तुओं का चिन्तन करना भोगार्त नामक आर्तध्यान है। यह ध्यान जन्म-परम्परा-संसार-परिभ्रमण-का कारण है। इसे निदानजन्य आर्तध्यान भी कहा है। इस प्रकार इस ध्यान के कारण जीव सर्वदा भयभीत, शोकाकुल, संशयी, प्रमादी, कलहकारी, विषयी, निद्राशील, शिथिल, खेदखिन्न तथा मूर्छा-ग्रस्त रहता है। उसकी बुद्धि स्थिर नहीं रहती, विवेकशून्य १. ऋते भवमथातं स्यादसध्यानं शरीरिणाम् । दिङ्मोहोन्मत्ततातुल्यमविद्यावासनावशात् ॥ -ज्ञानार्णव, २३।२१ २. स्थानांग, ४।२४७; आवश्यकअध्ययन, ४ ३. ज्ञानार्णव, २३१२३ ४. मनोज्ञवस्तुविध्वंसे पुनस्तत्संगमार्थिभिः। क्लिश्यते यत्तदेतत्स्याद्वितीयार्तस्य लक्षणम् ।। -ज्ञानार्णव, २३।२९ ५. (क) तह सूलसीसरोगाइ वेयणाए विजोगपणिहाणं । । तदसंपओगचिता तप्पडियाराउलमणंस्स ॥ --ध्यानशतक, ७. (ख) ज्ञानार्णव, २३।३०-३१ ६. ज्ञानार्णव, २३।३२-३३-३४ ७. वही, २३१४१ . Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ योग के साधन : ध्यान होता है और वह रागद्वेष के कारण संसार-भ्रमण करता है। ऐसे कुटिल चिन्तन के कारण वह तिर्यंचगति प्राप्त करता है। और ऐसे स्वभाव के कारण उसकी लेश्याएँ कृष्ण, नील एवं कापोत होती हैं। ऐसे ध्यानी का मन आत्मा से हटकर सांसारिक वस्तुओं पर केंद्रित रहता है और इच्छित या प्रिय वस्तुओं के प्रति अतिशय मोह के कारण, उनके वियोग में या प्राप्त न होने पर दुःखित होता है । इसलिए इस ध्यान को अशुभ कहा गया है और इसकी स्थिति छठे गुणस्थान तक होती है। (भा) रौद्रध्यान - यह ध्यान भी अशुभ अथवा अप्रशस्त ध्यान है, जिसमें कुटिल भावों की चिन्तना होती है। जीव स्वभाववश सभी प्रकार के पापाचार करने में उद्यत होता है तथा वह निर्दयी एवं क्रूर कार्यो का कर्ता बनता है। इसलिए रुद्र अथवा कठोर जीव के भाव को रौद्र माना गया है। इस ध्यान में हिंसा, झूठ, चोरी, धनरक्षा में लीन होना, छेदन-भेदन' आदि प्रवृत्तियों में राग आदि आते हैं। इसके चार भेद प्ररूपित हैं। (१) हिसानन्द-अन्य प्राणियों को अपने से या अन्य के द्वारा मारने, काटने, छेदने अथवा वध-बंधन द्वारा पीड़ित करने पर जो हर्ष प्रकट १. रागो दोसो मोहो य जेण संसारहेयवो भणिया। अट्रमि य ते तिण्णिवि तो तं संसार तरुबीयं । --ध्यानशतक, १३ २. कावोय-नील-कालालेस्साओ णाइसंकिलिट्ठाओ। अट्टज्झाणोवगयस्स कम्मपरिणामजणिआओ॥ -वही, १४ ३. अपथ्यमपि पर्यन्ते रम्यमप्यग्रिभक्षणे। विद्ध्यसद्ध्यानमेतद्धि षड्गुणस्थानभूमिकम् ।। -ज्ञानार्णव, २३॥३६ ४. रुद्रः क्रू राशयः प्राणी रोद्रकर्मास्य कीर्तितम् । . रूद्रस्य खलु भावो वा रौद्रमित्यभिधीयते ॥ -वही, २४१२ ५. स्थानांग, ४१२४७; समवायांग, ४ ६. दशवैकालिकसूत्रटीका, अध्ययन १ ७. हिंसाऽनुतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रम् ... ... । -तत्त्वार्थसत्र, ९।३६; तथा ज्ञानार्णव, २४॥३ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन किया जाता है, वह इस ध्यान का विषय है। ऐसा ध्यान करनेवाला निपुण, निर्दय, कृतघ्न और नरक का भागी होता है । वह सदा कुटिलता, मायाचारिता, वैर, बदला लेने, ईर्ष्या करने आदि दुष्प्रवृत्तियों में फंसा रहता है तथा इन्हीं प्रवृत्तियों का चिन्तन करता रहता है । (२) मृषानन्द-असत्य, झूठी कल्पनाओं से ग्रस्त होकर दूसरों को धोखा देने अथवा ठगने का चिन्तन करना मृषानन्द रौद्रध्यान है। मृषानन्दी व्यक्ति सत्य वचनों से रहित मनोवांछित फल की प्राप्ति के लिए सत्य को झूठ अथवा झूठ को सत्य बनाकर लोगों को ठगता है और अपने को चतुर सिद्ध करता है ।। , (३) चौर्यानन्द-चोरी संबंधी कार्यो', उपदेशों अथवा चौर-प्रवृत्तियों में कुशलता दिखाना चौर्यानन्द रौद्रध्यान है। इस ध्यान के अन्तर्गत चौर्य कर्म के लिए निरन्तर व्याकुल रहना, चिन्तित होना अथवा दूसरों की सम्पत्ति के हरण से हर्षित होना अथवा दूसरों की सम्पत्ति को हरण करने का उपाय बताना आदि दुष्प्रवृत्तियां आती हैं । यह अतिशय निन्दा का कारण है। (४) संरक्षणानन्द-क्रूर परिणामों से युक्त होकर तीक्ष्ण अस्त्र-शस्त्रों से शत्रुओं को नष्ट करके उनके ऐश्वर्य तथा सम्पत्ति को भोगने की इच्छा रखना अथवा शत्रु से भयभीत होकर अपने धन, स्त्री, पुत्र राज्यादि के संरक्षणार्थ तरह-तरह की चिन्ता करना संरक्षणानन्द रौद्रध्यान है।" इस प्रकार रोद्रध्यानी सर्वदा अपध्यान में लीन रहता है और दूसरे प्राणियों को पीड़ा पहुँचाने के उपाय सोचता रहता है। फलतः वह भी १. सत्तवह-वेह-बंधण-डहणकणमारणाइपणिहाणं । अइकोहग्गवत्थं निग्धिणमणसोऽहम विवागं । -ध्यानशतक, १९ २. असत्यकल्पनाजालकश्मलीकृतमानसः । चेष्टते यज्जनस्तद्धि मृषारौद्रं प्रकीर्तितम् ।। - ज्ञानार्णव, २४।१४ तथा आगे ३. चौर्योपदेशबाहुल्यं चातुर्य चौर्यकर्मणि । यच्चौर्येकरतं चेतस्तच्चौर्यानन्दमिष्यते ।। -ज्ञानार्णव, २४॥२२ ४. ज्ञानार्णव, २४।२३-२६ ५. वही, २४।२८-२९ तथा आगे; ध्यानशतक, २२ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : ध्यान दूसरों के दुःख से पीड़ित होता है, ऐहिक-पारलौकिक भय से आतंकित होता है, अनुकम्पा से रहित, नीच कर्मों में निर्लज्ज एवं पाप में आनन्द मनानेवाला होता है।' इस ध्यान को लेश्याएँ कृष्ण, नील एवं कापोत होती हैं और यह पंचम गुणस्थान पर्यन्त होता है।' (इ) धर्मध्यान यह ध्यान सद्ध्यान माना गया है, क्योंकि इस ध्यान से जीव का रागभाव मंद होता है और वह आत्मचिन्तन की ओर प्रवृत्त होता है। इस दृष्टि से यह ध्यान आत्मविकास का प्रथम चरण है। स्थानांग में इस ध्यान को श्रुत, चारित्र एवं धर्म से युक्त कहा है। धर्मध्यान उसके होता है, जो दस धर्मों का पालन करता है, इंद्रिय-विषयों से निवृत्त होता है तथा प्राणियों की दया में रत होता है। ज्ञानसार में कहा गया है कि शास्त्र-वाक्यों के अर्थों, धर्ममार्गणाओं, व्रतों, गुप्तियों, समितियों, भावनाओं आदि का चिन्तन करना धर्मध्यान है। इस प्रकार इसे मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का निज परिणामी' माना गया है और सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप धर्म-चिन्तन का पर्याय कहा गया है। धर्मध्यान के स्वरूप को जानने के लिए योगी को ध्याता, ध्येय, ध्यान, फल, ध्यान का स्वामी, जहाँ (ध्यान योग्य क्षेत्र) जब (ध्यान योग्य काल) तथा जैसे (ध्यान योग्य अवस्था) मुद्राओं को ठीक तरह से समझना १. आवश्यक अध्ययन, ४ २. ध्यानशतक, २५; ज्ञानार्णव, २४॥३४ ३. स्थानांग, ४।२४७ * तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्, स्वोपज्ञभाष्य, ९।२९ ५. सुतत्थ धम्म मग्गणवय गुत्ती समिदि भावणाईणं । जं कीरइ चितवणं धम्मज्झाणं च इह भणियं ॥ -ज्ञानसार, १६ चारितं खलु धम्मो धम्मो जो सौ समो त्ति णिद्दिट्ठो । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥ -प्रवचनसार, १७; तथा तत्त्वानुशासन, ५२ ७. सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । तस्माद्यदनपेतं हि धम्यं तद्ध्यानमभ्यधुः ॥ -तत्त्वानुशासन, ५१ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन चाहिए।' अर्थात् योगी को इंद्रियों एवं मनोनिग्रह करनेवाली यथावस्थित वस्तु का आलम्बन लेते हुए एकाग्रचित होकर ध्यान करना चाहिए । निर्विघ्न ध्यान देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार सम्पादित होता है और इसके लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र, और वैराग्य अपेक्षित है, जिनसे सहजतया मन को स्थिर किया जाता है, कर्मों को रोका जाता है तथा वीतरागता आदि गणों को प्राप्त किया जाता है। आचार्य शभचंद्र ने धर्म-ध्यान की सिद्धि के लिए मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन चार भावनाओं के चिन्तन पर जोर दिया है। ध्यान के विविध परिकर्मो के वर्णन में कहा गया है कि ध्याता ऐसी जगह कभी ध्यान न करे जहाँ स्त्री, पश, शूद्र, प्राणी आदि हों। वह ऐसे निर्जन वन में चला जाय, जहाँ किसी भी प्रकार की बाधा को संभावना न हो और वह किसी भी जगह दिन अथवा रात्रि के समय ध्यान के लिए बैठ जाय । यह भी निर्देशित है कि ध्यान का आसन सुखदायक हो, जिससे कि ध्यान की मर्यादा टिक सके। उस आसन से बैठकर, खड़े रहकर अथवा लेटकर भी ध्यान किया जा सकता है। वैसी स्थिति में दृष्टि स्थिर होनी चाहिए, श्वास-प्रश्वास की गति मंद हो, इंद्रियविषयक बाह्य पदार्थो से अलगाव हो और साधक निद्रा, भय एवं आलस से रहित होकर आत्मा का ध्यान करे । साधक सभी प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त होकर आत्मस्वरूप में लीन हो जाय। यह वहीं संभव है जहाँ शोर, १. ध्याता ध्यानं फलं ध्येयं यस्य यत्र यदा यथा। इत्येतदत्र बोद्धव्यं ध्यातुकामेन योगिना ॥ -वही ३७ २. वही, ३८-३९ ३. ध्यानशतक, ३०-३४ ४. चतस्रो भावना धन्याः पुराणपुरुषाश्रिताः । मैत्र्यादयश्चिरं चित्ते विधेया धर्मसिद्धये ॥ -ज्ञानार्णव, २५।४ ५. तत्त्वानुशासन, ९०-९५ ६. कालोऽवि सोच्चिय जहिं जोगसमाहाणमुत्तमं लहइ । नउ दिवस निसावेलाइनियमणं झाइणो भणियं ॥ -ध्यानशतक, ३८ ७. जच्चिय देहावत्था जियाण झाणोपरोहिणी होइ । झाइज्जा तदवत्थो ठिओ निसण्णो निवण्णो च ॥ -वही, ३९ . Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : ध्यान झगड़ा, दूषित वातावरण न हो और ऐसा स्थान निर्जन, पहाड़, गुफा आदि ही हो सकता है। इस ध्यान के संदर्भ में आज्ञारुचि, निसर्ग-रुचि, सूत्ररुचि एवं अवगाढ़रुचि इन चार लिंगों के साथ ही साथ वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा, सामायिक, सद्धर्म-विषयक आलम्बनों का भी विधान है। इस ध्यान के अधिकारी वे ही हैं, जो सम्यक्दृष्टि, अविरति, प्रमत्त और अप्रमत्त गुण-स्थानवर्ती हैं। इस ध्यान की लेश्याएँ५ पीत, पद्म और शुक्ल कही गयी हैं। क्योंकि पहले दो ध्यानों की अपेक्षा इस ध्यान में जीव का स्वभाव सरल और उसके परिणाम मन्दकषायी और मन्दतरकषायी होते हैं । धर्मध्यान में लीन जीव आत्मविकास में द्रुतगति से अग्रसर होते हैं। मानसिक चंचलता के कारण साधक का मन एकाएक स्थिर नहीं हो पाता, अतः साधक को चाहिए कि वह स्थूल वस्तु का आलम्बन लेकर ही सूक्ष्म वस्तु की ओर बढ़े। ध्यान में आसक्तिवश बार-बार उन्हीं बातों की याद आती रहती है जो जीवन में घटित हुई हों। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि आलम्बन के आधार पर धर्मध्यान चार प्रकार का है-(१) आज्ञाविचय, (३) अपायविचय, (३) विपाकविचय तथा (४) संस्थानविचय। 'विचय' शब्द का अर्थ चिन्तन करना है। १. रागादिवागुराजालं निकृत्याचिन्त्यविक्रमः । स्थानमाश्रयते धन्यो विविक्त ध्यानसिद्धये ॥ -ज्ञानार्णव, २५२० २. स्थानांग, ४।२४७; अभिधानराजेन्द्रकोश, भा० ४, पृ० १६६३ ३. स्थानांग, ४॥२४७; ध्यानशतक, ४२ ४. अप्रमत्तः प्रमत्तश्च सदृष्टिर्देशसंयतः । धर्मध्यानस्य चत्वारस्तत्त्वार्थे स्वामिनः स्मृताः ।। -तत्त्वानुशासन, ४६; ज्ञानार्णव, २६।२८ होंति कमविसुद्धाओ लेसाओ पीय-पम्ह-सुक्काओ। धम्मज्झाणोवगयस्स तिव्व-मंदाइभेयाओ ।। - ध्यानशतक, ६६ ६. आज्ञापायविपाकानां संस्थानस्य च चिन्तनात् । इत्थं वा ध्येय-भेदेन धर्म-ध्यानं चतुर्विधम् ॥-योगशास्त्र, १०1७ -ज्ञानार्णव, ३०१५; तत्त्वानुशासन, ९८. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन (१) आज्ञाविचय - इस ध्यान में तीर्थंकरकथित उपदेशों का चिंतन किया जाता है, अतः सर्वज्ञ होने के कारण तीर्थंकर के तत्त्वोपदेश में किसी भी प्रकार की त्रुटि नहीं होती, तर्क से बाधित नहीं होता, असत्य नहीं होता ।" इस प्रकार इस ध्यान में मुख्यतः आप्त-वचनों का आलम्बन लिया जाता है और मन को क्रमशः सूक्ष्म की ओर ले जाया जाता है । १७२ (२) अपायविचय — इस ध्यान में कर्म - नाश का तथा आत्मसिद्धि की "प्राप्ति के उपाय का चिन्तन किया जाता है । दूसरे शब्दों में रागद्वेषदि कषाय तथा प्रमाद द्वारा उत्पन्न होनेवाले कष्टों, दुर्गतियों आदि का मनन करना अपायविचय धर्म-ध्यान है । * (३) विपाक विषय - 'विपाक' शब्द कर्मों के शुभ-अशुभ फल के उदय - का द्योतक है । अतः कर्मों की विचित्रता का चिन्तन करना अथवा कर्म- फल के क्षण-क्षण में उदित होने की प्रक्रियाओं के बारे में विचार करना विपाक - वित्रय धर्मध्यान है । इस ध्यान में द्रव्य क्षेत्र काल-भाव की • दृष्टि से चिन्तन किया जाता है कि उदय, उदीरणा कैसे और किस कारण - से होती है तथा उनको कैसे नष्ट किया जा सकता है । (४) संस्थान - विचय – अनादि अनंत काल से, अव्याहत रूप से जो १. (क) आज्ञायत्रपुरस्कृत्य सर्वज्ञानामबाधितम् । तत्त्वतश्चिन्तयर्दथस्तदाज्ञा-ध्यानमुच्यते ॥ सर्वज्ञवचनं सूक्ष्मं हन्यते यन्न हेतुभिः । तदाज्ञारूपमादेयं न मृषाभाषिणो जिनाः ॥ - योगशास्त्र, १०।८-९ (ख) देखें ज्ञानार्णव, अध्याय ३० । १. इत्युपायैर्विनिश्चयो मार्गाच्च्यवनलक्षणः । कर्मणां च तथापाय उपायः स्वात्मसिद्धये ॥ - ज्ञानार्णव, ३१।१६ २. सगद्वेषकषायाद्यैर्जायमानान् विचिन्तयेत् । यत्र पायांस्तदुपाय-विचय-ध्यानमिष्यते 11 ३. योगशास्त्र, १०।१० (क) स विपाक इति ज्ञेयो यः स्वकर्मफलोदयः । प्रतिक्षणसमुद्भूतश्चित्ररूपः शरीरिणाम् ॥ - ज्ञानार्णव, ३२१; तथा (ख) देखें, ज्ञानार्णव, अध्याय ३२ । - योगशास्त्र, १०।१४ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : ध्यान १७३ अस्तित्व में है. उस जगत् का ध्यान करना संस्थान-विचय धर्मध्यान है । 1 वस्तुतः यह जगत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है । पर्याय की दृष्टि से पदार्थों का उत्पाद और व्यय होता रहता है, लेकिन द्रव्य की दृष्टि से पदार्थ नित्य ही रहता है । अतः इस ध्यान से संसार की नित्य-अनित्य पर्यायों का चिन्तन होने से वैराग्य की भावना दृढ़ होती है और साधक शुभ आत्मस्वरूप का अनुभव करने की कोशिश करता है । किसी भी साधक का ध्यान एकाएक निरालम्ब में नहीं लग पाता, इसलिए स्थूल इंद्रियगोचर पदार्थों से सूक्ष्म, इंद्रियों के अगोचर पदार्थो का चिन्तन करना आवश्यक माना गया है । आलम्बन का ही दूसरा नाम 'ध्येय' है । ध्येय के चार भेद हैं- (१) पिण्डस्थ, (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ, (४) और रूपातीत | 3 (१) पिण्डस्थ ध्यान - पिण्ड अर्थात् शरीर । इसका तात्पर्य है शरीर के विभिन्न भागों पर मन को केद्रित करना । योगशास्त्र तया ज्ञानार्णव के अनुसार इसके पाँच भेद हैं- (क) पार्थिवी, (ख) आग्नेय, (ग) मारुती, (घ) वारुणी और (च) तत्त्ववती । इन पांच धारणाओं के माध्यम से उत्तरोत्तर आत्म- केन्द्र पर ध्यानस्थ होना । १. ( क ) अनाद्यनंतस्य लोकस्य स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मनः । आकृति चिन्तयेद्यत्र संस्थानविचयः स तु ॥ (ख) देखें ज्ञानार्णव, अध्याय ३३ २. (क) स्थूले वा यदि वा सूक्ष्मे साकारे वा निराकृते । ध्यानं ध्यायेत स्थिरं चित्तं एक प्रत्यय संगते ॥ - योगप्रदीप, १३९ (ख) अलक्ष्यं लक्ष्य सम्बन्धात् स्थूलात् सूक्ष्मं विचिन्तयेत् । सालंबाच्च निरालम्बं तत्त्ववित्तत्त्वमंजसा ॥ - ज्ञानार्णव, ३०१४ ३. पिण्डस्थं च पदस्थं रूपस्थं रूपवर्जितम् । चतुर्धा ध्येयमाम्नातं ध्यानस्यालम्बनं बुधैः ॥ - योगशास्त्र, ७१८; योगसार, ९८; ज्ञानार्णव, ३४।१ ४. ( क ) पार्थिवी स्यादथाग्नेयी मारुती वारुणी तथा । तत्त्वभूः पंचमी चेति पिण्डस्थे पंच धारणा ॥ - योगशास्त्र, ७१९ (ख) पार्थिवी स्यात्तथाग्नेयी श्वसनाख्याथ वारुणी । तत्त्वरूपवती चेति विज्ञेयास्ता - योगशास्त्र, १०1१४ यथाक्रमम् ॥ - ज्ञानार्णव, ३४३ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जैन योग का मालोचनात्मक अध्ययन (क) पार्थिवी-सर्वप्रथम साधक पार्थिवी धारणा के द्वारा चिन्तन करता है कि मध्यलोक के बराबर निःशब्द, कल्लोलरहित एवं सफेद क्षीर-समुद्र है, उसमें जम्बू-द्वीप के बराबर एक लाख योजनवाला तथा हजार पंखुड़ी से युक्त कमल है, उस कमल के मध्य में अनेक केसर हैं। उन केसरों में दैदीप्यमान प्रभा से युक्त मेरुपर्वत के बराबर एक ऊँची कणिका है, उस पर एक सिंहासन है तथा उसमें बैठकर कर्मों का उन्मलन करने में आत्मा का चिन्तवन इस प्रकार करे कि यह रागद्वेषादि समस्त कर्मो का क्षय करने में समर्थ है। इस प्रकार इस ध्यान में प्रथमतः बड़ी चीजों को लाने के बाद सूक्ष्म वस्तु की ओर ध्यान केंद्रित किया जाता है, जिससे समस्त चिन्ताओं पर एक जगह रोक लग जाती है। (ख) आग्नेयो धारणा-इस धारणा के विषय में कहा गया है कि योगी अपने नाभि-मण्डल में सोलह पंखडीवाले कमल का ध्यान करे और उसके बाद उस कमल की कणिका पर अहँ महामंत्र की स्थापना करके उस पर क्रमशः सोलह स्वरों को स्थापित करे। फिर ऐसा चिन्तन करे कि उस महामंत्र से धुंआं निकल रहा है तथा अग्नि की ज्वालाएँ ऊपर उठ रही हैं । इसके बाद हृदय में आठ पंखुड़ी से युक्त अधोमुख कमल की अर्थात् अष्टकर्मो की कल्पना करे । नाभिष्ट कमल से उठी हुई प्रबल अग्नि से वह कर्म नष्ट हो रहे हैं तथा 'र' से व्याप्त हासिया चिह्न से युक्त धूम-रहित अग्नि का चिन्तन करे। तत्पश्चात् चिन्तन करे कि देह एवं कर्मो को दग्ध करके अग्निदाह्य का अभाव होने के कारण धीरे-धीरे वह शान्त हो रहा है। (ग) वायवी धारणा-इस धारणा के अन्तर्गत साधक चिन्तन करता है कि लोक में महाबलवान् वायुमण्डल चल रहा है और वह आग्नेयी धारणा में देह एवं कमल को जलाने के बाद बची हुई राख को उड़ा रहा है। इस प्रकार प्रचण्ड वायु के चिन्तनपूर्वक उसे शान्त करना वायवी धारणा है। ज्ञानार्णव, ३४।४-९ १. योगशास्त्र, ७.१०.१२, योगप्रदीप, २०, ४०५-८; २. ज्ञानार्णव, ३४।१०-१९; योगशास्त्र, ७।१३-१८ ३. ज्ञानार्णव ३४।२०-२३; योगशास्त्र, ७१९-२० Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : ध्यान ... १७५ (घ) वारुणी धारणा'-इस धारणा के अन्तर्गत साधक चिन्तन करता है कि मेघ-समूह से अमृत की वर्षा हो रही है तथा चन्द्राकार कला-बिन्दु से युक्त एक वरुण-बीज है तथा वायवी धारणा के द्वारा जिस पवन वेग से राख उड़ा दी गयो थी, वह इस अमृत-जल से साफ धुल गयी है। इस प्रकार अमृत-वर्षा का चिन्तन करना वारुणी धारणा है। (च) तत्त्ववती अथवा तत्त्वभू धारणा-इसके अन्तर्गत सप्त धातुओं से रहित, चंद्रमा के समान उज्ज्वल तथा सर्वज्ञ के समान शुद्ध आत्मस्वरूप का चिन्तन किया जाता है। इसके बाद सिंहासनस्थ आरूढ अष्ट कर्मो का उन्मलन करनेवाला, महिमा से मंडित निराकार आत्मा का चिन्तन किया जाता है। - इस प्रकार चतुर्विध धारणाओं से युक्त पिण्डस्थ ध्यान का अभ्यास करने से ध्याता को मंत्र, माया, शक्ति, जादू, स्तम्भन आदि से नुकसान नहीं होता है और न दुष्ट एवं हिंस्र प्राणियों से ही उसका कोई बिगाड़ होता है। प्रथम धारणा से मन को स्थिर किया जाता है, दूसरी से शरीर-कर्म को नष्ट करके मन को रोका जाता है, ततोय से शरीर-कर्म के संबंध को भिन्न देखा जाता है और चतुर्थ से शेष कर्म का नष्ट होना देखा जाता है और पंचम से शरीर एवं कर्म से रहित शुद्ध आत्मा का चिन्तन किया जाता है। इस प्रकार इस ध्यान में योगी क्रमशः मन को स्थिर करता हुआ शुक्लध्यान में प्रवेश करने की स्थिति में पहुँचता है और चित् स्वरूप की प्राप्ति में समर्थ होता है। (२) पदस्थ ध्यान--इस ध्यान के द्वारा साधक अपने को बार-बार एक ही केन्द्र पर स्थिर करता है और मन को अन्य विषयों से परावृत्त करके केवल सूक्ष्म वस्तु को ध्यान का विषय बनाता है । अपनी रुचि तथा अभ्यास के अनुसार पवित्र मंत्राक्षर-पदों का अवलम्बन करके जो ध्यान किया जाता है, वह पदस्थ ध्यान है, क्योंकि पदस्थ ध्यान का अर्थ ही है-पदों ( अक्षरों ) पर ध्यान केन्द्रित करना। इस ध्यान का मुख्य आलम्बन शब्द हैं, क्योंकि अकारादि स्वर तथा ककारादि व्यंजन से ही १. ज्ञानार्णव, ३४।२४-२७; योगशास्त्र, ७।२१-२२ २. वही, ३४।२८-३०; वही, ७।२३-२५ ३. योगशास्त्र, ७।२६-२८; ज्ञानार्णव, ३४।३३ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन शब्दों की उत्पत्ति होती है । इसलिए इस ध्यान को वर्ण-मातृका का ध्यान भी कहते हैं, जो पाँच प्रकार से निष्पन्न होते हैं अक्षर-ध्यान के द्वारा शरीर के तीन केन्द्रों अर्थात् नाभि-कमल, हृदय-कमल तथा मुख - कमल की कल्पना की जाती है और नाभि-कमल में सोलह पत्रोंवाले कमल की स्थापना करके उसमें अ, आ आदि सोलह स्वरों का ध्यान करने का विधान है; हृदयकमल में कर्णिका एवं पत्रों सहित चौबीस दलवाले कमल की कल्पना करके उस पर इन क, ख, ग, घ, आदि २५ वर्णों का ध्यान करने का विधान है तथा अष्ट पत्रों से सुशोभित मुख-कमल के ऊपर प्रदक्षिण क्रम से विचार करते हुए प्रत्येक य, र, ल, व, श, ष, स, ह, इन आठ वर्णों का ध्यान करने का विधान है । इस प्रकार निरंतर ध्यान करनेवाला योगी सम्पूर्ण श्रुत का ज्ञाता हो जाता है - विगतभ्रम हो जाता है। श्रुतज्ञानी होकर मोक्ष का अधिकारी बनता है । मंत्र व वर्णों के ध्यान में समस्त पदों का स्वामी 'अहं' माना गया है, जो रेफ से युक्त, कला एवं विन्दु से आक्रान्त अनाहत सहित मंत्रराज है । इस ध्यान के विषय में बताया गया है कि साधक को एक सुवर्णमय १. पदान्यालम्ब्य पुण्यानि योगिभिर्यद्विधीयते । तत्पदस्थं मतं ध्यानं विचित्रनयपारगैः ॥ ध्यायेदनादिसिद्धान्तप्रसिद्धां वर्णमातृकाम् । निःशेषशब्द - विन्यास - जन्मभूमि जगन्नताम् । ज्ञानार्गव, ३५1१-२ २. द्विगुणाष्टदलाम्भोजे नाभिमण्डलवर्तिनि । भ्रमन्ती चिन्तयेद् ध्यानी प्रतिपत्रम् स्वरावलीम् || चतुर्विंशति- पत्राढ्यं हृदि कंजं सकणिकम् | तत्र वर्णानिमान्ध्यायेत् संयमी पंचविशतिम् ॥ ततो वदनराजीवे पत्राष्टक विभूषिते । परं वर्णाष्टकं ध्यायेत्संचरन्तं प्रदक्षिणम् ॥ - वही, ३५।३-५ ३. ज्ञानार्णव, ३५/६ ४. अथ मन्त्रपदाधीशं आदिमध्यान्तभेदेन सर्वतत्त्वैकनायकम् । स्वरव्यंजनसम्भवम् ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : ध्यान १७७ कमल की कल्पना करके उसके मध्य में कणिका पर विराजमान, निष्कलंक, निर्मल चंद्र की किरणों जैसे, आकाशगामी एवं संपूर्ण दिशाओं में व्याप्त 'अहं' मंत्र का स्मरण करना चाहिए। तत्पश्चात् मुखकमल में प्रवेश करते हुए, प्रवलयों में भ्रमण करते हुए नेत्रपलकों पर स्फुरित होते हुए भाल-मण्डल में स्थिर होते हुए तालुरन्ध्र से बाहर निकलते हुए, अमृत की वर्षा करते हुए, उज्ज्वल चंद्रमा के साथ स्पर्धा करते हुए, ज्योतिर्मण्डल में भ्रमण करते हुए, आकाश में संचरण करते हुए तथा मोक्ष के साथ मिलाप करते हुए सम्पूर्ण अवयवों में व्याप्त कुम्भक के द्वारा इस मंत्रराज का चिन्तन करना चाहिए।' इस प्रकार इस मंत्रराज की स्थापना द्वारा मन को क्रमशः सूक्ष्मता की ओर 'अहं' मंत्र पर केंद्रित किया जाता है अर्थात् अलक्ष्य में अपने • को स्थिर करने पर साधक के अन्तरंग में एक ऐसी ज्योति प्रकट होती है, जो अक्षय तथा इंद्रिय के अगोचर होती है ।२ इसी ज्योति का नाम आत्मज्योति है तथा इसी से साधक को आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। प्रणव नामक ध्यान में 'ॐ' पद का ध्यान किया जाता है। इस ध्यान का साधक योगी सर्वप्रथम हृदय-कमल में स्थित कणिका में इस पद की स्थापना करता है तथा वचन-विलास की उत्पत्ति के अद्वितीय कारण, स्वर तथा व्यंजन से युक्त, पंचपरमेष्ठी के वाचक, मूर्धा में स्थित चंद्रकला से झरनेवाले अमृत के रस से सराबोर महामंत्र प्रणव 'ॐ' कुम्भक करके ध्यान किया जाता है। इसकी विशेषता यह है कि ___ अधिोरेफसंरुद्धं सकलं बिन्दुलाञ्छितम् । अनाहतयुतं तत्त्वं मंत्रराजं प्रचक्षते ॥ -ज्ञानार्णव, ३५१७-८ . १. योगशास्त्र, ८1१८-२२; ज्ञानार्णव, ३५।१० व १६-१९ २. ततः प्रच्याव्य लक्ष्येभ्य अलक्ष्ये निश्चलं मनः। दधतो ऽस्य स्फुरत्यन्तयॊतिरत्यक्षमक्षयम् ॥ -ज्ञानार्णव, ३५।३० ३. (क) तथाहृत्पद्ममध्यस्थं शब्दब्रह्म ककारणम् । स्वर व्यंजन-संवीतं वाचकं परमेष्ठिनः॥ मूर्ध-संस्थित-शीतांशु कलामृतरस-प्लुतम् । कुम्भकेन महामंत्रं प्रणवं परिचिन्तयेत् ।।-योगशास्त्र, ८२९-३०, (ख) देखें, ज्ञानार्णव, ३५१३३-३५ .१२ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन यह स्तम्भन कार्य में पीत, वशीकरण में लाल, शोभित अवस्था में मगे के समान, द्वेष में कृष्ण, कर्मनाशक अवस्था में चंद्रमा के समान उज्ज्वल वर्ण का होता है। इस प्रकार यह प्रणव-ध्यान पद से बने 'ॐ' शब्द का होता है, जिसको लक्ष्य करके साधक आत्मविकास की ओर बढ़ता है । इस ध्यान से अनेक प्रकार की शक्तियों एवं आत्मबल की वृद्धि होती है और साथ ही कर्मक्षय भी होता है । पंचमरमेष्ठी नामक ध्यान में प्रथम हृदय में आठ पंखुड़ीवाले कमल की स्थापना करके कणिका के मध्य में “सप्ताक्षर अरहताण' पद का चिन्तन किया जाता है। तत्पश्चात् चारों दिशाओं में चार पत्रों पर क्रमशः ‘णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं तथा णमो लोए सव्वसाहणं' का ध्यान किया जाता है तथा चार विदिशाओं के पत्रों पर क्रमशः 'एसो पंचणमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगल' का ध्यान किया जाता है । शुभचंद्र के मतानुसार पूर्वादि चार दिशाओं में तो णमो अरहताणं आदि का तथा चार विदिशाओं क्रमशः 'सम्यग्दर्शनाय नमः, सम्यग्ज्ञानाय नमः, सम्यक्चारित्राय नमः तथा सम्यक् तपसे नमः' का स्मरण किया जाता है। साधक इन्हीं पर अपनी सम्पूर्ण भावनाओं को एकाग्र करके आत्म-सिद्धि में संलग्न होता है। इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी मंत्र हैं, जिनका नित्य जप करने से मनोव्याधियों की शान्ति होती है, कष्टों का परिहार होता है तथा कर्मों का आस्रव रुक जाता है। सोलह अक्षरों से युक्त मंत्र को षोडशाक्षर १. पीतस्तम्भेऽरुणं वश्ये क्षोभणे विद्रुमप्रभम् । कृष्णं विद्वेषणे ध्यायेत् कर्मघाते शशिप्रभम् ॥ --योगशास्त्र, ८१३१ २. अष्टपत्रे सिताम्भोजे कणिकायां कृतस्थितिम् । आद्यं सप्ताक्षरं मन्त्रं पवित्रं चिन्तयेत्ततः ।। सिद्धादिक-चतुष्कं च दिकपत्रेषु यथाक्रमम् । चूलापाद-चतुष्कं च विदिक्पत्रेषु चिन्तयेत् ।। -वही, ८१३३-३४ ३. दिग्दलेषु ततो न्येषु विदिक्पत्रेष्वनुक्रमात् । सिद्धादिकचतुष्कं च दृष्टिबोधादिकं तथा ॥ -ज्ञानार्णव, ३५।४२ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : ध्यान १७९ विद्या कहा है, क्योंकि यह पंचपदों तथा पंचपरमेष्ठी के नाम से बना है। षोडशाक्षर मंत्र है--'अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः' । छ: अक्षर का जप है-'अरिहंत सिद्ध' । चार अक्षरवाला है-'अरिहंत'। दो अक्षरों का है 'सिद्ध' एवं एक अक्षर का है 'अ'।' इन मंत्रों का जप पवित्र मन से करना चाहिए, क्योंकि समस्त. कर्मो को दग्ध करने की शक्ति प्राप्त होती है । इसी तरह 'ऊँ, ह्रां ह्रीं, हूं, ह्री, हँ:' 'असिआउसा नमः' इस पंचाक्षरमयी विद्या का जप करने से साधक संसार के बंधन अर्थात् कर्मग्रंथियों को तोड़ देता है और एकाग्रचित्त से मंगल, उत्तम और शरण पदों का जप करता हुआ मोक्ष प्राप्त करता है । 'क्ष्वों' विद्या का जप करने का भी विधान है, जिसे भाल-प्रदेश पर स्थिर करके एकाग्र मन से चिन्तनमनन करने से कल्याण होता है। इस प्रकार साधक को कभी ललाट पर 'क्ष्वीं' विद्या का, तो नासान पर प्रणव ॐ का तथा कभी शून्य अथवा अनाहत" का अभ्यास करना चाहिए। इस प्रकार के ध्यान से अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं तथा निर्मल ज्ञान का उदय होता है ।। इस प्रकार पदस्थ ध्यान में चित्त को स्थिर करने के लिए पदों (बीजाक्षरों, मंत्राक्षरों) का आलम्बन लिया जाता है, और आत्मसमीप १. वही, ३५१५०-५४ २. पंचवर्णमयी पंचतत्त्वा विद्योद्धृता श्रुताम् । अभ्यस्यमाना सततं भवक्लेशं निरस्यति ।। -योगशास्त्र, ८१४१ ३. मंगलोत्तम-शरण-पदान्यव्यग्र-मानसः । चतुश्रमाश्रमाण्येव स्मरन् मोक्षम् प्रपद्यते ॥ -वही, ८१४२ ४. विद्याक्ष्वा इति मालस्थां ध्यायेत्कल्याणकारकम् । -वही, ८।५७ ५. अनाहत शब्द ९ अक्षरों से मिलकर बना हुआ है --यथा (१) ॐकार; (२) अनुस्वार, (३) ईकार, (४) ऊर्ध्वरेफ, (५) हकार, (६) हकार, (७) निम्न रेफ, (८) अनुस्वार और (९) ईकार । ॐबिन्द्राकारहरीद्धवा रेफबिन्द्वानवाक्षरम् । मालाधः स्यन्दि पीयूषबिन्दु विदुरनाहतम् ॥ -ज्ञानार्णव, पृ० २ ६. नासाग्ने प्रणवः शून्यमनाहतमिति त्रयम् । ध्यायन् गुणाष्टकं लब्ध्वा ज्ञानमाप्नोति निर्मलम् ॥ -योगशास्त्र, ८।६० Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन ले जानेवाली जपविधियों का अभ्यास किया जाता है। जपविधियों से विभिन्न लब्धियां भी प्राप्त होती हैं, जिनसे साधक को दूर रहना चाहिए; क्योंकि उनका लक्ष्य चित्त को शुद्ध और एकाग्र करना है, न कि जादूटोना करना । वस्तुतः योगी सांसारिक प्रपंचों से रहित होता है, इसलिए उसके ध्यान की शुद्धि अवश्य होती है। लेकिन जो रागद्वेषादि से मोहित होकर उसे दूर करने के विचार से ध्यान करता है, उसको सिद्धियां प्राप्त नहीं होती।' इस ध्यान के द्वारा योगी इन्द्रियलोलुपता से रहित स्थिरमन, निरोग, उदारअन्तःकरण, शरीर से गंधयुक्त मलमूत्रादि कम करने वाला तथा मितभाषी होता है। (३) रूपस्थ ध्यान-इस ध्यान में साधक अपने मन को तीर्थंकर अथवा सर्वज्ञदेव पर केन्द्रित करता है अर्थात् तीर्थंकर के गुणों एवं आदर्शो' को अपने समक्ष लाता है अथवा उन्हें अपने में आरोपित करके मन को स्थिर करता है। अरहंत भगवान् के स्वरूप का अक्लम्बन करके किया जानेवाला ध्यान रूपस्थ ध्यान कहलाता है। रूपस्थ ध्यान का साधक रागद्वेषादि विकारों से रहित, शान्तकान्तादि समस्त गुणों से युक्त, तथा योगमुद्रा बहाने वाला, अतिशय गुणों से युक्त जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा का निर्मल चित्त से ध्यान करनेवाला होता है। ऐसा योगी वीतराग होकर कर्मों से मुक्त होता है, अन्यथा रागी का ध्यान करने से वह स्वयं रागी बन जाता है, क्योंकि आत्मा १. वीतरागस्य विज्ञेया ध्यानसिद्धिर्धवं मुनेः । क्लेश एव तदर्थ स्याद्रागार्तस्येह देहिनः ।। - ज्ञानार्णव, ३५।११५ २. अलौल्यमारोग्यमनिष्ठुरत्वं गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पम् । कान्तिः प्रसादः स्वरसौम्यता च योगप्रवृत्तेः प्रथमं हि चिह्नम् ॥ -ज्ञानार्णव में उद्धृत, ३८।१३ (१) ३. अर्हतो रूपमालम्ब्य ध्यानं रूपस्थमुच्यते। -योगशास्त्र, ९७ ४. योगशास्त्र, ९।८-१०; ज्ञानार्णव, अध्याय ३६ ५. वीतरागो विमुच्येत वीतरागं विचिन्तयन् । रागिणं तु समालम्ब्य रागी स्यात् क्षोभणादिकृत् । -योगशास्त्र, ९:१३ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : ध्यान ૧૮૧ के परिणाम जिन-जिन भावों से युक्त होते हैं, उन्हीं के अनुरूप वे परिणत हो जाते हैं। (४) रूपातीत ध्यान-रूपातीत ध्यान का अर्थ है रूप-रंग से अतीत निरंजन, निराकार, ज्ञानशरीरी आनन्दस्वरूप स्मरण करना ।२ इस अवस्था में ध्याता और ध्येय एकरूप हो जाते हैं । अत: इस अवस्था को समरसीभाव भी कहा गया है ।। . इस तरह पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ तथा रूपातीत ध्यानों द्वारा क्रमशः शरीर, अक्षर, सर्वज्ञदेव तथा सिद्धात्मा का चिंतन किया जाता है; क्योंकि स्थूल ध्येयों के बाद क्रमशः सूक्ष्म और सूक्ष्मतर ध्येय का ध्यान करने से मन में स्थिरता आती है और ध्याता एवं ध्येय में कोई अन्तर नहीं रह जाता। धर्मध्यान के इन भेद-प्रभेदों के माध्यम से योगी ध्यान की स्थिरता को प्राप्त करने में समर्थ होता है और उसका चित्त किसी एक ही ध्येय में केन्द्रित हो जाता है। वैसी स्थिति में योगी शरीरादिक परिग्रहों एवं इन्द्रियादिक विषयों से सर्वथा निवृत्त हो जाता है और एकाग्र होकर आत्मा में अवस्थित हो जाता है । अर्थात् धर्मध्यान में योगी बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करके बाह्य वस्तु का आलम्बन लेकर आत्म-समीपस्थ होने के लिए प्रयत्नशील होता है। लेकिन यह ध्यान सभी मनुष्य नहीं कर सकते, अपितु वे ही ( योगी ) कर सकते हैं जो भले ही प्राणों का त्याग करना पड़े, लेकिन संयम से च्युत न हों, अन्य जोवों के सुखदुःख को अपने सुख-दुःख जैसा समझें, परोषह-जयी हों, मुमुक्षु हों, रागद्वेषादि कषायों-दुष्प्रवृत्तियों एवं कामवासनाओं से मुक्त हों, शत्रु-मित्र, १. येन येन हि भावेन युज्यते यंत्रवाहकः । -वही, ९।१४ २. (क) चिदानन्दमयं शुद्धममूर्तं ज्ञानविग्रहम् । ___ स्मरेद्यत्रात्मनात्मानं तद्रूपातीतमिष्यते ॥ -ज्ञानार्णव, ३७:१६ (ख) योगशास्त्र, १०११ ३. योगशास्त्र, १०॥३-४ ४. अतिक्रम्य शरीरादिसंगानात्मन्यवस्थितः । नैवाक्षमनसोर्योगं करोत्यैकाग्रतां श्रितः ॥ -ज्ञानार्णव, ३८०९ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन निन्दा-स्तुति आदि में समताभाव धारण करनेवाले हों, परोपकारी हों और प्रशस्तबुद्धि हों। ___ शुक्लध्यान धर्मध्यानपूर्वक ही होता है। इसलिए धर्मध्यान को योगसाधना का प्रथम सोपान माना गया है, क्योंकि आत्मा के शुद्ध, ज्ञानस्वरूप को तभी जाना जा सकता है जब योगी कषायों, इन्द्रियादि वासनाओं तथा कर्मो का सर्वथा उपशमन धर्मध्यान द्वारा कर लेता है। अतः धर्मध्यान के अन्तर्गत योगी ध्यान के विभिन्न साधनों जैसे जप, मन्त्र, विद्याओं का सहारा लेकर, व्रतों के सम्यक् आचरण से स्थूल वस्तुओं को ध्यान में रखते हुए सूक्ष्म तत्व की ओर गति करता है । इस प्रकार धर्मध्यान से मन की स्थिरता, पवित्रता एवं निर्मलता प्राप्त होती है और आत्म-ज्ञान की उपलब्धि से योगी आत्मा में तदाकार हो जाता है, जहाँ शुक्लध्यान की स्थिति है । इस दृष्टि से धर्मध्यान आत्मप्राप्ति की भूमिका उपस्थित करता है। (इ) शुक्लध्यान __आत्मा की अत्यन्त विशुद्धावस्था को शुक्लध्यान कहा गया है। वस्तुतः इस ध्यान से मन की एकाग्रता के कारण आत्मा में परम विशुद्धता आती है और कषायों, रागभावों अथवा कर्मो का सर्वथा परिहार हो जाता है। समवायांग के अनुसार श्रुत के आधार से मन की आत्यन्तिक स्थिरता एवं योग का निरोध शुक्लध्यान है ।' स्थानांगसूत्र में शुक्लध्यान के प्रकार, लक्षण, आलम्बन तथा अनुप्रेक्षाओं का निरूपण है।' शुक्लध्यान कषायों के सर्वथा उपशांत होने पर होता है तथा चित्त, क्रिया और इन्द्रियों से रहित होकर ध्यान-धारणा के विकल्प से भी मुक्त होता है । यह ध्यान धर्मध्यान की भूमिका के बाद प्रारम्भ १. योगशास्त्र, ७२-७ . २. समवायांग, ४ । ३. स्थानांग, अध्ययन ४, सूत्र ६९-७२ (जैन विश्वभारती द्वारा प्रकाशित) ४. कषायमलविश्लेषात्प्रशमाद्वा प्रसूयते ।। यतः पुंसामतस्तज्जैः शुक्लमुवतं निरुक्तिकम् ॥ -ज्ञानार्णव, ३९।५ निष्क्रिय करणातीतं ध्यानधारणवर्जितम् । अन्तर्मुखं च यच्चित्तं तच्छुक्लमिति पठ्यते ॥ - -ज्ञानार्णव में उद्धृत, ३९।४ (१)) Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : ध्यान १८३ होता है । इस ध्यान की प्रक्रिया के लिए किसी बाह्य ध्येय की अपेक्षा नहीं होती, क्योंकि इस अवस्था तक पहुँचने पर मन इतना स्थिर हो गया होता है कि उसे आत्मा के अतिरिक्त दूसरी कुछ भी दिखाई नहीं देता । इस ध्यान के चार आलम्बन हैं- क्षमा, मार्दव, आर्जव एवं मुक्ति | शुक्लध्यान मुक्ति प्राप्ति का सेतु है, इसलिए योगी को रूपातीत एवं निराकार आत्मा का ध्यान करने के लिए कहा गया है ।" यह ध्यान करने में वे ही समर्थ हैं, जिन्होंने समताभाव की वृद्धि कर ली है और जो वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले अर्थात् स्वस्थ शरीरवाले एवं श्रुतधारी योगी हैं । * शुक्लध्यान के चार प्रकार हैं" - (अ) पृथकत्वश्रुत सविचार, (आ) एकत्व श्रुतअविचार, (इ) सूक्ष्मक्रियाप्रतिपत्ति और (ई) उत्सन्न- क्रियाप्रतिपति । इन चार प्रकारों में योग की अपेक्षा से जीव की तरतमता दर्शित है, क्योंकि जीव सम्पूर्ण योग का निरोध एकसाथ नहीं कर सकता, धीरे-धीरे क्रमशः करता है । अतः प्रथम दो प्रकार छद्मस्थ अर्थात् अल्पज्ञानियों के लिए विहित हैं, क्योंकि उनमें श्रुतज्ञानपूर्वक पदार्थों का अवलम्बन होता है तथा शेष दो प्रकार कषायों से पूर्णतः रहित होने के कारण केवलज्ञानी के लिए निर्देशित हैं, क्योंकि यह ध्यान पूर्णतः सर्वज्ञ १. ( क ) अहखेति - मद्दव ऽज्जव मुत्तीओ जिणमयप्पहाणाओ । आलंबणाई जेहि सुक्कझाणं समारुहइ || — ध्यानशतक, ६९; भगवतीशतक, २५/७ (ख) खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे । — स्थानांग, अध्ययन ४ २. मुक्ति श्रीपरमानंदध्यानेनानेन योगिना । रुपातीतं निराकारं ध्यानं ध्येयं ततोऽनिशं ॥ - योगप्रदीप, १०७ ३. एएया पगारेणं जायइ सामाइयस्स सुद्धि ति । तत्तो सुक्कज्झाणं कमेण तह केवलं चैव ॥ - योगशतक, ९० ४. इदमादि- संहनना एवालं पूर्ववेदिनः कर्तुम् । स्थिरतां न याति चित्तं कथमपि यत्स्वल्प सत्त्वानाम् ॥ – योगशास्त्र, ११ १२ - योगशास्त्र, ११५ ५. ज्ञेयं नानात्वश्रुतविचारमैक्य श्रुताविचारं च । सूक्ष्म क्रियमुत्सन्न क्रियामिति भेदैश्चतुर्धा तत् । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन के ही निरालम्बपूर्वक होता है। इस सन्दर्भ में अनेकपन अर्थात् विभिनता को पृथकत्व कहा गया है तथा शास्त्रविहित ज्ञान को वित्त, अर्धव्यञ्जन एवं योग के संक्रमण को विचार कहा है । प्रथम दो ध्यानों में श्रुत का अवलम्बन होने के कारण साधक का मन एक ही आलम्बन में स्थिर होते हुए भी, अर्थ-व्यञ्जनादि से संक्रमित होता रहता है । यहाँ एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में स्थिर होना अर्थसंक्रान्ति और एक व्यञ्जन से दूसरे व्यंजन में स्थिर होना व्यंजनसंक्रांति तथा उसी प्रकार एक योग से दूसरे योग में गमन करना योग-संक्रांति है । इस प्रकार प्रथम दो ध्यानों में एक अर्थ से दूसरे अर्थ में, एक शब्द से दूसरे शब्द में और एक योग से दूसरे योग में आश्रय लेकर चिन्तन किया जाता है, यद्यपि तीनों के चिन्तन करने का विषय एक ही होता है । (अ) पृथकत्व श्रुत-स विचार ( पृथकत्व - वितर्कसविचार ) - इस ध्यान में पृथक्-पृथक् रूप से श्रुत का विचार होता है अर्थात् किसी एक द्रव्य में उत्पाद - व्यय- ध्रौव्य आदि पर्यायों का चिन्तन श्रुत का आधार लेकर करना पृथकत्व - वितर्क सविचार ध्यान है । इस ध्यान में अर्थ-व्यञ्जन ( शब्द ) तथा योग का संक्रमण होता रहता है ।" उस समय ध्याता कभी तो अर्थ का चिन्तन करते-करते शब्द का चिन्तन करने लगता है और कभी शब्द का चिंतन करते-करते अर्थ का इस प्रकार मन, वचन एवं काय रूप योग में भी कभी मनोयोग से काययोग या वचनयोग में, वचनयोग से १. छद्मस्थयोगिनामाद्ये द्वे शुक्ले परिकीर्तिते । द्वे चान्ते क्षीणदोषाणां केवलज्ञानचक्षुषाम् ॥ श्रुतज्ञानार्थसम्बन्धाच्छू तालम्बनपूर्वके । पूर्वे परे जिनेन्द्रस्य निः शेषालम्बनच्युते ॥ - ज्ञानार्णव, ३९।६-७ २. पृथक्त्वं तत्र नानात्वं वितकं श्रुतमुच्यते । अर्थव्यञ्जनयोगानां वीचार : संक्रमः स्मृतः ॥ - वही, ३९।१४ ३. ज्ञानार्णव, ४२।१५-१६ ४. एकत्रपर्यायाणां विविधनयानुसरणं श्रुताद् द्रव्ये । अर्थव्यञ्जन-योगान्तरेषु संक्रमण युक्तमाद्यं तत् ॥ ५. अध्यात्मसार, ५७४-६७ - योगशास्त्र, ११६, तथा ध्यानशतक, ७७-७८ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : ध्यान १८५ काययोग अथवा मनोयोग में, काययोग से मनोयोग या वचनयोग में संक्रमण होता रहता है । अतः अर्थ-शब्द-योग की दृष्टि से, संक्रमण होने पर भी, ध्येय एक ही रहता है और मन की स्थिरता भी बनी रहती है। कहा है कि जब तक इन तीनों योगों को आत्मबद्धि से ग्रहण किया जाता है, तब तक यह जीव संसार में ही रहता है', श्रुतपूर्वक मन-वचन-कायादि में विचारों के संक्रमण के कारण जीव संसारी ही रहता है, फिर भी पूर्ववर्ती ध्यानों की अपेक्षा मन की स्थिरता तथा समताभाव की वृद्धि इस ध्यान में अधिक होती है। यही कारण है कि योगी मुक्ति की ओर अग्रसर होने लगता है। एक शब्द से दूसरे शब्द पर तथा एक योग से दूसरे योग पर जाने के कारण ही इस ध्यान को सविचार-सवितकं कहा गया है । (आ) एकत्व-श्रत अवीचार-इस ध्यान में श्रुत के आधार पर ही अर्थ-व्यञ्जन-योग के संक्रमण से रहित एक पर्यायविषयक ध्यान किया जाता है। अर्थात् इसमें वितर्क का संक्रमण नहीं होता और इसके विपरीत एकरूप में स्थिर होकर चिन्तन किया जाता है। जहाँ पहले प्रकार के ध्यान के अन्तर्गत योगी का मन अर्थ-व्यञ्जन-योग में चिन्तन करते हुए एक ही आलम्बन में उलट-फेर करता रहता है, वहाँ इस ध्यान में योगी की मन-स्थिरता सबल हो जाती है, आलम्बन का उलट-फेर बन्द हो जाता है तथा एक ही द्रव्य की विभिन्न पर्यायों के विपरीत एक ही पर्याय को ध्येय बना लिया जाता है। अतः जिसने प्रथम ध्यान द्वारा अपने चित्त को जीत लिया है, जिसके समस्त कषाय शांत हो गये हैं तथा जो कर्मरज को सर्वथा नष्ट करने के लिए तत्पर है-ऐसा साधक ही इस १. स्वबुध्या यावद्गृण्हीयात् कायवाक्चेतसां त्रयम् । संसारस्तावदेतेषां भेदाभ्यासे तु निर्वृतिः ॥ -समाधितंत्र, ६२ २. शब्दाच्छब्दान्तरं यायाद्योगं योगान्तरादपि । सवीचारमिदं तस्मात्सवितकं च लक्ष्यते ॥ -ज्ञानार्णव में उद्धृत, ३९।१९(२) ३. (क) एवं श्रुतानुसारादेवक्त्व-वितर्कमेक-पर्याये । अर्थ-व्यअन-योगान्तरेष्वसंक्रमणमन्यत्तु ॥ -योगशास्त्र, ११७ (ख) ध्यानशतक, ७९-८० Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन द्वितीय ध्यान के योग्य होता है । फलतः इस ध्यान की सिद्धि होने के बाद सदा के लिए घातिया कर्म (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय) विनष्ट हो जाते हैं । अर्थात् इस द्वितीय ध्यान का योगी आत्मा की अत्यन्त विशुद्ध अवस्था अर्थात् केवलदर्शन एवं केवलज्ञान प्राप्त करता है । अतः उस योगी को सम्पूर्ण जगत् हस्तामलकवत दीखने लगता है, ४ क्योंकि केवलज्ञान में इतनी शक्ति होती है कि समस्त संसार की भूत, भविष्यत् एवं वर्तमान तीनों कालों की घटनाओं का युगपत ज्ञान होता है । उसे अनन्तसुख, अनन्तवीर्य आदि की भी प्राप्ति सहज हो जाती है ।" पृथ्वीतल के समस्त जीव केवलज्ञानी को नमस्कार करते हैं, उनके धर्म-प्रवचनों को सभी प्राणी अपनी भाषा में समझते हैं, वे जहाँ भी घूमते हैं वहाँ किसी भी प्रकार की महामारी अथवा दुर्भिक्ष वगैरह नहीं होते । ऐसे केवललब्धि प्राप्त तीर्थङ्कर से सहज स्व-पर कल्याण होता है । तीर्थङ्कर नामकर्म के उदय के कारण उन्हें अनेक देव-देवाङ्गनाएँ आकर बन्दना करने लगते हैं, उनके उपदेश श्रवण के लिए देवों द्वारा बृहद् समवसरण ( सभा मण्डप ) की रचना की जाती है, पशु-पक्षी अर्थात् सभी प्राणी अपने वेर भाव को भूलकर एकत्र बैठने लगते हैं, तथा सभा मण्डप के मध्य में स्थित तीर्थंकर भगवान् चार शरीर के रूप में दिखाई देने लगते हैं । यद्यपि इन्हें अन्य प्रकार की v १. एवं शांतकषायात्मा कर्मकक्षाशुशुक्षणिः । एकत्वध्यानयोग्यः स्यात्पृथकत्वेन जिताशयः । -ज्ञानार्णव में उद्धृत, ३९।१९ (४) २. ज्ञानावरणीयं दृष्टयावरणीयं च मोहनीयं च । विलयं प्रयान्ति सहसा सहान्तरायेण कर्माणि ॥ - योगशास्त्र, ११।२२ ३. आत्मलाभमथासाद्य शुद्धि चात्यन्तिकीं पराम् । प्राप्नोति केवलज्ञानं तथा केवलदर्शनम् ॥ - ज्ञानार्णव, ३९।२६ ४. सम्प्राप्य केवलज्ञानदर्शने दुर्लभे ततो योगी । जानाति पश्यति तथा लोकालोकं यथावस्थम् ॥ - योगशास्त्र, ११।२३ ५. अनन्त सुखवीर्यादिभूतेः स्यादग्रिमं पदम् । - ज्ञानार्णव, ३९।२८ ६. योगशास्त्र, ११।२४-४४ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ योग के साधन : ध्यान अनेक लब्धियाँ प्राप्त होती हैं, तथापि उन्हें भोगने की इच्छा वे नहीं करते हैं। जिन जीवों के तीर्थंकर नामकर्म का उदय नहीं है, वे भी अपने इस ध्यान के बल से केवलज्ञान को प्राप्त होते हैं तथा आयुकर्म के निःशेष होने तक साधारण जीवों को धर्मोपदेश देते हैं और अन्त में निर्वाण प्राप्त करते हैं। इस प्रकार चाहे तीर्थंकर हों या सामान्यकेवली, जिन्होंने योग ( मन-वचन-काय) की शुद्धि की है, वे विशुद्ध आत्मा के ध्यान एवं चिन्तन द्वारा अनन्त कर्मपुद्गलों को क्षणमात्र में नष्ट कर देते हैं । __ (ई) सक्षम-क्रिया-प्रतिपाति-अरहन्त परमेष्ठी की अवस्था में जब आयुकर्म अन्तर्मुहूर्त तक ही अवशिष्ट रहता है और अघातिया कर्मों में अर्थात् नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीनों की स्थिति आयुकर्म से अधिक हो जाती है तब उन्हें समरूप देने के लिए अथवा समान करने के लिए तीर्थंकर एवं सामान्यकेवली-इन दोनों को समुद्घात की अपेक्षा होती है। यह समुद्घात आठ दण्ड में होता है। ऐसा करते समय केवली भगवान् तीन समय में अपने आत्मप्रदेशों को दण्ड, कपाट एवं प्रस्तर के रूप में फैला देते हैं तथा चौथे समय में सम्पूर्ण लोक को व्यापते हैं। लोक में अपने आत्मप्रदेशों को व्याप्त करके योगी तीनों अघातिया कर्मों ( वेदनीय, नाम एवं गोत्र ) की स्थिति घटाकर आयुकर्म के समान करते हैं। तत्पश्चात् उसी क्रम में वे आत्मप्रदेश पूर्ववत् शरीर में प्रविष्ट होकर अवस्थित हो जाते हैं । इसी प्रकार समुद्धात की क्रिया पूर्ण होती है। १. तीर्थकरनामसंज्ञं न यस्य कर्मास्ति सोऽपि योगबलात् । उत्पन्न केवल: सन् सत्यायुषि बोधयत्युर्वीम् ॥ -योगशास्त्र, १११४८ २. यतो योग विशुद्धानामनन्त-कर्म-पुद्गलाः।। । प्रणश्यन्ति क्षणार्धन स्वात्म-ध्यानादि-भावनैः ।। -समाधिमरणोत्साहदीपक, १६२ ३. यदायुरधिकानि स्युः कर्माणि परमेष्ठिनः । समुद्धातविधि साक्षात् प्रागेवारभते तदा ॥-ज्ञानार्णव, ३९-३८ ४. वही, ३९१३९-४२; योगशास्त्र, १११४९-५२ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन समुद्घात की इस क्रिया के पश्चात् योगी बादर (स्थूल ) काययोग का अवलम्बन लेकर बादर मनोयोग एवं वचनयोग का निरोध करते हैं। वे सूक्ष्म काययोग का अवलम्बन लेकर बादरकाययोग का निरोध करते हैं। इसके पश्चात् वे सूक्ष्म काययोग के अवलम्बन से सूक्ष्म मनोयोग तथा वचनयोग का भी निरोध कर डालते हैं। ऐसी अवस्थाओं में जो ध्यान किया जाता है उसे ही सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान कहते हैं। ___इस ध्यान में योगी के मोक्षप्राप्ति का समय निकट आ जाने पर तीन योगों में मनोयोग एवं वचनयोग का पूर्णतः निरोध हो जाता है, लेकिन काययोग में स्थूल काययोग का निरोध होकर भी केवल सूक्ष्मकाययोग की क्रिया अर्थात् श्वासोच्छ्वास ही शेष रहता है । अतः इस ध्यान में क्रमशः मन, वचन एवं काय का निरोध होता है और काययोग के अन्तर्गत केवल श्वास जैसी सूक्ष्म क्रिया ही अवशिष्ट रहती है। इस ध्यान को प्राप्ति के बाद योगी अन्य ध्यानों में नहीं लौटता और वह अन्तिम समय में सूक्ष्म क्रिया का भी त्याग करके मुक्ति प्राप्त करता है। (ई) उत्पन्न क्रियाप्रतिपाति ( व्यपरतक्रियानिवृत्ति )-इस ध्यान में उपयुक्त ध्यान की अवशिष्ट सूक्ष्म क्रिया की भी निवृत्ति हो जाती है तथा अ, इ, उ, ऋ, ल इन पाँच ह्रस्व स्वरों का उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतने समय में केवली भगवान् शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हैं। जहाँ वे पर्वत की भाँति निश्चल रहते हैं। यह ध्यान १. योगशास्त्र, १११५३-५५ २. (क) निर्वाणगमनसमये केवलिनो दरनिरुद्धयोगस्य । सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपाति तृतीयं कीर्तितं शुक्लम् ॥-योगशास्त्र, ११।८ (ख) सूक्ष्मक्रियानिवृत्याख्यं, तृतीयं तु जिनस्यतत् । अर्धरुद्धांगयोगस्य, रुद्धयोगद्वयस्य च ॥ -अध्यात्मसार, ५१७८ ३. ध्यानशतक, ८१ ४. (क) लघुवर्ण-पंचकोद्गिरणतुल्यकालमवाप्य शैलेशीम् । -योगशास्त्र, १११५७ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के साधन : ध्यान १८९ चौदहवें अयोगी नामक गुणस्थान में होता है जिसमें केवली भगवान् उपान्त्य में ७२ कर्मप्रकृतियों तथा इसी गुणस्थान के अन्त समय की अवशिष्ट १३ कर्मप्रकृतियों को भी नष्ट कर देते हैं। इस प्रकार शेष अघातिया कर्मों का नाश करके केवलीभगवान् इस संसार से पूर्णतः सम्बन्ध तोड़ लेते हैं और सीधे ऊर्ध्वगमन करके लोक के शिखर पर विराजमान होते हैं, क्योंकि उसके आगे लोकाकाश नहीं है और न धर्मास्तिकाय ही है, अतः उसके आगे गति नहीं है । वह सिद्ध परमात्मा लोक के शिखर पर अवस्थित होकर स्वाभाविक अनन्तगुणों के वैभव से परिपूर्ण अनन्तकाल तक रहता है।' (ख) तुरीयंतु समुच्छिन्न-क्रियमप्रतिपाति तत् । शैलवन्निष्प्रकम्पस्य, शैलेस्यां विश्ववेदिनः ।।-अध्यात्मसार, ५७९, १. द्वासप्ततिविलीयन्ते कर्मप्रकृतयस्तदा । अस्मिन् सूक्ष्मक्रिये ध्याने देवदेवस्य दुर्जयाः ॥ विलयं वीतरागस्य तत्रयान्ति त्रयोदश । कर्मप्रकृतयः सद्यः पर्यन्ते या व्यवस्थिताः॥-ज्ञानार्णव, ३९।४७ व ४९ २. ज्ञानार्णव, ३९-५५ ३. ज्ञानार्णव, ३९।५८ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-विकास योग-सिद्धि के लिए आध्यात्मिक विकास अतीव आवश्यक है। व्यावहारिक परिभाषा में आध्यात्मिक विकास ही चारित्र-विकास है और इस आध्यात्मिक अथवा आत्मिक विकास-क्रम में ही वैराग्य तथा समताभाव का उदय होता है, जो योग का प्रमुख अंग है।' यद्यपि आत्मा स्वभावतः शुद्ध है, परन्तु जब वह अविद्या, कर्म अथवा माया के बन्धन में होती है तब विकृत होकर नाना प्रपंचों अथवा विभिन्न अच्छेबुरे कर्मो का कारण बन जाती है। अतः आत्मा की परिशुद्धि के लिए आचारसम्बन्धी व्रत-नियमों का पालन आवश्यक होता है, ताकि समस्त कर्ममल का नाश हो सके और नये कर्मों का बंधन भी रुक सके । इन्हीं अविद्याओं, कर्मो' अथवा माया-प्रपंचों को दूर करने और आत्मा को विशुद्ध अवस्था में लाने का प्रयत्न विभिन्न योग-परम्पराओं का अभीष्ट है; क्योंकि विशुद्ध आत्मा ही मोक्ष की अधिकारी है। इस दृष्टि से योग के सन्दर्भ में आध्यात्मिक अथवा आत्मिक विकास का वर्णन वैदिक, बौद्ध एवं जैन तीनों परम्पराओं में हुआ है। वैदिक योग और आध्यात्मिक विकास _वैदिक परम्परा के योगविषयक विभिन्न ग्रन्थों में आत्मिक विकास की कई प्रकार की चर्चा मिलती है। इन ग्रन्थों में से योगदर्शन और योगवासिष्ठ में जीव के आध्यात्मिक विकास-क्रम का वर्णन सर्वांगीण और समुचित ढंग से हुआ है, क्योंकि इन ग्रन्थों में अध्यात्म के साथसाथ योगविषय का भी समाहार हुआ है। इस दृष्टि से योगदर्शन तथा योगवासिष्ठ में वर्णित आध्यात्मिक विकासक्रम का दिग्दर्शन कर लेना प्रासंगिक होगा। योगदर्शनानुसार आध्यात्मिक विकास-क्रम में चित्त की पाँच भूमिकाओं का उल्लेख हुआ है, जिनमें एक के बाद दूसरी अवस्था अथवा १. योगस्य पन्थाः परमस्तितिक्षा ततो महत्यात्म-बलस्य पुष्टिः ।। ___ -अध्यात्मतत्त्वलोक, ४।११ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म म-विकास १९१ भूमिका क्रमशः चित्त शुद्धि की परिधि को बढ़ाती जाती है। वे पाँच भूमिकाएँ इस प्रकार हैं- (१) क्षिप्त, (२) मूढ, (३) विक्षिप्त, (४) एकाग्र और ( ५ ) निरुद्ध । इनमें प्रथम तीन भूमिकाएँ अज्ञान अर्थात् अविकास की होने के कारण योगश्रेणी में परिगणित नहीं होतीं, क्योंकि क्षिप्रावस्था में रजोगुण के कारण साधक में चित्त की चंचलता अत्यधिक होती है । मूढ़ावस्था में तमोगुण के कारण कर्तव्याकर्त्तव्य का विचार नहीं रहता तथा क्रोध कषाय का प्राबल्य होता है और सत्वगुण के आविर्भाव से किसी-किसी समय स्थिरता को प्राप्त होनेवाला चित्त विक्षिप्त कहलाता है, जिसमें योग-विघ्नों के कारण चित्त को चंचलता अत्यधिक होती है । अन्तिम दो भूमिकाएँ ही योग श्रेणी में योग्य मानी जाती हैं, क्योंकि एकाग्र अवस्था में जहाँ अविद्यादि क्लेश तथा कर्मबंधनों को क्षीण किया जाता है और चित्त को बाह्य वृत्तियों से हटाकर एक ही ध्येय-वस्तु में एकाग्र किया जाता है, वहाँ निरुद्ध अवस्था में सम्प्रज्ञात समाधि की ओर अभिमुख हुआ जाता है, जहाँ केवल संस्कार ही शेष रह जाते हैं और वृत्तियों का पूर्णतः शमन हो जाता है । अतः प्रथम तीन भूमिकाओं में साधक केवल चारित्र अथवा आचारादि का पालन करने में लगा रह जाता है, क्योंकि इन अवस्थाओं में चित्त की अस्थिरता सबसे बड़ी बाधक होती है । इन भूमिकाओं को अधिकसित भूमिकाएँ इसी दृष्टि से कहा गया है । परन्तु एकाग्र और निरुद्ध अवस्था में योगी अथवा साधक के संस्कार भी नष्ट हो जाते हैं; चित्तवृत्तियाँ क्षीण हो जाती हैं और मन एकाग्र हो जाता है। इस प्रकार इस भूमिका को असम्प्रज्ञात समाधि भी कहा जाता है और यह कैवल्य के लिए प्रमुख भी मानी जाती है । योगवासिष्ठ के अनुसार आत्म-विकास को दो श्रेणियाँ हैं— अविकासावस्था एवं विकासावस्था । अविकासावस्था के अन्तर्गत जीव की सात अवस्थाओं का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार हैं - (१) बीजजाग्रत, (२) जाग्रत, (३) महा १. क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तमेकाग्रं निरुद्धमिति चित्तभूमयः । — योगदर्शन, व्यासभाष्य, १1१ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन जाग्रत, (४) जाग्रत-स्वप्न, (५) स्वप्न, (६) स्वप्न-जाग्रत और (७) सुषुप्ति । (१) बीजजाग्रत-सृष्टि के आदि में चिति का नामरहित और निर्मल चिंतन, क्योंकि इसमें जाग्रत अवस्था का अनुभव बीजरूप से रहता है। ... (२) जाग्रत-परब्रह्म से तुरन्त उत्पन्न जीव का ज्ञान, जिसमें पूर्वकाल की कोई स्मृति नहीं होती। (३) महाजाग्रत-पहले जन्मों में उदित और दृढ़ता को प्राप्त ज्ञान । (४) जाग्रत-स्वप्न-यह ज्ञान भ्रम की कोटि में आता है, क्योंकि इसका उदय कल्पना द्वारा जाग्रत दशा में होता है और इस ज्ञान के द्वारा जीव कल्पना को भी सत्य मान बैठता है। (५) स्वप्न-महाजाग्रत अवस्था के भीतर निद्रावस्था में अनुभूत विषय के प्रति जागने पर जब इस प्रकार का ज्ञान हो कि यह विषय असत्य है और इसका अनुभव मुझे थोड़े समय के लिए ही हुआ था। (६) स्वप्न-जाग्रत-इस अवस्था में अधिक समय तक जाग्रत अवस्था के स्थूल विषयों का और स्थूल देह का अनुभव नहीं होता और स्वप्न ही जाग्रत के समान होकर महाजाग्रत-सा प्रतीत होता है। (७) सुषुप्ति-पूर्वोक्त अवस्थाओं से रहित, भविष्य में दुःख देनेवाली वासनाओं से युक्त जीव को अचेतन स्थिति ।। इनमें प्रथम दो अवस्थाओं अथवा भूमिकाओं में रागद्वेषादि कषाय का अल्प अंश होने के कारण वनस्पति एवं पशु-पक्षी में होती हैं, लेकिन तत्रारोपितमज्ञानं तस्य भूमीरिमाः शृणुः । बीजजाग्रत्तथा जाग्रन्महाजाग्रत्तथैव च ।। जाग्रत्स्वप्नस्तथा स्वप्नःस्वप्नजाग्रतसुषुप्तकम् । इति सप्तविधो मोहः पुनरेव परस्परम् ।। -योगवासिष्ठ, उत्पत्तिप्रकरण, ११७।११-१२ २. वही, ३।११७, १४-२४; योगवासिष्ठ और उसके सिद्धान्त, पृ० २३४-३६ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ अध्यात्म-विकास आगे की ओर सभी भूमिकाओं में कषायों की अत्यधिकता होती है, अतः वे भूमिकाएं मनुष्य की ही हैं, क्योंकि क्रोध, मान, माया आदि की तीव्रता मनुष्य में ही पायी जाती है। इस प्रकार प्रथम भूमिका में जितनी अज्ञानता होती है, उसकी परवर्ती अवस्थाओं में उतनी अज्ञानता नहीं रहती। फिर भी ये सात भूमिकाएं अज्ञानावस्था की ही कही जाती हैं. क्योंकि भले-बुरे का ज्ञान उनमें नहीं हो पाता। विकसित अवस्था-इस अवस्था में पहले की अपेक्षा विवेक-शक्ति की उपस्थिति के कारण साधक का मन आत्मा के वास्तविक रूप को पहचानने के लिए उत्सुक रहता है, जिससे कि वह बुरे विचारों को त्याग कर आत्मा के समीप ले जानेवाले प्रशस्त विचारों को लगन के साथ ग्रहण कर सके । इस संदर्भ में आत्मा को बोध देनेवाली ज्ञान की सात भूमिकाओं का उल्लेख हआ है, जो क्रमशः स्थल आलम्बन से हटाकर साधक को सूक्ष्म की ओर ले जाती हैं; जहाँ मोक्ष की स्थिति है। यद्यपि मोक्ष और सत्य का ज्ञान दोनों पर्यायवाची हैं, क्योंकि जिसको सत्य का ज्ञान हो जाता है, वह जीव फिर जन्म नहीं लेता।। योगस्थित ज्ञान की सात भूमिकाएँ। इस प्रकार हैं (१) शुभेच्छा-वैराग्य उत्पन्न होने पर साधक के मन में अज्ञान को दूर करने और शास्त्र एवं सज्जनों की सहायता से सत्य को प्राप्त करने की इच्छा का उत्पन्न होना। (२) विचारणा-शास्त्राध्ययन, सत्संग, वैराग्य और अभ्यास से सदाचार की प्रवृत्ति पैदा होना। (३) तनुमानसा-शुभेच्छा और विचारणा के अभ्यास से इंद्रियविषयों के प्रति असक्तता होने से मन की स्थूलता का ह्रास होना। (४) सत्वापत्ति-पूर्वोक्त तीनों भूमिकाओं के अभ्यास और विषयों की विरक्ति से आत्मा में चित्त की स्थिरता प्राप्त होना। १. ज्ञानभूमिः शुभेच्छास्या प्रथमा समुदाहृता । विचारणा द्वितीया तु तृतीया तनुमानसा ॥ सत्त्वापत्तिश्चतुर्थी स्यात्ततोऽसंसक्ति नामिका । पदार्थ-भावनी षष्ठी सप्तमी तुर्यगा स्मृता ॥ -योगवासिष्ठ, उत्पत्तिप्रकरण, ११८५-६ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन (५) असंसक्ति - इस भूमिका में पूर्वोक्त अवस्थाओं के अभ्यास तथा सांसारिक विषयों में असंसक्ति होने से, सत्ता के प्रकाश में मन स्थिर हो जाता है और साधक आत्मा में ध्यानस्थ होने को उत्सुक हो जाता है । (६) पदार्थभावनी - इस भूमिका में साधक पूर्वोक्त भूमिकाओं के अभ्यास से आत्मा में मन को दृढ़ कर लेता है और समस्त बाह्य पदार्थों की ओर से विमुख हो जाता है । ऐसी अवस्था में साधक को बाहरी सभी पदार्थ असत्य प्रतीत होने लगते हैं । (७) तुर्यगा- पूर्वोक्त छह भूमिकाओं के सतत अभ्यास के कारण साधक को जब भेद में भी अभेद की प्रतीति होने लगती है और जब वह आत्मभाव में अविचलित रूप से स्थिर हो जाता है तो ऐसी स्थिति को तुर्यगा कहते हैं ।" इसे जीवनमुक्ति अवस्था भी कहते हैं । ध्यातव्य है कि विदेहमुक्ति तुर्यगा अवस्था से भिन्न है, एक नहीं । जैन योग में इसी अवस्था से निर्वाण की प्राप्ति होती है । बौद्धयोग और अध्यात्म-विकास वैदिक-योग की ही भाँति बौद्ध योग में भी आध्यात्मिक विकास की भूमिका को चित्तशुद्धि की साधना के लिए अनिवार्य माना गया है, क्यों कि इस विकास की भूमिका नैतिक आचार-विचार के द्वारा चारित्र को विकसित और सशक्त बनाती है और चारित्र ही आध्यात्मिक विकास की रीढ़ है । बताया गया है कि साधक श्रद्धा, वीर्यं, स्मृति, समाधि तथा प्रज्ञा इन पाँच साधनों के सम्यक् परिपालन द्वारा अपने चारित्रिक गठन और विकास के माध्यम से विशुद्ध अवस्था को प्राप्त होता है, जो निर्वाण की प्राप्ति के लिए आवश्यक है । दूसरे शब्दों में निर्वाण अथवा विशुद्ध अवस्था की प्राप्ति की क्रमशः छह अथवा सात स्थितियों का विधान किया गया है, जिनसे आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया सम्पन्न होती है । ये आध्यात्मिक विकास की स्थितियाँ हैं - (१) अन्धपुथुंजन, (२) कल्याण पुथुंजन, (३) सोतापन्न, (४) सकदागामी, (५) औपपातिक १. योगवासिष्ठ, ३।११८ ७ - १६; योगवासिष्ठ एवं उसके सिद्धान्त, पृ. ४५२ २. मिलिन्दप्रश्न, २०१८ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-विकास १९५ तथा (६) अरहा।' इनको पार करता हुआ साधक अपने चारित्रबल से संयम, करुणा एवं वैराग्य प्राप्त करता हैं। इन स्थितियों अथवा अवस्थाओं को और अधिक स्पष्ट करते हुए मिलिन्दप्रश्न में चित्त की सात अवस्थाओं का वर्णन है जो इस प्रकार है (१) संक्लेशचित्त-यह स्थिति अज्ञान अथवा मूढ़ता को है, क्योंकि इस अवस्था में योगी का चित्त राग-द्वेष, मोह एवं क्लेश से युक्त होता है तथा वह शरीर, शोल एवं प्रज्ञा की भावना अर्थात् चिन्तन भी नहीं करता। (२) स्रोतआपन्नचित्त-यह भी अविकास की ही अवस्था है। इस 'स्थिति में साधक बुद्धकथित मार्ग को भलीभांति जानकर, शास्त्र का अच्छी तरह मनन और चिन्तन करके भी चित्त के तीन भ्रममूलक विषयों अर्थात् संयोजनाओं को ही नष्ट कर पाता है, सम्पूर्ण संयोजनाओं को नहीं। (३) सकृदागामोचित्त-इस अवस्था में साधक पाँच संयोजनाओं से मुक्त होता है और उसमें रागद्वेष नाममात्र का रह जाता है। (४) अनागामी चित्त-इस अवस्था में शेष पाँच संयोजनाओं को साधक काटता है और चित्त दस स्थानों में हलका और तेज हो जाता है। 'फिर भी ऊपर की पांच संयोजनाओं में उसका चित्त भारी और मन्द बना ही रहता है। (५) अर्हतचित्त-इस अवस्था में योगी के सभी आस्रव, क्लेश सर्वथा क्षीण हो जाते हैं और वह ब्रह्मचर्यावास को पूरा करके सभी प्रकार के भवपाशों का व्युच्छेद कर डालता है। फलस्वरूप उसका चित्त अत्यन्त शुद्ध एवं निर्मल बन जाता है। ध्यातव्य है कि इस अवस्था में चित्त को १. मझिमनिकाय, ११ २. मिलिन्दप्रश्न, ४।१।३ ३. ये दस संयोजनाएँ अर्थात् बन्धन के कारण इस तरह हैं (१) सक्कायदिट्ठि; (२) विचिकच्छा, (३) सीलबत्त पराभास, (४) कामराग, (५) पटीध, (६) रूपराग, (७) अरुणराग, (८) मान, (९) उद्धव (१०) अविच्चा। -विशुद्धिमार्ग, भा॰ २, परिच्छेद २२, पृ० २७१ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन शुद्धि हो जाती है, लेकिन प्रत्येकबुद्ध की भूमियों में भारी एवं मन्द होता है । अर्थात् सम्पूर्ण चित्तशुद्धि नहीं होती । (६) प्रत्येक बुद्ध का चित्त - इस अवस्था में साधक स्वयं अपना स्वामी होता है और उसे किसी भी आचार्य अथवा गुरु की अपेक्षा नहीं रहती है तथा उसका चित्त अत्यन्त निर्मल एवं शुद्ध होता है । (७) सम्यक्सम्बुद्ध का चित्त - यह अवस्था सर्वज्ञ की है, जो दस व्रतों की धारणा करनेवाले, चार प्रकार के वैशारद्यों से युक्त तथा अठारह बुद्ध धर्मो से युक्त होते हैं और जिन्होंने इन्द्रियों को सर्वथा जीत लिया है । यह अवस्था पूर्णतः अचल और शांत होती है । इस सन्दर्भ में महायान विचारधारा के अनुसार क्रमशः दस भूमिकाओं अथवा अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है । वे भूमिकायें इस प्रकार हैं - ( १ ) प्रमुदिता, (२) विमला, (३) प्रभाकरी, (४) अर्चिष्मती (५) सुदुर्जया, (६) अभिमुखी, (७) दूरंगमा, (८) अचला, (९) साधुमती एवं (१०) धर्ममेघा । (१) प्रमुदिता - इस स्थिति में साधक जगत् के उद्धार के लिए बुद्धत्व प्राप्त करने की महत्त्वाकांक्षा जाग्रत होने पर चित्त में वैसी बोधि के लिए संकल्प करता है और उससे प्रमुदित होता है | (२) विमला - इस स्थिति में दूसरे प्राणियों को उन्मार्ग से निवृत्त करने के लिए स्वयं शाधक को ही हिंसाविरमणशील का आचरण करके दृष्टान्त उपस्थित करना होता है । (३) प्रभाकरी - इसके अन्तर्गत आठ ध्यान और मैत्री आदि चार ब्रह्म-विहार की भावनाएँ करने का विधान है और साथ ही पहले के किये हुए संकल्प के अनुसार अन्य प्राणियों को दुःखमुक्त करने का प्रयत्न किया जाता है । (४) अर्चिष्मती - प्राप्त गुणों को स्थिर करने, नये गुण प्राप्त करने और किसी भी प्रकार के दोष का सेवन न करने में जितनी वीर्यं पारमिता सिद्ध हो उतनी अर्चिष्मती भूमिका प्राप्त होती है । (५) सुदुर्जया - ऐसी ध्यान पारमिता की प्राप्ति को कहते हैं, जिसमें १. प्रज्ञापारमिता, पृ० ९५-१०० Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-विकास १९७ करुणावृत्ति विशेष का अभिवर्द्धन और चार आर्यसत्यों का स्पष्ट भान हो। . (६) अभिमुखो-इसमें महाकरुणा द्वारा बोधिसत्व से आगे बढ़कर अर्हत्व प्राप्त किया जाता है और दस पारमिताओं में से विशेष रूप से प्रज्ञा-पारमिता साधनी पड़ती है । ' (७) दूरंगमा-दसों पारमिताओं को पूर्ण रूप से साधने पर उत्पन्न होनेवाली स्थिति । (८) अचला-इस स्थिति में शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक चिन्ताओं से मुक्त होना पड़ता है, सांसारिक प्रश्नों का स्पष्ट एवं क्रमबद्ध ज्ञान रखना पड़ता है और उनसे किसी भी प्रकार विचलित न होने की संभावना रहती है। (९) साधुमती–प्रत्येक जीव के मार्गदर्शन के लिए (योगी को) उस जीव का अधिकार जानने की सम्पूर्ण शक्ति जब प्राप्त होती है तब वह भूमिका साधुमती कहलाती है। (१०) धर्ममेधा--सर्वज्ञत्व प्राप्त होने पर धर्ममेवा की भूमिका प्राप्त होती है । महायान की दृष्टि से इसी भूमिका पर पहुँचे साधक को तथागत कहा जाता है। इस प्रकार बौद्ध-योग के अन्तर्गत आध्यात्मिक विकास को अज्ञानावस्था के क्रमिक ह्रास के सन्दर्भ में देखा जा सकता है, क्योंकि अज्ञानावस्था को त्यागकर ही ज्ञान प्राप्ति सम्भव है; जो निर्वाण-प्राप्ति का अभीष्ट है। जैन-योग और अध्यात्म-विकास जैन योग की आधारशिला आत्मवाद है और आत्म-विकास को पूर्णता मोक्ष है। आत्मशक्ति का विकास ही जैन-साधना-पद्धति का फलित है । इस विकासावस्था में जीव का उत्थान-पतन होना स्वाभाविक है । आत्मशक्ति की इस विकसित तथा अविकसित अवस्था को ही जैनयोग में गुणस्थान कहा गया है और क्रमशः गुणस्थानों पर चढ़ना ही आत्मविकास की ओर बढ़ना है। संसार में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है, जो सर्वथा अविकसित हो । विकास की कुछ न कुछ किरण हर आत्मा में विद्यमान रहती है, भले ही वह एकेन्द्रिय हो अथवा अभव्य । इस प्रकार Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ . जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन संसारी जीवों में इन्द्रिय-सत्ता की विद्यमानता के कारण गुणस्थान का प्रारम्भ-विन्दु वही है । शरीरधारी जीवों में ऐसा कोई वर्ग नहीं है जो गुणस्थान से बाहर हो। क्षयोपशमता के कारण विकासावस्था में उत्थान-पतन के क्रमों को पार कर अंत में जीव कर्मों का संपूर्ण क्षय करके निर्मल स्थिति को प्राप्त करता है। इन क्रम-प्राप्त अवस्थाओं को ही गुण-स्थान कहते हैं। दूसरे शब्दों में इसी क्रमिक विकास का पारिभाषिक नाम 'गुणस्थान' है । गुणस्थान का अर्थ ही गुणों के स्थान अर्थात् आत्मशक्ति के स्थान अथवा आत्मविकास की अवस्थाएँ हैं ।' कर्म ___आत्मविकास की इस भूमिका में कर्म का स्थान प्रमुख है, क्योंकि संसार-बन्धन या परिभ्रमण का मुख्य कारण कर्म है। जो जीव इस संसार में हैं, उनके परिणाम रागद्वेषरूप होते हैं, परिणामों से कर्म बँधते हैं, कर्मो से अनेक गतियों में जन्म-मरण होता है । फलस्वरूप शरीर प्राप्त होता है। शरीर में इन्द्रियाँ होती हैं, इन्द्रियों से विषय ग्रहण और विषयों के कारण रागद्वेष रूपी कर्मों की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार जीव संसार में अपने ही कर्मो द्वारा शुभ-अशुभ कर्मो को उत्पन्न करता और उन्हें खुद ही भोगता है। .. कर्म के बीज राग और द्वेष हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। वह कर्म जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण ही दुःख है। यह जीव द्वारा किये जाने के कारण कर्म कहलाता है। संक्षेप में कर्म के आठ भेद हैं १. स्थानांग-समवायांग, पृ० ९८ २. जो खलु संसारत्यो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु मदी॥ । गदिमधिगदस्स देहो देहादो इन्दियाणि जायते । तेहिं दु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥ -पंचास्तिकाय, १२८-१२९. ३. (क) अशुभं वा शुभं वापि स्वस्वकर्मफलोदयम् । भुजानां हि जीवानां हर्ता कर्ता न कश्चन् ॥ -योगशास्त्र, १६०० ४. उत्तराध्ययन, ३२७ ५. कीरह जिएण हेऊहिं-जेणं तो भण्णए कम्मं । -प्रथम कर्मग्रंथ, १ . Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-विकास १९९ (१) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयु, (६) नाम, (७) गोत्र और (८) अन्तराय ।। इनमें प्रथम चार कर्मो को घातिया कर्म कहते हैं, क्योंकि ये आत्मा के गुणों का घात करते हैं । शेष चार कर्म अघातिया हैं, क्योंकि ये आत्मस्वरूप का घात नहीं करते ।' इन आठ कर्मो का प्रभाव आत्मा के ऊपर रहता है। इस का कारण मोह की प्रधानता है । जब तक मोहनीय कर्म बलवान और तीव्र रहता है, तब तक अन्य सभी कर्मों का बन्धन बलवान और तीव्र रहता है । अतः आत्मा के विकास की भूमिका में प्रमुख बाधक मोहनीय कर्म की प्रबलता है। इस प्रकार गुणस्थानों की विकास-क्रमगत अवस्थाओं की कल्पना, मोहशक्ति की उत्कटता, मंदता तथा अभाव पर अवलम्बित है। __ आत्मा और कर्म का संबंध अनादिकालीन है, फिर भी दीनों के स्वभाव एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। कर्म कर्ता के अर्थात् जीव के पीछे-पीछे चलते हैं और कर्म-पुद्गलों का स्वभाव है आत्मा के साथ चिपकना एवं अलग होना। आत्मा को कर्म से विमुक्ति के लिए मन, वचन तथा काय की चंचलता रूपी योगास्त्र का पूर्णतः निरोध करने की अपेक्षा होती है और तीनों योगों का आस्रव रुकने पर स्वभावतः कर्म का आगमन अवरुद्ध हो जाता है। कर्म आत्मा से एक बार वियुक्त होने के बाद पुनः आत्मा से नहीं बंधते हैं, जिस प्रकार पके हुए फल गिर १. (क) ज्ञानादृष्टयावृती वेद्यं मोहनीयायुषी विदुः । नामगोत्रान्तरायो च कर्माण्यष्टे ति सूरयः ।-योगसारप्राभृत, २।२४ (ख) उत्तराध्ययन, ३३३२-३ २. पंचाध्यायी, २९८-२९९ ३. चौथा कर्मग्रंथ, प्रस्तावना, पृ० ११ ४. कम्मं च चित्तपोग्गलरुवं जीवस्सऽणाइसाबन्ध । , -योगशतक, ५४ ५. कत्तारमेव अणुजाइ कर्म। -उत्तराध्ययन, १३।२३ ६. तपोग्गलाण तग्गझसहावावगममो य एवं ति। -योगशतक, ११ ७. यदा निरुद्ध योमास्रवो भवति, तदा जीवकर्मणोः पृथक्त्वं भवति । -उत्तराध्ययनचूणि, अ० १ ८. पक्के फलम्हि पडिए जह ण फलं बज्झए पुणो विटे। जीवस्स कम्मभावे पडिए ण पुणोदयमुवेई ॥ -समयसार, १६८ . Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन जाने के बाद पुनः वृक्ष से नहीं जुड़ते । नये कर्मो का आगमन हो सकता है । कर्मबन्ध की स्थिति भी भिन्न-भिन्न होती है । कुछ कर्म तीव्र बन्ध वाले होते हैं, कुछ कर्म मध्यम बन्धवाले होते हैं और कुछ कर्म कम बन्ध वाले । कर्मों की ये स्थितियाँ राग एवं मोह की तीव्रता एवं मंदता पर निर्भर करती हैं । इस दृष्टि से जीव के भाव विविध परिणामी होते हैं । उनमें कभी राग-द्वेष की मात्रा की न्यूनता होती है तो कभी अधिकता । जीव में राग-द्वेष की इसी तरतमता को जैन योग में 'लेश्या' कहा गया है । दूसरे शब्दों में जीव जिसके द्वारा पुण्य तथा पाप में लिप्त होता है अथवा कषायों से अनुरक्त मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति होती है, वह लेश्या कहलाती है ।" यह दो प्रकार की होती है - द्रव्यलेश्या तथा भावलेश्या । द्रव्यलेश्या पुद्गल विशेषात्मक होती है और भावलेश्या आत्मगत विशेष परिणामी, जो संक्लेश और योग से अनुगत होती है । यद्यपि संक्लेश की विभिन्न स्थितियों के अनुसार भावलेश्या तीव्र, तीव्रतर तीव्रतम, मंद, मंदतर, मंदतम आदि अनेक भेदों के अनुसार असंख्य प्रकार की होती है, परन्तु साधारणतः भावलेश्या के छह प्रकार प्रमुख हैं - (१) कृष्ण, (२) नील, (३) कापोत, (४) पीत, (५) पद्म और (६) शुक्ल । इन लेश्याओं के अलग-अलग गुण स्वभाव होते हैं । कृष्ण लेश्यावाला जीव तीव्रतम कषायी एवं मूढ़ होता है और उसके क्रोधमान-मायादि भयंकर होते हैं । ऐसे जीव के कर्म-बंधन भी तीव्रतम और सघनतम होते हैं । इस लेश्या के बादवाली अन्य लेश्याओं में क्रमशः कषायों की मंदता होती जाती है और अन्तिम शुक्ललेश्या में कषायों का सर्वथा परिहार हो जाता है । अतः ज्यों ज्यों जीव इन लेश्याओं को क्रम क्रम से कम करता हुआ आगे बढ़ता जाता है, त्यों त्यों उसकी आत्मशुद्धि की परिधि बढ़ती जाती है और शुक्ललेश्या में वह अत्यंत निर्मल होकर २ १. लिंपइ अप्पीकीरइ एदीए निय अपुण्णपुण्णं च । - गोम्मटसार जीवकाण्ड, ४८८ २. दर्शन और चिन्तन, द्वितीय खण्ड, पृ० २९७ ३. किण्हा नीला य काऊ य तेऊ पम्हा तहेव य । सुक्कलेसा य छट्ठा उ, नामाइं तु जहक्कर्म ॥ ६ - उत्तराध्ययन, ३४३ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-विकास २०१ मुक्ति की अवस्था को प्राप्त करता है । इस प्रकार कर्मो की न्यूनता अथवा अधिकता का कारण लेश्या है । कर्मों की विविधता का उत्तरदायी भी यही है और लेश्या तथा कर्मों का संबंध बड़ा ही घनिष्ठ है । ___ इस संदर्भ में संक्षिप्त रूप में यह बता देना समुचित होगा कि महाभारत' में वर्णित प्राणिमात्र के वर्णानुसार छह भेद (कृष्ण, धूम्र, नील, रक्त, हारिद्र तथा शुक्ल ) तथा योगदर्शनानुसार त्रिविध कर्म ( कृष्ण, अशुक्ल-अकृष्ण तथा शुक्ल) प्रकारान्तर से लेश्या का ही विवरण है। यहां भी एक के बाद दूसरी अवस्था श्रेष्ठ एवं सुखकारक मानी गयी है। बौद्धधर्म में छह प्रकार की अभिजातियों-कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र, शुक्ल तथा परमशुक्ल का निर्देश भी इसी अर्थ में हुआ है। गुणस्थानों का वर्गीकरण जैनधर्म के अनुसार आत्मिक विकास की सीढ़ियां या गुणस्थान चौदह हैं-(१) मिथ्यादृष्टि, (२) सास्वादन, (३) सम्यग्-मिथ्यादृष्टि, (४) अविरत सम्यग्दृष्टि, (५) देशविरत-विरताविरत, (६) प्रमत्तसंयत, (७) अप्रमत्तसंयत, (८) अपूर्वकरण, (९) अनिवृत्तिकरण, (१०) सूक्ष्मसांपराय, (११) उपशान्तमोह, (१२) क्षीणमोह, (१३) सयोगकेवली और (१४) अयोगकेवली ।' इन चौदह गुणस्थानों में प्रथम तीन का अन्तर्भाव बहि १. षड़ जीववर्णाः परमं प्रमाणं कृष्णो धूम्रो नीलमथास्यम्ध्म् । रक्तं पुनः सह्यतरं सुखं तु हारिद्रवर्ण सुसुखं च शुक्लम् । -महाभारत, शान्तिपर्व, २८०१३३ २. कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम् । -योगदर्शन, ४७ ३. दीघनिकाय, ३१२५०; लेश्याकोश, पृ० २५४-५७ ४. गुणस्थानों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है(१) मिथ्यादृष्टि-इस अवस्था में दर्शन मोहनीय कर्म की प्रबलता के कारण सम्यक्त्व गुण आवृत होने से तत्त्वरुचि प्रकट नहीं होती, यह मिथ्यात्व तीन प्रकार का है-संशयित, अभिगृहीत और अनभिगृहीत । (२) सास्वादन-सम्यक्त्व का क्षणिक आस्वादन होने से ही इस गुणस्थान को सास्वादन अथवा सासादन कहा जाता है । जो जीव सम्यक्त्व-रत्न रूपी Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जैन योग का मालोचनात्मक अध्ययन पर्वत के शिखर से गिरकर मिथ्यात्वभाव की ओर मुड़ गया है, परन्तु (सम्यक्त्व के) नष्ट हो जाने पर भी जिसने अभी साक्षात् रूप में मिथ्यात्व में प्रवेश नहीं किया है, वह मध्यवर्ती अवस्था सासादन गुणस्थान है। (३) सम्यक मिथ्यादृष्टि-दही और गुड़ के मेल के स्वाद की तरह सम्यक्त्व __एवं मिथ्यात्व का मिश्रित भाव । इस गुणस्थान में आत्मा न तो सत्य का दर्शन करने में समर्थ होती है, न मिथ्यात्व का ही। (४) अविरतसम्यकदृष्टि-इस गुणस्थानवर्ती पुरुष को आत्मचेतना रूप धार्मिक दृष्टि तो प्राप्त हो जाती है, क्योंकि कषायों की अनंतानुबंधी का उपशम, क्षय या क्षयोपशम हो जाता है; किन्तु अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय बना रहता है। ऐसा व्यक्ति न तो इंद्रिय-विषयों से विरत होता है और न त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से विरत होता है। केवल तत्त्वार्थ का श्रद्धान करता है। (५) देशविरत-इस गुणस्थान में पूर्णतः तो नहीं, आंशिक रूप से चारित्र का पालन होता है। इसी गुणस्थानवर्ती व्यक्ति को श्रावक कहा जाता है । (६) प्रमत्तसंयत-इस गुणस्थान में स्थित साधक महाव्रती हो जाता है, लेकिन प्रमाद आदि दोषों का थोड़ा-बहुत अंश उसमें शेष रह जाता है, इस कारण उसे प्रमक्त-संयत कहते हैं। (७) अप्रमत्तसंयत-इस अवस्था में साधक का व्यक्त-अव्यक्त सम्पूर्ण प्रमाद निःशेष हो गया होता है, फिर भी वह न तो मोहनीय कर्म का उपशम करता है और न क्षय करता है; मात्र आत्मध्यान में लीन रहता है। यह साधक ग्यारहवें गुणस्थान तक चढ़कर गिर भी सकता है । (८) अपूर्वकरण- यह अवस्था आत्मगुण-शुद्धि अथवा लाभ की अवस्था है, क्योंकि इस अवस्था में ही साधक प्रमाद पर विजय प्राप्त चारित्रबल की विशिष्टता प्राप्त करता है। उसकी साधना में नये नये अपूर्व भाव प्रकट होते हैं। (९) अनिवृत्तिकरण ( निवृत्तिबादर )-इस अवस्था में साधक चारित्र-मोहनीय कर्म के शेष अंशों का उपशमन करता है। इस गुणस्थानवर्ती के निरंतर एक ही परिणाम होता है। (१०) सूक्ष्म सांपराय-साम्पराय का अर्थ कषाय है। इस गुणस्थानवर्ती साधक Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-विकास २०३ रात्मा' में होता है, क्योंकि इन अवस्थाओं में जीव विविध कषायों से रंजित रहता है । चौथे से लेकर बारहव गुणस्थान का अन्तर्भाव अन्तरात्मा में होता है, क्योंकि इन अवस्थाओं में आत्मा का उत्थान-पतन में कुमुम्भ के रंग की भांति सूक्ष्म राग रह जाता है । इन्हें सूक्ष्म कषाय भी कहते हैं । ( ११ ) उपशान्त मोह - इस गुणस्थान में सम्पूर्ण मोह का उपशम या क्षय हो जाता है, इसलिए इस गुणस्थानवर्ती साधक को उपशांतकषाय कहते हैं । लेकिन कभी मोह के उदय से यह साधक सूक्ष्म-सराग दशा में चला जाता है । (१२) क्षीणमोह - इस गुणस्थान नीचे गिरने का कोई भय कषाय निर्ग्रन्थ कहते हैं । में सम्पूर्ण मोह का क्षय हो जाता है, जिससे नहीं रहता । इस गुणस्थानवर्ती को क्षीण (१३) सयोगकेवली - इस गुणस्थान में सर्वज्ञत्व की प्राप्ति होती है, लेकिन इसमें काया की सूक्ष्म क्रिया विद्यमान रहती है। इसे जीवन-मुक्त अवस्था भी कहते हैं । (१४) अयोगकेवली – इस अन्तिम चौदहवें गुणस्थान में आत्मा विकास की चरम अवस्था पर पहुंच जाती है, क्योंकि इस अवस्था में शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक प्रवृत्तियों का सर्वथा अभाव हो जाता है । ऊर्ध्वस्वभाव वाला यह अयोगी केवली या परम शुद्ध आत्मा अशरीरी रूप में लोक के अग्रभाग पर जाकर अवस्थित हो जाता है । - स्थानांग, १४; कर्मग्रन्थ, भा०२, २ १. ( क ) बहिरात्मा शरीरादी जातात्मभ्रान्तिरांतरः । चित्तदोषात्मविभ्रान्तिः परमात्माऽति निर्मलः ॥ — समाधितंत्र, (ख) योगसार, ६ अर्थात् आत्मा के तीन प्रकार हैं- शरीरादिक जड़ वस्तुओं में भ्रम आत्मा समझनेवाला बहिरात्मा है जबकि चित्त को चितरूप से, दोषों को दोष रूप से और आत्मा को आत्मारूप से अनुभव करनेवाला साधक अन्तरात्मा है और सर्व कर्ममल से रहित जो अत्यन्त निर्मल है वह परमात्मा है । ५. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " २०४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन उत्थान होता रहता है । तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान का अन्तर्भाव परमात्मा में किया गया है, क्योंकि इन अवस्थाओं में जीव परमात्म अर्थात् चरम अवस्था को प्राप्त कर लेता है ।" आठ दृष्टियाँ - आत्मा के क्रमिक विकास ध्यान में रखकर आचार्य हरिभद्र ने योग की किया है । उनके अनुसार दृष्टि उसको कहते हैं, के साथ बोध हो और इससे असत् प्रवृत्तियों का क्षय करके सत् प्रवृत्तियाँ प्राप्त हों । ये दृष्टियाँ आठ हैं - (१) मित्रा, (२) तारा, (३) बला, (४) दीप्रा, (५) स्थिरा, (६) कान्ता, (७) प्रभा और (८) परा । इन दृष्टियों में प्रथम चार ओघदृष्टि में अन्तर्भुक्त हैं, क्योंकि इनमें वृत्ति संसाराभिमुख रहती है । अर्थात् जीव का उत्थान-पतन होता रहता है । शेष चार दृष्टियाँ योगदृष्टि में समाहित हैं, क्योंकि इनमें आत्मा की प्रवृत्ति आत्मविकास की ओर अग्रसर होती है । पाँचवीं दृष्टि के बाद जीव सर्वथा उन्नतिशील बना रहता है, उसके गिरने की संभावना नहीं रहती । इस प्रकार ओघदृष्टि असत्दृष्टि और योगदृष्टि सत्दृष्टि अर्थात् मोक्षोन्मुख मानी गयी है । दूसरे शब्दों में प्रथम चार दृष्टयों को अवेद्य-संवेद्य पद ४ अथवा प्रतिपाति" तथा अंतिम चार दृष्टियों १. (क) अन्ये तु मिथ्यादर्शनादिभावपरिणतो बाह्यात्मा, सम्यग्दर्शनादिपरिणतस्त्वन्तरात्मा, केवलज्ञानादिपरिणतस्तु परमात्मा । तत्राद्य गुण स्थानेत्र बाह्यात्मा, ततः परं क्षीणमोहगुणस्थानं यावदन्तरात्मा । ततः परन्तु परमात्मेति । - अध्यात्म - परीक्षा, १२५; (ख) आध्यात्मिक विकासक्रम, पृ० ४० २. सच्छ्रद्धासंगतोबोधो दृष्टिरित्यभिधीयते । असत्प्रवृत्तिभ्याघातात् सत्प्रवृत्तिपदावहः ॥ | चौदह गुणस्थानो - को आठ दृष्टियों का वर्णन जिससे समीचीन श्रद्धा योगदृष्टिसमुच्चय, १७ ३. मित्रा-तारा- बला- दीप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा-परा | नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधत ॥ - वही, १३ ४. वही, ७० ५. प्रतिपातयुताश्चाऽद्याश्चतस्रोनोत्तरास्तथाः । सापायऽपि चैतास्तत्प्रतिपातेन नेतराः ॥ - वही, १९. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-विकास २०५ - को संवेद्यापद' अथवा अप्रतिपाति कहा गया है । इन आठ दृष्टियों में जीव को किस प्रकार का ज्ञान अथवा सविशेष तत्त्वज्ञान प्राप्त होता है, उसको आठ दृष्टान्तों के द्वारा समझाया गया है – (१) तृणाग्नि, (२) कण्डाग्नि, (३) काष्ठाग्नि, (४) दीपकाग्नि, (५) रत्न की प्रभा, (६) नक्षत्र की प्रभा, (७) सूर्य की प्रभा एवं (८) चंद्र की प्रभा । जिस प्रकार इन अग्नियों की प्रभा उत्तरोत्तर तीव्र और स्पष्ट होती जाती है, उसी प्रकार इन आठ दृष्टियों में भी सविशेष-बोध की प्राप्ति स्पष्ट होती जाती है । इन आठ दृष्टियों के संदर्भ में योगदर्शन में प्रतिपादित यमनियमादि तथा खेद, उद्वेगादि आठ दोषों के परिहार का वर्णन भी किया जाता है । यहाँ आठ दृष्टियों का संक्षिप्त वर्णन किया जाता है । (१) मित्रा दृष्टिः - इस दृष्टि में दर्शन की मंदता, अहिंसादि यमों का पालन करने की इच्छा और देव पूजादि धार्मिक अनुष्ठानों में अखेदता होती है । यद्यपि इस दृष्टि में साधक को ज्ञान तो प्राप्त होता है, तथापि उस ज्ञान से स्पष्ट तत्त्वबोध नहीं होता, क्योंकि मिथ्यात्व अथवा अज्ञान इतना घना होता है कि वह दर्शन, ज्ञान पर आवरण डाल देता है । फिर भी साधक सर्वज्ञ को अन्तःकरणपूर्वक नमस्कार करता है, आचार्यं एवं तपस्वी की यथोचित सेवा करता है तथा औषधदान, शास्त्रदान, वैराग्य, पूजा, श्रवण-पठन, स्वाध्याय आदि क्रियाओं - भावनाओं का पालन-चिन्तन करता है । माध्यस्थादि भावनाओं का चिन्तन करने और मोक्ष की कारणभूत सामग्रियों को जुटाते रहने १. जिसमें वेद्य विषयों का यथार्थस्वरूप जाना जा सके और उसमें अप्रवृत्ति बुद्धि पैदा हो वह वेद्य-संवेद्यपद है और जिसमें बाह्य वेद्य विषयों का यथार्थस्वरूप में संवेदन और ज्ञान न किया जा सके वह अवेद्यसंवेद्यपद है । २. तृणगोमय काष्ठाग्निकण दीपप्रभोपमा । रत्नतारार्कचंद्राभाः क्रमेणेक्ष्वादि सन्निमा । —योगावतारद्वात्रिंशिका, २६ ३. यमादियोगयुक्तानां खेदादिपरिहारतः । अद्वेषादिगुणस्थान क्रमेणैषा सतां मता ॥ – योगदृष्टिसमुच्चय, १६ ४. मित्राद्वात्रिंशिका, १ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन के कारण इसे योगबीज भी कहा गया है । इस दृष्टि को तृणाग्नि की उपमा दी गयी है । इस दृष्टि में साधक अपनी आत्मा के विकास की इच्छा तो करता है, परन्तु पूर्वजन्म के संस्कारों अर्थात् कर्मों के कारण वैसा कर नहीं पाता । (२) तारा दृष्टि - इस दृष्टि में साधक मोक्ष की कारणभूत सामग्रियों अर्थात् योगबीज की पूर्णतः तैयारी करके सम्यकबोध प्राप्त करने में समर्थ होता है । साथ ही, इस दृष्टि में साधक को शौचादि नियमों का पालन करते हुए आत्महित का कार्य करने में उद्व ेग नहीं होता और उसकी तात्त्विक जिज्ञासा जाग्रत होती है । इस अवस्था में मिथ्यात्व के कारण साधक अथवा योगी को कण्डाग्नि की तरह क्षणिक सत्य का बोध होता है । इस अवस्था में गुरुसत्संग के कारण साधक की अशुभ प्रवृत्तियाँ बन्द हो जाती हैं और संसारसम्बन्धी किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता । फलतः वह धर्म-कार्यादि में अनजाने भी अनुचित वर्तन नहीं करता । वह इतना सावधान रहता है कि अपने द्वारा किये गये व्रत, पूजनादि क्रियाकलापों से दूसरों को तनिक भी दुःख न हो ।" इस प्रकार साधक वैराग्य की तथा संसार की असारता सम्बन्धी योगकथाओं को सुनने की इच्छा रखते हुए बड़े लोगों के प्रति समताभाव रखता है और उनका आदर-सत्कार करता है ।" अगर पहले से उसके मन में योगी, संन्यासी, साधु आदि के प्रति अनादर का भाव हो तो भी वह इस अवस्था में अनादर के बदले प्रेम और सद्भावना का व्यवहार १. योगदृष्टिसमुच्चय, २२-२३; २६-२८ २. तारायां तु मनाक् स्पष्ट, नियमश्च तथाविधः । अनुद्वेगो - हितारम्भे, जिज्ञासा तत्त्वगोचरा । वही, ४१ ३. भयं नाऽतीव भवजं कृत्यहानिर्न चोचिते । तथाना भोगतोऽप्युच्चैर्न चाप्यनुचितक्रिया ॥ - वही, ४५ ४. वही, ४६ ५. ( क ) भवत्यस्याम विभिन्नाप्रीतियोगकथासु च । यथाशक्त्युपचारश्च बहुमानश्च योगिषु ॥ - ताराद्वात्रिंशिका, ६ (ख) अध्यात्मतत्त्वलोक, ४६ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-विकास २०७ करता है। वह संसार की विविधता तथा मुक्ति के सम्बन्ध में चिन्तनमनन करने में असमर्थ होकर भी सर्वज्ञ द्वारा निर्दिष्ट अथवा उपदिष्ट कथनों पर श्रद्धा रखता है ।' हाँ, इस अवस्था में साधक को सम्यग्ज्ञान न होने से अच्छी-बुरी चीजों में अन्तर करने का ज्ञान नहीं होता। फलतः जो स्वभाव आत्मा का नहीं है, उसीको भूल से आत्मस्वरूप मान बैठता है। इसी अज्ञान के कारण वह सर्वज्ञ के कथित तत्त्वों पर श्रद्धा रखता है। इस प्रकार इस दृष्टि में साधक योगलाभ प्राप्त करने की उत्कट आकांक्षा रखते हए भी अज्ञान के कारण अनुचित कार्यों में लगा रहता है। मतलब यह कि सत्कार्य में लगे रहने पर भी साधक में अशुभ प्रवृत्तियाँ रहती हैं। (३) बला दृष्टि-इस दृष्टि में योगी सुखासन-युक्त होकर काष्ठाग्नि जैसा तेज एवं स्पष्ट दर्शन प्राप्त करता है। उसे तत्त्वज्ञान के प्रति अभिरुचि उत्पन्न होती है तथा योगसाधना में किसी प्रकार का उद्वेग नहीं होता। दूसरे शब्दों में, जिस प्रकार सुन्दर युवक सुन्दर युवती के साथ नाच, गाना सुनने में दत्तचित्त होकर अतीव आनन्द की प्राप्ति करता है, उसी प्रकार शान्त स्थिर परिणामी योगी भी शास्त्र-श्रवण देवगुरुपूजादि में उत्साह अथवा आनन्द की प्राप्ति करता है। प्रथम दो दृष्टियों में साधक की मनोस्थिरता उतनी सुदृढ़ नहीं हो पाती है जितनी इस दृष्टि में । इसका कारण यह है कि चारित्रपालन का अभ्यास करतेकरते साधक की वृत्तियाँ एकाग्र हो जाती हैं और तत्त्वचर्चा में भी वह स्थिर हो जाता है। यहां तक कि साधक विविध आसनों का सहारा लेकर चारित्र-विकास की सारी क्रियाओं को आलसरहित होकर सम्पादित करता है, जिनसे बाह्य पदार्थो के प्रति तृष्णा अथवा आसक्ति कम हो जाती है और वह धर्म-क्रिया में निरत हो जाता है । भले ही तत्त्व१. योगदृष्टिसमुच्चय, ४७-४८ २. सुखासनसमायुक्तं बलायां-दर्शनं दृढं । परा च तत्त्व-शुश्रूषा न क्षेपो योगगोचरः ।। - वही, ४९ ३. कान्तकान्तासमेतस्य दिव्यगेयश्रुती यथा । यूनो भवति शुश्रूषा तथास्यां तत्त्वगोचरा ॥ -वही, ५२ ४. असाधु तृष्णात्वरयोरभावावात् स्थिरं सुखं चासनमाविरस्ति । --अध्यात्मतत्त्वलोक, ९८ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन चर्चा सुनने को मिले अथवा न मिले; परन्तु उसकी भावना इतनी निर्मल एवं पवित्र हो जाती है कि उसकी इच्छा मात्र से ही उसका कर्मक्षय होने लगता है ।" शुभ परिणाम के कारण समताभाव का विकास होता है, फलस्वरूपे वह अपनी प्रिय वस्तुओं का भी आग्रह नहीं रखता । उसे जैसी भी वस्तु जीवन-यापन के लिए मिल जाती है, उसीमें वह सन्तुष्ट रहता है । इस प्रकार इस दृष्टि में साधक की वृत्तियाँ शान्त हो जाती हैं, सुखासनों द्वारा मन स्थिर हो जाता है, समताभाव का उदय हो जाता है और आत्मशुद्धि बढ़ती जाती है । (४) वीप्रा दृष्टि - यह दृष्टि प्राणायाम एवं तत्त्वश्रवण से संयुक्त होती है और सूक्ष्मभावबोध से रहित । इसमें उत्थान नामक दोष अर्थात् चित्त की अशान्ति भी नहीं रहती है । बताया जाता है कि दीपक के प्रकाश की भांति इस दृष्टि का दर्शन स्पष्ट और स्थिर होता है । फिर भी हवा के झोंके से जिस प्रकार दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार तीव्र मिथ्यावरण के कारण यह दर्शन भी नष्ट हो जाता है । प्राणायाम नामक यौगिक क्रिया के संयोग से इस दृष्टि में शारीरिक तथा मानसिक स्थिरता आती है । जिस प्रकार प्राणायाम न केवल शरीर को ही सुदृढ़ बनाता है, बल्कि आन्तरिक नाड़ियों के साथ-साथ मन के मैल को भी धोता है, ठीक उसी प्रकार इस दृष्टि में रेचक प्राणायाम की तरह बाह्य परिग्रहादि विषयों में ममत्व-बुद्धि तो रहती है, लेकिन पूरक प्राणायाम की तरह विवेकशक्ति की वृद्धि भी होती है और कुम्भक प्राणायाम की तरह ज्ञान केंद्रित होता है । इसे भावप्राणायाम भी कहा गया है । " इस पर जिस साधक ने अधिकार प्राप्त कर लिया है, वह बिना संशय १. श्रुताभावेऽपि भावेऽस्याः शुभभावप्रवृत्तितः । फलं कर्मक्षयाख्यं स्यात् परबोध निबंधनम् ॥ -- योग दृष्टिसमुच्चय, ५४ २. परिष्कारगतः प्रायो विधातोऽपि न विद्यते । अविद्यातश्च सावद्य परिहारान्महोदयः ॥ - वही, ५६ ३. प्राणायामवती दीप्रा, न योगोत्थानवत्यलम् । तत्त्वश्रवण-संयुक्ता, सूक्ष्मबोध - विवर्जिता ॥ - वही, ५७ ४. रेचनाद्बाह्य भावनामन्तर्भावस्य पूरणात् । कुम्भनान्निश्चितार्थस्य प्राणायामश्च भावतः ॥ - ताराद्वात्रिंशिका, १९ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ अध्यात्म-विकास के प्राणों से भी ज्यादा धर्म पर श्रद्धा रखने लगता है। वह धर्म के लिए प्राण त्याग सकता है, लेकिन प्राण की रक्षा के लिए धर्म का त्याग नहीं।' अर्थात् इस दृष्टि से सम्पन्न साधक चारित्र में यम-नियमों का पालन सम्यक्रूप से करता है और बाधा या संकट उपस्थित होने पर व्रतों के पालन से मुँह नहीं मोड़ता। इस दृष्टि में साधक अपने चारित्र्य का विकास तो करता है लेकिन पूर्ण आत्मज्ञान की प्राप्ति करने लायक नहीं। वह बाह्य पदार्थो की क्षणिकता और सांसारिक सुखशान्ति के मर्म को भी पहचान लेता है। इसलिए वह जगत्, आत्मा तथा पुण्य-अपुण्य के संबंध में जानने के लिए गुरु, मुनि आदि के पास जाने को उत्सुक रहता है। फिर भी तीव्र मिथ्यात्व के कारण वह कर्मक्षय करने में समर्थ नहीं होता और न सम्यग्दर्शन प्राप्त करने में ही समर्थ होता है। इस प्रकार यह दृष्टि भी मिथ्यात्वमय ही होती है। उपर्युक्त चार दृष्टियों को ओघदृष्टि अथवा मिथ्यात्व की कारणभूत कहा गया है, क्योंकि इन दृष्टियों में पूर्वसंचित कर्मो के कारण, धार्मिक व्रत नियमों का यथाविधि पालन करने से भी सम्यग्ज्ञान नहीं होता और न बोध ही हो पाता है। यदि तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो जाय तो भी वह स्पष्ट नहीं हो सकती।' मिथ्यात्व की इसी सघनता के कारण इन दृष्टियों के जीवों को अवेद्य-संवेद्य पद कहा गया है, क्योंकि अज्ञानवश जीव अपना आचरण मढवत् करता है, जिसके कारण अनेक दुःख उत्पन्न होते हैं। दूसरे शब्दों में इस अवेद्य-संवेद्य पद को भवाभिनन्दि भी कहा गया है और बताया गया है कि इस अवस्था में जीव अपरोपकारी, मत्सरी, १. प्राणेभ्योऽपि गुरुर्धर्मः सत्यामस्थामसंशयम् । प्राणांस्त्यजतिधर्मार्थ न धर्म प्राणसंकटे ।।-योगदृष्टिसमुच्चय, ५८ २. मिथ्यात्वमरिमंश्च दृशां चतुष्केऽवतिष्ठते ग्रन्थ्यविदारणेन । -अध्यात्मतत्वलोक, १०८ ३. नतद्वतोऽयं तत्त्वत्त्वे कदाचिदुपजायते । -योगदृष्टिसमुच्चय, ६८ ४. अवेद्यसंवेद्यपदाभिधेयो मिथ्यात्वदोषाशय उच्यते स्म । उग्रोदये तत्र विवेकहीना अधोगति मूढधियो व्रजन्ति । -अध्यात्मतत्वलोक, १०९ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन भयभीत, मायावी, सांसारिक प्रपंचों में रत और प्रारम्भिक कार्यो में निष्फल होता है । वह संसार के भोगों में उत्कट इच्छा रखने के कारण जन्म, जरा, मरण, व्याधि, रोग, वियोग अनर्थ आदि अनेक प्रकार के कष्टों को भी भोगता है। इंद्रियों की तृप्ति एवं घोर भोगविलास में लीन रहने के कारण तृष्णा, वासना आदि भावनाएं और बढ़ती जाती हैं तथा उनके परिहार की प्रवृत्ति नहीं होती है। इस प्रकार सांसारिक पदार्थों के अनेक रूपों को समझना तथा संचित एवं संचयमाण कर्मों को नष्ट करना आवश्यक माना गया है, क्योंकि इन कर्मों का छेद करने तथा सांसारिक कारणों को जानने पर ही सूक्ष्मतत्त्व की प्राप्ति होती है। इन अवस्थाओं में सद्गुरु के निकट श्रुतज्ञान सुनना, सत्संग के परिणाम एवं योग द्वारा आत्म विकास की वृद्धि करना आवश्यक माना गया है, क्योंकि इससे जहां संसाराभिमुखता का विच्छेद होता है वहां अवेद्य-संवेद्य पद भी नष्ट होता है५ तथा दुःख या कषायों पर क्रमशः विजय प्राप्त करता हुआ जीव मोक्षाभिमुख बनता है। संक्षेप में, ये चार दृष्टियां मिथ्यात्व-अवस्था की हैं और इन अवस्थाओं के जीव यम, नियमों तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों के विधिवत् पालन करने से शान्त, भद्र, विनीत, मद् एवं चारित्र संपन्न बनते हैं तथा मिथ्यात्व को क्रमशः विनष्ट करके अध्यात्मसाधना में विकसित होते हैं । (५) स्थिरा दृष्टि : इस दृष्टि में से मुक्त जीव दर्शन प्रत्याहार से युक्त १. क्षुद्रो लाभरतिर्दीनौ मत्सरी भयवान् शठः । अज्ञो भवाभिनन्दि स्यान्निष्फलारंभसंगतः। -योगदृष्टिसमुच्चय, ७६ २. वही, ७८-७९ भौगांगेषु तथैतेषां, न तदिच्छा परिक्षये । -वही, ८१ ४. भवाम्भोधि समुत्तारात् कर्मवज्रविभेदतः । ज्ञेय व्याप्तेश्चकात्स्न्येन सूक्ष्मत्वं नायमत्र तु । -वही, ६६ अवेद्यसंवेद्यपदं सत्संगागमयोगतः । तबुर्गतिप्रदं जैयं परमानन्द मिब्भता। -ताराद्वात्रिंशिका, ३२ शान्ती विनीतश्च मृदुः प्रकृत्या भद्रस्तथा योग्यचरित्रशाली । मिथ्यादृगप्युच्यत एव सूत्रे विमुक्तिपात्रं स्तुतधार्मिकत्वः ।। -अध्यात्मतत्त्वलोक, १२० Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-विकास २११ कृत्य, अभ्रान्त, निर्दोष एवं सूक्ष्मबोधवाला होता है, क्योंकि प्रत्याहार के कारण इस दृष्टि में साधक की मानसिक स्थिति संतुलित रहती है अर्थात् वह बाह्य भोग-विलास की ओर से अथवा अपनी इंद्रियों के विषयों से मुक्त होकर मात्र चारित्र-विकास पर ही अपने को केंद्रित करता है। फलतः उसकी भ्रान्तियाँ मिट जाती हैं, सूक्ष्मबोध अथवा भेद-ज्ञान हो जाता है, इंद्रियां संयमित हो जाती हैं, धर्म-क्रियाओं में आनेवाली बाधाओं का परिहार हो जाता है और परमात्म स्वरूप को पहचानने का प्रयत्न करने लगता है । इस दृष्टि की उपमा रत्न की कान्ति ' से दी गयी है जो स्थिर, सौम्य, शान्त और दीप्त होती है। . (६) कान्तादृष्टि : इस दृष्टि का स्वरूप तारों के आलोक के समान स्थिर, शान्त और चिर प्रकाशवान होता है इस दृष्टि में धारणा नामक योग के संयोग से योगी को सुस्थिर अवस्था प्राप्त होती है, परोपकार एवं सविचारों से उसका हृदय प्लावित होता है तथा उसके दोष अर्थात् चित्त की विकलता नष्ट हो जाती है। पूर्व की दृष्टियों में जहां साधक अपने चारित्रिक संयम के द्वारा केवल कर्मग्रंथियों को छेदने में प्रयत्नशील था; वहां इस दृष्टि में साधक चारित्र-विकास की अपूर्वता प्राप्त कर लेता है, चित्त की सारी मलिनताओं को दूर कर देता है और उसकी प्रत्येक क्रिया अहिंसा-वृत्ति को परिचायिका बन जाती है। फलतः इंद्रियों के चंचल विषयों के शान्त हो जाने तथा धार्मिक सदाचारों के सम्यक परिपालन से उसका स्वभाव क्षमाशील बन जाता है वह जहां भो जाता है, वहां सभी प्राणियों का प्रियपात्र बन जाता है । १. स्थिरायां दर्शनं नित्यं प्रत्याहारवदेव च । कृत्यमभ्रान्तमनघं सूक्ष्मबोधसमन्वितम्। -योगदृष्टिसमुच्चय, १५२ २. एवं विवेकिनो धीराः प्रत्याहारपरास्तथा। धर्मबाधापरित्याग-यत्नवन्तश्च तत्त्वतः । ___ वही, १५६ ३. कान्तायामेतदन्येषां प्रीतये धारणा परा। अतोऽत्र नान्यमुन्नित्यं मीमांसाऽस्ति हितोदया। -योगदृष्टिसमुच्चय, १६० ४. अस्यां तु धर्ममाहात्म्यात्समाचारविशुद्धितः । प्रियो भवति भूतानां धर्मेकानमनास्तथा । -वही, १६१ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन । इस प्रकार पूर्ववर्ती दृष्टियों की प्राप्ति के अतिरिक्त इस दृष्टि में साधक को शान्त, धीर एवं परम आनन्द की अनुभूति होने लगती है, सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति से उसे स्व-पर वस्तु का बोध हो जाता है तथा ईर्ष्या, क्रोध, मत्सर आदि दोषों का सर्वथा परिहार हो जाता है। अतः यह दृष्टि साधक के शान्त एवं निर्मल चित्त की प्राप्ति में सहायक होती है और आगे की दृष्टियों की पूर्णता में प्रमुख भूमिका निभाती है। (७) प्रभादृष्टि । इस दृष्टि में यौगिक ध्यान को अंग के रूप में स्वीकार. किया गया है, जिसके फलस्वरूप यह दृष्टि योगी को आत्मस्वरूप के चिन्तन में प्रेरित करती है। इस दृष्टि में सूर्य के प्रकाश की तरह अत्यंत सुस्पष्ट दर्शन की प्राप्ति होती है। किसी भी प्रकार का रोग नहीं होता तथा प्रतिपाति नामक गुण का आविर्भाव होता है, जो साधक-योगी के पतन की ओर न जाने का स्पष्ट संकेत है इस अवस्था में साधक को इतना आत्मविश्वास हो जाता है कि वह कषायों में लिप्त होते हुए भी अलिप्त-सा रहता है, रोगादि क्लेशों से पीड़ित होने पर भी विचलित नहीं होता । अर्थात् भोग सामग्रियों की प्रचुरता रहने पर भी वह उनको अंगीकार नहीं करता है अथवा उनको क्षुद्र समझता है । ध्यान के कारण योगी के मानसिक अन्तर्द्वद्व में कमी आ जाती है, उसकी समत्वबुद्धि विकसित होने लगती है तथा वह दृढ़ता से आत्मचिन्तन में लीन हो जाता है, जहाँ वह पहले अज्ञानतावश किसी भी दुःख को दूसरों के अधीन तथा किसी भी सुख को अपने अधीन समझता था; वहां अब शान्त एवं क्षमाभाव से शत्रु, मित्र, अन्य धर्मों के शास्त्रों आदि को समभाव एवं आदर की दृष्टि से देखने लगता है, क्योंकि इस दृष्टि में उसे सम्यग्दर्शन हो जाता है और वह सुख-दुःख, अच्छा-बुरा आदि भावनाओं से ऊपर उठकर आत्मसुख की प्राप्ति में लग जाता है। ऐसी स्थिति में उसकी विषम वृत्ति के बदले प्राणियों में समता अर्थात् असंगानुष्ठान उदित होता है, इच्छाओं का नाश हो जाता है और वह सदाचार का पालन करते १. ध्यान-प्रियाप्रभा येन नास्यां रुगत एव हि । तत्त्वप्रतिपत्तियुता विशेषेण शमान्विता । -योगदृष्टिसमुच्चय, १६८ १. सर्व परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम् । एतदुक्तसमासेन लक्षणं सुखदुःखयो। -सदृष्टिद्वात्रिंशिका, १९ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-विकास २१३ हुए मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर होता है अर्थात् यहीं से उसके मोक्षमार्ग का प्रारंभ हो जाता है ।' इस संदर्भ में असंगानुष्ठान के चार प्रकारों का उल्लेख कर देना उचित होगा । असंगानुष्ठान के चार प्रकार ये हैं - ( १ ) प्रीति, (२) भक्ति, (३) वचन और ( ४ ) असंगानुष्ठान | स्त्री का पालन-पोषण करने में जैसे रागभाव होते हैं, वैसे ही राग अर्थात् कषायों से युक्त व्यापारों को प्रीति-अनुष्ठान कहा गया है । जैसी भक्ति अथवा स्नेह मां-बाप और गुरु की सेवा करने में होता है, वैसी ही भक्ति आचारादि क्रियाओं में होना भक्ति-अनुष्ठान है । शास्त्रयुक्त आचार-विचारादि वचनानुष्ठान हैं, तथा उसी वचनानुष्ठान में स्वाभाविक प्रवृत्ति को असंगानुष्ठान कहा गया है । 3 अतः इन अनुष्ठानों के संयोग से योगी स्वभावतः बाह्य वस्तुओं के प्रति ममतारहित होकर आत्मकल्याण की और मुड़ता है और सिद्धि प्राप्त करता है । इस प्रकार वह क्रमशः केवलज्ञान प्राप्त करता है । अन्ययोग में इस अवस्था को प्रशांतवाहिता, विसंभाग-परिक्षय, शैववर्त्म और ध्रु वाध्वा भी कहा गया है और बतलाया गया है कि यह आत्मा को उत्कृष्ट दशा है, जहां जीव को सच्चे सुखानंद की प्राप्ति होती है । (८) परादृष्टि यह दृष्टि समाधिनिष्ठ, संगादि दोषों से रहित, आत्म-प्रवृत्तियों की कारिका, जागरूक तथा उत्तोर्णाशयवाली होती है । " वस्तुतः यह सर्वोत्तम तथा अन्तिम अवस्था है । इसमें परमतत्त्व का साक्षात्कार होता है । इसलिए इसे चंद्रप्रभा की तरह शान्त एवं सौम्य माना गया है । यह दृष्टि समाधि की अवस्था मानी गई है, जिसमें मन के सभी व्यापार अवरुद्ध हो जाते हैं और आत्मा केवल आत्मा के रूप को १. सत्प्रवृत्तिपदं चेहाऽसंगानुष्टान संज्ञितम् । महापथप्रयाणं यदनागामिपदावहम् । २. तत्प्रीतिभक्तिवचनासंगोपददं चतुविधं गीतम् । तत्त्वाभिज्ञैः परमपदसाधनं सर्वमेवैतत् । ३. वही, ११।३-७ ४. प्रशतिवाहितासंज्ञं विसभागपरिक्षयः । शिव ध्रुवावेति योगिभिर्गीयते ह्यदः । ५. समाधिनिष्ठा तु परा, तदा संगविवर्जिता । सात्मीकृतप्रवृत्तिश्च तदुत्तीर्णाशयेति च । — योगदृष्टिसमुच्च १७३ - षोडशक, १०१२ — योगदृष्टिसमुच्चय, १७४ - वही, १७६ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन ही देखती है, क्योंकि ध्यान में जहां ध्येय का आलम्बन होता है, वहां समाधि में ध्येय, ध्याता तथा ध्यान इस त्रिपुटी का अंश भी नहीं रहता । यह अवस्था आसक्तिहीन और दोषरहित होती है। इस अवस्था वाले यागी को सांसारिक वस्तुओं के प्रति न मोह होता है, न आसक्ति और न उसमें किसी प्रकार के दोष ही रह जाते हैं। वह मोक्ष की इच्छा भी नहीं करता है, क्योंकि इच्छा का होना परिग्रह हैं और इस दृष्टि से इच्छा कषाय-मूलक भी है। इस प्रकार अनाचार तथा अतिचार से वर्जित होने के कारण साधक योगी क्षपकश्रेणी' अथवा उपशमश्रेणी द्वारा आत्मविकास करता है। आठवें गणस्थान के द्वितीय चरण से योगी प्रगति करते हुए क्षपकश्रेणी द्वारा चार घातिया कर्मों को नष्ट करके पूर्ण कर्म-संन्यासयोग प्राप्त करता है और बिना किसी बाधा के केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है। __ इस प्रकार समस्त कषायों के क्षीण होने के कारण योगी को अनेक लब्धियाँ प्राप्त होती हैं और वह मुमुक्षु जीवों के कल्याणार्थ उपदेश देता है। इस क्रम में योगी निर्वाण पाने की स्थिति में योग-संन्यास नामक योग प्राप्त करता है, जिसके अन्तिम समय में शेष चार अघातियाकर्मो को नष्ट करके वह पांच अक्षरों के उच्चारण मात्र समय में शैलेशी अवस्था १. जो साधक तीव्र सवेग आदि प्रयत्नों द्वारा राग, द्वेष एवं मोह को क्रमशः निर्मूल करते करते उत्तरोत्तर समता की शुद्धि साधता है, वह क्षपक श्रेणी है। इस श्रेणी में साधक एक ही प्रयत्न में मुक्ति पा जाता है। २. जो साधक अपने संक्लेशों को अर्थात् कर्मों का मूलतः क्षय न करके उनका केवल उपशम ही करता है अर्थात् सर्वथा निर्मूल नहीं कर पाता वह उपशमश्रेणी है । कर्ममल शेष रहने से मोक्ष की प्राप्ति उसी जन्म में नहीं होती, बल्कि उसे जन्मान्तर लेना पड़ता है। ३. निराचारपदोह्यस्यामतिचारविजितः ।। आरूढारोहणा भाव गति वत्त्वस्य चेष्टितम् । -योगदृष्टिसमुक्चय, १७७ ४. द्वितीयाऽपूर्वकरणे मुख्योऽयमुपजायते । केवल श्रीस्ततश्चास्य निःसपत्ना सदोदया। -वही, १८० ५. क्षीणदोषोऽथ सर्वज्ञः सर्वलब्धिफलान्वितः। परं परार्थं संपाद्य ततो योगान्तमश्नुते । . -योगदृष्टिसमुच्चय, १८३ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-विकास को प्राप्त करता है अर्थात् मुक्ति पाता है। मुक्त हो जाने पर वह पुनः न उस अवस्था में आता है और न संसार में । अर्थात् मुक्त अवस्था में वह अनन्तशक्ति एवं अनन्तवीर्य धारण करके आत्मसुख में लीन हो जाता है। उस अवस्था में मन के कोई व्यापार नहीं होते, न इच्छाएं होती हैं, न व्याधियां होती हैं और न किसी प्रकार का कर्म-कषाय रह जाता है । अतः शरीर नष्ट होने पर मोक्षावस्था में जीव का अभाव नहीं होता परन्तु वहां भी वह शुद्ध ज्ञानमय तथा चेतनामय होकर रहता है ।' इस संदर्भ में यह भी उल्लेख कर देना आवश्यक होगा कि आगमिक गुणस्थानों और हारिनद्रीय उपर्युक्त वर्गीकरण में कोई अन्तर नहीं है। क्योंकि पहले चार में पहला गुणस्थान, पांचवो और छठी में चौथा, पांचवां और छठा गुणस्थान; सातवीं में सातवां और आठवां गुणस्थान तथा अन्तिम में आठ से चौदह गुणस्थान अन्तर्भूत हैं। योगबिन्दु के अनुसार आध्यात्मिक विकास की पाँच सीढ़ियाँ भी इन्हीं गुणस्थानों अथवा आठ दृष्टियों का ही संक्षिप्त रूप हैं। ये क्रम या सीढ़ियाँ इस प्रकार हैं--(१) अध्यात्म, (२) भावना, (३) ध्यान, (४) समता और (५) वृत्तिसंक्षय । ये पाँच सीढ़ियाँ मोक्ष प्राप्ति में उत्तरोत्तर श्रेष्ठ समझी गयी हैं। इन क्रमों द्वारा चारित्र का क्रमशः विकास होता हैं, जिनमें विविध प्रकार के आचार अथवा अष्टांग योग की प्रणालियाँ प्रयुक्त होती हैं । अर्थात् आत्मविकास के क्रम में योगी किन-किन साधनों एवं परिस्थितियों से गुजरता है, उनका संक्षिप्त वर्णन इनमें हुआ है । यहाँ इनका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। ... (१) अध्यात्म- अपनी शक्ति के अनुसार अणुव्रत, महाव्रत को स्वीकार करके मैत्री आदि चार भावनाओं का भली भांति चिन्तन-मनन करना ही अध्यात्म है । अर्थात् अध्यात्म शब्द को यहाँ यौगिक एवं रुढ दोनों अर्थों में प्रयुक्त किया गया है । यौगिक अर्थ में आत्मा का उद्देश्य १. वही, १८४-८५ २. अध्यात्मभावनाध्यानं समतावृत्तिसंक्षयः । मोक्षेणयोजनाद्योग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् । -योगबिन्दु, ३१ ३. औचित्याद्रतयुक्तस्य, वचनातत्त्वचिन्तनम् । मैत्र्यादिभावसंयुक्त, मध्यात्म तद्विदो विदुः । -योगभेदद्वात्रिंशिका, Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन पंचाचार अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप एवं वीर्य में होता है और रूढ़ार्थ में आत्मा का उद्देश्य बाह्य व्यवहार से प्राप्त हुए मन का मैत्री, प्रमोद, माध्यस्थ और कारुण्य भावनाओं में अभ्यथित होता है । " (२) भावना- इसके अन्तर्गत योगी को उपर्युक्त भावनाओं का मन, वचन एवं काय से चिन्तन करना होता है, जिससे अशुभ कर्मों की निवृत्ति होती है तथा सद्भावनाओं अथवा समताभाव की वृद्धि होती है । ( विशेष जानकारी के लिए देखें पूर्व अध्याय ) | (३) ध्यान - चित्त को बाह्य द्रव्यों से हटाकर किसी एक सूक्ष्म पदार्थ में एकाग्र करना ध्यान है । ( विशेष विवरण के लिए पांचवां अध्याय देखें) । (४) समता - व्यवहार में इष्ट एवं अनिष्ट अथवा शुभाशुभ परिणामों के प्रति तटस्थ वृत्ति रखना ही समता है, क्योंकि इसके द्वारा सभी प्राणियों के प्रति समान रूप से प्रेम होता है तथा साधक निर्भय होता है । इससे कर्मबन्ध ढीले पड़ जाते हैं । इस प्रकार यह आध्यात्मिक विकास क्रम में साधक की चरम सीमा मानी गई है । (५) वृत्ति संक्षय - मन एवं शरीर से उत्पन्न चित्तवृत्तियों को जड़ मूल से नष्ट करना वृत्ति-संक्षय है ।" अर्थात् समस्त कर्मों का अवरोध १. अध्यात्मोपनिषद्, १२ २. अभ्यासवृद्धिमानस्य, भावना बुद्धिसंगतः । निवृत्तिरशुभाभ्यासं - भूदाववृद्धिश्च तत्फलम् । - योगभेदद्वात्रिंशिका, ९; योगबिन्दु, ३५९ ३. उपयोगे विजातीय, प्रत्ययाव्यवधानयाम् 1 शुभेककप्रत्ययो ध्यानं, सूक्ष्माभोगसमन्वितम् । ४. न्यवहारकुदृष्ठयोच्च, रिष्टानिष्टेषु वस्तुषु । कल्पितेषु विवेकेन, तत्त्वधीः समतोच्यते । ५. विकल्पस्पन्दरूपाणां वृत्तीनामजन्यजन्मनाम् । अपुमभोवतोरोध: प्रोच्यते वृत्तिसंक्षयः । - योगभेदद्वात्रिंशिका, ११: योगबिन्दु, ३६१ - योगभेदद्वात्रिंशिका, २२ - वही, २५ योगबिन्दु, ३६५ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-विकास २१७ करता हुआ योगी केवलज्ञान प्राप्त कर शैलेशी अवस्था में पहुंचता है, जहां वह सभी प्रकार की बाधाओं से अतीत सदानन्दमयी मोक्षावस्था 'को प्राप्त करता है।' इस प्रकार जैनयोग में योग का प्रारम्भ, पूर्वसेवा से माना गया है क्योंकि पूर्वसेवा से लेकर समता तक जो धार्मिक अनुष्ठान साधक करते हैं, वे धर्म-व्यापार होने के कारण योग के उपाय मात्र हैं। परन्तु वृत्तिसंक्षय मोक्षावस्था होने के कारण मुख्य योग कहा जाता है। फिर अपुनर्बंधक, जो मिथ्यात्व को त्याग कर सम्यक्त्व की ओर अभिमुख होता है, वह व्यवहार से तात्त्विक है और सकृदबन्धक ( जो एक बार मिथ्यात्व को प्राप्त करके फिर से मुक्त होता है ) द्विबंधक ( जो दो बार मिथ्यात्व में पड़कर मुक्त होता है ) अतात्त्विक है। अर्थात् अध्यात्म; भावना, अपुनर्बन्धक एवं सम्यग्दृष्टि व्यवहारनय से तात्त्विक है और देशविरत एवं सर्वविरत निश्चयनय से तात्त्विक हैं । अप्रमत्त, सर्वविरत आदि गुणस्थानों में ध्यान तथा समता उत्तरोत्तर तात्त्विक रूप से होती है । वृत्तिसंक्षय तेरहवें एवं चौदहवें गुणस्थान में होता है।' इस तरह इन पांचों को अर्थात् अध्यात्म से लेकर ध्यानपर्यन्त के चारों स्वरूपों को सम्प्रज्ञातयोग में और वृत्तिसंक्षय की असम्प्रज्ञातयोग में दर्शाया गया है। इसलिए चौथे से बारहवें गुणस्थान तक सम्प्रज्ञात योग को और तेरहवें से चौदहवें गुणस्थान में असम्प्रज्ञात समाधि को समझना चाहिए। १. अतोऽपि केवलज्ञानं शैलेशीसंपरिग्रहः । मोक्षप्राप्तिरनाबाधा सदानन्दविधायिनी। -योगबिन्दु, ३६६ २. उपायत्वेऽत्र पूर्वेषामन्त्य एवावशिष्यते । तत्पंचमगुणस्थानादुपायोऽवोगति । -योगभेदद्वात्रिंशिका, ३१ ३. योगभेदद्वात्रिंशका, १६; आध्यात्मिकविकासक्रम, पृ० ४८ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७: योग का लक्ष्य : लब्धियाँ एवं मोक्ष जैसा कि पहले बताया गया है, योगी तप, आसन, प्राणायाम, समाधि, ध्यान आदि द्वारा योग-सिद्धि करता है अथवा मोक्षाभिमुख होता है। साधना के क्रम में योग साधक चिरकाल से उपाजित पापों को वैसे ही नष्ट कर देता है, जैसे इकट्ठी की हुई बहुत-सी लकड़ियों को अग्नि क्षण भर में भस्म कर देती है। योग साधना के ही क्रम में अनेक चमत्कारिक शक्तियों का भी उदय होता है, जिन्हें लब्धियाँ कहते हैं। ये लब्धियाँ अलौलिक शक्तियों से सम्पन्न होती हैं, तथा सामान्य मानव को आश्चर्य में डालने वाली भी। वस्तुतः जिस साधक का अन्तिम उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति ही होता है, वह भौतिक या चमत्कारिक लब्धियों के व्यामोह में नहीं फँसता । जैसे-जैसे योगी का मन निर्मल होता जाता है वैसे-वैसे उसमें समता, वैराग्य, सहनशीलता, परोपकार आदि सद्भावनाएँ जाग्रत होती जाती हैं। लेकिन जो साधक रागद्वेषादि भावनाओं के वश होकर रौद्र ध्यान द्वारा लब्धियाँ ( शक्तियाँ ) पाने की अभीप्सा रखते हैं वे आत्मसिद्धि के मार्ग से च्युत होकर संसार में भ्रमण करने लगते हैं। अतः लब्धियाँ मोक्षाभिमुख योगी के लिए बाधक ही सिद्ध होती हैं। इसलिए योगियों को आदेश है कि वे तप का अनुष्ठान किसी लाभ, यश, . कीर्ति अथवा परलोक में इन्द्रादि देवों जैसे सुख अथवा अन्य ऋद्धियाँ प्राप्त करने की इच्छा से न करें। इस प्रकार योग-साधना का ध्येय शुद्ध आत्मतत्त्व की प्राप्ति करना है और लब्धियाँ उस योगमार्ग के बीच आई हुई फलसिद्धि हैं, जो आत्मतत्त्व की प्राप्ति करने में बाधक भी बन सकती हैं। १. क्षिणोति योगः पापानि, चिरकालाजितान्यपि । प्रचितानि यथैधांसि, क्षणादेवाशुशुक्षणिः । -योगशास्त्र, १७ णो इहलोगट्टयाए तवमहिट्ठिज्जा, णो परलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा । णो कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्ठयाए, तवमहिट्ठिज्जा नण्णत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा। -दशवैकालिक सूत्र, ९।४ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग का लक्ष्य : लब्धियाँ एवं मोक्ष २१९ योगसाधना के दौरान प्राप्त होने वाली लब्धियों का वर्णन वैदिक, बौद्ध एवं जैनयोग में क्रमशः विभूति, अभिज्ञा तथा लब्धियों के रूप में मिलता है और कहा है कि लब्धियों का उपयोग लौकिक कार्यों में करना वांछित नहीं है । वैदिक योग में लब्धियाँ : उपनिषद् में स्पष्ट उल्लेख है कि लब्धियों से निरोगता, जरा-मरण का न होना, शरीर का हल्कापन, आरोग्य, विषय - निवृत्ति, शरीर कान्ति, स्वर - माधुर्य, मलमूत्र की अल्पता, आदि प्राप्त होती है ।" इसी प्रकार विभिन्न प्रकार की लब्धियों का वर्णन उपनिषदों, गीता, पुराण एवं हठयोगादि ग्रंथों में है, जिनका विवेचन-विश्लेषण करना यहाँ अभीष्ट नहीं है । यहाँ केवल योगदर्शन में वर्णित लब्धियों का परिचय ही अभिप्रेत है । योगदर्शन में यम, नियम आदि जो योग के आठ अंग कहे गये हैं, उनमें से प्रत्त्येक अंग की साधना से आभ्यन्तर एवं बाह्य दोनों प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं । यम से प्राप्त लब्धियों अर्थात् विभूतियों के विषय में बताया गया है। कि अहिंसाव्रत को पालन करने वाले साधक के सान्निध्य में हिंस्र पशु भी अपना क्रूर स्वभाव छोड़ देते हैं, सत्यवती का वचन कभी मिथ्या नहीं होता, अस्तेयव्रत से रत्नसमृद्धि प्राप्त होती है । ब्रह्मचर्य से वीर्य संग्रह का लाभ होता है तथा अपरिग्रह से जन्म के स्वरूप का बोध हो जाता है । नियम से प्राप्त लब्धियों के विषय में कहा है कि अन्तर्बाह्य शौच के पालन से अपने शरीर के प्रति जुगुप्सा तथा अलिप्तता का भाव उदित होता है और चित्त की शुद्धि, आनन्द, एकाग्रता एवं इन्द्रियजय तथा आत्मदर्शन की योग्यता प्राप्त होती हैं । सन्तोष से उत्कृष्ट सुख, तप से शरीर एवं इन्द्रियों की शुद्धि, स्वाध्याय से अपने इष्ट देवता का साक्षा न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निभयं शरीरम् । लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्वं वर्णप्रसादं स्वरसौष्ठवं च । गन्धः शुभोमूत्रपुरीषमल्पं, योगप्रवृत्ति प्रथम वदन्ति । 3 २. योगदर्शन, २/३५; ३६; ३७; ३८; ३९ । - श्वेताश्वतर, २।१२-१३ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैन योग को आलोचनात्मक अध्ययन त्कार और ईश्वर प्रणिधान से समाधि को सिद्धि होती है। आसन द्वारा सर्दी एवं गर्मी की बाधा उत्पन्न नहीं होती। प्राणायाम से विवेकज्ञानावरण का क्षय एवं विविध प्रकार की धारणा के लिए मन की तैयारी होती है। प्रत्याहार से समस्त इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती है। इसी प्रकार अतीत-अनागत का ज्ञान, विभिन्न प्राणियों की बोलियों की पहचान दूसरों की चित्तवृत्ति का ज्ञान, शरीर की दीप्ति एवं हलकापन, आकाश-गमन आदि की प्राप्ति के साथ-साथ सर्वज्ञता भी प्राप्त होती है।' ___ इस प्रकार योगदर्शन में अनेक विभूतियों या लब्धियों का विस्तृत वर्णन प्राप्त है, जिनकी सिद्धियाँ जन्म, औषध, मन्त्र, तप, समाधि आदि से प्राप्त होती हैं। बौद्ध-योग में लब्धियाँ : बौद्ध परम्परा में लब्धियों का वर्णन अभिज्ञा नाम से मिलता है। बौद्ध योग के अनुसार अभिज्ञाएँ अर्थात् लब्धियां दो प्रकार की होती हैंलौकिक और लोकोत्तर ।५ लौकिक अभिज्ञाओं के अन्तर्गत ऋद्धिविध, 'दिव्यस्रोत, चैतीपयेज्ञान-पूर्वनिवासानुस्मृति एवं चित्योत्पाद अभिज्ञाएँ हैं जिनसे क्रमशः आकाशगमन, पशु पक्षी की बोलियों का ज्ञान, परचितविज्ञानता, पूर्वजन्मों का ज्ञान तथा दूरस्थ वस्तुओं का दर्शन होता है। लोकोत्तर अभिज्ञा की प्राप्ति तब होती है, जब साधक अर्हत् अवस्था को प्राप्त करके पुनः जनसाधारण के समक्ष निर्वाण-मार्ग को बतलाने के लिए उपस्थित होता है। जैन योग में लब्धियां: वैदिक एवं बौद्ध योग की ही भांति जैन योग में भी तप समाधि, ध्यानादि द्वारा अनेक प्रकार की लब्धियां प्राप्त करने का वर्णन मिलता १. वही, २१४०-४१, ४२, ४३, ४४, ४५, ४६ । २. वही, २०४९, ५३, ५४ ।। ३. वही, ३।५,१६, १७, १८, २६, ४०, ४१ ४२, ४५, ४८.५० । ४. जन्मोषधिमंत्रतपः समाधिजाः सिद्धयः । योगदर्शन, ४.१ ५. विशुद्धिमार्ग, मार्ग १, पृ० ३४ । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग का लक्ष्य : लब्धियां एवं मोक्ष २२१ है। अन्य जैन योग ग्रन्थों की अपेक्षा ज्ञानार्णव' एवं योगशास्त्र में लब्धियों का विवेचन स्पष्ट एवं विस्तृत रूप में हुआ है। इन दोनों ग्रंथों में विस्तार पूर्वक विभिन्न प्रकार की लब्धियों और चमत्कारिक शक्तियों का वर्णन है जेसे जन्म-मरण का ज्ञान, शुभ-अशुभ शकुनों का ज्ञान, परकायाप्रवेश, कालज्ञान आदि । ध्यातव्य है कि इन लब्धियों की प्राप्ति जैनयोग साधना का बाह्य अंग है, आन्तरिक नहीं, क्योंकि योग-साधना का मूल उद्देश्य कर्म एवं कषायादि का क्षय करके सम्यक् दर्शन ज्ञान तथा सिद्धि रूप में मोक्ष प्राप्त करना है। जैनदर्शन के अनुसार लब्धि-प्राप्ति के लिए कुछ करने की आवश्यकता नहीं, वे तो प्रासंगिक फल के रूप में स्वतः निष्पन्न या प्रकट होती है। अतः साधक अथवा योगी इन लब्धियों से युक्त होकर भी कर्मो के क्षय का ही उपाय करते हैं तथा मोक्षपथिक बनते हैं। वे लब्धियों में अनासक्त रहकर आत्म साधना में लगे रहते हैं। लब्धियों के प्रकार : __ जैन योग ग्रंथों में लब्धियों के प्रकारों के विषय में विभिन्न प्रति 'पादन हैं। भगवतीसूत्र में जहां दस प्रकार की लब्धियों का उल्लेख १. देखें ज्ञानार्णव, प्रकरण २६ २. योगशास्त्र, प्रकाश ५, ६ ३. जोगाणुभावओ चिय पायं न य सोहणस्स वि य लाभो। लद्धीण वि सम्पत्ती इमस्स जं वन्निया समए । रयणाई लद्धीओ अणिमाईयाओ तह चित्ताओ। मामोसहाइयाओ तहा तहा जोगवुड्ढीए । एईय एस जुत्तो सम्म असुहस्स खवगमो नेओ। इयरस्स बन्धगो तह सुहेणमिय मोक्खगामिति ॥ -योगशतक, ८३-८५ वक्रियध्व्योदयो ज्ञानतपश्चरणसंपदः। शुभाशुभोदयध्वंस फलमस्या रसस्मृतः । कथाद्वात्रिंशिका, १४ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन १ है, वहां तिलोयपणती में ६४, आवश्यक नियुक्ति में २८, षटखण्डागम में ४४, विद्यानुशासन में ४८, मंत्रराजरहस्य" में ५० एवं प्रवचनसारोद्धार में २८ लब्धियों का वर्णन है । प्रवचन सारोद्वार प्ररूपित २८ लब्धियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है २२२ (१) आमोस हि - ( आमर्ष औषधि ) इस लब्धि के प्रभाव से साधक के शरीर स्पर्श मात्र से रोगी स्वस्थ हो जाता है । (२) विप्पोस हि -- ( वियुषौषधि ) इस लब्धि के प्रभाव से योगी का मलमूत्र औषधि का काम करता है । (३) खेलोषधि-- इस लब्धि के प्रभाव से योगी की श्लेष्मा से सुगंध आती है और उससे रोग - निवृत्ति होती है । (४) जलोषधि-- इस लब्धि के प्रभाव से योगी के आदि के मैल से रोग शान्त होते हैं । (५) सर्वोषधि - इसके द्वारा मलमूत्रादि, नख, केश आदि में सुगन्ध आती है और उनसे रोग दूर होते हैं । (६) संभिन्नस्त्रोती - इस लब्धि के प्रभाव से योगी शरीर के प्रत्येक अङ्ग द्वारा सुनने में समर्थ होता हैं और सभी इन्द्रियाँ एक दूसरे का कार्य करने लगती हैं । (७) अवधिलब्धि - यह अवधिज्ञानी मुनि को प्राप्त होती हैं और वह भूत-भविष्य का कथन कर सकता है । (८) ऋजुमति - यह लब्धि मनःपर्यायज्ञानी योगी को प्राप्त होती है जिसके द्वारा वह संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को सामान्य रूप से जानने में समर्थ होता है । कान, मुख, नाक दसविधा लद्धी पणता, तंजहा-नाण लद्धी, दंसणलद्धी, चरितलद्धी, चरिताचरितलद्धी, दागलद्धी, लाभलद्धी, भोगलद्धी उवभोगलद्धी, वीरियलद्धी, इंदियलद्धी । - भगवतीसूत्र, ८२ २. तिलोयपणती, भाग १।४।१०६७-९१ ३. आवश्यनिर्युक्त ६९-७० ४. षट्खण्डागम, खण्ड ४, १1९ ५. श्रमण, वर्ष १६६५, अंक १-२, पृ० ७३ ६. प्रवचनसारोद्वार, २७०, १४९२ - १५०८ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग का लक्ष्य : लब्धियां एवं मोक्ष २२३ (९) विपुलमति -- यह लब्धि मनःपर्यायज्ञानी योगी को ही प्राप्त होती है और इसके द्वारा भी संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को सहजतया जाना जाता है । (१०) चारणलब्धि - इस लब्धि को आकाशगामिनी भी कहते हैं। इस लब्धि से आकाश में आने-जाने की विशिष्ट शक्ति प्राप्त होती है । इसके दो भेद हैं- जंघाचारण एवं विद्याचारण । (११) आशीविशलब्धि - - इससे शाप देने की शक्ति प्राप्त होती है | (१२) केवललब्धि - चार घातियकर्मो अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय तथा अन्तराय कर्मों के क्षय होने से केवलज्ञानरूपी लब्धि प्राप्त होती है, जिससे तीनों लोकों को स्पष्ट देखा जाता है | (१३) गणधरलब्धि - इस लब्धि से गणधरपद की प्राप्ति होती है जिससे साधक तीर्थंकरों के प्रधान शिष्य एवं गण के नायक बनते हैं । (१४) पूर्वधरलब्धि - इस लब्धि से अन्तर्मुहूर्त में चौदहपूर्वो का ज्ञान प्राप्त होता है । (१५) अहंतुल ब्धि - - इसके द्वारा अर्हत्पदकी प्राप्ति होती है । (१६) चक्रवर्तीलब्धि - इस लब्धि से चक्रवर्ती पद की प्राप्ति होती है । चौदह रत्नों के धारक तथा छः खण्ड पृथ्वी के स्वामी को चक्रवर्ती कहते हैं । (१७) बलदेवलब्धि - इस लब्धि से द्वारा बलदेवपद की प्राप्ति होती हैं। (१८) वासुदेवलब्धि - - इस लब्धि के वासुदेवपद की प्राप्ति होती है । (१९) क्षोरमधुसविरास्त्रबलब्धि - इस लब्धि के द्वारा योगी के वचन में दूध, मधु, तथा घी की मधुरता, मिठास तथा स्निग्धता आती है । (२०) कोष्ठक बुद्धिलब्धि - इस लब्धि के द्वारा योगी गुरुमुख से एक ही बार स्मृत, श्रवित एवं पठित ज्ञान को अक्षरश: ग्रहण कर लेता है तथा चिरकाल तक भूल नहीं पाता है । (२१) पदानुसारिणी - इस लब्धि के प्राप्त होने पर योगी श्लोक का एक पद सुनकर ही उसके आगे या पीछे के पदों को जान लेता है । (२२) बीजबुद्धि लब्धि - सुने हुए ग्रन्थ का एक बीजाक्षर जानने से ही अश्रुत पद एवं अर्थो को जानलेना ही बीजबुद्धिलब्धि है । (२३) तेजोलेश्या - मुख से निकली हुई ज्वाला के प्रभाव से दूरस्थ, सूक्ष्म तथा स्थूल पदार्थो को भस्म करने की शक्ति तेजोलेश्या है । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन (२४) आहारकलब्धि-वाद अथवा चर्चा में निरुत्तर अथवा पराजित होने पर, उसका संशय निवारण करने के लिए अथवा तीर्थंकरों का दर्शन करने के लिए योगी अपने शरीर से एक हाथ का पुतला निकालते हैं जो तीर्थंकर के पास जाता है और लौटकर योगी के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है । इस लब्धि को आहारकलब्धि कहते हैं । (२५) शीतललेश्यालब्धि-अत्यन्त करुणाभाव से प्रेरित होकर तेजोलेश्या से रक्षार्थ शीतललेश्या को छोड़ने की शक्ति प्राप्त होना शीतललेश्यालब्धि है। (२६) वैक्रियलब्धि-इस लब्धि के प्रभाव से शरीर को छोटा-बड़ा, भारी-हल्का किया जाता है। (२७) अक्षीणमहानसलब्धि- इस लब्धि के प्रभाव से भिक्षा या भोजन सामग्री तब तक समाप्त नहीं होती जब तक लब्धिधारी योगी स्वयं आहार न कर ले। (२८) पुलाकलब्धि--इस लब्धि के द्वारा योगी को ऐसी शक्ति प्राप्त होती है कि वह अपने दण्ड से पुतले को निकाल कर शत्रु सेना को पराजित कर सकने में समर्थ होता है । यह शक्ति अदृश्य रहती है। प्रवचनसारोद्धार में वर्णित केवलीलब्धि के स्थल पर आवश्यक नियुक्ति में दो स्वतन्त्र लब्धियों का उल्लेख है-केवलज्ञानलब्धि और केवलीलब्धि : प्रवचनसारोद्धार में मनःपर्याय के दो भेद के आधार पर विपुलमति एवं ऋजुमति इन दो लब्धियों का वर्णन हुआ है, जब कि आवश्यकनियुक्ति के अनुसार इन दोनों के बदले मनःपर्याय नामक एक ही लब्धि का उल्लेख है। प्रवचनसारोद्धार में उल्लिखित क्षीरमधुर सपिरास्रव नामक एक लब्धि के बदले आवश्यकनियुक्ति में मध्वास्रव, सपिरास्रव तथा क्षीरास्रव इन तीन लब्धियों का उल्लेख है। प्रवचनसारोद्धार की चारणलब्धि आवश्यकनियुक्ति में 'आकाशगमित्व' की संज्ञा से अभिहित है। प्रवचनसारोद्धार में वर्णित गणधर तथा शीतललेश्या नाम की लब्धियां आवश्यकनियुक्ति में नहीं पाई जाती। वस्तुतः लब्धियाँ यौगिक साधना से ही उत्पन्न होती हैं, फिर भी इन लब्धियों के व्यामोह से योगी को अलग ही रहने का आदेश है, क्योंकि योगी का लक्ष्य आत्मसाक्षात्कार करना अर्थात् मोक्ष-प्राप्ति होता है, न कि लब्धियों के द्वारा चमत्कार प्रदर्शित करना। हां, इन लब्धियों का Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग का लक्ष्य : लब्धियां एवं मोक्ष २२५ उपयोग योगी. अपने आत्मगुणों के विकास के लिए अनासक्तभाव से कर सकता है। वैदिक योग में कैवल्य अथवा मोक्ष ___उपनिषद्, गीता, पुराण, योगदर्शन, योगवासिष्ठ आदि वैदिक ग्रन्थों में बताया गया है कि जब योगी चित् को पूर्णत: विशुद्ध बना लेता है, तब केवल्य अथवा मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष-प्राप्ति के अनेक उपाय भी निर्देशित हैं, जिनका उल्लेख यथास्थान ( चौथे, पांचवें अध्याय में ) किया गया है। फिर भी यहाँ मोक्ष की स्थिति एवं प्राप्ति के सम्बन्ध में संक्षिप्त विवेचन करना उचित होगा। अमृतविन्दूपनिषद् में मनावरोध को मोक्ष का उपाय बतलाते हुए योग के अभ्यास से ज्ञान प्राप्त करने तथा मुक्ति प्राप्त करने का उल्लेख है। ध्यानविन्दूपनिषद् एवं योगचूड़ामण्युपनिषद् के अनुसार कुण्डलिनी शक्ति के जाग्रत होने पर मोक्षद्वार का भेदन होता है। योगदर्शनानुसार जीवात्मा का सृष्टि के साथ कर्ता व भोक्तापन का सम्बन्ध अथवा पुरुष व प्रकृति का संयोग ही दुःख का कारण है। आगे कहा है कि द्रष्टा या पुरुष और मन के संयोग का कारण अविद्या है, और उस अविद्या के बन्धन को तोड़ने के लिए योग के अनेक उपाय हैं। वासना, क्लेश और कर्म ही संसार है अथवा संसार के कारण हैं। अतः इन वासनाओं को पूर्णतः नष्ट करके स्व-स्वरूप में अवस्थित हो जाना ही मोक्ष अथवा कैवल्य है। दूसरे शब्दों में वासना का क्षय ही मोक्ष अथवा जीवन्मुक्ति है, अथवा मन और पुरुष को १. अमृतविन्दूपनिषद्, ११५ २. योगात्संजायते ज्ञानं ज्ञानाद्योगः प्रवर्तते । . -त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्, १९ ३. ध्यानबिन्दूपनिषद्, ६५.६९ ४. योगचूडामण्युपनिषद्, ३६-४४ ५. योगदर्शन, २०१७ ६. तस्य हेतुरविद्या ।-वही, २।२४ ७. तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् । वही, १६३ ८. वासना प्रक्षयो मोक्षः सा जीवन्मुक्तिरिष्यते। -विवेकचूड़ामणि, ३१८ । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन समान शुद्धि ही कैवल्य है । मोक्ष, वाणी तथा मन से अर्थात् तर्कवितर्क से परे अथवा अगोचर है । मोक्ष के प्रसंग में जीवन्मुक्त और विदेहमुक्त का भी उल्लेख हुआ है । जीवन्मुक्त वह अवस्था है, जिसमें शरीर नाश के पूर्वं केवल प्रारब्ध कर्मों का भाग ही शेष रहता है । पुनः शरीर नष्ट होने पर, जब जन्म की सम्भावना ही नहीं रहती, उस स्थिति को विदेहमुक्त कहा गया है । सांख्यदर्शनानुसार योगी जब संचित तथा क्रियमाण कर्मों को नष्ट कर देता है तथा प्रारब्ध कर्मो का भोग समाप्त हो जाता है अर्थात् सत्व, रज एवं तम के कार्य बन्द हो जाते हैं, तब उस योगी को विदेहमुक्त कहते हैं । ऐसी ही स्थिति में पुरुष दुःखों से ऐकान्तिक और आत्यन्तिक निवृति के द्वारा कैवल्य प्राप्त करता है । बौद्ध योग में निर्वाण बौद्ध योग में कर्म को संसार की जड़ बताते हुए कहा है कि वह कभी पीछा न छोड़ने वाली मनुष्य की छाया के समान है" अर्थात् कर्मों से विपाक प्रवर्तित होता है और स्वयंविपाक कर्म सम्भव है तथा कर्म से ही पुनर्जन्म अथवा संसारचक्र प्रारम्भ होता है । इसलिए कर्म अथवा संसार से विमुक्त होने के लिए बौद्धयोग में आचारतत्व, अष्टांगिक मार्ग के अन्तर्गत शील एवं समाधि का सतत अभ्यास करने का निर्देश है, जिनके द्वारा निर्वाण की प्राप्ति होती है । ७ १. सत्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति । – योगदर्शन, ३।५५ २. यतो वाचो निवर्त्तन्ते आप्राप्य मनसा सह । आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चेनेति । - तैत्तिरीयोपनिषद् २।४।१ ३. योगकुण्डल्युपनिषद्, ३।३३-३५, ध्यानविन्दुपनिषद्, ८६ - ९०; योगशिखोपनिषद्, १५७-६०, योगवासिष्ठ, ३1९1१४-२५ ४. सांख्यकारिका, ६६-६८ ५. मिलिन्दप्रश्न, ३।२।१६ ६. कम्मा विपाका वतन्ति विपाको कम्म सम्भवो । कम्मा पुनब्भवो होति एव लोको पवत्ततीति । - विसुद्धिमग्ग ७. विसुद्धिमग्ग, ९६/६८ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग का लक्ष्य : लब्धियां एवं मोक्ष २२७ बौद्ध-योग के अनुसार निर्वाण एक आध्यामिक अनुभव है, जिसकी प्राप्ति के लिए आध्यात्मिक विकास अर्थात् चितशुद्धि अपेक्षित है, क्योंकि चित्तशुद्धि अथवा जीवन की विशुद्धि ही निर्वाण है।' निर्वाण की अवस्था में, कोई चित्तमल नहीं रहता अर्थात् यह सम्पूर्ण कर्मक्षयों के कारण होने वाली अन्तिम भूमिका है। यही कारण है कि जो साधक अथवा योगी इस अवस्था में पहुँचता है, उसे किसी भी प्रकार की आकांक्षा नहीं रहती, संसार में पुनः लौटने का भय नहीं होता तथा वह परमसुख या आनन्द प्राप्त करता है।' निर्वाण की स्थिति और स्वरूप के सम्बन्ध में स्वयं बुद्ध ने कोई निर्णायक उत्तर न देकर उसे अव्याकृत कहा है। लेकिन उनके बाद आचार्यों ने दीप-निर्वाण का आधार लेकर निर्वाण विषयक अनेक प्रश्नों का समाधान किया है। मिलिन्दप्रश्न के अनुसार निर्वाण का स्वरूप इस प्रकार है-तष्णा के निरोध से उपादान का, उपादान के निरोध से भव का, भव के निरोध से जन्म का और पुनर्जन्म रुक जाने से बूढ़ा होना, मरना, शोक, दुःख, बेचैनी, परेशानी आदि सभी प्रकार के दुःख समाप्त हो जाते हैं। तुष्णा, राग-द्वेष, मोह आदि संसार की जड़ तथा साधक (योगी) के मन को चश्चल बनाने के कारण हैं, जिनसे विविध प्रकार के कर्मों का आस्रव होता है । अतः राग-द्वेष, मोह आदि का क्षय कर देना ही निर्वाण है। दूसरे शब्दों में जिस प्रकार तेल और बत्ती के रहने पर दीपक जलता है और उनके अभाव में वह बुझ जाता है, उसी प्रकार शरीर छूटने पर अर्थात् मरने के बाद अनासक्ति के कारण अनुभव की गई ये वेदनायें शान्त पड़ जाती हैं। निर्वाण की स्थिति में दुःख का लेश भी नहीं रहता, बल्कि वह स्थिति आनन्द की अत्यधिक पराकाष्ठा १. विसुद्धीति सबमलविरहितं अच्चन्तपरिसुद्ध निब्बाणं वेदितव्यं । -बिसुद्धिमग्ग, ११५ २. निब्बानं परमं सुखं । -धम्मपद, १५।८ ३. मिलिन्दप्रश्न, पृ० ८५ ४. छत्वा रागञ्च दोसञ्च ततो निब्बानामेहिसि । -धम्मपद, २५।१० ५. बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृ० ५०१ ६. मिलिन्दप्रश्न, पृ० ३८६ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन है । वह स्थिति इन्द्रियों, काल आदि से परे है और केवल मन द्वारा जानी जा सकती है । ' वैदिक योग की ही भाँति बौद्धयोग में भी निर्वाण के दो प्रकार वर्णित हैं - (१) सोपाधिशेष अर्थात् जीवन्मुक्ति तथा (२) अनुपाधिशेष अर्थात् विदेहमुक्ति । उपाधि का अर्थ यहाँ स्कन्ध है । पाँच स्कन्धों के शेष हो जाने पर सोपाधिशेष निर्वाण की प्राप्ति होती है और इन स्कन्धों का निरोध हो जाने पर अनुपाधिशेष निर्वाण प्राप्त किया जाता है । " जैन योग में मोक्ष : 1 जैन योग में मोक्ष का स्थान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है । मानव आत्मविकास की क्रमशः सीढ़ियों को पार करता हुआ शुद्ध आत्म स्वरूप की स्थिति तक पहुँचता है। आत्मसाक्षात्कार अर्थात् आत्मविकास की वह परम स्थिति ही मोक्ष है । इसे पाने के लिये सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान एवं सम्यक् चारित्र की एकरूप परिपूर्णता अपेक्षित है, जो योग का ही आनुषंगिक रूप है । क्योंकि रागादिभावों से युक्त होने पर आत्मा चतुर्गतियों में भ्रमण करता है और जब यह भ्रमण यानी मन का व्यापार रुक जाता है तब समस्त कर्मों का आवागमन रुक जाता है और आत्मा स्वभावतः निजस्वरूप में स्थित हो जाता है । 3 तेरहवें गुणस्थान अथवा सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति ध्यान में योग ( क्रिया ) की प्रवृत्ति रहने के कारण केवलज्ञान की प्राप्ति होते हुए भी मुक्ति नहीं होती । अत: जब सम्पूर्ण योग (क्रिया) निरोध रूप चारित्रपूर्ण होता है, तभी मुक्ति होती है । " इस प्रकार संसार-बन्धन एवं उसके कारणों का सर्वथा अभाव तथा आत्मविकास की पूर्णता ही मोक्ष है अर्थात् संवर एवं निर्जरा द्वारा कर्मों का सम्पूर्ण उच्छेद ही मोक्ष है" क्योंकि संवर द्वारा जहाँ आत्मा में नये १. वही, पृ० ३३२ २. विसुद्धिमग्ग, १६।७३ ३. भणिदे मणुवावारे भमंति भूयाइ तेसु रायादी । ताण विरामे विरमदि सुचिरं अम्मा सरुवम्मि | -ज्ञानसार, ४६ • ४. स्थानांग - समवायांग; पृ० १५९ ५. ( क ) मोक्षः कर्मक्षयो नाम भोगसंक्लेश वर्जितः । - पूर्व सेवाद्वात्रिंशिका, २२ (ख) बन्धर्हत्वभावनिर्जराभ्याम् । (ग) आप्तपरीक्षा, ११६ कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः । - तत्वार्थसूत्र, १०।२-३, --- Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग का लक्ष्य : लब्धियों एवं मोक्ष २२९ कर्मों का प्रवेश सर्वथा रुक जाता है वहाँ निर्जरा से संचितकर्मों का पूर्णतः क्षय हो जाता है और तभी जीव (आत्मा) अनन्त सुख का अनुभव करता है। संसार बन्धन का कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग. (प्रवृत्ति) है और इन्हीं कारणों से जीव अपनी विवेकशक्ति को खोकर भ्रान्ति की अवस्था में संसार की सभी वस्तुओं को अपनी समझने लगता है, जो संसार भ्रमण का हेतु है। मोहनीय कर्म के क्षय से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म के क्षय से जीव को केवल. ज्ञान प्राप्त होता है। केवलज्ञान की यह अवस्था ही जीव की अरिहन्त अवस्था है और इस अवस्था में मन, वचन और काय के योग में से सूक्ष्मकाय-योग का व्यापार चलता रहता है। अतः अरिहन्त संसारावस्था को पार करके भी संसार में रहते हैं और इसीलिए उन्हें जीवन्मुक्त कहा जा सकता है। इस अवस्था को पार करने के लिए चार अधातिया कर्मो का पूर्णतः क्षय करना होता है और जब आत्मा अर्थात् जीव अन्तिम शुक्लध्यान में सूक्ष्मकाययोग अर्थात् अल्प शारीरिक प्रवृति का भी सर्वथा त्याग कर देता है तब वह अचल, निरापद, शान्त, सुख स्थान को पा जाता है जिसे शैलेशी अवस्था कहते हैं । यह सुमेरु-पर्वत के समान निश्चल अवस्था अथवा सर्व संवर रूप योग-निरोध अवस्था है। इस शैलेशी अवस्था में आत्मा अत्यन्त विशुद्ध रहती है और वहाँ किसी भी प्रकार की इच्छा-अनिच्छा का सम्बन्ध ही नहीं होता। ' इस सन्दर्भ में, यह ध्यातव्य है कि आत्मा स्वयं ही कर्ता-धर्ता, गुरुरे अर्थात् अपने प्रति स्वयं उत्तरदायी है। सम्पूर्ण कर्मों का नाश होने पर आत्मा स्वयं ही सिद्धावस्था को प्राप्त होती है तथा एक समय मात्र में ऋजुगति से ऊर्ध्वगमन कर लोकाकाश के अग्रभाग में स्थित हो जाती है जहां किसी प्रकार का रागभाव न होने के कारण सर्वदा समता१. मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । -तत्वार्थसूत्र, १०१ २. नयत्यात्मानमात्मेव जन्म निर्वाणमेव च । . ___ गूरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थतः। -समाधितन्त्र, ७५ ३. (क) तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्तात् । -तत्त्वार्थसूत्र, १०५ (ख) कर्मबन्धनविध्वंसादूर्वव्रज्या स्वभावतः ।। क्षणेनेकेन मुक्तात्मा जगच्चूडाग्रमृच्छति । -तत्त्वानुशासन, २३१ ४. द्वेषस्याभावरूपत्वाद् द्वेषश्चैक एवहि । . रागात् क्षिप्रं क्रमाच्चातः परमानन्दसंभवः। -पूर्व सेवाद्वात्रिंशिक, ३२ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन भाव से परमानन्द का अनुभव करती हुई अचल रहती है। ऐसी स्थिति में, मुक्त होने के कारण, आत्मा का कर्म द्वारा शरीर निर्माण नहीं होता, लेकिन उसका आकार प्रायः उस शरीर जितना ही रह जाता है, जिसे त्याग कर वह मुक्त हुआ है। इसी सिलसिले में यह उल्लेख करना भी समीचीन होगा कि आत्मा जब तक संसार-बन्धन में रहती है तब तक वह नामकर्म के उदय के कारण संकोच-विस्तार शरीर धारण करती है और मुक्त होने पर, अशरीरी बन जाती है। लेकिन आत्मा जिस अन्तिम शरीर के द्वारा मोक्ष प्राप्त करती है, उसका १३ भाग ( मुख, नाक, पेट आदि खाली अंगों में ) पोला होता है, बाकी २१३ भाग में उस जीवात्मा के उतने प्रदेश उस सिद्ध स्थान में व्याप्त हो जाते हैं, जिसे अवगाहना कहते हैं । इस तरह अनन्त जीव उस लोकाकाश के प्रदेशों में विराजमान होने पर भी परस्पर अव्याघात रहने से, एक दूसरे से, मिलकर अभिन्न नहीं हो जाते । प्रत्येक जीव का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व कायम रहता है। ऐसी ही आत्मा संसार में पुनरागमन नहीं करती क्योंकि वह वीतराग, वीतमोह और वीत द्वेष होती है। एक दीपक के प्रकाश में जैसे अनेक दीपों का प्रकाश समा जाता है, उसी तरह एक सिद्ध के क्षेत्र में अनन्त सि? को अवकाश देने की जगह होती है। सिद्धों में अगुरुलघु का गुण भी होता है, जिसके कारण न वह लोहे के समान गुरुता के कारण नीचे आने को विवश होता है और न रूई की तरह हलका होने से वायु का अनुसरण ही करता है।" इस प्रकार सिद्धात्मा शरीर, इन्द्रिय, मनविकल्प एवं कर्मरहित होकर अनन्तवीर्य को प्राप्त होता है और नित्य आनन्द स्वरूप में लीन १. मुक्त्युपायेषु नो चेष्टामल नायव यततः। -मुक्त्य द्वेषप्राधान्य द्वात्रिंशिका. १ २. शरीरं न स गह्णाति भूयः कर्म-व्यपायत:। ___ कारणस्यात्यये कार्य न कुत्रापि प्ररोहति । -योगसारप्राभृत, ७१९ ३. तत्त्वानुशासन, २३२-३३ ४. उत्तराध्ययन सूत्र, ३६।६४ ५. वृहद्रव्यसग्रह, १४ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग का लक्ष्य : लब्धियां एवं मोक्ष २३१ हो जाता है ।' आत्मा की यह सिद्धावस्था कर्ममुक्त, निराबाध, संक्लेश रहित एवं सर्वशुद्ध होती है, जहाँ निद्रा, तन्द्रा, भय, भ्रान्ति, राग, द्वेष, पीड़ा, संशय, शोक-मोह, जरा, जन्म-मरण, क्षुधा, तृष्णा, खेद, मद, उन्माद, मूर्छा, मत्सर आदि दोष नहीं रहते हैं। इस अवस्था में आत्मा में न संकोच का भाव होता है न विस्तार का । आत्मा सदा एक अवस्था में रहती है। वह अनन्तवीर्य एवं लब्धियों की प्राप्ति करके एक अनिर्वचनीय सुखानुभूति का अनुभव करती है। यह सुखानुभूति पार्थिव सुखानुभूति से सर्वथा भिन्न है, जो मुक्त आत्मा को ही प्राप्त होती है । सभी प्रकार के संसार बन्धनों से मुक्त सिद्ध आत्मा के विभिन्न योगपरम्पराओं में अनेक नाम हैं। ब्राह्मणों ने जहाँ उस सिद्धात्मा को ब्रह्म कहा है, वहाँ वैष्णव, तापस, जैन, बौद्ध, कौलिक आदि ने क्रमशः उसे विष्णु, रुद्र, जिनेन्द्र, बुद्ध, कौल कहा है । वस्तुतः सिद्धावस्था अथवा निर्वाण अनेक नामों से अभिहित होकर भी एक ही तत्त्व का बोधक है। - जैन दर्शनानुसार ईश्वर वह है, जो न इस सृष्टि की रचना करता है और न कृपालु ही है, बल्कि वह अपने ही आत्मस्वरूप में लीन रहने वाली एक स्वतन्त्र सत्ता है, जो सर्वथा मुक्त होती है। अतः जितने भी जीव मुक्त हो जाते हैं वे सभी ईश्वर अथवा परम-आत्मा हैं। ये संख्या में अनन्त हैं। १. निष्कल: करणातीतो निर्विकल्पो निरंजनः । अनन्तवीर्यतापन्नो नित्यानन्दाभिनन्दितः। -ज्ञानाणंव ३९।६८ २. एकान्तक्षीणसंक्लेशो निष्ठितार्थस्ततश्च सः। निराबाधः सदानन्दो मुक्तावात्माऽवतिष्ठते । -योगविन्दु, ५०४ ३. ज्ञानार्णव, ३९।६६-६७ ४. (क) ब्राह्मणैर्लक्ष्यते ब्रह्मा विष्णुःपीताम्बरैस्तथा। रुद्रस्तपस्विभिदृष्ट एष एक निरंजनः । जिनेन्द्रो जल्प्यते जैन: बुद्धः कृत्वा च सौगतैः । कौलिकैः कोल आख्यातः स एवायं सनातनः ।-योगप्रदीप, ३३॥३४ (ख) योगदृष्टिसमुच्चय, १३० ५. संसारातीततत्त्वं तु परं निर्वाणसंज्ञितम् । तद्धयेकमेव नियमात् शब्दभेदऽपि तत्त्वातः । -योग दृष्टिसमुच्चय, १२८ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन इस प्रकार निर्वाण-प्राप्त अथवा सिद्धावस्था-प्राप्त आत्मा अपने आप में लीन रहने वाला चिदात्मा है, जो न सृष्टिकर्ता है न विनाशकर्ता है और न संसार का रक्षक ही है। सिद्ध जीव पन्द्रह प्रकार के होते हैं।' १. जिनसिद्ध अथवा तीर्थंकरसिद्ध-तीर्थंकर पद प्राप्ति के बाद जो जीव मोक्ष प्राप्त करता है उसे जिनसिद्ध अथवा तीर्थंकरसिद्ध कहते हैं। २. अजिनसिद्ध अथवा अतीर्थंकरसिद्ध-बिना तीर्थकर हुए मोक्ष प्राप्त करनेवाले को अजिनसिद्ध अथवा अतीर्थंकरसिद्ध कहते हैं । ३. तीर्थसिद्ध-तीर्थंकर की मुक्ति के बाद उनके तीर्थ में मोक्ष प्राप्त करनेवाले जीव को तीर्थसिद्ध कहते हैं। ४. अतीर्थसिद्ध-तीर्थङ्कर होने के पूर्व सिद्धि प्राप्त करनेवाले जीव को अतीर्थसिद्ध कहते हैं। __५. गृहस्थलिंगसिद्ध-गृहस्थ-अवस्था में मुक्ति प्राप्त करनेवाले जीव को गृहस्थसिद्ध कहते हैं। ६. अन्यलिंगसिद्ध-तापस अथवा परिव्राजक अवस्था में मुक्ति पाने वाले जीव को अन्यलिंगसिद्ध कहते हैं। अर्थात् निर्ग्रन्थों के अतिरिक्त तापस, परिव्राजक, संन्यासी भी मोक्ष के अधिकारी हैं । ७. स्वलिंगसिद्ध-सर्वज्ञ भगवान् के कथित जैनमुनि के वेश में जो जीव मोक्ष प्राप्त करते हैं, उन्हें स्वलिंगसिद्ध कहते हैं। ८. स्त्रीलिंगसिद्ध-स्त्री शरीर से मुक्ति पाने वाले जीव को स्त्रीलिंगसिद्ध कहते हैं। . ९. पुरुषलिंगसिद्ध-पुरुष शरीर से जो जीव मोक्ष प्राप्त करे उसे वह पुरुषलिंगसिद्ध कहते हैं । १०. नपुंसकलिंगसिद्ध-नपुंसक शरीर से जो जीव मोक्ष को प्राप्त करते हैं उन्हें नपुंसकलिंगसिद्ध कहते हैं। १. (क) जिणअजिणतित्थतित्था गिहिअन्नसलिंगथीनरनपुंसा। पत्तेयसंयबुद्धा बुद्धबोहिक्कणिक्काय । – नबतत्त्वप्रकरण, ५२, (ख) प्रज्ञापनासूत्र १९ . Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग का लक्ष्य : लब्धियाँ एवं मोक्ष ११. प्रत्येकबुद्धसिद्ध--जो जीव निसर्गतः पोद्गलिक वस्तुओं की क्षणभंगुरता देखकर वैराग्य को प्राप्त करता है और उसके फलस्वरूप केवलज्ञान प्राप्ति के उपरान्त मोक्ष प्राप्त करता है उसे प्रत्येकबुद्धसिद्ध कहते हैं। १२. स्वयंबुद्धसिद्ध-जो जीव बिना गुरूपदेश के अथवा बिना किसी बाह्य निमित्त के पूर्वभव के श्रतादि के अभ्यास के कारण केवलज्ञान को प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त करता है, उसे स्वयंबुद्धसिद्ध कहते हैं। १३. बुद्धबोधित्वसिद्ध-गुरु के उपदेश से संसार की असारता की तीव्र भावना से वैराग्य एवं कैवल्यज्ञान को प्राप्त करके मोक्ष पाने वाले जीव को बुद्धबोधित्वसिद्ध कहते हैं। १४. एकसिद्ध--एक समय में एक ही जीव मोक्ष प्राप्त करता है तथा उस समय कोई दूसरा जीव सिद्ध नहीं होता, वैसे जीव को एकसिद्ध कहते हैं। १५. अनेकसिद्ध-एक समय में अनेक जीव भी मोक्ष प्राप्त करते हैं, ऐसे जीवों को अनेकसिद्ध कहते हैं। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार भारतीय चिन्तन की समस्त धाराएँ मनुष्य के आध्यात्मिक विकास में विश्वास रखती हैं और मोक्ष को स्वीकार करती हैं। यही कारण है कि चार्वाक को छोड़कर समस्त भारतीय दार्शनिकों के लिए 'योग' अनिवार्य तत्त्व बन गया है, इसीलिए सब ने मोक्ष-प्राप्ति के साधन के रूप में इसकी महत्ता का प्रतिपादन किया है। यह एक निर्विवाद सत्य है कि योगपद्धति की अक्षुण्ण धारा भारतीय परम्परा और संस्कृति के साथ गतिशील रही है। हाँ. समय-समय पर इसके बाह्य क्रिया-कलापों में परिवर्तन एवं परिवर्द्धन भी होते रहे हैं, फिर भी मूलतत्त्व में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आ पाया है। वेद में जहाँ समाधि के अर्थ में प्रयुक्त 'योग' शब्द के अस्तित्व का दर्शन होता है तथा ईश्वर से अभय, अमरज्योति तथा विवेक प्राप्ति के लिए प्रार्थना की गई है, वहां पातञ्जल योगदर्शन में इसे चित्तवत्ति के निरोध का कारण माना गया है, क्योंकि चित्तवृत्तियों के निरोध का अर्थ उन्हें सभी मनोविकारों से हटाकर मोक्षमार्ग की साधना में लगाना ही है अर्थात् यहाँ योग का सम्बन्ध मोक्ष-प्रापक धर्म-व्यापार के रूप में स्वीकृत है। जैन योग परम्परा के प्रारम्भ में योग शब्द पातञ्जलि द्वारा प्रयुक्त योगार्थ से साम्य नहीं रखता, क्योंकि जैन परम्परा में मूलतः मन, वचन, काय की प्रवत्ति को योग माना गया है अर्थात् वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम या क्षय होने पर मन, वचन एवं काय के निमित्त से आत्मप्रदेशों का चञ्चल होना ही योग है। आगे चलकर योग शब्द पातञ्जल योगदर्शनसम्मत अर्थ के निकट आता गया। यम-नियमादि का पालन परिणामों की शुद्धि के लिए ही किया जाता है तथा इनका उद्देश्य मन, वचन एवं काय द्वारा अर्जित कर्मो की शुद्धि करना ही है। इस दृष्टि से समिति, गुप्ति आदि चारित्र का पालन करना उत्तम योग है, क्योंकि इनसे संयम में वृद्धि होती है और योग भी आत्मा की विशुद्धावस्था का ही मार्ग है। इसके द्वारा जीव को सर्वोत्कृष्ट अवस्था प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त समाधि, तप, ध्यान, संवर आदि शब्द भी 'योग' के अर्थ में व्यवहृत होते हैं और योगसाधना के समर्थ अंग भी हैं। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार २३५ मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग (प्रवृति ) ही आस्रव हैं और इन प्रवृतियों का निरोध ही संवर है। इस प्रकार संवर शब्द भी योग-दर्शन के 'योग' शब्द का ही पर्याय माना जा सकता है। जैन योगानुसार तप उस विधि को कहते हैं जिससे बद्ध कर्मों का नाश होता है अथवा वह क्रिया है जिससे आत्मा का परिशोधन होता है। तप शारीरिक एवं मानसिक विकारों को नष्ट करता है, अतः विकारों को नष्ट करने की प्रक्रिया से स्वतः चित्तवृतियों का निरोध हो जाता है। इस दृष्टि से जैनों का 'तप' शब्द भी 'योग' के ही अर्थ को व्यंजित करता है । किसी एक विषय पर चित्त को स्थिर करने को ध्यान कहते हैं तथा उससे निर्जरा एवं संवर दोनों ही सिद्ध होते हैं। इस दृष्टि से ध्यान भी योग का ही पर्यायवाची ठहरता है। समाधि की अवस्था में साधक आत्मस्वरूप में लीन होता है और यह क्रिया प्रवृत्तियों के निरोध के बिना सम्भव नहीं। इसलिए 'समाधि' शब्द भी योग के अर्थ में ही आता है। ___ जैन योग की आधारगत विशेषताएँ-योग का आधार आचार है। क्योंकि आचार से ही योगी के संयम में वृद्धि होती है, समता का विकास होता है और अन्ततः इसी से साधक आध्यात्मिक ऊँचाई पर पहुंचता है। इसीलिए जैनयोग में चारित्र अथवा आचार को विशेष स्थान प्राप्त है। जैन योगानुसार श्रमण के साथ ही साथ श्रावक भी व्रती होते हैं । इसीलिए आचार की दो कोटियां निर्धारित हैं-एक साधु अथवा श्रमण-विषयक और दूसरी गृहस्थ अथवा श्रावक-विषयक । श्रमण का आचार पूर्णतः त्यागमय होता है, श्रावक का आचार आंशिक श्रमण का ध्येय सम्पूर्णभावेन आध्यात्मिक विकास होता है, जबकि श्रावक व्यावहारिक जीवन यापन में आध्यात्मिक समाधान चाहता है। वैदिक परम्परा में भी गृहस्थ-जीवन के साथ संन्यास आश्रम को महत्त्व प्राप्त है और उनकी अलग-अलग आचारसंहिताएं निर्धारित हैं। बौद्ध परंपरा में भी भिक्षु और उपासक की अलग-अलग आचार संहिताओं का विधान है। जैन आचार में विशेषतः श्रमण के नियमों-उपनियमों का सूक्ष्माति-. सूक्ष्म विवेचन हुआ है, जो अन्यत्र दुर्लभ है । योग-साधना के लिए किसी न किसी रूप में सम्यक् आचारपालन की अपेक्षा होती ही है। पञ्च महाव्रत-पातंजल योगदर्शनानुसार अष्टांगमार्ग का उद्देश्य मन, इन्द्रियों तथा शरीर की शुद्धि करना है और यम के अन्तर्गत Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन उसके भेदों का निरूपण भी आचार के अणुव्रत आदि जैसे ही हैं। नियम के भेदों के अन्तर्गत ईश्वरप्रणिधान को छोड़कर शौच, संतोष, तप और स्वाध्याय जैन एवं बौद्ध योग में कथित आचार के समान ही हैं। पातञ्जल योगदर्शन में वर्णित व्रत जाति, देश, काल से परे सार्वभौमिक तथा अविच्छिन्न हैं और जैनयोग में प्रयुक्त महाव्रत आदि भी इसी व्रत के समान देश, काल और जाति से परे सार्वभौम हैं । पातञ्जल योगदर्शन में यम के पांच भेद, बौद्ध दर्शन में व्यवहृत पञ्चशील और जैनधर्म में प्ररूपित पञ्चमहाव्रत प्रकारान्तर से एक ही सिक्के के भिन्न-भिन्न पहलू हैं । तीनों परम्पराओं के वे पद एक ही अर्थ के द्योतक हैं। अहिंसा को प्रमुखता-जैन आचार के अन्तर्गत अणुव्रत, महाव्रत आदि के द्वारा अनेक प्रकार की हिंसा, परिग्रह आदि का त्याग प्रतिपादित है, क्योंकि हिंसा से हिंसा बढ़ती है तथा योगधारणा की प्रक्रिया में वैराग्य, समता-भाव आदि का विकास नहीं हो पाता। जैन योगानुसार हिंसा के प्रकारों का प्रतिपादन अत्यन्त सूक्ष्म एवं विशद्रूप में हुआ है। वह हिंसा भले ही प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष; स्वयंकृत हो अथवा अन्यकृत अथवा अनुमोदित, मानसिक हो अथवा वाचिक अथवा शारीरिक । हिंसा के कारण किसी न किसी प्रकार रागद्वेषादि दुर्भावनाएँ बढ़ती ही हैं तथा उनका चिन्तन योगसाधना को विचलित कर देता है। अतः अहिंसा का प्रतिपालन अनिवार्य माना गया है। इसी प्रकार जैन आचार में सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का वर्णन है, जिनसे योग साधना उन्नत होती है। वैदिक परम्परा में भी अहिंसा आदि व्रतों की अनिवार्यता मानी गई है, लेकिन उसी परम्परा के अन्तर्गत तंत्रसाधना में मद्य, मांस, मधु आदि का सेवन विहित माना गया है ! बौद्ध परम्परा में हिंसा वर्जित है लेकिन कालान्तर में तन्त्र का प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगता है। अतः वैदिक और बौद्ध दोनों परम्पराओं की अपेक्षा जैनयोग में हिंसा का सर्वथा त्याग एक अपनी विशिष्टता है। ब्रह्मचर्य की अनिवार्यता-जब तक मन वासनाओं से निवृत्त नहीं हो जाता है तब तक न चित्त की स्थिरता प्राप्त हो सकती है, न धर्मध्यान हो सकता है और न योग ही सध सकता है। इसीलिये वासनाओं से विमुक्ति अथवा ब्रह्मचर्य आवश्यक माना गया है। ब्रह्मचर्य के सन्दर्भ में भी अहिंसा को ही भौति जैन आचार में तीन योग तथा तीन करण Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार २३७ का विधान है, जिनसे किसी भी प्रकार साधक का मन वासनाओं के प्रति आसक्त न हो। यद्यपि वैदिक परम्परा में भी अनिवार्य रूप से ब्रह्मचर्य का महत्त्व है, लेकिन तन्त्रयोग में भोग को ही योग का साधन माना गया है। तन्त्रवादियों की दृष्टि में तर्क दिया जाता है कि इंद्रियों की प्रवृत्तियों का हठात् एवं कृत्रिम निरोध अस्वाभाविक एवं अप्राकृतिक है। योग के साथ भोग का सामंजस्य होना चाहिए। इन वासनामयी इन्द्रियों की तृप्ति होनी ही चाहिए, ताकि योगी का मन साधना में रमे । इसके साथ ही साथ यह भी स्वीकार किया गया है कि मैथुन-क्रिया में कामुकता नहीं होनी चाहिए और न आसक्ति हो। अतः तन्त्रवादियों के अतिरिक्त वैदिक परम्परा में ब्रह्मचर्य की अनिवार्यता विहित है। बौद्ध परम्परा में ब्रह्मचर्य का प्रमख स्थान है। इस सन्दर्भ में यह स्वीकार किया गया है कि मन की स्थिरता बिना इन्द्रियों के निरोध के नहीं हो सकती। इसीलिए ब्रह्मचर्य का स्थान पञ्चशील के अन्तर्गत है। जैन परम्परा ब्रह्मचर्य का अत्यन्त सूक्ष्म विवेचन करती है और उसमें सम्पूर्ण रूप में ब्रह्मचर्य पालन की अनिवार्यता है। तप का महत्व--जैन योग-आंचार के अन्तर्गत इन्द्रियों को नियंत्रित करने के क्रम में देहदमन अर्थात् तप-मार्ग का निर्देश है, क्योंकि विषयों के मूल का उच्छेदन तप से होता है। जैन मतानुसार तप के दो भेद हैं- (१) बाह्य एवं (२) आभ्यंतर । इन दोनों में बताया गया है कि शारीरिक अर्थात् इन्द्रिय दमन के साथ-साथ मानसिक अथवा भावात्मक दमन भी हो। इन्द्रिय-दमन के लिए अनेकविध तप का वर्णन वैदिक योग परम्परा में हुआ है । गीता में तप के अन्तर्गत सत्य, ब्रह्मचर्य, अनासक्ति, अपरिग्रह मादि का विधान है। जैन परम्परा में सत्य, ब्रह्मचर्य आदि का विधान अणुव्रत तथा महाव्रत के अन्तर्गत हुआ है। गीता एवं जैन परम्परा में निर्देशित है कि किसी इच्छा अथवा लोभ अथवा कीर्ति के निमित्त तप करना उचित नहीं है। जैन तप के प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, ध्यान तथा कायोत्सर्ग आदि प्रकारान्तर से गीता में वर्णित शरणागति, गुण,. लोकसंग्रह, योग आदि के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। वैदिक परम्परा के चान्द्रायण आदि अनेक तप जैनतप के कायोत्सर्ग से साम्य रखते हैं जिनमें कायक्लेशपूर्वक शक्तिअजित करने का विधान है। यद्यपि बौद्ध परम्परा में Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन तप का निषेध है, लेकिन दूसरे शब्दों में तप के अनेक आवश्यक अंगों का विधान भी है, जिनका उद्देश्य अकुशल अर्थात् पाप कर्मों को नष्ट करना है। बौद्ध तप में विहित अतिभोजन का त्याग तथा एक समय भोजन का विधान जैन तप में उल्लिखित कनोदरी तप ही है। बौद्ध तप के अन्तर्गत रस-शक्ति का निषेध जैन तप का रस-परित्याग ही है। भिक्षाचर्या तथा विविक्त शय्यासन तो दोनों परम्पराओं में समान ही है। इतना ही नहीं, प्रायश्चित, सेवाभाव, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि क्रियाओं का निरूपण जैन एवं बौद्ध तप में समान रूप से हुआ है । इस प्रकार प्रवत्तियों को संयमित करने एवं शारीरिक क्रियाओं को नियंत्रित करने के लिए तीनों परम्पराओं में तप का विधान है और कहा गया है कि तप के लिए शन्यागार, जंगल, नदी का किनारा, निर्जन या एकांत स्थान उपयुक्त हो सकते हैं। तंत्रयोग में तप अथवा ध्यान का स्थान श्मशान है अथवा वह शव के ऊपर किया जाना विहित है। गुरु की महत्ता-योगसाधना एकाकी रूप से कभी नहीं हो सकती, यद्यपि आध्यात्मिक मार्ग स्वानुभव की चीज है, परन्तु जब तक आत्मसिद्धि के अनेक उपायों का परिचय किसी के द्वारा नहीं होता, तब तक साधक योगी को आध्यात्मिक मार्ग पर चलना सुलभ प्रतीत नहीं होता । इसीलिए योग-मार्ग में आरूढ़ होने के पहले दीक्षा-संस्कार का विधान करीब-करीब सभी योग परम्पराओं में है तथा गुरु का महत्त्व स्वीकार किया गया है । गुरु जहां नवशिक्षितों का मार्ग दर्शन करता है, यौगिक विधि-विधानों का निर्देशक होता है वहां लब्धियों के प्रति अभिमुख योगियों को चेतावनी देकर सही मार्ग पर लाने का उपक्रम भी करता है। प्राणायाम की अनावश्यकता-पातंजल योगदर्शन प्राणायाम का उल्लेख करता है, लेकिन योगसाधना के लिए उसे उपयुक्त नहीं मानता है। हठयोग, नाथयोग आदि प्राणायाम को महत्त्व देते हैं। हठयोग में तो इसके अन्तर्गत नाड़ियों के द्वारा शरीर शुद्धि की क्रिया को महत्त्वपूर्ण माना गया है। नाथयोग यद्यपि शरीर-शुद्धि के निमित्त प्राणायाम को महत्त्व देता है, तथापि उसे अन्तिम साध्य के रूप में स्वीकार नहीं करता। बौद्ध परम्परा में तंत्रयान प्राणायाम को प्रमुख मानता है, इसीलिए तंत्रयान के ग्रन्थों में उसकी विस्तृत चर्चा हुई है। जैनयोग के अन्तर्गत प्राणायाम का विशेष अर्थ भावशुद्धि के निमित्त हुआ है, लेकिन Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार योग-साधना की दृष्टि से उसे अनावश्यक माना गया है, क्योंकि इसके क्रम में श्वासोच्छ्वास पर प्रतिबंध करना पड़ता है तथा उसकी प्रक्रिया पूरी करने में शक्ति एवं समय खर्च होता है अर्थात् प्राणायाम करते समय योगी तप-ध्यान में अपने स्वरूप का चिन्तन-मनन नहीं कर पाता, तथा बलात् मन को शान्त करने के कारण योगी आन्तरिक पीड़ा का अनुभव करता है तथा चंचल बना रहता है। ध्यान का वैशिष्ट्य-ध्यान योग का प्रमुख सोधन है, जिससे मन को एक बिन्दु पर केन्द्रित किया जाता है। इसका विधान तीनों योगपरम्पराओं में हुआ है। योगदर्शनानुसार समाधि ही साधना की अन्तिम अवस्था है, जिसके द्वारा योगी चरम लक्ष्य पर पहुंचने में सफल होता है। उपनिषद् एवं गीता में कर्मयोग, भक्तियोग आदि के साथ-साथ ध्यान-योग के महत्त्व को भी स्वीकार किया गया है । बौद्ध योग में ध्यान की अनेक प्रक्रियाओं का उल्लेख है, जिनका सम्यक् सम्पादन अपेक्षित माना गया है। जैनयोग में तो ध्यान का अपना एक विशिष्ट स्थान है। वस्तुतः जैनयोगानुसार ध्यान जहाँ मन की चंचल वृत्तियों को नियंत्रित करके मन को स्थिर करता है वहाँ कर्मो की निर्जरा करके साधना को पूर्णता प्रदान करता है। ध्यान के चार प्रकारों में आर्त और रौद्र ये दोनों अशुभ ध्यान हैं तथा धर्म एवं शुक्ल ध्यान शुभ हैं। ध्यान के ये प्रकार एक तरह से मनोवैज्ञानिक हैं, जिनसे मन की कुटिल तथा जटिल समस्याएं सहजतया शान्त होती हैं तथा शुभ विचारों में तारतम्य आ जाता है। ध्यान के अन्तर्गत जप का विधान भी है, जिसके द्वारा मंत्रों पदों, शब्दों के माध्यम से ध्यान सिद्ध किया जाता है। इस प्रकार तीनों परम्पराओं में ध्यान का उद्देश्य आत्मा की पहचान या साक्षात्कार करना है। जैनयोग में निर्दिष्ट शुक्लध्यान के प्रथम दो भेदों की योगदर्शन और बौद्धयोग के ध्यान से समानता है, साथ ही वैदिक योग परम्परा में प्रयुक्त अध्यात्म प्रसाद और ऋतंभरा तथा जेन परम्परा के सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति में प्रायः अर्थसाम्यता मालूम पड़ती है। जैन परम्परा सम्मत शुक्लध्यान में अरिहंत अवस्था अर्थात् केवलज्ञान की प्राप्ति होती है और योगदर्शनानुसार असम्प्रज्ञात समाधि में केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। जैन योग के समुच्छन्न-क्रिया प्रतिपत्ति भी योगदर्शनसम्मत असम्प्रज्ञात समाधि जैसी है जहाँ सम्पूर्ण संस्कार विनष्ट हो जाते हैं और जीव विमुक्त हो जाता है । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन कर्म - निर्जरा - जैन योग मानता है कि मुक्ति के लिए सम्पूर्ण कर्मों का नाश अनिवार्य है । बिना सम्पूर्ण कर्म नाश के आत्मसाक्षात्कार अर्थात् आत्मा की प्राप्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि कर्म और आत्मा का संबंध बहुत ही गाढ़ा है, कर्म के ही कारण आत्मा संसार में अनादिकाल से भटकती है । कर्मों का क्षय मोक्ष के लिए आवश्यक है । जैन योगानुसार कर्मों का कर्ता एवं भोक्ता आत्मा ही है, इसीलिए आत्मा की मुक्ति की अवस्था में कर्म से निर्लिप्त रहने का विधान है । कर्मफल भोगने में ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके विपरीत वैदिक परम्परा में कर्म फल देनेवाला ईश्वर है । सांख्य कर्मफल अथवा कर्म - निष्पत्ति में जैनयोग की ही भाँति ईश्वर-जैसे किसी कारण को नहीं मानता। संसार का कारण जैन मान्यतानुसार कर्म ही है, अनन्त आत्माओं के कर्म अलगअलग हैं और उन कर्म के फलों को भोगनेवाली वे आत्माएँ भी अलगअलग हैं । मुक्ति के लिए इन कर्मों का सम्पूर्ण क्षय करना आवश्यक है । सांख्यमत में प्रकृति - पुरुष का संयोग ही बन्ध है और वह अनादि है । इसके अनुसार मोक्ष प्रकृति का होता है, पुरुष का नहीं । पातंजल योगदर्शनानुसार बंध और मोक्ष पुरुष का ही होता है । बौद्धयोग के अनुसार नाम और रूप का अनादि संबंध ही संसार है और उसका वियोग ही मोक्ष है । इस प्रकार कषाय अथवा अविद्या, माया, मिथ्यात्व आदि का नाश और आत्म-साक्षात्कार अथवा आत्मस्वरूप की पहचान ही मोक्ष है । २४० क्रमिक आध्यात्मिक विकास की विलक्षणता - आत्मा मोक्ष अथवा मुक्ति की अवस्था की प्राप्ति एकाएक नहीं करती है, बल्कि क्रमक्रम से अपने को विकसित करते हुए पूर्णता प्राप्त करती है । अतः योगी अथवा साधक का चारित्रिक अथवा आध्यात्मिक अथवा आत्मिक विकास क्रमशः होता है । आत्मविकास के इस क्रम का समर्थन तीनों परम्पराएँ करती हैं । उपनिषद् में क्रम - मुक्ति का स्पष्ट उल्लेख है । पातंजल योगदर्शन एवं योगवासिष्ठ में इस आध्यात्मिक विकास को भूमिका की संज्ञा से अभिहित किया गया है, बोद्ध योग परम्परा में इसे अवस्था कहा गया है तथा जैन- योग में इसे गुणस्थान अथवा दृष्टि कहा है। जैन परम्परा में आध्यात्मिक विकास का वर्णन अति स्पष्टता एवं सूक्ष्मता से हुआ है । आत्मविकास की क्रमिक अवस्था में अज्ञान अथवा मिथ्यात्व हो बाधक है और इसी के कारण आत्मा कर्मों से जकड़ी रहती है। ज्यों-ज्यों कर्मों Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उपसंहार २४१ का व्युच्छेद होता है, त्यों-त्यों आत्मा अपने गुणों से अवगत होती जाती है और उसे सत्य एवं असत्य वस्तु की पहचान भी होती जाती है । आठ कर्मों में से चार घातिया कर्मों का व्युच्छेद करके आत्मा सर्वज्ञ की स्थिति को प्राप्त करती है, इसे अरिहंत अवस्था कहते हैं । यह अरिहंत आत्मा अन्य मुमुक्षु जीवों को आध्यात्मिक मार्ग का उपदेश करती है तथा सम्पूर्ण लोक के वर्तमान, भूत तथा भविष्यत् काल को युगपत देखतीजानती है । इस अवस्था को पातंजल योग दर्शन में सर्वज्ञ अवस्था कहा गया है, जो सम्प्रज्ञात समाधि के बाद प्रारम्भ होती है । लेकिन बौद्ध योग में इस सर्वज्ञवाद का प्रतिवाद किया गया है और तर्क दिया गया है कि कोई भी व्यक्ति सर्वज्ञ होने का दावा नहीं कर सकता, क्योंकि सर्व वस्तुओं का युगपत् ज्ञान कोई भी नहीं रख सकता । I मोक्ष - सर्वज्ञ अथवा अरिहंत अवस्था के बाद आत्मा सिद्धावस्था को प्राप्त होती है, जहाँ शेष चार अघातिया कर्मों का भी क्षय हो जाता है । इस अवस्था में शरीर की श्वासोच्छ्वास आदि सूक्ष्म क्रियाएँ भी रुक जाती हैं और आत्मा लोक के अग्रभाग में पहुँच जाती है, जहां उसका अपना स्वतंत्र और शाश्वत अस्तित्व रहता है । वह जन्म-मरण से छूट जाती है । मनुष्य की पूर्ण प्रतिष्ठा - वैदिक योग ईश्वर की स्वतंत्र सत्ता में विश्वास रखता है । जैनयोग वैसा नहीं मानता है, क्योंकि उसकी मान्यता है कि प्रत्येक जीव या आत्मा ही ईश्वर या परमात्मा बन सकता है । अज्ञान अथवा मिथ्यात्व के कारण ही जीव अपनी शक्ति को पहचान नहीं पाता । सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति से जब वह आत्म-साक्षात्कार कर पाने में समर्थ होता है, तब ही वह मोक्ष प्राप्त करता है । इस प्रकार योग् द्वारा साधक आत्म-शक्ति की पहचान करता है और किसी बाहरी शक्ति को आत्मसात् नहीं करता । योग साधना के क्रम में योगी को अनेक लब्धियों की प्राप्ति होती है, लेकिन वह उनका प्रयोग अपनी लोभवृत्ति की पुष्टि के लिए नहीं करता । योग के क्रम में परचित - मनोविज्ञान की भी प्राप्ति होती है जिसके द्वारा योगी दूसरों के मन की बात समझ सकने में समर्थ होता है । इस परज्ञान को ही जैनयोग में मनःपर्यायज्ञान कहा गया है । योग की विभिन्न परम्पराओं में विभिन्न मार्गों का अवलम्बन किया जाता है । कोई ज्ञानयोग की प्रमुखता मानता है तो कोई क्रियायोग Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन की, तो कोई भक्तियोग की। गीता में विभिन्न योग-मार्गों का वर्णन है। वेदान्तदर्शन ज्ञानयोग पर जोर देता है । बौद्ध-परम्परा में ज्ञान के साथ क्रियायोग का समन्वय किया गया है, परन्तु जैन योग में क्रिया-योग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, समतायोग, ध्यानयोग आदि सभी को अपेक्षा भेद से स्वीकार किया गया है। पारिभाषिक शब्दों को विशिष्टता-जैन-योग में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों का भी अपना विशेष महत्व है, क्योंकि इनका प्रयोग जैन परम्परा के वाङ्मय में ही उपलब्ध है। जैसे 'पुद्गल' शब्द को लें। जैनयोग के अनुसार इस शब्द का अर्थ जड़ वस्तु है, लेकिन बौद्ध योग में इसका प्रयोग आत्मा एवं चेतन के अर्थ में है। परीषह, आस्रव एवं कायोत्सर्ग शब्द जैन परम्परा के अपने शब्द हैं, जिनका उपयोग अन्यत्र नहीं मिलता। - इस प्रकार जैन योग अन्य योग परम्पराओं से साम्य रखते हुए भी अपनी कुछ ऐसी विशिष्टताओं का प्रतिपादन करता है, जिनका सम्बन्ध उसकी अपनी आधार-भूमि से है । चूँकि जैनयोग का मूल आधार श्रमण संस्कृति है, इसीलिए स्वभावतः इसकी योगविषयक प्रक्रिया में चारित्रिक और आध्यात्मिक गठन एवं उन्नयन की पृष्ठभूमि अन्य परम्पराओं से अधिक स्थिर और सुविस्तृत है। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रन्थ-सूची (अ) अंगुनरनिकाय, प्रथम भाग, अनु, भदन्त आनंद कौसल्यायन, प्रका० महाबोधि सभा, कलकत्ता, ई० स० १९५७ अथर्ववेद-सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट, भाग ४२, मैक्समूलर, ऑक्सफोर्ड प्रेस, ___ लंदन, १८९७ अध्यात्मकमलमार्तण्ड, राजमल्ल, वीर सेवा मन्दिर, सरसावा, सन् १९४४ अध्यात्मतत्त्वलोक, न्यायविजय, हेमचन्द्राचार्य जैन सभा, पाटन, ई० स०१९४३ अध्यात्मोपनिषद, यशोविजय, केशरबाई ज्ञान भण्डार स्थापक, जामनगर, वि. सं० १९९४ अध्यात्मसार, यशोविजय, केशरबाई ज्ञान भण्डार स्थापक,,जामनगर, वि.सं. १९९४ अध्यात्मरहस्य, पं० आशाधर, वीरसेवामंदिर ट्रस्ट, दिल्ली, सन् १९५७ अध्यात्म विचारणा, पं० सुखलाल संघवी, गुजरात विद्यासभा, अहमदाबाद, ई०स० १९५८ अभिधर्मकोश, वसुबन्धु, काशी विद्यापीठ, वाराणसी, वि०सं० १९८८ अभिधान चिन्तामणि, हेमचंद्र, देवचंद्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, सूरत, १९४६ अभिधान राजेन्द्रकोश, भा० १-७, विजयराजेन्द्र सूरि, अभिधान राजेंद्र प्रचारक ___ सभा, रतलाम, १९३४ (आ) आवारांगसूत्र, प्रथम श्रुतस्कन्ध, अ. भा. श्वे० स्था० जैन शास्त्रोद्धार समिति, सन् १९५७ आत्मसाक्षात्कार (मराठी); अनु० चंद्रकला हाटे, पाप्युलर प्रकाशन, बम्बई, १९६६ ई.. आत्मरहस्य, रतनलाल जैन, सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, १९४८ ई० आत्मानुशासन, गुणभद्र, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, वि०सं० १९८६ आदिपुराण, ( महापुराण ) भा०१, जिनसेनाचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन् १९५१ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ - जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन माध्यात्मिक विकास क्रम, पं० सुखलाल संघवी, गुर्जर ग्रन्थ रत्न कार्यालय, अहमदाबाद, सन् १९२८ । माप्तपरीक्षा स्वोपज्ञ वृत्ति, मुनि विद्यानन्द, प्रकाशक जैन साहित्य प्रसारक, बम्बई, वी. नि० सं० २४५७ आरोग्य, वर्ष २२, अंक २, अगस्त, १९६८, गोरखपुर आर णिकोपनिषद् ( एक सौ आठ उपनिषद् ), संपा० बासुदेव लक्ष्मण शास्त्री, प्रकाशक पांडुरंग जावजी, बम्बई, चतुर्थ संस्करण सन् १९३२ आवश्यकनियुक्ति दीपिका, भा०१, भाष्यकार माणिक्य शेखर सूरि, जैन ग्रंथमाला, सूरत, सन् १९३९ आवश्यक नियुक्ति, हरिभद्र, आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१६ माहत् दर्शनदीपिका, मंगल विजयजी, यशोविजय जैन ग्रंथमाला, वी०सं० २४५८ . (इ) इष्टोपदेश, पूज्यपाद स्वामी, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई, सन् १९५४ उतराध्ययनसूत्रम्, भा० २-३, अनु० आत्माराम जी महाराज, जैन शास्त्रमाला . कार्यालय, लाहोर, प्रथमावृत्ति, १९४२ उपासकाध्ययन, सोमदेवमूरि, संपा वै लाशचंद्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, ई० सन् १९६४ उपासकदशांगसूत्रम्, अनु० आरमारामजी महाराज, संपा० इन्द्रचंद्र शास्त्री आत्माराम जैन प्रकाशन समिति, लुधियाना, सन् १९६४ ऐतरेय उपनिषद् ( १०८ उपनिषद् ), प्रकाशक पांडुरंग जावजी, बम्बई (औ) औषनियुक्ति, द्रोणाचार्यवृत्तिसहित, आगमोदय समिति, मेहसाना ... (ऋ) ऋग्वेद संहिता, संपा० श्री० दा० सातवलेकर, स्वाध्याय मण्डल, औध, सतारा, सन् १९४० (क) कठोपनिषद् (१०८ उपनिषद्), प्रकाशक-पाडुरंग जावजी, बम्बई, सन् १९२२ कर्तव्यकौमुदी भा० २, रचयिता मुनि श्रीरत्नस्वामी, प्रकाशक मैरोदान जेठमल . सेठिया, बीकानेर, सन् १९२५ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रन्थ -सूची कबीर, हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई सन् १९५० कबीर की विचारधारा, गो. त्रिगुणायत, साहित्यनिकेतन, कानपुर, सं० २००९ कर्मग्रन्थ भा० १-५ देवेंद्रसूरि आत्मानन्द जैन मण्डल, आगरा, १९२२ गीता का व्यवहार दर्शन, रामगोपाल मोहता, किताब महल प्रकाशन, इलाहाबाद, १९५१ गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ), नेमिचंद्र, अनु० मनोहर शास्त्री, परम श्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई, द्वितीय आवृत्ति, १९२८ गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), नेमिचंद्र, अनु. खूबचंद्र शास्त्री, परमश्रुत प्रभावक मंडल, बम्बई, १९२७ गोस्वामी, (खण्ड १; वर्ष २४, अंक १२), गोस्वामी कार्यालय, प्रयाग, १९६० (च) चरितसार, चामुण्डरायविरचित, प्रकाशक माणिकचंद दिगम्बर जैन ग्रंथमाला, बम्बई, वी० सं० २४४३ (छ) छान्दोग्य उपनिषद्, (१०८ उपनिषद्), संपा० बा०ल. शास्त्री, प्रका• पांडुरंग जावजी, बम्बई, १९३२ छहढाला, पं. दौलतराम, दिगम्बर जैन साध्याय मंदिर, सोनगढ़, वी० नि. सं० २४८७ (ज) जिनसहस्रनामस्तोत्र, पं० आशाघर, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि०सं० २०१० जीतकल्पसूत्रम्, जिन भद्रगणि, प्रकाशक बबलचंद्र केशवलाल मोदी, अहमदाबाद, वी० नि० सं० २४६६ जैन आचार, मोहनलाल मेहता, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९६६ जैन दृष्टि योग, भो०गि कापडिया, महावीर, जैन विद्यालय बम्बई, १९५४ जैनदर्शन, न्यायविजयजी हेमचंद्राचार्य जैन सभा, पाटन, सन् १९५६ जैन दर्शन, महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रंथमाला, वाराणसी, सन् १९५५ जैनदर्शन, मोहनलाल मेहता, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १९५९ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन जैन-धर्म, पं० कैलाशचंद्र शास्त्री, भा०दि जैन संघ, मथुरा, वी०नि०सं० २४७४ जैन-धर्म का प्राण, पं० सुखलाल संघवी, सस्ता साहित्य मण्डल, दिल्ली, १९६५ जैन साहित्य का इतिहास ( पूर्वपीटिका), कैलाशचंद्र शास्त्री, गणेश प्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वी०नि० सं० २४८६ जैन साहित्य का वृहद् इतिहास ( भा०१), पं० बेचरदास दोशी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९६६ जैन साहित्य का वृहद् इतिहास ( भा०३ ), मोहनलाल मेहता, प्रका० व्ही, सन् १९६७ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ( भा० ४), मोहनलाल मेहता एवं ही० रा० कापडिया, प्रका० वही, सन् १९६८ (त) तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ( स्वोपज्ञभाष्य ); तत्त्वानुशासन, सिद्धसेन गणी, भा॰ २, प्रकाशक जीवनचंद साकरचंद झवेरी, सूरत, ई० स० १९३० तत्वार्थराजवार्तिक, अकलंकदेव, भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, सन् १९४४ तत्त्वार्थसूत्र, उमास्वाति, विवेचक पं० सुखलाल संघवी, भारत जैन महा मण्डल वर्धा सन् १९५२ (द्वि०मा० पार्श्वनाथ विद्यालय शोध संस्थान, वाराणसी, सन् १९७६) . तत्त्वार्थ सूत्रम्, टीका हरिभद्र, श्रेष्टी ऋषभदेवजी, केसरीमलजी, जैन श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, १९३६ तैत्तिरीय उपनिषद् (१०८ उपनिषद्), संपा० बा०ल. शास्त्री, प्रकाशक पांडुरंग जावजी, बम्बई, १९३२ तंत्रसार, अभिनव गुप्त, महाराजा जम्मू एण्ड काश्मीर स्टेट श्रीनगर, सन् १९१८ तंत्रालोक, अभिनवगुप्त, महाराजा जम्मू एण्ड काश्मीर स्टेट श्रीनगर, सन् १९१८ तपोरत्न महोदधि, संपादक भत्ति विजयजी, जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, संवत् २००२ (द) दर्शन और चिन्तन, पं० सुखलाल संघवी, जैन संस्कृति संशोधन मण्डल, बनारस, १९५७ दशवैकालिकसूत्र, श्री शय्यंभवसूरि, अगरचंद मैरोदान सैटिया जैन संस्था, बीकानेर, वी० नि० सं० २४७२ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रन्थ-सूची २४७ दशाश्रुतस्कन्ध ( टीका सहित आत्माराम जी०म० ), जैनशास्त्रमाला कार्यालय, यशोविजय, जैन धर्मं प्रसारक लाहौर, १९३६ द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, सभा, भावनगर दीघनिकाय, संपा० जगदीश काश्यप एवं राहुल सांकृत्यायन, महाबोधि सभा, सारनाथ, प्रथम संस्करण, १९३६ ( ध ) थम्मपद, धर्मरक्षित, मास्टर खेलाड़ी लाल ऐण्ड सन्स, बनारस, १९५३ धर्मबिन्दु, हरिभद्र सूरि, आगमोदय समिति, बम्बई, ई०सं० १९२४ ध्यानबिन्दुपनिषद्, (१०८ उपनिषद् ), संपा० वा०ल० शास्त्री, प्रकाशक पांडुरंग जावजी, बम्बई, सन् १९३२ ध्यानशतक, जिनभद्र क्षमाश्रमण, विनयसुन्दर चरणग्रन्थमाला, जामनगर, वि०स० १९९७ ध्यानशास्त्र, रामसेनाचार्य, संपादक जुगल किशोर मुख्तार, वीरसेवा मन्दिर ट्रस्ट, दिल्ली, सन् १९६३ ( न ) नमस्कारस्वाध्याय (संस्कृत), जैन साहित्य विकास मण्डल, बम्बई, सन् १९६२ नवतत्त्वप्रकरण, विवेचक भगवानदास हरखचंद, श्री हेमचंद्राचार्य जैन ग्रंथमाला, अहमदाबाद, सन् १९२८ नवपदप्रकरण, यशोपाध्याय रचित, प्रकाशक जीवनचंद साकरचंद झवेरी, बम्बई, सन् १९२७ नवपदार्थ, आ० भिक्षु, हिन्दी अनुवाद श्रीचंद्र रामपुरिया, जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, सन् १९६१ नाथ सम्प्रदाय, हजारीप्रसाद द्विवेदी, नैवेद्य निकेतन, वाराणसी सन् १९६६ न्यायदर्शन ( वात्स्यायन भाष्य ), अनु० द्वारिकादास शास्त्री, भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी, सन् १९६६ नियमसार, कुन्दकुन्दाचार्य, सेण्ट्रल जैन पब्लिकेशन हाउस, लखनौ, सन् १९३१ ( प ) पंचसंग्रह · चंद्रषिमहत्तर, भा० २, संपादक, विजय प्रेमसूरि, प्रका• मुक्ताबाई ज्ञान- मन्दिर, डमोई, गुजरात, सन् १९३७ पंचास्तिकाय कुन्दकुन्द रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, बम्बई, वी० स० २४३१ , Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन पंचाध्यायी, राजमल्ल, संपा० पं० देवकीनन्दन शास्त्री, गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, बनारस, वी० नि० सं० २४७६ पद्मनन्दि पंचविशति, अनु० बालचंद्र जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, सन् १९६२ परमात्मप्रकाश, योगिन्दुदेव, परमश्रुत प्रभावक मंडल, बम्बई, १९२७ परमार्थसार, अभिनवगुप्त, रिसर्च डिपार्टमेंट जम्मू ऐण्ड काश्मीर, सं० १९७३ प्रमेयरत्नमाला, अनु० जयचन्द्र, अनन्तकीर्ति ग्रन्थमाला समिति, बम्बई प्रवचनसार, कुन्दकुन्दाचार्य, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई, सन् १९३५ प्रवचनसारोद्धार ( भा० १-२ ), नेमिचन्द्रसूरि, देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई, सन् १९२२ प्रशमरति प्रकरण, उमास्वाति, सं० राजकुमार जैन, परमश्रुत प्रभावक मंडल; बम्बई, सन् १९५० प्रश्नोपनिषद् ( १०८ उपनिषद्, वा० ल० शास्त्री, प्रका० पांडुरंग जावजी बम्बई, १९३२ प्रत्यभिज्ञाहृदयम्, क्षेमराज, ऑकिओलाजिकल ऐण्ड रिसर्च डिपार्टमेंट, श्रीनगर, सन् १९११ प्रज्ञापनासूत्र, मलयगिरि, अनु० भगवानदास हर्षचन्द्र, शारदा भवन, जैन सोसाइटी, अहमदाबाद, सम्वत् १९९१ प्रज्ञापारमिता ( भा० १) हरिभद्र, सम्पा० बी० भट्टाचार्य, ओरिएन्टल इन्स्टिट्यूट, सन् १९३२ प्राभृतसंग्रह, कुन्दकुन्दाचार्य, कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, वि० सं० २०१६ पुरुषार्थसिद्धयुपाय, अमृतचन्द्र, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई, वी० नि० सं० २४३१ पाहुडदोहा, रामसिंहमुनि, सम्पा० हीरालाल जैन, कारंजा जैन पब्लिकेशन सोसाइटी, वि० सं० १९९० ( ब ) बोधिचर्यावतार, शान्तिदेव, बुद्धविहार, लखनो, ई० स० १९५५ बौद्धदर्शन और वेदान्त, चन्द्रधर शर्मा, स्टूडेण्ट्स फेण्डस्, इलाहाबाद, सन् १९४९ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रन्थ-सूची २४९ बौद्धदर्शन, बलदेव उपाध्याय, प्रथम संस्करण, शारदा मन्दिर प्रकाशन, काशी, सन् १९४६ - बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन ( भा० १-२ ) भरतसिंह उपाध्याय, बंगाल हिन्दी मण्डल, कलकत्ता, सं० २०११ - बौद्धधर्मदर्शन, आ० नरेन्द्रदेव, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, सन् १९५६ स० २४४६ बृहद्कल्प, अमोलक ऋषि, हैदराबाद- सिकन्दराबाद जैन संघ, वी०नि०सं० २०४६ वृहदारण्यक ( १०८ उपनिषद् ), प्रका० पाण्डुरंग जावजी, बम्बई, १९३२ ब्रह्म बिन्दूपनिषद्, वही ( भ ) भगवद्गीता, सुरेशचन्द्र मुखोपाध्याय, कन्ट्रोलर आफ चैरिटीज, अवागढ, सन् १९२३ भगवतीसूत्र, घासीलाल जी महाराज, प्रका० अ० भा० श्वे० स्थान० जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, १९६१ भागवतपुराण, गीता प्र ेस, गौरखपुर, संवत् २०१३ भारतीय दर्शन, बलदेव उपाध्याय, शारदा मन्दिर, काशी, १९५७ भारतीय दर्शन ( भा० १), राधाकृष्णन्, राजपाल एण्ड सन्स, दिल्ली, सन् १९६६ भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, डा० हीरालाल जैन, मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद्, भोपाल, १९६२ भारतीय संस्कृति और साधना ( भा० २), गोपीनाथ कविराज, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, १९६३ ( म ) मज्झिमनिकाय, राहुल सांकृत्यायन, महाबोधि सभा, सारनाथ, १९३३ मनोनुशासन, आ० तुलसी, जैन भारती, वर्ष २, अंक २, जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी महासभा, कलकत्ता प्रकाशन, सन् १९६९ महाभारत, गीताप्रेस गोरखपुर, संवत् २०२१ मिलिन्दप्रश्न, नागसेन, बर्मी धर्मशाला, सारनाथ, वाराणसी, सन् १९३७ मुण्डकोपनिषद् (१०८ उपनिषद् ), सम्पा० वा० ल० शास्त्री, प्रका० पांडुरंग जावजी, बम्बई, सन् १९३२ मूलाचार, बट्टकेर, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, वी० नि० सं० २४४९ मुलाराधना, शिवाचार्य ( बलात्कारगण ), जैन पब्लिकेशन, कारंजा, १९३५ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन (य) यशस्तिलकचम्पू, सोमदेवसूरि, निर्णय सागर प्रेस, बम्बई, सन् १९०१ योगकुण्डल्योपनिषद् ( १०८ उपनिषद्), प्रका• पांडुरंग जावजी, बम्बई, ई. १९३२ योगचूड़ामणि उपनिषद् वही योगांक ( विशेषांक ), कल्याण, भा० १०, अंक १.३, गीताप्रेस, गोरखपुर, सन् १९३५ योगतत्त्वोपनिषद् ( १०८ उपनिषद् ), प्रका. पांडुरंग जावजी बम्बई, सन् १९२२ योगदर्शन, पतंजलि, गीताप्रेस, गोरखपुर, सम्वत् २०११ योगदर्शन ( व्यासभाष्य ), ब्रह्मलीन मुनि, सूरत, सन् १९५८ योगदर्शन, सम्पूर्णानन्द, हिन्दी समिति, सूचना विभाग, लखनौ, ई९ १९६५ योगदृष्टिसमुच्चय, हरिभद्र विजयकमल केशर ग्रन्थमाला, खम्भात्, वि० सं० १९९२ योगप्रदीप, मंगलविजय, हेमचन्द्र सावचन्दशाह, कलकत्ता, वी० सं० २४६६ योगप्रदीप, अज्ञात, जैन साहित्य विकास मण्डल, बम्बई, ई० १९६० योगबिन्दु, हरिभद्र, जैन धर्म प्रचारक सभा, भावनगर, सन् १९११ योगबिन्दु, हरिभद्र,जैन ग्रन्थ प्रसारक सभा, अहमदाबाद, सन् १९४० योगमनोविज्ञान, शान्तिप्रकाश आत्रेय, दी इण्टरनेशनल स्टैण्डर्ड पब्लिकेशन, . वाराणसी, सन् १९६५ ।। योगवासिष्ठ, सम्पादक वासुदेव लक्ष्मण शास्त्री, प्रका० तुकाराम जावजी, द्वितीय आवृत्ति , बम्बई, सन् १९१८ योगवासिष्ठ और उसके सिद्धान्त, भीखनलाल आत्रेय, तारा पब्लिकेशन, वाराणसी, सन् १९६५ योगविशिका तथा पातंजल योगदर्शनवृत्ति, यशोविजय, संपा० पं० सुखलाल ___संघवी, जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, सन् १९२२ योगसार, अज्ञात, जैन साहित्य विकास मण्डल, बम्बई, सन् १९६० योगसार, योगिन्दुदेव, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई, सन् १९३७ योगसार प्राभृत, अमितगति, संपा० जुगलकिशोर मुख्तार, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी, सन् १९६८ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रन्थ-सूची २५१ योगशतक, हरिभद्र, संपा० इन्दुकला झवेरी, गुजरात विद्या सभा, अहमदा बाद, सन् १९५६ योगशास्त्र : एक परिशीलन, अमरमुनि, सम्मति ज्ञानपीठ, आगरा, सन् १९६३ योगशास्त्र, हेमचन्द्र, ऋषभचन्द जौहरी, किशनलाल जैन, दिल्ली, सन् १९६३ योगशास्त्र, हेमचन्द्र, अनु० केशरविजय जी, बिजय केशर ग्रंथमाला, बम्बई, वि० सं० २४५०. योगशास्त्र, हेमचंद्र, संपा० गो० जी० पटेल, जैन साहित्य प्रकाशन समिति, अहमदाबाद, १९३८ योगी सम्प्रदाय विकृति, अनु● चंद्रनाथ योगी, प्रका० शिवनाथ योगी, शाही - बाग, अहमदाबाद, सन् १९२४ योग समन्वय, सच्चिदानन्द सरस्वति महाराज, विश्व शान्ति संघ, दिल्ली, सन् १९५१ योगशिखोपनिषद् (१०८ उपनिषद् ), प्रका० पांडुरंग जावजी, बम्बई, सन् १९३२ (र) रत्नकरण्ड श्रावकाचार, समंतभद्र, प्रका० माणिकचंद दि० जैन ग्रंथमाला बम्बई, वी० सं० २४५१ ( ल ) लाटीसंहिता, राजमल्ल, संपा० दरबारीलाल, माणिकचंद दि० जैन ग्रंथमाला, बम्बई, वि० सं० १९८४ लेश्याकोश, मोहनलाल बांठिया - चोरडिया, डोवरलेन, कलकत्ता, सन् १९६६ ( व ) वसुनन्दि श्रावकाचार, सम्पा० हीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन् १९५२ विशतिविशिका, हरिभद्र, संपा० डा० अभ्यंकर, आर्यभूषण मुद्रणालय, पूना, सन् १९३२ विशुद्धि मार्ग ( भा० १-२ ), बुद्धघोष, महाबोधि सभा, सारनाथ, सन् १९५६विसुद्धिमग्ग, बुद्धघोष, भारतीय विद्या भवन, सन् १९४० ई० विशेषावश्यक ( भा० १-२ ), जिनभद्र, संपा० दलसुखभाई मालवणिया, ला० द० भारतीय सं० विद्यामंदिर, अहमदाबाद, सन् १९६६ तथा ६८. विशेषावश्यकभाष्य ( भा० ६ ), जिनभद्र, यशोविजय जैन ग्रंथमाला, वी नि० सं० २४३९ . Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन वैदिक योगसूत्र, हरिशंकर जोशी, चौखम्बा प्रकाशन, बनारस, १९६७ वैशेषिक दर्शन, कणाद्, संपा० शंकरदत्त शर्मा, मुरादाबाद, सन् १९२४ (श) शाण्डिल्योपनिषद् ( १०८ उपनिषद्), संस० वा. ल. शास्त्री, प्रका० पांडुरंग जावजी, बम्बई, सन् १९३२ शन्तिसुधारस, अनु० मनसुखभाई की• मेहता, प्रका० भगवानदास म • मेहता, भावनगर, वी० सं० २४६२ . श्वेताश्वतरोपनिषद् (१०८ उपनिषद्), प्रका० पांडुरंग जावजी, बम्बई, ई० १९३२ शैवमत, डा० यदुवंशी, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, सन् १९५५ (ष) षट्खण्डागम ( खण्ड ४, पुस्तक ९), संपा. डा० हीरालाल जैन, शि० ल. जैन साहित्योद्धारक फंड कार्यालय, अमरावती, ई० १९४९ षोडशक प्रकरण, हरिभद्र, जैनानन्द पुस्तकालय, गोपीपुरा, सूरत, वी० सं० २४६२ . (स) -सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, उमास्वाति, मणिलाल रेवाशंकर झवेरी, बम्बई, १९३२ समवायांग, स्थानांगसूत्र, संपा० पं० दल सुखभाई मालवणिया, गुजरात विद्या पीठ, अहमदाबाद, १९५५ “समवायांग, संपा० मुनि कन्हैयालाल, आगम अनुयोग प्रकाशन, दिल्ली, सन् समयसार, कुन्दकुन्द, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९५० समाधितंत्र, पूज्यपाद, संपा० जुगलकिशोर मुख्तार, वीर सेवा मंदिर ट्रस्ट सरसावा, सन् १९३९ समाधिमरणोत्साहदीपक, सकलकीर्ति, अनु० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री, वीर सेवा मंदिर ट्रस्ट प्रकाशन, दिल्ली, सन् १९६४ सरमत का सरभंग सम्प्रदाय, धर्मेन्द्र शास्त्री, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, . पटना, सन् १९५९ किन्दपुराण (भा० १), राजा विनेंद्र स्ट्रीट, कलकत्ता, सन् १९६० Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रन्थ-सूची २५३ सर्वार्थसिद्धि, पूज्यपाद, संपा० पं० फूलचंद्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, सन् १९५५ सर्वदर्शनसंग्रह, माधवाचार्य, चौखम्भा प्रकाशन, वाराणसी, सन् १९६४ स्मृतियां (भा० १-२), संपा० रामशर्मा, संस्कृति संस्थान, बरेली, ... सन् १९६६ संयुक्तनिकाय, जगदीश काश्यप, महाबोधि सभा, सारनाथ, सन् १९५४ . सागारधर्मामृत (भाग १-२), पं० आशाधर, सरल जैन ग्रंथ भण्डार, जबलपुर, - वि० सं० २४८२ सांख्यकारिका, कृष्णमुनि, स्वामी नारायण ग्रंथमाला, वड़ताल, गुजरात, __सन् १९३७ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, संपा. डा० ए० एन० उपाध्ये, रायचन्द्र आश्रम अगास, सन् १९६० स्थानांगसूत्र, संपा० घासीलाल जी महाराज, अ० भा० श्वे० स्थान जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, १९६४-६५ सावयधम्मदोहा सुत्तनिपात, अनु० भिक्षु धर्मरत्न, महाबोधि सभा, सारनाथ, १९५१ सूत्रकृतांग (प्रथम खण्ड ), संपा० डा० पी० एल० वैद्य, मोतीलाल प्रकाशन, पूना, १९२८ सेकोद्देशटीका (नाद पाद), ओरिएण्टल इस्टिट्यूट, बड़ोदा, १९४१ हठयोगप्रदीपिका, थिऑसॉफिकल पब्लिकेशन हाउस, अड़यार, सन् १९४९ हरिवंशपुराण, जिनसेनाचार्य, संपा०, पन्नालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन् १९६२ हिन्दी विश्वकोश (भाग ९), नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, सन् १९६७ हेमधातुमाला, गुणविजय, जैन ग्रंथ प्रकाशक समा, द्वितीयावृत्ति, अहमदाबाद, सन् १९३० (क्ष) क्षरिकोपनिषद् (१०८ उपनिषद्), प्रका० पांडुरंग जावजी, बम्बई, सन् १९३२ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन (त्र) त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद् (१०८ उपनिषद्)-प्रकाशक पांडुरंग जावजी, बम्बई, . सन् १९३२ (ज्ञ) ज्ञानसार, पद्मसिंह, टीका त्रिलोकचन्द, मू० कि० कापडिया, दिगंबर जैन पुस्तकालय, सूरत, वी० सं० २४७० ज्ञानार्णव शुभचन्द्र, संपा० पं० बालचन्द्र शास्त्री, जैन संस्कृति संघ, सोलापुर सन् १९७७ तथा संग०पन्नालाल बाकलीवाल, परम श्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई, १९२७ ज्ञानेश्वरी ( मराठी ), सं० श. वा० दाण्डेकर, प्रसाद प्रकाशन, पूना, सन् १९५३ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REFERENCES Abhinavagupta, An Historical and Philosophical Study, K. C. Panday, Chwakhamba Bhavan, Varanasi, 1963 Ethical Doctrines in Jainism, K. C. Sogani, Jain Samskriti Sanrakshaka Sangha, Sholapur, 1967. Encyclopaedia of Religion and Ethics, Vol. 12, Edited J. Hastings, New-York, 1921. Gorakhnath and the Kanafata Yogis, G. W. Briggs, Y. M. C. A. Publishing House, Calcutta, 1938. History of Ancient India, R. S. Tripathi, Motilal Banarasi. dass Varanasi, 1960. Indian Philosophy, Vol. 1, Radhakrisban, Gorge Allen and Unwin Ltd. (Revised), London, 1929. Jain Yoga, R Williams, Oxford University Press, London, 1963. Jain Ethics, Dayanand Bhargava, Motilal Banarasidass, Delhi, 1968. Jain Psychology, Mohanlal Mehata, Sohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti, Amritsar, 1955. Modern Review, August, Calcutta, 1932. Mohen-Jodaro And the Indus Civilization, Vol. I, Sir J.. Marshall, London, 1931. Mysticism in World Religion, Sidney Spencer, Penguina Books Ltd, England, 1963. Siddha Siddhant Paddhati and other works of Nath Yogis, K. Mallik, Poona Oriental Book House, 1954. Studies in Jain Philosophy, N. Tatia, Jain Cultural Res earch Society, Banaras, 1951. The Heart of Jainism, Mrs. S. Stevenson, Oxford Uni versity Press, London, 1915. Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन The Key of Knowledge, C. R. Jain, Allahabad, 1928.. The Brabma Sutra, Radhakrishnan, Gorge Allen and Unwin Ltd., London, 1960. Tibetan Yoga and Secret Doctrines, Edited, W. Y, Evans Wentz. 2nd ed., Oxford University Press, London, 1958. Viveka Chudamani, Samkaracharya, Advaita Ashram, Almora, 1932, Yoga System of Patanjali, J. H. Woods, Motilal Banarasi dass, Banaras, 1966. Yoga: Philosophy, S. N. Dasgupta, Calcutta University, 1930. Yoga Philosophy V.R. Gandhi, Agamoday Samiti, Bombay, 2nd, ed., 1924. Yoga Immortality and Freedom, Translated from French by Willard R. Trask, Pantheon Books, New York, 1951. Yoga, Ernest Wood, Penguin Book Ltd., (Reprint ), England, 1965. Yoga.sastra ( Sbiva Samhita and Gberand Samibita ) ed. B. D. Basu, Sacred Book of the Hindus, 2nd ed., Allahabad 1925. Yogic Poweres And God Realisation, V. M. Bhatt, Bhartiya Vidya Bhavan, Bombay, 1964. Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दानुक्रमणिका अक्षर ज्ञान--१७६ अध्यात्मोपनिषद्-८, ४७, ४९ अगर्भ-२१ अनंगक्रीड़ा-९४ अचरमावर्ती-४४, ६३ अनगार धर्मामृत-४८ अचला-१९७ अनध्यवसाय-८३ अशातता-५९ अननुष्ठान-६९ अज्झप्पयोग-७ अनर्थदण्ड-९९ अणुव्रत-८९ अनशन-१३६ अतिचार-९५, ९९, १००, १०१, अनागामी चित्त-१९५ १३० अनायतन-८२ पतिथिसंविभाग-१०२, १०३ अनालम्बन-६८ अतिभारारोपण-९० अनित्यानुप्रेक्षा-१२५ बद्वयतारकोपनिषद्-५ अनिश्चितोपधान-५९ अद्वैत वेदान्त-३१ अनिष्टसंयोग-१६६ अध्यात्म-२१५ अनुकम्पा-८१ अध्यात्मकमलमार्तण्ड-५० अनुपाधिशेष-२२८ अध्यात्मकलिका-५३ अनुप्रेक्षा-१४० अध्यात्मकल्पद्रुम-५२, ५७ अनुमतित्यागप्रतिमा-१०८ मध्यात्म-तत्त्वालोक-४३, ५१, ७१, अन्तरात्मा-४० १९०, २०६, २०७, २०९, २१० अन्नपाननिरोध-९० अध्यात्म-परीक्षा-५३, २०४ अन्नमयकोश-११ अध्यात्मप्रदीप-५३ अन्यत्वानुप्रेक्षा-१२६ अध्यात्मप्रबोध-५३ अपध्यान-१०० बध्यात्मभेद-५३ अपरिग्रहीतागमन-९४ अध्यात्मरहस्य-४८ अपान-१४९ बध्यात्मलिंग-५३ अपापकता-११२ अध्यात्मसार-४९, १८४, १८८, अपायविचय-१७२ १८९ अपुनर्बन्धक-६४, ८५ लध्यात्मसारोद्धार-५३ अप्रमाद-६० Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १६४ अप्रशस्त अभय ज्योति - ९ अभिज्ञा - २२० अभिधर्मकोश -- १५७ अभिधानचिन्तामणि - ४ अभिधान राजेन्द्रकोश - ५५, १७१ अभिमुखी - १९७ अभ्यासयोग – ६ अमनस्कयोग - ७, २६ अमितगति - ४५, ९१, ९३, ९६, ९८, १४५ अमृतनादोपनिषद् - ५, १२, १४६, १५५ अमृतबिन्दूपनिषद् - ५, २२५ अमृतानुष्ठान–६९ अमृतोपनिषद् - १५३ अर्थ – ६८ - अर्ह चित्त - १९५ अलोभता - ५९ अवमौदर्य - १३६ अशरणानुप्रक्षा – १२५ अशुचित्वानुप्रेक्षा -- १२७ अष्टांगमार्ग - ३५ अष्टांगयोग - ६५ असंसक्ति - १९४ असत् - ९१ असम्प्रज्ञात - ३० अस्मितानुगत - १५६ -आकिंचन्य - १२२ आग्नेयी धारणा - १७४ आचार--- . ६० ( २ ) आचार-विचार- ११ आचारांग सूत्र --११२ आचार्य - १३९ आज्ञा- विचय - १७२ आणव- २८ आत्मदोषोपसंहार - ६० आत्मयोग - ६ आत्मलीनता - ३० आत्मसंयमयोग - ६ आत्मस्वरूपविचार—६३ आत्मा - ११, ६२, १६१ आत्मानुशासन -४४ आदान निक्षेप समिति - ६१८ आदिनाथ - २५ आदिपुराण - ९८, १०२, ११० आध्यात्मिक विकास क्रम - २०४, २१७ आनन्दानुगत -- १५६ आनापानस्मृति - ३४ आनापानस्मृति कर्मस्थान – १४७ आप्तपरीक्षा - २२८ आप्त-पुरुष- -८० आप्तवचन- ८१ आम्नाय - १४० आयाम- १४८ आरम्भत्यागप्रतिमा - १०७ आर्चिष्मती -- १९६ आर्जव - १२१ आर्त ध्यान - १६५ आर्य सत्यों - ३५ आर्ष - १६१ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहेत् दर्शन दीपिका-११६, ११७, उदान-१४९ १२०, १३० उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा-१०८ आर्हत् धर्म-प्रदीप-५० उपचार-१३९ आलम्बन-६८, १८३ उपनिषद्-५, ११, २९, ३३, २१९ आलोकित पान भोजन-११२ २२५ आलोचना-५९, १३८ । उपभोगातिरिक्तता-१०० आवश्यक अध्ययन-१६६, १६९ उपस्थापन-१३८ आवश्यक नियुक्ति-३७, ७९, १५९, उपाध्याय-१३९ १६४, २२२, २२४ उपासक दशांग-८७, ८८, ९७, आशाधर-४८, ५३ १०२ आशाधर-टीका-३९ उपासकाध्ययन-८२, ९१, ९३, आसन-१४२ ९५, ९६, ९७, १०२, १०८, आस्तिक्य-८१ १०९, १२९, १३०, १४५, १६२ आस्रव-५५ उमास्वाति-३९ आसवानुप्रेक्षा-१२७ उर्ण-६८ इच्छायम -७२ ऊनोवरी-१३६ इच्छायोग-६९ ऋग्वेद-४, ५, ८, ९, १०, ५४, इत्वरपरिगृहीतागमन-९४ १३२ इन्द्रानन्दी-४१ ऋजुभाव-६० इष्टवियोग-१६६ ए० एन० उपाध्ये-४१ इष्टोपदेश-३९ एकत्व-श्रुत-अविचार-१८५ ईर्या समिति-११२, ११७ एकत्वानुप्रेक्षा--१२६ उत्कटिक--१४४ एकाग्रतासहित-१५८ उत्तराध्ययन-७, ३७, ७९, ८२, एकोन्मुखता-५८ ८४, १११, ११२, ११५, ११६, एषणा समिति-११८ ११७, ११८, ११९, १२०, ऐतरेयोपनिषद्-९, १४६ १२४, १२५, १२८, १२९, ऐश्वरी योग-६ १३१, १३५ १३८, १९८, ओघदृष्टि-२०९ १९९, २००, २३० ओघनियुक्तिभाष्य-१११ उत्तराध्ययन चूर्णि-१९९।। कठोपनिषद्--५, ११, ३० उत्पन्न क्रिया प्रतिपाति-१८८ कणाद-६ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाद्वात्रिंशिका - २२१ कनफटायोगी – २५ कन्दर्प - १०० कन्यालीक - ९१ कपिल - २० कबीर - २५ कबीर की विचारधारा - २५ कर्तव्य कौमुदी - ६७ कर्म – १९८, २२६ कर्म ग्रन्थ – २०३ कर्मयोग - ६, १३, १८ कर्मसाम्य - २९ कान्तादृष्टि - २११ कापड़िया - ४३ कायक्लेश - १३६ काय गुप्ति -- ११७ कायोत्सर्ग - १२० कायोत्सर्गासन – १४४ क्रिया - २७ क्रियायोग – ३१ क्रियावंचक्र - ७२ कुण्डलिनी - ७४ कुन्दकुन्द – ३८, ८७ कुल- १४० कुलधर्म - ११० कुलयोगी - ७१ कुशलता - १६ कूटलेखक्रिया - ९२ कूटसाक्षी - ९१ कैलाश - २४ कैवल्य – ५६ ( ४ ) कैवल्यधाम - ३० कौत्कुच्य - १०० क्षमा - १२१ गण - १४० गरानुष्ठान - ६९ गवालीक -- ९१ गहिनीनाथ - २५ गीता - १५, १७, ३७, ५२, ७७, २२५ गीता का व्यवहार दर्शन - १७ गुणव्रत - ९८ गुणस्थान -- २०१ गुप्ति - ११६ गुरु- ६२ गुरुदास - ५३ गोत्रयोगी - ७१ गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ) - १०१. २०० गोरक्ष- -७ गोरखनाथ -- २५ गौअलीक - ९१ ग्लान - १४० ज्ञान-४, २७, १३९ ज्ञानगर्भित वैराग्य - ६७ ज्ञानदेव - २५ ज्ञानयोग - ६, १८ ज्ञानसार - ४५, १६९, २२८ ज्ञानार्णव – ८, ७४, ९३, ११६, ११७, ११८, १२५, १२७, १२८, १४५, १४८, १५०, १५२, १५४, १६०, १६३, Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४, १६५, १६६, १६७, १६८, १६९, १७०, १७१, १७२, १७३, १७४, १७५, १७६, १७७, १७८, १७९, १८०, १८१, १८२, १८४, १८५, १८६, १८७, १८९, २२१, २३१ ज्ञानेश्वरी (मराठी) - २६ घेरण्ड संहिता -७, २४, १४७, १५६ चतुर्विशतजिनस्तव – ११९ चरमावतं काल -६४ -४ ( ५ ) चरमावर्ती - ४४, ६३ --- चर्या - २७ चामुण्डराय- -८७ चारित्र - १३९ चारित्र पाहुड - १०२ चारित्र प्राभृत – ८७ चारित्र - सार - ९५,९६, ९७, १०२ चारित्राचार - ५९ चारित्रात्मक - चित्त - २९, १९५ चित्तनिरोध - २४ चित्तवृत्तिनिरोध - ४ चैतन्य - २८ चौथा कर्मग्रन्थ - १९९ चौर्यानन्द - १६८ १४३, छहढाला - ८१, ८३, ८४, १२४ छान्दोग्योपनिषद् - ११ छेद – ९०, १३८ छेदोपस्थापनाचारित्र - ८४ जय - ७३ जयकीर्ति - ५३ जाग्रत - १९२ जाग्रत · स्वप्न - १९२ जिनचन्द्र – ५३ जिनभद्राणि - ३८ जिनरत्नकोश - ३९, ५३ जिनवाणी -- १३५ जीतकल्प - १३८ जीव- ६२ जीवन्मुक्त – २२६ जीवन्मुक्ति – २६ जैन आचार - ८७, ९७, १०४, १२९ जैन ग्रंथ और ग्रन्थकार – ४७ जैन परम्परा में तप - १३४ जैन योग - ५२ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास - ४०, ४३, ५०, ५३, ५४, ५५, ७४ ज्वालेन्द्रनाथ - २५ ठाणांग - १३६ तत्त्वज्ञान - ६१ तत्त्ववती - १७५ तत्त्वानुशासन - ४५, ४६, १५९, १६०, १६१, १६२, १६३, १७०, १६४, १६५, १६९, १७१, २२९, २३०, तत्त्वार्थ राजवार्तिक - ८०, १२१, १२२, १३६, १६०, १६३ तत्वार्थ सूत्र (पं० सुखलालजी ) - ९० तत्त्वार्थ सूत्र - ३, ३९, ५५, ७९, ८१, ८७, ८९, ९०, ९१, ९२, ९४, ९५, ९७, १२१, १२३, १२४, १३०, १३४, १३६, Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७, १३८, १४०, १६०, दशवैकालिक-८९, ९६, १२७, १६७, २२८, २२९ १६४, १६५, १६७, २१८ । तत्त्वार्थाधिगम सूत्र-९५, १६९ दशाश्रुतस्कन्ध-१०४, १०६, १०७. तदुभय-१३८ दहन-१५० तद्धेतु अनुष्ठान -६९ दान-११०, तनुमानसा-१९३ दिग्वत-९९ दिवामिथुनविरति-९७ तन्त्रयोग-७ तन्त्रसार-२८ दीघनिकाय-७, ३४, ३५, १३३, १५८, २०१ तन्त्रालोक-२७, २८ दीप्रादृष्टि-२०८ 'तप-३१, ११०, १२२, १३१, दीर्घतमा ऋषि-९ १३४, १३८ तपस्या-१३२ दुःखगभित वैराग्य-६७ तपस्वी-१३९ दुःखसंयोगवियोग-योग-६ तपोरत्नमहोदधि-१४१ दुःश्रुति-१०० तारादृष्टि-२०६ दुर्वृत्तियां-१६ ताराद्वात्रिशिका-२०६, २०८,२१० दूरंगमा-१९७ दृष्टि-२०४, २०६ तितिक्षा-६० त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद्-५, १३, देशविरति-६५, ८५ १४६, १५३, २२५ देशावकाशिक व्रत-१०३ तिलोयपण्ती-२२२ दैवयोग-६ तोत्रकामभोगाभिलाषा-९४ दौलतराम--४१ तुर्यगा-१९४ द्रव्याहिंसा-८९ तेजोबिन्दूपनिषद् -५ द्वात्रिंशिका-१४८, १५२, १५४ तैत्तिरीय आरण्यक-१३२, द्वादशअनुप्रेक्षा-८७ तैत्तिरीयोपनिषद्-५, ११, १२, धम्मपद-१५७, २२७, १४२, २२६ धर्मध्यान-१६९ त्याग-१२२ धर्मबिन्दु-८७, ८९, ९२, ९८ दण्डासन-१४४ धर्ममेधा-१९७ दर्शन-८०, १३९ धर्मसंन्यासयोग-७० दर्शन और चिन्तन-२, २०० धर्मानुप्रेक्षा-१२७ दर्शनोपनिषद्-५, १५१, १५५ धर्मोपदेश-१४० दशचन्द्र-४० धारणा-१५३ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) धृतिमति-६० नित्याभियोग-६ ध्यान-६०, १४१, १५९, १६१, नियम-२१९ २१६ नियमसार-१६३ ध्यानदीपिका-५० निरपनाप-५९ ध्यानबिन्दूपनिषद्-५, १५५, २२५, निरुद्धावस्था-३ निर्जरानुप्रेक्षा-१२७ २२६ ध्यानयोग -६ निर्बीज-१४ ध्यानविचार-५० निर्बीजसमाधि-१५७ निर्वाण-२२७ ध्यानशतक-३८, १५९, १६४, १६६, १६७, १६८, १६९, निर्विकल्पसमाधि-३२ १७०, १७१, १८३, १८४, निर्वेद-८१ १८५, १८८ निवृत्तिनाथ-२५ ध्यानशास्त्र-४५ निश्चय दृष्टि-८० ध्यानसिद्धि-१६३ निष्पन्न योगी-७३ ध्येय-२६ निष्प्रतिकर्मता-५९ नन्दीगुरु-५३ नतिक जीवन-३४ नमस्कार स्वाध्याय (प्राकृत)-१६५ न्यायदर्शन-६, ७८ नमस्कार स्वाध्याय (संस्कृत)-७३, न्यायविजयजी-४३, ५१ ७४ न्यासापहार-९१, ९२ नवचक्र-७४ पंचपरमेष्ठो-१७८ नवतत्त्वप्रकरण-१२१, २३२ पंचशील-३५ नवपदप्रकरण-९५ पंचसंग्रह-५५ नवपदार्थ -१५९ पंचाध्यायी-१९९ नाथ-२५ पंचास्तिकाय-१९८ नाथबिन्दूपनिषद्--५ पडिमा-१०४ नाथयोग-२४, २५, २६ पतंजलि-३, २९, ३३, ३७ नाथ सम्प्रदाय-२५ पदस्थ ध्यान-१७५ पदार्थ भावनी-१९४ नाथूमल-३९ नारद-२० पद्मचरित–९८, १०२ नित्यमिलनयोग-२९ पद्मनन्दि-४५ नित्ययोग-२९ पद्मनन्दि पंचविंशति-९८ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मनन्दि पंचविंशतिका – १२१,१२६ पद्मपुराण- -८८ पद्मासन - १४४ परम व्योमन - ९ परमात्मप्रकाश – ४०, ४१, ४६ परमात्मा - २८, ४० परमानन्द - ५३ परमार्थसार - २८ परमेश्वर प्राणायाम - १५० -- परविवाहाकरण - ९४ परादृष्टि - २१३ परिग्रहत्यागप्रतिमा - १०७ परिग्रहपरिमाणव्रत - ९४ परिष्ठापना - ११८ परिहार - १३८ परिहारविशुद्धि चारित्र - ८४ परीषद् - १३० पयंकासन - १४४ पर्वत धर्म - ३९ पवन - १५० पातंजल योग दर्शन - ३८ ( ८ पातंजल योगसूत्र - ८, १४, २९, ३६, ४९, ५२ पापप्रवृत्तियाँ - ६२ पापोपदेश - १०० पाराशर स्मृति - १९ पार्थिवी - १७४ वाशुपत ब्राह्मणोपनिषद् - ५ पाहुड दोहा - ४६, ५७ पिण्डस्थ ध्यान - १७३ पुरन्दर - १४९ ) पुराण – ७७, २२५ पुरुषार्थ - ७९ पुरुषार्थसिद्धयुपाय – ८३, ८९, ९१ ; ९३, ९५, १७, १०२, १२९ पूज्यपादकृत – ३९ पूज्यपादकृत इष्टोपदेश - १६३ पूर्वसेवा - ६१ पूर्वसेवा द्वात्रिंशिका - २२८, २२९ पृथकत्व श्रुत सविचार - १८४ प्रच्छना - १४० प्रज्ञापना सूत्र - २३२ प्रज्ञापारमिता - १९६ प्रणिधान - ६६ प्रतिक्रमण - ११९, १३८ प्रतिरूपक व्यवहार - ९२ प्रतीत्यसमुत्पाद - ३५ प्रत्यभिज्ञ -- २८ प्रत्यभिज्ञाहृदयम् - २७, २८ प्रत्याख्यान - ६०, १२० प्रत्याहार - १४९, १५०, १५२ प्रत्येक बुद्ध - १९६ प्रथम कर्म ग्रन्थ - १९८ प्रबोधसार - ९३ प्रभाकरी - १९६ प्रभादृष्टि - २१२ प्रमादचर्या - १०० प्रमुदिता - १९६ प्रमेयरत्नमाला - ८२ प्रवचनसार - १६९ प्रवचनसारोद्धार - १३६, २२२, २२४ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रवृत्तचक्रयोगी-७१ प्रवृत्ति-६६ प्रवृत्तियम-७२ प्रशमरतिप्रकरणम् - १२३, १२५ प्रशस्त-१६४ प्रश्नोपनिषद् -१२ प्रसंख्यान-१६० प्राण-१४८ प्राणमय--११ प्राणवायु-१४९ प्राणविद्या-९ प्राणायाम-१४६, १४८ प्राणिधि-६० प्राणोपासना-५४ प्राभृतसंग्रह-९८ प्रायश्चित-६० प्रायश्चित तप-१३७ प्रीति सुख एकाग्र सहित-१५८ प्रोषधोपवास-१०२, १०३ प्रोषधोपवास प्रतिमा-१०६ फलावंचक्र-७२ फिलासफी आफ् गोरखनाथ -२७ फिलासाफिकल एसेज-४ बन्ध-९० बन्धन-२२९ बलादृष्टि-२०७ बहिरात्मा-४० बारस अणुवेक्खा-१२५ बालचन्द्र -४१ बाह्यपरिग्रह-९५ बिन्दुयोग-७ बीज जाग्रत-१९२ बुद्धलीलासार संग्रह-१३३ बुद्धियोग-६ बृहदारण्यकोपनिषद्-१२, १३, ५४, १४२ बृहदव्यसंग्रह-१६२, २३० बृहद्रव्यसंग्रह (टीका)-१२५ बोधिचर्यावतार-३४ बोधिदुर्बलानुप्रेक्षा-१२८ बोधिसत्त्व-३३ बौद्ध-३७ बौद्ध दर्शन-३, १४३, १४७, १५२, १५८ बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन ३४, १३१, २२७ बौद्ध धर्म-दर्शन-१५४ बौद्ध-परम्परा में तप-१३३ बौद्ध योग-३३, ५२ बौद्धागम-३४ ब्रह्म-११ ब्रह्मचर्य-१२२ ब्रह्मचर्य प्रतिमा-१०७ ब्रह्मदेव-४१ ब्रह्मबिन्दूपनिषद् -१२, १५५ ब्रह्मयोग-६ ब्रह्मविद्योपनिषद्-५ ब्रह्मसूत्र-७ भक्तियोग-६, १८ भगवतीशतक-१८३ भगवतीसूत्र-३७, १३८, १४१, १६४, २२१, २२२ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवद्गीता-१०९, ११०, १३२, महामंगलसुत्त-१३३ १४३, १४६ महावाक्योपनिषद्-५ भण्डोपकरण समिति-११२ माडर्न रिव्यू-५४ भद्रासन-१४४ माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमालाभागवत-६ भागवतपुराण-६, १९,२०,२१,२२ मारणान्तिक आराधना-६० भावना-८१, २१६ मारणान्तिक उदय-६० भावलेश्या-२०० मार्गानुसारी-६० भावसंग्रह-१०२ मार्दव-१२१ भावहिंसा-८९ मित्रादृष्टि-२०५ भाषा समिति-११८ मित्राद्वात्रिंशिका-२०५ भूम्यलीक-९१ मिथ्याज्ञान-८२ भोगात-१६६ मिथ्योपदेश-९२ भोज-४७ मिलिन्दप्रश्न-३६, १९४, १९५, मंगलविजय-५१ २२६, २२७ मंत्रराजरहस्य-२२२ मुक्ति-३२ मज्झिमनिकाय-१३३,१३४,१४७, मुक्तिकोपनिषद्-५ १५८, १९५ मण्डलब्राह्मणोपनिषद् -५ मुक्त्यद्वेषप्राधान्यद्वात्रिशिका-६४, २३० मत्स्येन्द्रनाथ-२५ मद-८२ मुण्डकोपनिषद् -१२, १३२ मन-५७ मुनिभद्रस्वामी-४१ मनुस्मृति-१९ मुनिसुन्दर सूरीश्वर-५२ मनोगुप्ति-११६ मूढ़ता-८२ मनोनुशासन-१२५ मुलाचार-१२५ मनोमय--११ मूलाराधनो-११६, ११७ मन्त्रभेद-९२ मृषानन्द-१६८ मन्त्र राजरहस्य-७४ मैत्रेयी उपनिषद्-१५१ मल-२७ मोक्ष-२३, ३२, १६३, २२८ महाजाग्रत-१९२ मोक्षपाहुड-३८ . महाभारत-६, १३, १४, ३७, ७७, मोहभित वैराग्य-६७ २०१ मोहनजोदड़ो-८ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) मौखर्य-१.. योगपद्धतिसंहिता–२९ यमयोग-६ योगपाहुड-३८ यतिमुनि-७७ योगप्रदीप-४७,४८.५१,५६,५९, यथाख्यातचारित्र-८५ ६५, १५९, १६३, १७३, १०४, यम-२०,५६ १८३, २३१ यशोविजय-४, ८, ४३, ४९ योगफिलासफी-२ याज्ञवल्क्यस्मृति-१८, १९ योगबिन्दु-८, ४१, ४३, ५६, ६१, यादवसूरि-५३ ६२, ६३, ६४, ६५, ६८, ६९, योग-२, ३, ५, ११, १४, १५ ७३, ७५, ८५, १०९, १४१, २७, २९, ४२, ५५, ५६, ५७, २१५, २१६, २१७, २३१ योगबीज-७,६१ योगकल्पद्रुम-७ योगभेदद्वात्रिंशिका-५३, ५६, ७२, योगकुण्डल्योपनिषद् -५, १४६, २१५, २१६, २१७ १५५, २२६ योगमनोविज्ञान-२२, १४२, १४६, योगचूड़ामणि-१४६ १५३, योगचूडामण्योपनिषद् -५, २२५ योगमार्ग-५३ योगतत्त्वोपनिषद्-५, १३, २३, योगमाहात्म्य द्वात्रिशिका-५६, १५३ योगरत्नाकर-५३ योगतारावलि-७ योगराजोपनिषद्-५ योग दर्शन-१, ३, २९, ३०, ३१, योगलक्षणद्वात्रिंशिका-४, ५३, ६३, ३७, ७७, ७८, १२५, १३३, ६४ १४३, १४६, १५२, १५३, योगवासिष्ठ-६, २२, २३, ४९, १५६, १५७, १९१, २०१, १९१, १९२, १९३, १९४, २१९, २२०, २२५, २२६ २२५, २२६ योगदीपिका-४४, ५३ योगविशिका-४, ८, ४१, ४९, ५० योगदृष्टिनीसज्झायमाला-८, ४३, ५६, ६८, १६० । ४९, ५० योगविवरण-५३ योगदृष्टिसमुच्चय-८, ४१, ४२,६१, योगशतक-८, ३८, ४१, ६१, ६३, ६२, ६९, ७०,७१, ७२, २०४, ६४, ८०, ८५, ८६, १११, २०५, २०६, २०७, २०८, १६४, १८३, १९९, २२१ २०९, २१०, २११, २१२, योगशास्त्र-८, १०, ३८, ४७, ५७, २१३, २१४, २३१ ६०, ६१, ७४, ७५, ८१, ८२, Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) ८८, ८९, ९१, ९२, ९४, ९५, योगावतारबत्तीसी-८, ४९ ९६, ९८, ९९, १००, १०२, योगस्थित ज्ञान की सात भूमिकाएँ१०९, ११५, ११७, ११८, १९३ १२५, १२६, १२७, १२८, योगीन्दुदेव-४०, ४६ १३६, १३७, १४३, १४५, योगोद्दीपन-४८ १४७, १४८, १४९, १५०, यौगिक स्थिरता-५७ १५१, १५२, १५४, १५९, रत्नकरण्डश्रावकाचार-६१,८७, १६१, १६३, १६५, १७१, ८८, ९६, ९८, ९९, १०२, १७२, १७३, १७४, १७५ १०५, १०६, १०७, १०९ १७७, १७८, १७९, १८०, रत्नत्रय-५६, ७९ १८१, १८२, १८३, १८४, रसपरित्याग-१३६ १८५, १८६, १८७, १८८, रहस्याभ्याख्यान-९२ १९८, २१८ राजयोग-१७, १८ योगशास्त्र एक परिशीलन-३३, रात्रिभुक्तत्यागप्रतिमा-१०६ १४८ रात्रिभुक्तिविरति-९७ योगशास्त्र में भी चतुर्व्यह-१ रामसेनाचार्य-४५, १६५ योगशिखोपनिषद् -५, १४६, २२६, रायचन्द जैन ग्रन्थमाला-४६ योगसंग्रहसार-५३ रूपस्थ ध्यान-१८० योगसंन्यास योग-७० रूपातीतध्यान-१८१ योगसाधना-१,७, रोगचिन्ता-१६६ योगसार-४१, ४६, ४८, ५३, ६१, रोद्रध्यान-१६७ १६२, १७३, २०३ लब्धियों-२२२ योगसारप्राभृत-४५, ६२, ६३, लवालव-६० १११, ११९, १२०, १९९, २३० लाटीसंहिता-९५ योगसिद्धि-५७ लेश्याएं-१७१ योगसूत्र-५५, १५७ लेश्याकोश-२०१ योगांग-३०, ५३ लोकानुप्रेक्षा-१२८ योगामृत-५३ लौकिक धर्मपालन-६१ योगार्णव-४७ वचनगुप्ति-११६ योगावंचक-७२ वचनशुद्धि-११२ -योगावतारद्वात्रिंशिका-२०५ वज्रासन-१४४ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) वध-९० विवेक-१३८ वन्दना- ११९ विवेकख्याति-१५७ वरुण-१५० विवेकचूड़ामणि-३१, ३२, ३३, वसिष्ठस्मृति-१८, १९ २२५ वसुनन्दि-८७ विंशतिविशिका-८८, १०४, १२१ वसुन न्दिश्रावकाचार-८१,८७,९६, विशुद्धि मार्ग-६, ३३, ३४, ३५, ९८, १०२, १०४, १०५, १०७, १५८, १९५, २२. १०८ विशेषावश्यकभाष्य-५५ वाचना-१४० विषअनुष्ठान-६९ वातरशना-५४ विष्णुपुराण-२१ घायवी धारणा-१७४ विसुद्धिमग्ग---१४७, २२६, २२७, वायु-१४९ २२८ वाराहोपनिषद्-५ वीरसेन देव-५३ वारुणी धारणा-१७५ वीरासन-१४४ विज्ञानमय-११ वृत्ति परिसंख्यान-१३६ विघ्नजय-.६६ वृत्तिसंक्षय-२१६ विचारणा-१९३ वेदान्त-३१ विचारानुगत-१५५ वैदिक-२२५ विजयसिंहमूरि-५१ वैदिक योगसूत्र-८ वितर्क विचार-१५८ वैयावृत्य तप-१३९ वितर्कानुगत-१५६ वैराग्य-५९ विदेहमुक्त-२२६ बैराग्यशतक-५० विद्यानुशासन-२२२ वैशेषिक दर्शन-६ विनय-६० व्यवहारयोग-८० विनय तप-१३८ व्यावहारिक योग-१५ विनियोग-६६ व्युत्सर्ग-६०,१३८, १४० विपर्यय-८३ व्युत्सर्ग समिति-११८ विपाकविचय-१७२ प्रत-प्रतिभा-१०६ विमला-१९६ शंका-८२ विरुद्धराज्यातिक्रम-९३ शक्ति-२६ विलियम्स-५२ शतपथब्राह्मण-५ विविक्तशय्यासन-१३६ शम-८१ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) शरणागति योग-६ शांकरवेदान्त-२७ शाक्त-२८ शाण्डिल्योपनिषद्-५, २३, १५१, १५३, १५५ . शान्तरस-५३ शान्त सुधारस-१२५, १२६ शान्ति-३३ शान्तिपर्व-१४ शास्त्रयोग-७० शिव-२३, २६ शिवपुराण-~२१ शिवपुराण वायवीय संहिता-~२१ । शिवसंहिता-७, २४, १४६, १४७, शील-७९ शीलव्रत-९७ शुक्ल ध्यान-१८२ शुचि-६० शुभचन्द्र-८,४६ शुभेच्छा-१९३ शेकोद्देश टीका-७, ३३ शैक्ष्य-१३९ शौच-१२२ श्वेताश्वर-१०, २१९ श्वेताश्वर उपनिषद्-११, १२ श्रद्धान-४ श्रमण-७७ श्रमणभूत प्रतिमा-१०५ श्रमणाचार-११० श्रमणों-२२२ श्रावक-८७ श्रीकृष्ण-२० श्रीमद्भगवद्गीता-६, १५ श्रीमद्भागवत पुराण-१४३ षटखण्डागम-२२२ षटसम्पत्तियां-३२ षोडशक-४१, ४४, ६२, ६६ षोडशतक-२१३ संक्लेशचित्त-१९५ संग का त्याग-६० संघ-१४० संतमत का सत्भंग सम्प्रदाय-२६ संन्यास योग-६ संयम-१२२ संयुतनिकाय-३३ संयुक्ताधिकरणता-१०० संरक्षणार्थ-१६८ संलेखना-१३९ संवर-३, ५५, ६० संवरानुप्रेक्षा-१२७ संवेग-६०, ८१ संशय-८३ संसारानुप्रेक्षा-१२६ संस्थान विचय-१७२ सकृदागामीचित्त-१९५ सगर्भ-२१ सचित्तत्याग प्रतिमा-१०६ सत्य-१२२ सत्वापत्ति-१९३ सदृष्टिद्वात्रिंशिका-२१२ सन्तमत का सरभंग सम्प्रदाय--२४ सबीज-१४ सबीज समाधि-१५७ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप्यतस्वार्थाधिगमसूत्र - १४०, १४१ समता - २१६ समत्वभाव - १७ समस्वयोग - ६ समनोज्ञ - १४० समयसार - ८०, १९९ समवायांग - ५५, १०५ १६४, १६५, १६७, १८२ समवायांग सूत्र - ३७, ५९ समवेश - २८ ( १५ ) समाधि - ३४, ६०, ७९, १५६ समाधिजोग - ७ समाधितन्त्र - ३९, १८५, २०३, २२९ समाधिमरणोत्साहदीपक - १८७ समाधि योग – ३१ समाधिशतक - ४० समानवायु - १४९ समीचीन धर्मशास्त्र - ८३, ८४, १०७, १०८ सम्प्रज्ञात- -३० सम्यक्चारित्र - ८३ सम्यक्त्व - ८१ सम्यक्सम्बुद्ध - १९६ सम्यग्ज्ञान - ३५, ८२ सम्यग्दृष्टि - ६०, ६५, ८५ सर्व अस्तादान विरमण - ११३ सर्वकाम विरति -६० सर्वदर्शन संग्रह - २७, ३२ सर्वपरिग्रह विरमण - ११४ सर्वमृषावाद विरमण - ११३ सर्वमैथुन विरमण - ११४ सर्वविरति - ६५ सर्वार्थसिद्धि - ९३, ९८, १२९, १३४, १३७, १३८, १३९, १४०, १४१ सांख्यकारिका - २२६ सांख्यसूत्रम् - १५५ सांभव - २८ सागार धर्मामृत - ८७, ८८, ९१, ९३,९६, ९८, ९९, १०१, १०२, १०४, १०७, १०८, ११०, १३० सातत्ययोग - ६ साधनचतुष्टय - ३२ साधन योग - ७५ साधर्मिक अवग्रह याचना - ११४ साधु-१४० साधुमती - १९७ साध्वाचार - ११० सामर्थ्य योग - ७० सामायिक - १०२, ११९ सामायिक चारित्र - ८४ सामायिक प्रतिमा - १०६ साम्यशतक - ५१ सावयवधम्म दोहा - ९६ सिद्ध जीव के पन्द्रह प्रकार - २३२ सिद्ध सिद्धान्त पद्धति – २६, १४७, १५२ सिद्धसेन गणी - ९५ सिद्धि - ६६ सिद्धियम – ७२ सुख एकाग्रसहित - १५८ सुदुर्जया - १९६ सुप्त कुण्डलिनी - २८ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविधि - ६० सुषुप्ति - १९२ सूक्ष्म क्रिया-प्रतिपाति -- १८७ सूक्ष्म संपराय चारित्र - ८४ सूत्रकृतांग - ७, १२४ सोपाधिशेष - २२८ सोमदेव - ५३ स्कन्दपुराण - ६ स्तेन आहृतदान - ९३ स्तेन प्रयोग – ९३ स्थान – ६८ स्थानांग - १६४, ( १६ ) १६५, १६६, १६७, १६९, १७१, १८२, १८३, २०३ स्थानांग समवायांग – ५९, १९८, २२८ स्थानांग सूत्र - ३७, १३८, १३९, १४१, १४५ स्थिरयम - ७२ स्थिरादृष्टि - २१० स्थूल प्राणातिपात विरमण - ८९ स्थूल मृषावादी विरमण - ९० स्मृतियाँ - ३४ स्रोतआपन्नचित्त - १९५ स्वप्न - १९२ स्वप्न- जाग्रत - १९२ स्वाध्याय तप - १४० स्वामि कार्तिकेय – ८७ स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा - ३८, ९३, ९४, ९५,९६, ९८, १०२, १०५, १०६, १२१, १२२, १२५, १२६ स्वोपज्ञ टीका - १४५ स्वोपज्ञ वृत्ति - १३७ स्वोपज्ञ वृत्ति सहित – ४७ हंसोपनिषद् - ५ हठयोग - २३, २४ हटयोग प्रदीपिका –७, २३, २४, २५ हठयोग संहिता - १५६ हरिभद्र - ३, ४, ७, ४१, ४३,५६, ८७, १०४ हरिभद्रसूरि - ३७ हरिवंशपुराण -- ८८, ९८, १०२ हारीत स्मृति - १९ हिंसादान - १०० हिसानन्द — १६७ हिन्दी विश्वकोश-३ हिरण्यगर्भ - ९ हीनाधिक मानोन्मान - ९३ हीरालाल – ४०, ४६ हेमचन्द -- ४, ८, ४७, १४४ हेमचन्द्र धातुमाला - २ हेमचन्द्रीय स्वोपज्ञवृत्ति - ४७ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे महत्त्वपूर्ण प्रकाशन 1. Political History of Northern India from Jaina Sources - Dr. G. C. Choudhary 60.00 2. Studies in Hemacandra's Desinamamala -Dr. Harivallabh C. Bhayani 10.00 3. A Cultural Study of the Nisitha Curni -Dr. (Mrs.) Madhu Sen 50.00 4. An Early History of Orissa -Dr. Amar Chand 40.00 5. जन आचार -डा० मोहनलाल मेहता 20.00 6. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 1 -पं० बेचरदास दोशी 35.00 7. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 2 -डा. जगदीशचन्द्र जैन व डा० मोहनलाल मेहता 35.00 8. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 3 -डा० मोहनलाल मेहता 35.00 (उत्तर-प्रदेश सरकार द्वारा 1500 रु० के पुरस्कार से पुरस्कृत) 6. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 4 -डा० मोहनलाल मेहता व प्रो० हीरालाल कापड़िया 35.00 10. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 5 -पं० अंबालाल शाह 35... 11. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 6 -डा० गुलाबचन्द्र चौधरी 45.00 (उत्तर-प्रदेश सरकार द्वारा 1000 रु० के पुरस्कार से पुरस्कृत ) 12. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 7 -पं० के. भुजबली शास्त्री व श्री टी० पी० मीनाक्षी सुन्दरम् पिल्लै व डा० विद्याधर जोहरापुरकर 3500 13. बौट और जैन आगमों में नारी-जीवन-डा० कोमलचन्द्र जैन 3000 14. यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन-डा० गोकुलचन्द्र जैन 30.00 (उत्तर-प्रदेश सरकार द्वारा 500 रु० के पुरस्कार से पुरस्कृत) 15. उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन-डा० सुदर्शनलाल जैन 40.00 (उत्तर-प्रदेश सरकार द्वारा 500 रु० के पुरस्कार से पुरस्कृत) 16. जैन-धर्म में अहिंसा -डा० बशिष्ठनारायण सिन्हा 30.00 17. अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिंदी प्रेमाख्यानक-डा० प्रेमचन्द्र जैन 3000 (उत्तर-प्रदेश सरकार द्वारा 1000 रु० के पुरस्कार से पुरस्कृत) 18. जैन धर्म-दर्शन -डा० मोहनलाल मेहता 30.00 (उत्तर-प्रदेश सरकार द्वारा 1000 रु० के पुरस्कार से पुरस्कृत) 19. तत्त्वार्थसूत्र (विवेचनसहित) -पं० सुखलाल संघवी 20. जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन --डा० अर्हदास बंडोवा दिगे 30.00 Yaainetprary.org