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उपसंहार
योग-साधना की दृष्टि से उसे अनावश्यक माना गया है, क्योंकि इसके क्रम में श्वासोच्छ्वास पर प्रतिबंध करना पड़ता है तथा उसकी प्रक्रिया पूरी करने में शक्ति एवं समय खर्च होता है अर्थात् प्राणायाम करते समय योगी तप-ध्यान में अपने स्वरूप का चिन्तन-मनन नहीं कर पाता, तथा बलात् मन को शान्त करने के कारण योगी आन्तरिक पीड़ा का अनुभव करता है तथा चंचल बना रहता है।
ध्यान का वैशिष्ट्य-ध्यान योग का प्रमुख सोधन है, जिससे मन को एक बिन्दु पर केन्द्रित किया जाता है। इसका विधान तीनों योगपरम्पराओं में हुआ है। योगदर्शनानुसार समाधि ही साधना की अन्तिम अवस्था है, जिसके द्वारा योगी चरम लक्ष्य पर पहुंचने में सफल होता है। उपनिषद् एवं गीता में कर्मयोग, भक्तियोग आदि के साथ-साथ ध्यान-योग के महत्त्व को भी स्वीकार किया गया है । बौद्ध योग में ध्यान की अनेक प्रक्रियाओं का उल्लेख है, जिनका सम्यक् सम्पादन अपेक्षित माना गया है। जैनयोग में तो ध्यान का अपना एक विशिष्ट स्थान है। वस्तुतः जैनयोगानुसार ध्यान जहाँ मन की चंचल वृत्तियों को नियंत्रित करके मन को स्थिर करता है वहाँ कर्मो की निर्जरा करके साधना को पूर्णता प्रदान करता है। ध्यान के चार प्रकारों में आर्त और रौद्र ये दोनों अशुभ ध्यान हैं तथा धर्म एवं शुक्ल ध्यान शुभ हैं। ध्यान के ये प्रकार एक तरह से मनोवैज्ञानिक हैं, जिनसे मन की कुटिल तथा जटिल समस्याएं सहजतया शान्त होती हैं तथा शुभ विचारों में तारतम्य आ जाता है। ध्यान के अन्तर्गत जप का विधान भी है, जिसके द्वारा मंत्रों पदों, शब्दों के माध्यम से ध्यान सिद्ध किया जाता है।
इस प्रकार तीनों परम्पराओं में ध्यान का उद्देश्य आत्मा की पहचान या साक्षात्कार करना है। जैनयोग में निर्दिष्ट शुक्लध्यान के प्रथम दो भेदों की योगदर्शन और बौद्धयोग के ध्यान से समानता है, साथ ही वैदिक योग परम्परा में प्रयुक्त अध्यात्म प्रसाद और ऋतंभरा तथा जेन परम्परा के सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति में प्रायः अर्थसाम्यता मालूम पड़ती है। जैन परम्परा सम्मत शुक्लध्यान में अरिहंत अवस्था अर्थात् केवलज्ञान की प्राप्ति होती है और योगदर्शनानुसार असम्प्रज्ञात समाधि में केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। जैन योग के समुच्छन्न-क्रिया प्रतिपत्ति भी योगदर्शनसम्मत असम्प्रज्ञात समाधि जैसी है जहाँ सम्पूर्ण संस्कार विनष्ट हो जाते हैं और जीव विमुक्त हो जाता है ।
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