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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन तप का निषेध है, लेकिन दूसरे शब्दों में तप के अनेक आवश्यक अंगों का विधान भी है, जिनका उद्देश्य अकुशल अर्थात् पाप कर्मों को नष्ट करना है। बौद्ध तप में विहित अतिभोजन का त्याग तथा एक समय भोजन का विधान जैन तप में उल्लिखित कनोदरी तप ही है। बौद्ध तप के अन्तर्गत रस-शक्ति का निषेध जैन तप का रस-परित्याग ही है। भिक्षाचर्या तथा विविक्त शय्यासन तो दोनों परम्पराओं में समान ही है। इतना ही नहीं, प्रायश्चित, सेवाभाव, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि क्रियाओं का निरूपण जैन एवं बौद्ध तप में समान रूप से हुआ है । इस प्रकार प्रवत्तियों को संयमित करने एवं शारीरिक क्रियाओं को नियंत्रित करने के लिए तीनों परम्पराओं में तप का विधान है और कहा गया है कि तप के लिए शन्यागार, जंगल, नदी का किनारा, निर्जन या एकांत स्थान उपयुक्त हो सकते हैं। तंत्रयोग में तप अथवा ध्यान का स्थान श्मशान है अथवा वह शव के ऊपर किया जाना विहित है।
गुरु की महत्ता-योगसाधना एकाकी रूप से कभी नहीं हो सकती, यद्यपि आध्यात्मिक मार्ग स्वानुभव की चीज है, परन्तु जब तक आत्मसिद्धि के अनेक उपायों का परिचय किसी के द्वारा नहीं होता, तब तक साधक योगी को आध्यात्मिक मार्ग पर चलना सुलभ प्रतीत नहीं होता । इसीलिए योग-मार्ग में आरूढ़ होने के पहले दीक्षा-संस्कार का विधान करीब-करीब सभी योग परम्पराओं में है तथा गुरु का महत्त्व स्वीकार किया गया है । गुरु जहां नवशिक्षितों का मार्ग दर्शन करता है, यौगिक विधि-विधानों का निर्देशक होता है वहां लब्धियों के प्रति अभिमुख योगियों को चेतावनी देकर सही मार्ग पर लाने का उपक्रम भी करता है।
प्राणायाम की अनावश्यकता-पातंजल योगदर्शन प्राणायाम का उल्लेख करता है, लेकिन योगसाधना के लिए उसे उपयुक्त नहीं मानता है। हठयोग, नाथयोग आदि प्राणायाम को महत्त्व देते हैं। हठयोग में तो इसके अन्तर्गत नाड़ियों के द्वारा शरीर शुद्धि की क्रिया को महत्त्वपूर्ण माना गया है। नाथयोग यद्यपि शरीर-शुद्धि के निमित्त प्राणायाम को महत्त्व देता है, तथापि उसे अन्तिम साध्य के रूप में स्वीकार नहीं करता। बौद्ध परम्परा में तंत्रयान प्राणायाम को प्रमुख मानता है, इसीलिए तंत्रयान के ग्रन्थों में उसकी विस्तृत चर्चा हुई है। जैनयोग के अन्तर्गत प्राणायाम का विशेष अर्थ भावशुद्धि के निमित्त हुआ है, लेकिन
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