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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन आवरण या अविद्या को हटाना है। इस अविद्या के कारण ही जीव अपनी चित् शक्ति को पहचान नहीं पाता है। इस आवरण को हटाने के लिए ही वेदान्त में साधन-चतुष्टय बतलाये गये हैं, जिनके द्वारा अज्ञान नष्ट होता है तथा साधक को ब्रह्मजिज्ञासा होती है। ये चार साधन हैं-(१) नित्यानित्य वस्तुविवेक, (२) वैराग्य, ( ३) षट् सम्पत्तियाँ : शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा तथा समाधान, और (४) मुमुक्षत्व । वेदान्त की साधना ज्ञान पर आधृत है, इसलिए श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन द्वारा ज्ञान प्राप्त करके यह भव पार करने को कहा गया है।
वेदान्त-योग में ब्रह्म तथा जीव एक हो जाते हैं। ब्रह्म के सगुण रूप का एकनिष्ठ ध्यान करना और उसमें लीन होना ही योग का वास्तविक स्वरूप है। जब जीव और ब्रह्म एक हो जाते हैं, तब जीव के समस्त अहंकारादि दोष नष्ट हो जाते हैं। माया के कारण जीव आत्मस्वभाव को भूला हुआ है। ज्ञान-प्राप्ति के बाद उसका ब्रह्म के साथ तादात्म्य हो जाता है। यही मोक्ष है और मोक्ष प्राप्त करना ही अद्वैत-वेदान्त-योग का साध्य है।
श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योग ये मुक्ति के कारण हैं और इनसे ही देहबन्धन का उच्छेद होता है। इस निर्विकल्प समाधि से ही अज्ञान' नष्ट होता है, क्योंकि अविद्या संसार का मूल कारण है और इस बंधन को तोड़ना ही मोक्ष है । इसके लिए मन, वचन तथा काया का निरोध १. आदौ नित्यानित्यवस्तुविवेकः परिगण्यते ।
इहामूत्रफलभोगविरागस्तदनन्तरम् ।
शमादिषट्कसम्पत्तिर्मुमुक्षुत्वमिति स्फुटम् ॥ -वही, १९ २. ततः श्रुतिस्तन्मननं सतत्वध्यानं चिरं नित्यनिरंतरं मुनेः। -वही, ७० ३. योगमनोविज्ञान, पृ० २९ ४. श्रद्धाभक्तिध्यानयोगान्मुमुक्षोर्मुक्तेहेतून्वक्ति साक्षाच्छु तेर्गीः । यो वा एतेष्वेव तिष्ठत्यमुष्य मोक्षोऽविद्याकल्पितादेहबन्धात् ॥
-विवेकचूडामणि, ४६ ५. अज्ञानहृदय ग्रंथिनिःशेष विलयस्तदा।।
समाधिऽविकल्पेन् यदा द्वैतात्मदर्शनम् । -वही, ३५३ ६. अविद्यास्तभयो मोक्षः सा बन्ध उदाहृतः । -सर्वदर्शनसंग्रह, पृ. ७६३
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