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भारतीय परम्परा में योग आवश्यक है, क्योंकि वाणी का मन में, मन का बुद्धि में और बुद्धि का आत्मा में तथा आत्मा का पूर्ण ब्रह्म में लय करने पर ही परम शान्ति प्राप्त की जा सकती है। बौद्ध योग
यौगिक क्रियाओं के आदर्श विभिन्न आध्यात्मिक शास्त्रों में भिन्नभिन्न हैं। उपनिषदों में योग का प्रतिपादन ब्रह्म के साक्षात्कार के रूप में हुआ है। पतंजलि के योगदर्शन में इसका अर्थ सत्य का अन्तर्वेक्षण है
और बौद्धधर्म में इसकी संज्ञा बोधिसत्त्व की प्राप्ति अथवा जगत् की निःसारता का ज्ञान प्राप्त करना है। बौद्धधर्म में भी तत्त्वज्ञान के लिए योग का प्रयोजन स्वीकृत है । बौद्ध ग्रन्थों में प्रयुक्त समाधि एवं ध्यान शब्द योग को ही व्यंजित करते हैं। निर्वाण की प्राप्ति के साधन में योग की अनिवार्यता स्वीकार की है, जैसा कि मोक्ष-प्राप्ति के साधन के रूप में योग की महत्ता जैन ग्रन्थों में प्रतिपादित है। यही कारण है कि बुद्ध ने बोधिसत्त्व की प्राप्ति होने से पहले प्राणायाम द्वारा श्वासोच्छ्वास के निरोध का प्रयत्न किया था और इसी साधन के द्वारा वे बोधि प्राप्त करना चाहते थे। परन्तु इसमें सफलता नहीं मिली। फलतः हठयोग-पद्धति का निषेध करके उन्होंने अष्टांग-मार्ग' की प्रतिष्ठापना की। उल्लेखनीय है कि प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, अनुस्मृति एवं समाधि' योग के इन छह अंगों में प्राणायाम को महत्त्व दिया गया है। यद्यपि बौद्धधर्म के प्रारम्भिक काल में योग का निरूपण स्पष्ट रूप में नहीं
१. वाचं नियच्छात्मनि तं नियच्छ बुद्धौ धियं यच्छ च बुद्धिसाक्षिणि । तं चापि पूर्णात्मनि निर्विकल्पे विलाप्य शांति परमां भजस्व ।
-विवेकचूडामणि, ३६९ २. राधाकृष्णन्, भारतीय दर्शन, भाग० १, पृ० ३९२ ३. कुसलचित्तेकग्गता समाधि। -विशुद्धिमार्ग, ३११ ४. योगशास्त्र : एक परिशीलन, पृ० ३० ५. संयुक्तनिकाय, ५११० ६. प्रत्याहारस्तथा ध्यानं प्राणायामोऽथधारणा।
अनुस्मृतिः समाधिश्च षडंगयोग उच्यते ।।-शैकोद्देशटीका, पृ० ३०
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