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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
मिलता, परन्तु महायानियों ने योग पर विस्तृत एवं व्यापक रूप में विचार किया है । बौद्ध योग में 'समाधि' का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसको प्राप्त करने के लिए ध्यान' का प्रतिपादन किया गया है जो इस प्रकार है : ( १ ) वितर्क विचार प्रीति सुख एकाग्रता सहित, (२) प्रीति सुख एकाग्रता सहित, (३) सुख एकाग्रता सहित और (४) एकाग्रता सहित ।
ध्यान की एकाग्रता के लिए योगी को आचार-विचार एवं नीतिनियमों का सम्यक्रूपेण पालन करना चाहिए, क्योंकि संयम के बिना ध्यान अथवा समाधि लगाना वैसे ही निरर्थक है, जैसे कि फूटे घड़े में पानी भरना व्यर्थ है । चित्तवृत्तियों की पूर्ण शान्ति एवं एकाग्रता के लिए भी संयमी तथा सदाचारी रहना वांछनीय है । इन सारे आचारविचारों का विस्तृत वर्णन सुत्तपिटकों में हुआ है । बौद्धागम में प्राणायाम को आनापानस्मृति कर्मस्थान कहा है । प्राणायाम की विधि के उपयोग की सार्थकता बताते हुए कहा है कि चित स्थिर रखने के लिए साधक को चाहिए कि वह शरीर स्थिर करके श्वासोच्छ्वास ले । यदि इस पर भी उसका चित्त शान्त नहीं होता है तो साधक को चाहिए कि वह गणना, अनुबन्धा, स्पर्श, स्थापना का प्रयोग करे । २
बौद्ध योग में नैतिक जीवन के सिद्धान्त इस प्रकार माने गये हैंदान, वीर्य, शील, शान्ति, धैर्य, ध्यान और प्रज्ञा; 3 क्योंकि इनके द्वारा व्यक्ति में उच्च भावों का विकास होता है तथा दृष्टि क्षिति का विस्तार होता है । बौद्ध योग-साधना में चार स्मृतियाँ अर्थात् कायानुपश्यना, वेदनानुपश्यना, चित्तानुपश्यना और धर्मानुपश्यना महत्त्वपूर्ण हैं । इन स्मृतियों के अन्तर्गत ही इन्द्रिय-संयम, चार आर्यसत्य, अष्टांगिक मार्ग, सप्त बौध्यंग, चार ध्यान तथा अनात्मवाद आते हैं ।" इस प्रकार शरीर को निश्चल करने का मार्ग बतलाकर संसार के चार कारणों अर्थात् चार
१. दीघनिकाय, १२; पृ० २८-२९
२. विशुद्धिमार्ग, भाग १, परिच्छेद ८
३. उत्तरोत्तरतः श्रेष्ठा दानपारमितादयः ।
नेतरार्थी त्यजेच्छ्रे ष्ठामन्यत्राचार सेतुतः ॥ - बोधिचर्यावतार, ५।८३ ४. दीघनिकाय, २/९; बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, भा० १,
पृ० ३४३
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