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भारतीय परम्परा में योग
. ३५ आर्य सत्यों का उल्लेख किया गया है, जो इस प्रकार हैं : (१) दुःख, (२) दुःख समुदाय, (३) दुःखनिरोध और (४) दुःख-निरोध के उपाय । बौद्ध-दर्शन के अनुसार संसार में दुःख ही दुःख है। इन दुःख समुदायों की जड़ें बहुत हैं, जिन्हें द्वादश निदान अथवा प्रतीत्यसमुत्पाद कहा जाता है। वे इस प्रकार हैं-(१) अविद्या, (२) संस्कार, (३) विज्ञान, (४) नामरूप, (५) षडायतन, (६) स्पर्श, (७) वेदना, (८) तृष्णा, (९) उपादान, (१०) भव, (११) जाति, और (१२) जरामरण । इन सबका सम्बन्ध भूत, वर्तमान एवं भविष्य के साथ है। इन आर्यसत्यों का निरोध करने के लिए अविद्या का निरोध अत्यावश्यक है, क्योंकि केवल अविद्या ही इन द्वादश निदानों की जड़ है। इस सन्दर्भ में दुःख-निरोध-मार्ग को चर्चा करते हुए बुद्ध ने मध्यम प्रतिपदा का मार्ग बतलाया है जो अष्टांगमार्ग से भी जाना जाता है । यह अष्टांग मार्ग इस प्रकार है--(१) सम्यग्दृष्टि, (२) सम्यक्संकल्प, (३) सम्यक्वचन, (४) सम्यक्कर्मान्त, (५) सम्यक्आजीव, (६) सम्यकव्यायाम, (७) सम्यक्स्मृति, तथा (८) सम्यकसमाधि । इन मार्गों के सम्यक् सेवन से प्रज्ञा का उदय होता है एवं निर्वाण प्राप्त होता है।
सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के तीन साधन बतलाये गये हैं--शोल,समाधि और प्रज्ञा । शील अर्थात् सात्विक कर्म जिनका पालन भिक्षु-भिक्षुणी एवं श्रावकों के लिए अनिवार्य है।' अहिंसा, अस्तेय, सत्य, ब्रह्मचर्य तथा व्यसन-निरोध को पंचशील कहा गया है। ये पंचशील आचार-विचार को नियन्त्रित एवं शुद्ध करते हैं, जो बोधि-लाभ करनेवाले साधक के लिए आवश्यक हैं। इन पंचशीलों के साथ-साथ भिक्षु-भिक्षुणियों के लिए अपराह्न में भोजन करने का त्याग, माला धारण न करना, संगीत से परहेज, सुवर्ण-रजत के व्यामोह का त्याग तथा महाघ शय्या का भी परित्याग करना आवश्यक है।
१. विशुद्धिमार्ग, भाग २, परिच्छेद १६, पृ० १०५ २. विशुद्धिमार्ग, भाग २, परिच्छेद १७, पृ० १२९ ३. विशुद्धिमार्ग, भाग २, परिच्छेद १६, पृ० १२१. ४. दीघनिकाय, पृ० २४-३३
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