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________________ 'भारतीय परम्परा में योग ३१ यम' तथा शौच, संतोषादि नियमों के अनुष्ठान का विधान है, जिनसे साधक संयम में स्थित होता है। साधना के दौरान योगी के समक्ष अनेक अन्तराय3 आते हैं। - क्रियायोग तथा समाधियोग के सतत अभ्यास से योग की सिद्धि होती है। यहाँ क्रियायोग का तात्पर्य तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर-प्रणिधान है।' तप का मतलब है चांद्रायण, काछामणादि व्रत। वेदों का अध्ययन, चिन्तन-मनन करना स्वाध्याय है तथा ईश्वर को सम्मुख रखकर बार-बार उसके गुणों का स्मरण करना ईश्वर-प्रणिधान है। इस क्रियायोग से इन्द्रियों का दमन होता है। अभ्यास और वैराग्य की सतत भावना उसके लिए अनिवार्य है। इस तरह सावधानीपूर्वक अष्टांगयोगयुक्त योग-समाधि संलोन योगी ही दीर्घकाल तक योग में रमण कर सकता है ।' योगदर्शन में अनेक लब्धियों का भी वर्णन है। अद्वैतवेदान्त एवं योग ___ भारतीय दर्शनों में वेदान्त का प्रमुख स्थान है। यह दर्शन केवल सैद्धान्तिक ही नहीं, व्यावहारिक भी है। इसमें परमलक्ष्य अथवा आत्मोपलब्धि के लिए उन साधनों का विचार किया गया है जो योगसाधना के लिए आवश्यक हैं। ___अद्वैतवेदान्त के अनुसार माया के कारण ही जीव संसार में भ्रमण करता है। आत्मदर्शन में मग्न रहकर तथा योगारूढ़ होकर ही इस संसार से पार हुआ जा सकता है। योग का उद्देश्य आत्मा पर पड़े १. अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः। -वही, २०३० २. शोचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ।-वही, २०३२ ३. व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थित त्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः । -वही, १६३० ४. तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः। -वही, २११ ५. अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः। -वही, १।१२ ६. योगेन योगों ज्ञातव्यो योगो योगात्प्रवर्तते । यो प्रमत्तस्तुऽयोगेन स योगे रमते चिरम् । -योगदर्शन, व्यासभाष्य, पृ० ५१७ ७. उद्धरेदात्मनात्मानं मग्नं संसारवारिधौ। योगारूढत्वभासाद्य सम्यग्दर्शननिष्ठया ॥ -विवेकचूड़ामणि, ९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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