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विपर्यय, विकल्प, निद्रा एवं योगसिद्धि नहीं हो जाती । और इन सूक्ष्म संस्कारों को अपेक्षित है ।
जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
स्मृति । इन वृत्तियों के निग्रहमात्र से ही इन वृत्तियों के साथ संस्कार भी जुड़े होते हैं भी रोकने की प्रक्रिया योगसिद्धि के लिए
योग के दो भेद हैं- सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात । चित्त में अनेक वृत्तियाँ रहती हैं। किसी एक वस्तु में ध्यानस्थ होने पर, उनमें से एक ही वृत्ति कार्यशील होती है और अन्य वृत्तियाँ क्षीण होती हैं । उसको प्रज्ञा कहते हैं । अतः एकाग्र भूमि में एक वस्तु के सतत भाव में लगे रहना सम्प्रज्ञात समाधि है । असम्प्रज्ञात समाधि अथवा योग के अन्तर्गत सभी वृत्तियों का पूर्णतः निरोध आवश्यक है । सम्प्रज्ञात के चार भेद निर्दिष्ट हैं--वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत | असम्प्रज्ञात समाधि कैवल्य की स्थिति है, क्योंकि इस समाधि में चित्त की अवस्था बिलकुल शान्त एवं संस्काररहित होती है; लेकिन ऐसी अवस्था में संस्कार बहुत बाधक बनते हैं, जिनका पूर्वजन्मानुसार जीव में आगमन होता रहता है । इनका कारण अविद्या अर्थात् मिथ्यात्व है, इसीसे कर्म बँधते हैं और ये कर्म क्लेशों से उत्पन्न होते हैं । इन कर्म-क्लेशों के पाँच भेद हैं- अविद्या, अस्मिता, राग, द्व ेष तथा अभिनिवेश | अतः इन वासनाओं, कर्मों तथा क्लेशों का सर्वथा नाश विवेक अथवा सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर लेने पर ही होता है और तभी आत्मतत्त्व पहचानने की शक्ति उत्पन्न होती है । ऐसी स्थिति की प्राप्ति ही आत्मलीनता अथवा कैवल्यधाम है, जो योग का लक्ष्य है । 3
इस प्रकार मनः शुद्धि करके क्रमशः आत्मस्वरूप में स्थित होने के लिए आठ योगांग बताये गये हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि । अहिंसा, सत्य, अस्तेयादि
१. वितर्कविचारानन्दा स्मितारूपानुगमात् सम्प्रज्ञातः । - योगदर्शन, १|१७ २. अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशा: पंचक्लेशाः । - वही, २१३ ३. पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति । - वही, ४१३४
४. यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावंगानि ।
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-- वही, २।२९
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