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भारतीय परम्परा में योग हत है। यह वस्तुतः परमात्मा का ही खेल है। इसके फलस्वरूप जीव में स्वरूपबोध की आन्तरिक इच्छा बलवती होती है, वह अपने में अभाव का बोध करता है। वैसी स्थिति में वह कर्मसाम्य एवं मलपरिपाक की अपेक्षा करता है। यहाँ कर्मसाम्य का तात्पर्य मनुष्य के पुण्य और पाप कर्म के साम्य के फलस्वरूप उत्पन्न सहजकृपा का उन्मेष है और कालानुगत मल ( अज्ञान ) अवस्था की परिपक्व अवस्था होते ही ज्ञान का आविर्भाव होना मलपरिपाक है। इन दोनों क्रियाओं के अनुसार जीव की प्रवृत्ति अन्तर्मुखी हो जाती है, फिर गुरु अथवा किसी माध्यम द्वारा कुण्डलिनी जाग्रत होती है और वह ऊर्ध्वमुख होकर सहस्राधार तक पहुँचती है, जिसके फलस्वरूप इन्द्रिय, प्राण, बुद्धि एवं अहंकार शक्तिस्वरूप बनकर शिव से तादात्म्य होकर खेलने लगते हैं। इस प्रकार सप्त शक्ति का शिव से मिलन ही योग है । इसे नित्ययोग अथवा नित्यमिलनयोग भी कहा जाता है। पातंजल-योग
यों तो योग का उल्लेख योगपद्धति-संहिता, ब्राह्मण-ग्रन्थों तथा उपनिषदों में हुआ है, लेकिन योग को व्यवस्थित एवं सम्यक् स्वरूप प्रदान किया है महर्षि पतंजलि ने । पातंजल योगसूत्र पर अनेक टीकाएँ लिखी गयी हैं, जिनमें व्यास-भाष्य सबसे प्रामाणिक माना जाता है तथा अनेक प्रमुख टीकाकारों में विज्ञानभिक्षु, भोज एवं वाचस्पति मिश्र के नाम उल्लेखनीय हैं।
पातंजल-योग सांख्यसिद्धान्त की नींव पर खड़ा है। योगसूत्र चार पादों में विभक्त है। प्रथम पाद में योग के लक्षण, स्वरूप तथा उसकी प्राप्ति के उपायों का वर्णन है। द्वितीय पाद का नाम साधनपाद है जिसमें दुःखों के कारणों पर प्रकाश डाला गया है। तृतीय विभूतिपाद में धारणा, ध्यान, समाधि, एवं सिद्धियों का वर्णन है तथा चतुर्थ कैवल्यपाद में चित्त के स्वरूप का प्रतिपादन है।
महर्षि पतंजलि की योग की परिभाषा है : 'चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है।' इस परिभाषा के अनुसार चंचल मनःप्रवृत्तियों का संयमन योग के लिए अनिवार्य है। चित्त की ये वृत्तियाँ पांच प्रकार की हैं२-प्रमाण, १. योगश्चित्तवृतिनिरोधः।-योगदर्शन, १२ २. प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।-वही, १६
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