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________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन मलावरणों को हटाकर स्वरूप को प्राप्त होना ही मोक्ष है, अर्थात् स्वरूपशक्ति का बोध ही मोक्ष कहलाता है।' काश्मीर के प्रत्यभिज्ञ दार्शनिकों ने 'योग' की जगह 'समवेश' शब्द का प्रयोग किया है और उसका योग शब्द से विलक्षण अर्थ प्रतिपादित किया है। आणव, शाक्त एवं सांभव इन तीन उपायों के द्वारा स्वरूपसाक्षात्कार सम्भव होता है। इस मत में दीक्षा का विशेष महत्त्व है, क्योंकि गुरु-दीक्षा द्वारा ही स्वरूप का सम्बन्ध होता है और शक्तिपात या ईश्वर-प्रपात द्वारा अन्तस्तल की सुप्त कुण्डलिनी जाग्रत होकर स्वरूप का बोध कराती है और फिर अखण्ड पद प्राप्त होता है। यह सामरस्य अवस्था या अखण्ड सामरस्य अवस्था है, जो शिवयोग के नाम से अभिहित है । शिवयोग का विशेष वर्णन करते हुए परमार्थसार" में कहा गया है कि शिवयोगी के लिए समाधि-उत्थान का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि वह स्वयं शिवस्वरूप में स्थित होता है । इसके अनुसार साधना की अनुभूति को विशेष स्थान प्राप्त है।। ___ इस परम्परा में अज्ञान के दो प्रकार माने गये हैं -बुद्धिगत अज्ञान और पौरुष-अज्ञान । चित् शक्ति का संकोच अज्ञान है तथा इस संकोच की चरम सीमा ही संसार है। स्वरूप-संकोच के कारण स्वयं चेतन ही जड़ बन जाता है । चैतन्य को ही प्रमाण, प्रमेय माना गया है और चित्शक्ति को विशेष स्थान दिया गया है। परमात्मा के पाँच कृत्य इस प्रकार हैं-(१) सृष्टि, (२) स्थिति, (३) संहार, (४) अनुग्रह, तथा (५) विलय । इन कृत्यों की निरन्तरता अव्या१. तन्त्रालोक, ११६२ २. Abhinavagupta : An Historical and Philosophical Study., p. 312 ३. Ibid., p. 293 ४. Ibid., p. 304 ५. परमार्थसार, ५६-६० ६. द्विविधं च अज्ञानं-बुद्धिगतं पौरुषं च ।-तन्त्रसार, अध्याय १, पृ० २-३; तन्त्रालोक, ११३६, पृ०७३ ७. तथापि तद्वत् पंचकृत्यानि करोति । सृष्टि संहारकर्तारं विलय स्थिति कारकम् । अनुग्रहकरं देवंप्रणताति विनाशनम् ।—प्रत्यभिज्ञाहृदयम्, पृ. ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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