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________________ भारतीय परम्परा में योग इस प्रकार नाथों की योग-साधना का आदर्श पातंजलयोग से ही तत्त्वतः भिन्न नहीं है, अपितु पूर्ववर्ती और पश्चात्वर्ती बौद्धमतवादों के साथ भी बहुत दूर तक शांकरवेदान्त से भिन्न है । प्राचीन और मध्यकालीन आगमानुयायी अद्वैतवादी मतवादों से नाथादर्श की पर्याप्त समानता है, जिसे सामरस्य कहा गया है ।" शैवागम एवं योग शैवागम शिव के पाँच मुखों से निर्गत अनुभूतियों का साहित्य है । इसमें मूलत: पूर्णस्वरूप को शिव और परमशिव नाम से सम्बोधित किया गया है । यह शिव परम अखण्ड महाप्रकाशस्वरूप है और इसे समस्त सृष्टि-स्थिति का अर्थात् अभिव्यक्त सृष्टि का केन्द्र माना जाता है । इस केन्द्र बिन्दु से स्फुटित पांच बिन्दु ही शिव के पाँच मुख हैं - १. सद्योयान, २. वामदेव, ३. अघोर, ४. ईशान्य तथा ५ तत्त्वांश । २ इन पाँच मुखों से निर्गत आगम को शिव, रुद्र एवं भैरव आगम भी कहते हैं । ये आगम अट्ठाईस माने गये हैं । शैवमतानुसार योग के चार पाद हैं - क्रिया, चर्या, ज्ञान एवं योग । इनसे निर्गत दार्शनिक योग धाराएँ प्रवाहित होती हैं जिनमें बताया गया है कि पूर्ण स्वरूप से मिलने पर भी अपने स्वरूप को अलग रखना द्वैत है । इसी प्रकार इसमें द्वैताद्वैत एवं विशिष्टाद्वैत का भी निरूपण हुआ है । इसके अनुसार जीव सामान्यतया पशुतुल्य माना गया है, जो तीन मल से आवृत है । ये तीन मल आणव, माया तथा कर्म हैं । इसके अनुसार जीव अपने स्वरूप को भूलकर सुख-दुःखादि का अनुभव करता रहता है | शिवस्वरूप बनने के लिए जीव को शक्तिपात एवं दीक्षा के द्वारा अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना होता है । ऐसा करने में मल से निवृत्ति होती है एवं विशेष साधना का भी सहारा लेना होता है । इन १. Philosophy of Gorakhnath, Introduction, p. 26 २. तंत्रालोक, कण्ठसंहिता, भाग १, पृ० ३७-३८ ३. सर्वदर्शनसंग्रह, पृ० ३२२ ४. आणव- मायीय - - कर्म मलावृतत्वात् त्रिमयः । Jain Education International - प्रत्यभिज्ञाहृदयम्, पृ० १५. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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