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भारतीय परम्परा में योग हैं --(१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अस्तेय, (४) असंग, (५) ही, (६) असंचय, (७) आस्तिक्य, (८) ब्रह्मचर्य, (९) मौन, (१०) स्थैर्य, (११) क्षमा तथा (१२) अभय । नियम के बारह भेद इस प्रकार हैं(१) बाह्य शौच, (२) आभ्यन्तर शौच, (३) जप, (४) तप, (५) होम, (६) श्रद्धा, (७) आतिथ्य, (८) भगवदर्शन, (९) तीर्थाटन, (१०) परार्थ चेष्टा, (११) संतोष और (१२) आचार्य सेवन ।
शिवपुराण में प्राणायाम के दो भेद बताये गये हैं-(१) सगर्भ और (२) अगर्भ । सगर्भ ध्यान के अन्तर्गत जप और ध्यान के बिना प्राणायाम किया जाता है तथा अगर्भ के अन्तर्गत जप एवं ध्यान सहित प्राणायाम किया जाता है। विष्णपुराण में इन्हीं दोनों सगर्भ एवं अगर्भ को क्रमशः सबीज एवं अबीज कहा है। इनके अतिरिक्त कुम्भक, पूरक एवं रेचक के द्वारा प्राण के मार्ग को शुद्ध करने को कहा गया है।" इस प्रकार भागवत में अष्टांगयोग का यथेष्ट विवरण प्राप्त होता है, जिसके द्वारा साधक को इस संसार से ऊपर उठने तथा चित्त को एकाग्र करने का उपदेश दिया गया है, जिससे कि उसे सहज निर्वाण की प्राप्ति हो सके । कहा भी है कि भगवान् की उत्तम भक्ति से आप्लावित योगी के लिए योग का उद्देश्य मात्र कायाकल्प तथा शरीर को सुदृढ़ बनाना ही नहीं है, बल्कि उसका मुख्य ध्येय भगवान् में चित्त को लगाना भी है।'
१. अहिंसा सत्यमस्तेयमसंगो हीरसंचयः । आस्तिक्यं ब्रह्मचर्य च मौनं स्थैर्य क्षमाऽभयम् ।।
-भागवतपुराण, ११।१९।३३ २. शौचं जपस्तपो होमः श्रद्धाऽऽतिथ्यं मदर्चनम् ।
तीर्थाटनं परार्थेहा तुष्टिराचार्यसेवनम् ॥ -वही, ११।१९।३४ ३. अगर्भश्च गर्भसंयुक्त प्राणायामः शताधिकः । तस्मात्गर्भ कुर्वन्ति योगिनः प्राणसंयमम ॥
-शिवपुराण, वायवीयसंहिता, ३७३३३ ४. विष्णुपुराण, ६७।४० ५. प्राणस्य शोधयेन्मार्ग पूरककुम्भकरेचकैः । -भागवतपुराण, ३।२८।९ ६. योगं निषेवतो नित्यं कायश्चेत् कल्पतामियात् ।
तच्छृद्रध्यान्न मतिमान् योगमुत्सृज्य मत्परः ॥ --वही, ११।२८।४३
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