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________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन मनः प्रणिधान' आसन' मांडकर भगवान् में अपना मन भक्तिपूर्वक लगाना; मन, वचन एवं दृष्टि की वृत्तियों से अपनी आत्मा को एकाग्र करके अन्तःश्वास लेना तथा शान्त होना, अन्तिम बार श्वास को भीतर खींचकर ब्रह्मरन्ध्र से प्राण त्याग करना आदि। ___इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि समाधि द्वारा ही कपिल की माता ने अपनी देह त्यागी थी। नारद ने ध्रुव को आसन लगाकर, प्राणायाम के द्वारा प्राण, इन्द्रिय तथा मन के मल को दूर करके ध्यानस्थ हो जाने का उपदेश दिया था । श्रीकृष्ण की अलौकिक घटनाओं के प्रदर्शन भी योग-साधना की ही देन माने जाते हैं। भागवत के तीन स्कन्धों में योग का विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है। दूसरे स्कन्ध के प्रथम तथा द्वितीय अध्यायों, तीसरे स्कन्ध के २५वें तथा २८में अध्यायों एवं ११वें स्कन्ध के १३वें तथा १४वें अध्यायों में ध्यानयोग का सविस्तार वर्णन हुआ है। १५वें अध्याय में अणिमा, महिमा आदि अठारह सिद्धियों का उल्लेख है। १९ तथा २८-२९ अध्यायों में क्रमशः यम, नियमादि तथा अष्टांगयोग का वर्णन है। पतञ्जलि ने जहाँ आठ योगों में यम-नियम के पाँच-पाँच भेदों का विधान किया है वहाँ इसमें प्रत्येक के बारह भेद वर्णित हैं। यम के बारह भेद इस प्रकार. १. तस्मिन्निर्मजेऽरण्ये पिप्पलोपस्थ आस्थितः। आत्मनाऽऽत्मानमात्मस्थं यथाश्रुतमचिन्तयम् ।। ध्यायतश्चरणाम्भोजः भावनिर्जितचेतसा । औत्कण्ठयाश्रुकुलाक्षस्य हृद्यासीन्मे शनैर्हरि ॥ -भागवतपुराण, १।६।१६-१७ २. तस्मिन् स्व आश्रमे व्यासी बदरीषण्डमण्डिते । आसीनोऽप उपस्पृश्य प्रणिदध्यौ मन: स्वयम् ॥ --वही, ११७।३ ३. कृष्ण एवं भगवति मनोवारदृष्टि वृत्तिभिः । आत्मन्यात्मानमावेश्य सोऽन्तश्वास उपामत् ॥-वही, १।९।४३ ४. नित्यारूढसमाधित्वात्परावृत्तगुणभ्रमा। न सस्मार तदाऽऽत्मानं स्वप्ने दृष्टमिवोऽत्थितः॥ -वही, ३।३३।२७. ५. प्राणायामेन त्रिवृता प्राणेन्द्रियमनोमलम् । शनैव्यु दास्याभिध्यायेन्मनसा गुरुणां गुरुम् ॥ -वही, ४।८।४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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