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भारतीय परम्परा में योग
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वल्क्यस्मृति, मनुस्मृति, पाराशरस्मृति आदि स्मृतियों में साधकों के अनेक कर्तव्यों तथा गृहस्थों के सत्कर्मों की चर्चा है ।' विहित वर्णो तथा आश्रमों के सम्यक् धर्म का पालन करने से ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है । क्योंकि ऐसी अवस्था में साधक अपनी इन्द्रियों पर संयम रखता है, जिससे कि उसकी सारी क्रियाओं का संपादन सम्यक् रूप से होता है । यही कारण है कि गृहस्थाश्रम में भी धर्म- पालन करने से मोक्षप्राप्ति का विधान किया गया है । योग की क्रियाओं तथा अभ्यास के द्वारा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करें तथा आचार, दम, अहिंसा आदि क्रिया एवं योगाभ्यास से आत्मदर्शन की प्राप्ति करें ।" इस प्रकार प्राचीन कालीन इन स्मृतियों में भी योगाभ्यास की उन सभी क्रियाओं का विवरण मौजूद है जिनसे मोक्ष प्राप्ति होती है ।
भागवतपुराण आदि में योग
योगशास्त्र के इतिहास की दृष्टि से भागवतपुराण का स्थान औपनिषदिक योग तथा पातंजल योग के बीच के काल में है । इसमें भक्तियोग के साथ अष्टांगयोग का भी विवेचन है । इसमें कथाओं के माध्यम से यौगिक क्रियाओं एवं साधनाओं की विस्तृत चर्चा है जिसमें योग-सम्बन्धी शब्दों के अनेक संकेत प्राप्त होते हैं, यथा
१. संध्यास्नानं जपो होम स्वाध्याय देवतार्चनम् ।
विश्वदेवातिर्यच षट् कर्माणि दिने दिने । – पाराशरस्मृति, ३९
२. योगशास्त्र प्रवक्ष्यामि संक्षेपात् सारमुत्तमम् ।
यस्य च श्रवणाऽद्यान्ति मोक्षचेव मुमुक्षवः ॥ हारीतस्मृति, ८२
इंद्रियम् ।
३. प्राणायामेन वचनं प्रत्याहारेण च धारणाभिशकृत्वा पूर्वं दुर्घषणं
मनः ॥ - वही, ८|४ ४. अरण्यनित्यस्य जितेन्द्रियस्य सर्वेन्द्रिय प्रीति निवर्तकस्य । अध्यात्मचिन्तागत मानसच्य ध्रुवा ह्यनावृत्ति पेक्षकस्य इति ॥
इज्याचार दमाहिंसादानं स्वाध्यायकर्मणाम् ।
अयं तु परमो धर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम् ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, ८
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- वसिष्ठस्मृति, २५४
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