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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन मात्र से प्रेम, अहंकारशून्यता, निर्भयता, शीतोष्णता, सुख-दुःख एवं निंदास्तुति में समताभाव आदि गुणों की अपेक्षा रखी गयी है। फिर भी कर्मयोग, राजयोग, भक्तियोग एवं ज्ञानयोग क्रमशः कर्म, ध्यान, भक्ति एवं ज्ञान पर विशेष जोर देते हैं। यहाँ प्रत्येक योग का अपना एक निश्चित भावात्मक लक्षण है, जो उसके लक्ष्य का निर्देशक भी है। जैसे कर्मयोग का निश्चित लक्ष्य लोकसंग्रह अर्थात् सब लोगों का कल्याण है। ज्ञानयोग का लक्ष्य 'वासुदेवः सर्वमिति' ज्ञान है । सांख्ययोग का लक्ष्य ब्राह्मी स्थिति है, राजयोग एवं ध्यानयोग का लक्ष्य ब्रह्मसंस्पर्शरूप अक्षय सुख की प्राप्ति है। इसी प्रकार विश्वरूपदर्शन-योग का लक्ष्य भगवान् के विश्वरूप का दर्शन है और भक्तियोग का लक्ष्य भगवान् का अतिशय प्रिय होना है।
संक्षेप में गीता एक कल्पना-पद्धति है और जीवन का विधान भी है । यह बुद्धि के द्वारा सत्य का अनुसंधान है और सत्य को मनुष्य की आत्मा के अन्दर क्रियात्मक शक्ति देने का प्रयत्न भी है। इसलिए प्रत्येक अध्याय के उपसंहारपरक वाक्य से यह स्पष्ट हो जाता है, जो एक अनिश्चित काल से प्राप्त होता जा रहा है, वह यह कि यह एक योगशास्त्र है अथवा ब्रह्मसंबंधी दर्शनशास्त्र का धार्मिक अनुशासन है। स्मृति ग्रन्थों में योग
सम्पूर्ण स्मृतिशास्त्रों को आचार-विचार की नीतियों का अमूल्य खजाना कह सकते हैं, जिनमें वैदिक परम्परा-विहित चारों आश्रमों५ की विभिन्न नीतियों की विस्तृत भूमिका प्रस्तुत की गयी है। याज्ञ१. एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाण मृच्छति ॥-गीता, २०७२ २. युंजन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
मुखेन ब्रह्म संस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ।। -वही, ६।२८ ३. ये तु धामृतमिदं यथोक्त पर्युपासते । __श्रद्धधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव में प्रियाः ॥-वही, १२।२० ४. भारतीय दर्शन, राधाकृष्णन्, भाग १, पृ० ४९१ ५. चत्वारः आश्रमाः ब्रह्मचारी गृहस्थ वानप्रस्थ परिव्राजकाः ।
- वसिष्ठस्मृति, २०६
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