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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन इस तरह भागवतपुराण में योग का प्रतिपादन, भगवद्भक्ति में चित्त को एकाग्र करने के अतिरिक्त सिद्धि-प्राप्ति के साधन के रूप में भी हुआ है, क्योंकि अखिल आत्मस्वरूप भगवान् में लगी हुई भक्ति के समान कल्याणप्रद मार्ग योगियों के लिए और दूसरा नहीं है।' योगवासिष्ठ में योग
योगवासिष्ठ वैदिक संस्कृति का एक ऐसा प्राचीन ग्रन्थ है, जिसमें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मुख्यतः योग का ही निरूपण हुआ है तथा इसकी कथाओं, उपदेशों, प्रसंगों आदि में संसार-सागर से निवृत्त होने की युक्ति बतलायी गयी है। वास्तव में योग द्वारा मानव अपने वास्तविक स्वरूप की अनुभूति प्राप्त करता है एवं अन्त में संसार के आवागमन से मुक्त हो जाता है।
इस ग्रन्थ में मन का विस्तृत वर्णन है। मन को ही शक्तिशाली एवं पुरुषार्थ का सहायक माना गया है । बुद्धि, अहंकार, चित्त, कर्म, कल्पना, स्मति, वासना, इन्द्रियाँ, देह, पदार्थ, आदि को मन के ही रूप बताया गया है। यहाँ तक कि मन की पूर्ण शान्ति होने पर ही ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है। मन को शान्त करने के अनेक उपायों का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि संकल्प करने का ही नाम मन है तथा उसके ही हाथ में बन्धन और मोक्ष है। योग द्वारा ही मन स्थिर एवं पूर्ण शान्त होता है एवं जाग्रति, स्वप्न, और सुषुप्ति से भिन्न तुरीयावस्था की स्थिति में पहुँचने में समर्थ होता है। इन अवस्थाओं का विस्तृत विवेचन यहाँ विभिन्न सन्दर्भो में किया गया है।
योगवासिष्ठ में योग की तीन रीतियों का प्ररूपण हुआ है जो क्रमशः इस प्रकार हैं-(१) एकतत्त्वघनाभ्यास, (२) प्राणों का निरोध एवं (३)
१. न युज्यमानया भक्त्या भगवत्यखिलात्मनि ।
सदृशोऽस्ति शिवः पन्था योगिनां ब्रह्मसिद्धये ॥ -वही, ३।२५।१९ २. योगवासिष्ठ, ६।११४।१७; ६७।११; ६।१३९।१; ३।११०।४६ ३. वही, ५।८६९ ४. वही, ४।१९।१५-१८, ५।७८।१० ५. योगमनोविज्ञान, पृ० १२ ।
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