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________________ भारतीय परम्परा में योग २३ मनोनिरोध । एकतत्त्वघनाभ्यास के अन्तर्गत ब्रह्मभ्यास द्वारा अपने को उसीमें लीन कर देना होता है। प्राणों के निरोध में प्राणायाम आदि की अपेक्षा की जाती है एवं कुण्डलिनी-शक्ति को जाग्रत करके ब्रह्मत्व प्राप्त किया जाता है। मनोनिरोध में समस्त इच्छाओं का पूर्ण परिशमन किया जाता है। इस ग्रन्थ में भी सदाचार एवं विचार के सम्यक् परिपालन पर जोर दिया गया है एवं विचार को परमज्ञान कहा गया है ।' सदाचार एवं ज्ञान की उपमा क्रमशः दीपक एवं सूर्य से दी गयी है और कहा है कि जब तक ज्ञान का सूरज प्रकट नहीं होता तब तक अज्ञान के गहन अन्धकार में सदाचार का ही दीपक मार्गदर्शक होता है। अविद्या को दुःखों का मूल कारण माना गया है तथा इसका विनाश सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से होता है। इसके अनुसार चित्त की एकदम क्षीण अवस्था हो जाने पर मोक्ष होता है, जबकि वह समस्त क्रियाओं एवं वासनाओं से रहित हो जाता है। वैसी संकल्प-विकल्परहित आत्मस्थिति में मिथ्याज्ञान से उत्पन्न अहंभावरूपी अज्ञानग्रन्थि का सर्वथा समाप्त हो जाना ही मोक्ष है। हठयोग हठयोग-सिद्धान्त की चर्चा योगतत्त्वोपनिषद् तथा शाण्डिल्योपनिषद् में है। हठयोग के अवान्तर भेद भी हैं, जिनकी चर्चा यहां अनपेक्षित है । शिव हठयोग के आदि प्रवर्तक माने जाते हैं ।" हठयोग का अर्थ है-चन्द्र-सूर्य, इडा-पिंगला, प्राण-अपान का मिलन अर्थात् ह सूर्य, ठचन्द्र यानी सूर्य और चन्द्र का संयोग । हठयोग का उद्देश्य शारीरिक तथा मानसिक उन्नति है । यह योग सर्वप्रथम शारीरिक विकास या १. विचारः परमं ज्ञानं । -योगवासिष्ठ, २।१६।१९ २. साधु संगतयो लोके सन्मार्गस्य च दीपिकाः । हाधिकारहारिण्यो भासो ज्ञानविवस्तवः ॥ -वही, २।१६।९ ३. प्राज्ञं विज्ञातविज्ञेयं सम्यग्दर्शमाधयः।। न दहन्ति वनं वर्षासिक्तमग्निशिखा इव ॥ -वही, २।११।४१ ४. वही, ३३१००३७-४२ ५. हठयोगप्रदीपिका, ११ ६. वही, १।१; ३१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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