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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन उन्नति की ओर विशेष ध्यान देता है, क्योंकि शरीर की सुदृढ़ता और स्वस्थता से ही इच्छाओं पर नियन्त्रण होता है और इससे मन शान्त अवस्था को प्राप्त होता है, जो योग धारण के लिए परम आवश्यक है।
हठयोग में सात अंग प्रमुख हैं।--षटकर्म,२ प्राणायाम, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि । इनमें आसन, मुद्रा एवं प्राणायाम का विशेष महत्त्व दृष्टिगोचर होता है। इन प्राणायाम आदि यौगिक क्रियाओं के द्वारा शरीर हलका करने एवं भारी बनाने की लब्धि प्राप्त होती है, लेकिन इन लब्धियों की प्राप्ति ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है । उसका उद्देश्य आन्तरिक देह की शुद्धि करके राजयोग की ओर जाना है। अतः हठयोग के बिना राजयोग और राजयोग के बिना हठयोग असम्भव है ।' अभिहित मुद्राओं तथा प्राणायामों द्वारा नाड़ियों को शुद्ध किया जाता है, जिनपर हठयोग आधत है। हठयोग का सम्बन्ध शरीर से अधिक है और मन तथा आत्मा से कम ।" ऐसी स्थिति में मन निरोधावस्था में पहुँचता है, जहाँ से राजयोग का प्रारम्भ होता है । नाड़ियों के शुद्ध होने पर कुण्डलिनी-शक्ति जाग्रत होती है तथा यह षट्चक्रों का भेदन करती हुई सहस्राधार में पहुँचती है। ऐसी स्थिति में साधक का चित्त निरालम्ब एवं मृत्यु-भय-रहित होता है जो योगाभ्यास की जड़ है, इसीको कैलाश भी कहते हैं ।
१. षट्कर्मणा शोधनं च आसनेन भवेदृढम् ।
मुद्रया स्थिरता चैव प्रत्याहारेण धीरता। प्राणायामल्लाघवं च ध्यानात्प्रत्यक्षमात्मनि ।
समाधिना निर्लिप्तश्च मुक्तिरेव न संशयः ।।-घेरण्डसंहिता, १।१०-११ २. धौतिर्वस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिक तथा ।
कपालभातिश्चेतानि षट्कर्माणि प्रवक्षते ॥ -हठयोगप्रदीपिका, २।२२ ३. नाथयोग, पृ० १९
४. हठयोगप्रदीपिका, २१७५ ५. सन्त मत का सरभंग सम्प्रदाय, पृ० ६६-६८ ६. भारतीय संस्कृति और साधना, भा॰ २, पृ० ३९७ ७. अतऊध्वं दिव्यरूपं सहस्रारं सरोरुहम् ।
ब्रह्माण्ड व्यस्त देहस्थं बाह्य तिष्ठति सर्वदा। कैलाशो नाम तस्यैव महेशो यत्र तिष्ठति ॥ -शिवसंहिता, ५
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