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________________ योग के साधन : आचार १३५ आत्मा परिशुद्ध होती है। अतः तप वह विधि है, जिससे जीव बद्ध कर्मो का क्षय करके व्यवदान-विशुद्धि को प्राप्त होता है।' तप के भेद-जैन-आगम के अनुसार तप दो प्रकार का है - (१) बाह्य और (२) आभ्यन्तर । बाह्य तप का उद्देश्य शारीरिक विकारों को नष्ट करना तथा इन्द्रियों पर जय प्राप्त करना है और आभ्यंतर तप के द्वारा कषाय, प्रमाद आदि विकारों को नष्ट किया जाता है। बाह्य तप आंतरिक तप में सहायक या पूरक होते हैं। बाह्यतपों से इंद्रियविषयों की तृष्णा मंद होती है और फिर क्रमशः जब आत्म-शक्ति बढ़ती है तो आंतरिक शुद्धि होती है। इन दोनों प्रकार के तपों का सम्यक् रूप से पालन करनेवाला पंडितमुनि शीघ्र ही सर्वसंसार से मुक्त हो जाता है । शरीर को कष्ट देना आत्मघात नहीं है, क्योंकि उसके पीछे इंद्रियों के दमन का उद्देश्य निहित है। शरीर को कष्ट देना इसलिए भी जरूरी है कि तपावस्था में किसी भी प्रकार के उपद्रव या संकट के आ जाने पर साधक देहेन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर उपस्थित शारीरिक, प्राकृतिक अथवा अन्यकृत पीड़ा अथवा कष्ट को सहन करने में समर्थ हो सके। इस संदर्भ में ध्यातव्य है कि तप में मन हमेशा पवित्र रहे तथा इन्द्रियों की विकार-शक्तियों का ह्रास हो एवं दैनिक चर्या में शिथिलता न आने पाये। जैन-परम्परा में इसे 'समत्वयोग की साधना' कहा गया है और यही समत्वयोग समष्टि की दृष्टि से अथवा आचरण के व्यावहारिक क्षेत्र में अहिंसा कहलाती है और यही अहिंसा निषेधात्मक रूप में तप बन जाता है। १. तवेण परिसुज्झई । -उत्तराध्ययन, २८०३५ २. तवेण भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? तवेणं वोदाणं जणयइ । -वही, २९।२८ ३. सो तवो दुविहो वुत्तो बाहिरब्भतरो तहा । -वही, ३०७ ४. एयं तवं तु दुविहं, जे सम्म आयरे मुणी। से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चई पंडिए ॥-वही, ३०१३७ ५. जिनवाणी, अगस्त-सितम्बर, १९६६, वर्ष २३, अंक ८-९, पृ० ९९ Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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