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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
बाह्यतप
बाह्यतप छह प्रकार का है-(१) अनशन, (२) अवमोदर्य, (३) वृत्तिपरिसंख्यान, (४) रसपरित्याग, (५) विविक्तशय्यासन, तथा (६) कायक्लेश।'
१. अनशन-विशिष्ट अवधि तक या आजीवन सब प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन है। अनशन की अवधि एक या दो अथवा तीन दिनों की भी हो सकती है अर्थात् अपनी सामर्थ्य के अनुसार साधक लम्बी अवधि तक का भी अनशन कर सकता है। इसे उपवास भी कहते हैं।
२. अवमौदर्य या ऊनोवरी-किसी विशेष स्थान या समय पर जितनी भूख हो उससे कम आहार ग्रहण करना ऊनोदरी या अवमौदर्य तप है।
३. वृत्तिपरिसंख्यान-विविध वस्तुओं की लालसा कम करना, वस्तुओं की संख्या की मर्यादा करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है।
४. रसपरित्याग-दूध, घी, मक्खन, मधु आदि गरिष्ठ विकारवर्धक पदार्थो का त्याग करना रस-परित्याग है। प्रतिदिन एक-एक रस का परित्याग भी किया जाता है। स्वादेन्द्रिय-विजय का अपना महत्त्व है।
५. विविक्तशय्यासन-अपने ध्यान अथवा तप में बाधा उत्पन्न होने की आशंका से बाधारहित एकान्त स्थान में रहना अथवा तप करना प्रतिसंलीनता तप है, क्योंकि इसका अर्थ 'गोपन रखना' ही है। इसके चार भेद हैं--(१) इंद्रिय प्रतिसंलीनता (२) कषाय प्रतिसंलीनता (३) योग प्रतिसंलीनता तथा (४) विविक्तशय्यासन ।
६. कायक्लेश-ठंढ, गरमी, अथवा विविध आसनों द्वारा शरीर को कष्ट पहुंचाना कायक्लेश तप है।'
१. (क) अनशनावमोदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा
बाह्य तपः ।-तत्त्वार्थसूत्र, ९।१९ (ख) अनशनमौनोदयं वृतेः संक्षेपणं तथा ।
रसत्यागस्तनुक्लेशो लीनतेति बहिस्तपः ।।-योगशास्त्र, ४।८९ २. ठाणांग, ६१५११; प्रवचनसारोद्धार, २७०-७२ ३. तत्त्वार्थराजवार्तिक, ९।१९; तत्त्वार्थसूत्र ( पं० सुखलालजी), पृष्ठ २११
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