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________________ योग के साधन : आचार १३७ ये सब बाह्यतप खाद्य एवं स्वाद्य पदार्थों की अपेक्षा से वर्णित हैं। क्योंकि साधक स्वाभिप्राय के अनुसार उनका सेवन करते हैं। बाह्यतप से जहाँ पाँचों इंद्रियों की विषयवासना क्षीण होती है, वहाँ चित्त के आंतरिक विकारों के परिशमन में भी मदद होती है। आभ्यन्तरतर ___ आभ्यंतरतप से आत्म-परिणामों में विशुद्धि आती है। अतिशय कर्मों को नष्ट करने में समर्थ तप को आभ्यंतरतप कहते हैं।' आभ्यंतर तप भी छह प्रकार का है-(१) प्रायश्चित, (२) विनय, (३) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) व्युत्सर्ग तथा (६) ध्यान ।' १. प्रायश्चित-तप-किसी व्रत-नियम के भंग होने पर उसमें लगे दोष का परिहार करना अथवा गुरु के समक्ष चित्तशुद्धि के लिए दोषों की आलोचना करना और उसके लिए प्रायश्चित स्वीकार करना प्रायश्चित तप है। इस प्रायश्चित तप के भी नौ भेद हैं, जैसे-(१) आलोचना, (२) प्रतिक्रमण, (३) तदुभय, (४) विवेक, (५) व्युत्सर्ग, (६) तप, (७) छेद, (८) परिहार और (९) उपस्थापना । १. अतिशयेन कर्मनिर्दहन समर्थरूपत्वमाभ्यन्तर तपसो लक्षणम् : -आर्हत्दर्शनदीपिका, ६९२ २. ( क ) प्रायश्चित्तं वैयावृत्त्यं स्वाध्यायो विनयोऽपि च । व्युत्सर्गोऽथ शुभं ध्यानं षोढेत्याभ्यन्तरं तपः ॥ -योगशास्त्र, ४।९० ( ख ) प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् । -तत्त्वार्थसूत्र, ९।२० ३. ( क ) प्रमाददोष परिहारः प्रायश्चित्तम् । -सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४७८ (ख) बाहुल्येन चित्तशुद्धि हेतुत्वात् यत् प्रायश्चित्तं । –तत्वार्थसूत्र, ( हरिभद्र), पृ० ४७८ ( ग ) योगशास्त्र, स्वोपज्ञवृत्ति, पृ० ८६० ४. आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनानि । -तत्त्वार्थसूत्र, ९।२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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