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________________ १३८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन (क) आलोचना-व्रत की मर्यादा का उल्लंघन होने पर, गुरु के पास जाकर, दोष स्वीकार करना तथा उसके बदले नया व्रत ग्रहण करना। (ख ) प्रतिक्रमण-हो चुकी भूल का अनुताप करके उससे निवृत्त होना और नयी भूल न हो उसके लिए सावधान रहना । (ग ) तदुभय-उक्त आलोचन और प्रतिक्रमण दोनों साथ-साथ करना। (घ) विवेक-खाने-पीने आदि की यदि अकल्पनीय वस्तु आ जाय और बाद में पता चले तो उसका त्याग करना या वस्तु की शुद्धताअशुद्धता का विचार करना। (च) व्युत्सर्ग-एकाग्रतापूर्वक शरीर और वचन के व्यापारों को छोड़ना। . (छ ) तप-अनशनादि बाह्य तप करना। (ज) छेद-दोष के अनुसार दिवस, पक्ष, मास या वर्ष की प्रव्रज्या (दीक्षा) कम करना। (झ) परिहार-दोषपात्र व्यक्ति से दोष के अनुसार पक्ष, मास आदि पर्यन्त किसी प्रकार का संसर्ग न रखकर उसे दूर से परिहरना। (ट) उपस्थापन-अहिंसादि व्रतों का भंग हो जाने पर शुरू से उन महाव्रतों का आरोपण करना ।' २. विनय-तप-अपने से वरिष्ठ गुरु अथवा आचार्यो का आदर करना तथा उनकी आज्ञा का पालन करना विनय तप है। इसके भी चार भेद हैं-(क) ज्ञान, (ख) दर्शन, (ग) चारित्र और (घ) उपचार ।' निम्न ग्रंथों में प्रायश्चित्त के दस भेदों का वर्णन है-उत्तराध्ययन, ३०।३१; स्थानांग, ७३३; भगवतीसूत्र, २५७।८०१; जीतकल्प में इस प्रकार कहा गया है: तं दसविहमालोयण-वडिकमणो-भय-विवेग-वोस्सग्गा । तव-छेद-मूल-अणवठ्या य पारंचियं चेव ॥-जीतकल्प, ४ १. तत्त्वार्थसूत्र ( पं० सुखलालजी), पृष्ठ २२० २. पूज्येष्वादरो विनयः ।-सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४३९ ३. ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः।-तत्त्वार्थसूत्र, ९।२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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