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योग के साधन : आचार
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( क ) ज्ञान - ज्ञान प्राप्त करना, उसका अभ्यास जारी रखना और भूलना नहीं । हरिभद्र ने मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय तथा केवलज्ञान को ज्ञान विनय कहा है | "
(ख) दर्शन - तत्त्व की यथार्थ प्रतीतिस्वरूप सम्यग्दर्शन से विचलित न होना, उसके प्रति उत्पन्न होनेवाली शंकाओं का निवारण करके निःशंकभाव की साधना करना ।
(ग) चारित्र - सामाजिक आदि चारित्रों में चित्त का समाधान रखना ।
(घ) उपचार - अपने से सद्ग्रंथों में श्रेष्ठ आचार्यो के समक्ष उठने, बैठने, बोलने, नमस्कार करने आदि क्रियाओं में आदर एवं नम्रतापूर्वक वर्तन करना, वन्दन करना आदि |
३. वैयावृत्त्य तप - शरीर से अथवा योग्य साधनों को जुटाकर उपासना - भाव से गुरु, मुनि, वृद्ध व रोगी साधक आदि की सेवाशुश्रुषा करना वैयावृत्त्य तप है । इस तप के भी दस भेद हैं- (क) आचार्य, (ख) उपाध्याय, (ग) तपस्वी, (घ) शैक्ष्य, (च) ग्लान, (छ) गण, (ज) कुल, (झ) संघ, (ट) साधु और (ठ) मनोज्ञ । ४
(क) आचार्य - व्रत और आचार ग्रहण करानेवाला तथा चतुर्विध संघ को अनुशासित करनेवाला ।
(ख) उपाध्याय - श्रुताभ्यास करानेवाला ।
(ग) तपस्वी - महान् एवं उग्र तप करनेवाला ।
(घ) शैक्ष्य - नवदीक्षित होकर श्रुत का अध्ययन करनेवाला शिक्षार्थी ।
१. (क) श्रीतत्त्वार्थ सूत्रम् (भिद्र ), पृ० ४८२-८३
(ख) स्थानांगसूत्र में इसके सात भेद हैं- ( १ ) ज्ञान, (२) दर्शन, (३) चारित्र, (४) मनोविनय, (५) वचनविनय, (६) कार्याविनय तथा (७) लोकोपचार विनय । - स्थानांगसूत्र, ५८५
२. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४४२; तत्त्वार्थ सूत्र ( पं० सुखलालजी), पृष्ठ २२० ३. कायचेष्टया द्रव्यान्तरेण चोपासने वैयावृत्त्यम् । - सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४३९. ४. आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षक ग्लानगण कुलसंघसाधुसमनोज्ञानाम् ।
- तत्त्वार्थ सूत्र, ९।२४
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