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________________ ૧૪૦ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन (च) ग्लान - रोग आदि से क्षीण साधक । (छ) गण - भिन्न-भिन्न आचार्यो के सहाध्यायी शिष्यों का समुदाय या संघ | (ज) कुल - एक ही दीक्षाचार्य का शिष्य परिवार । (झ) संघ - धर्मं का अनुयायी समुदाय संघ है, जो साधु और साध्वी, श्रावक और श्राविका के रूप में चतुर्विध है । (ट) साधु- संयम का पालन करनेवाला प्रव्रजित मुनि । (ठ) समनोज्ञ - ज्ञान आदि गुणों में समान या समानशील । " ४. स्वाध्याय - तप - ज्ञान - प्राप्ति के लिए आलस तजकर अध्ययन करना स्वाध्याय तप है । " ज्ञान प्राप्त करने, उसे सन्देहरहित, विशद और परिपक्व बनाने एवं उसका प्रचार करने का प्रयत्न भी स्वाध्याय है । अतः अभ्यास- शैली के क्रमानुसार यह तप भी पांच प्रकार का है - (क) वाचना, (ख) प्रच्छना, (ग) अनुप्रेक्षा, (घ) आम्नाय तथा (च) धर्मोपदेश | (क) वाचना - शब्द या अर्थ का पहला पाठ लेना । (ख) प्रच्छना - जिनागमों के बारे में संशय निवारणार्थं, अथवा विशेष निर्णय के लिए पूछना | (ग) अनुप्रेक्षा -- आत्म-स्वरूप का, शब्द और अर्थ का चिंतन मनन करना । (घ) आम्नाय - सीखी गयी वस्तु का, शास्त्र का शुद्धिपूर्वक बार बार उच्चारण करना । (च) धर्मोपदेश - अनपढ़ अथवा अल्पज्ञानी लोगों के कल्याण के लिए उपदेश द्वारा धार्मिक वातावरण निर्माण करना, धर्म की प्रभावना करना । ५. व्युत्सर्ग- अहंकार, ममकार आदि सभी उपधियों का त्याग १. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४४२; विविध अर्थ के लिए देखें हरिभद्र का - श्रीतत्त्वार्थ सूत्रम्, सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २. ज्ञानभावनाऽऽलस्यत्यागः स्वाध्यायः । - सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४३९ ३. वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः । -- तत्त्वार्थ सूत्र, ९।२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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