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________________ योग के साधन : आचार १४१ करना व्युत्सगं तप है । इसके भी दो भेद हैं- (क) बाह्य और (ख) आभ्यंतर । धन, धान्य, मकान आदि बाह्य वस्तुओं की ममता का त्याग करना बाह्योपधि व्युत्सर्ग है । शरीर की ममता का त्याग करना एवं काषायिक विकारों की तन्मयता का त्याग करना आभ्यंत रोपधि व्युत्सर्ग है । ६. ध्यान - चित्त की चंचल वृत्तियों का परित्याग करके एक विषय में अन्त:करण की वृत्ति को स्थापित करना ध्यान- तप है । इस तप के बहुत-से भेद-प्रभेद हैं, जिनके संबंध में आगे विचार किया जायेगा । इस संदर्भ में ज्ञातव्य है कि तप के भी बहुत भेद-प्रभेद हैं, जिनका उल्लेख करना यहाँ अभीष्ट नहीं है ।" इस तरह वैदिक, बौद्ध एवं जैन तीनों ही परम्पराओं में तप का १. आत्माऽऽत्मीय संकल्पत्यागो व्युत्सर्गः । - सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४३९ २. बाह्याभ्यन्तरोपध्योः । - तत्त्वार्थसूत्र, ९।२६ ३. चित्तविक्षेपत्यागो ध्यानम् । सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४३९ ४. योगबिंदु में हरिभद्र ने चार प्रकार के तप का उल्लेख किया है— ( क ) चांद्रायण, कृच्छ्र, मृत्युघ्न और पापसूदन । - योगबिंदु, १३१ ( ख ) तपोरत्नमहोदधि में तो तप के बहुत प्रकार गिनाये हैं जो कि देखने योग्य हैं । ( ग ) स्थानांगसूत्र में - ( १ ) उग्रतप, ( २ ) घोरतप, ( ३ ) रसपरित्याग तथा ( ४ ) जितेन्द्रिय प्रति संलीनता, इस तरह चार तप कहे गये हैं । - स्थानांग, ३०८ (घ) भगवतीसूत्र श० २५, उद्दे० ७, ( च ) प्रकीर्णक तप के अनेक भेद हैं, यथा - चन्द्रप्रतिभ तप के दो भेद हैं- यवमध्य और वज्रमध्य । आवली के तीन भेद हैं- कनकावली, रत्नावली और मुक्तावली । सिंह-विक्रीडित के दो भेद हैंलघु और महान । प्रतिमा के चार भेद हैं- भद्रोत्तर, आचाम्ल, वर्धमान और सर्वतोभद्र । भिक्षु प्रतिमा के बारह भेद हैं- मासिक से लेकर सप्तमासिकी तक सात भेद, सप्तरात्रिकी के तीन भेद, अहोरात्रकी और एक रात्रिकी । ( देखिए - सभाष्य स्वार्थाधिगमसूत्रम्, पृ० ३९१ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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