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________________ "१४२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन विधान है। तप का उद्देश्य कायक्लेश अथवा देहदमन नहीं है, बल्कि इंद्रिय-वृत्तियों का संयम तथा मन की शुद्धि करना है। वैदिक योग में बर्फ में बैठने, नदियों में घंटों खड़े रहने, एक पैर पर खड़े रहने, पंचाग्नि में तपना, महीनों केवल पानी पीकर उपवास करना, धूप में तप करना आदि बहुत प्रकार के तप गिनाये गये हैं, जिनकी गणना तामसिक तथा राजसिक तपों में की गयी है। योग में ऐसे तपों को निन्द्य बताया गया है, क्योंकि इससे शरीर एवं इन्द्रियाँ अनेक रोगों की शिकार बन जाती हैं । बौद्ध योग में भी इस प्रकार के तप अमान्य हैं। जैन योग में भी बाह्य और आभ्यंतर तपों का विधान है, जिनका विवेचन ऊपर कर चुके हैं। इस प्रकार सभी योग-परम्पराओं में तप द्वारा शरीर, इन्द्रियों के विषय, प्राण, मन को उचित रीति से नियंत्रित करने की बात कही गयी है। आत्म-विकास एवं शुद्धिकारक तप से संचित कर्मो का नाश, विषयवृत्तियों का क्रमशः शमन तथा अनेक प्रकार के दुःख-सुख, गर्मी-ठण्ड, भूख-प्यास, मान-अपमान आदि वृत्तियों पर नियंत्रण प्राप्त होता है और योगसाधना में मदद होती है। ऐसे तप से अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, ऐसा भी कहा गया है। आसन यौगिक क्रियाओं की निष्पन्नता अथवा चित्त-स्थिरता के लिए आसनों का महत्त्व है, क्योंकि आसन में शरीर तथा मन अन्य चेष्टाओं से रहित होकर किसी एक दशा में केद्रित हो जाते हैं। यही कारण है कि आसनों के द्वारा संकल्प-शक्ति को विकसित करके वांछित परिणाम प्राप्त किये जाते हैं। अतः आसन मन तथा शरीर दोनों को काबू में करके आत्मा को शक्तिशाली बनाने का साधन है और यही मन एवं शरीर पर अधिकार प्राप्त करना योग का आधार है ।' उपनिषदों में आसनों का वर्णन मिलता है। भगवद्गीता में वर्णन १. योगमनोविज्ञान, पृ० १९० २. (क) तस्मा आसनमाहृत्य । -बृहदारण्यकोपनिषद्, ६।२।४; (ख) तेषां त्वया सनेऽऽन प्रश्वसितव्यम् । -तैत्तिरीयोपनिषद्, १११११३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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