SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग के साधन : आचार १२५ चाहिए और ईश्वर की भावना के पश्चात् जप । इस तरह दोनों योगों की प्राप्ति होने पर परमेश्वर - साक्षात्कार होता है ।" जैन-दर्शन में अनुप्रेक्षाओं की महती प्रतिष्ठा है। अनुप्रेक्षाएँ या भावनाएँ बारह हैं । यथा - अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म, लोक और बोधिदुर्लभ । अनुप्रक्षा के इन प्रकारों का वर्णन वारस अणुवेक्खा, तत्त्वार्थसूत्र, प्रशमरतिप्रकरण", मूलाचार', स्वामिकार्तिकेयानुप्रक्षा, शांतसुधारस', मनोनुशासन ; बृहद् द्रव्यसंग्रह १०, ज्ञानार्णव आदि ग्रंथों में भी है । यद्यपि इनके क्रम में कहीं-कहीं किंचित् अन्तर दीख पड़ता है, परन्तु प्रकारों में अंतर नहीं है । (१) अनित्यानुप्रेक्षा- यह शरीर अपवित्र, अनित्य तथा अनेक अशुचियों से भरा है तथा विनष्ट होनेवाला है । जो जन्मता है वह मरता ही है । इसलिए संसार को अनित्य, अस्थिर, नाशवान् समझना और ऐसा चितवन करना ही अनित्यानुप्र ेक्षा है । १२ (२) अशरणानुप्रेक्षा- इस संसार में क्योंकि जब वह रोगशय्या पर पड़ता है १. तज्जपस्तदर्थभावन्म । — योगदर्शन, व्यासभाष्य, १२८ २. योगशास्त्र, ४/५५-५६ ३. अद्भुवमसरणमेगत्तमण्णत्तसंसारलोय मसुइतं । आसव संवरणिज्जर धम्मं बोधि च चितिज्ज || - बारसअणुवेक्खा, २ ४. तस्वार्थसूत्र, ९।७ ५. प्रशमरतिप्रकरण, ८।१४९-५० जीव का कोई शरण नहीं है, अथवा छेदन भेदन किया जाता ६. मूलाचार, द्वादशानुप्रेक्षाधिकार, पृ० १-७६ ७. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, २-३ ८. शान्त सुधारस, १1७-८ ९. मनोनुशासन, ३।२२ १०. बृहद् द्रव्यसंग्रह, टीका, ३५ ११. ज्ञानार्णव, अध्याय २ १२. इमं सरीरं अणिच्चं, असुइ असुइसंभवं । अासयावास मिणं, दुक्खकेसाण भ्रायणं । - उत्तराध्ययन, १९।१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy