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योग के साधन : आचार
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चाहिए और ईश्वर की भावना के पश्चात् जप । इस तरह दोनों योगों की प्राप्ति होने पर परमेश्वर - साक्षात्कार होता है ।"
जैन-दर्शन में अनुप्रेक्षाओं की महती प्रतिष्ठा है। अनुप्रेक्षाएँ या भावनाएँ बारह हैं । यथा - अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म, लोक और बोधिदुर्लभ । अनुप्रक्षा के इन प्रकारों का वर्णन वारस अणुवेक्खा, तत्त्वार्थसूत्र, प्रशमरतिप्रकरण", मूलाचार', स्वामिकार्तिकेयानुप्रक्षा, शांतसुधारस', मनोनुशासन ; बृहद् द्रव्यसंग्रह १०, ज्ञानार्णव आदि ग्रंथों में भी है । यद्यपि इनके क्रम में कहीं-कहीं किंचित् अन्तर दीख पड़ता है, परन्तु प्रकारों में अंतर नहीं है ।
(१) अनित्यानुप्रेक्षा- यह शरीर अपवित्र, अनित्य तथा अनेक अशुचियों से भरा है तथा विनष्ट होनेवाला है । जो जन्मता है वह मरता ही है । इसलिए संसार को अनित्य, अस्थिर, नाशवान् समझना और ऐसा चितवन करना ही अनित्यानुप्र ेक्षा है । १२
(२) अशरणानुप्रेक्षा- इस संसार में क्योंकि जब वह रोगशय्या पर पड़ता है
१. तज्जपस्तदर्थभावन्म । — योगदर्शन, व्यासभाष्य, १२८
२. योगशास्त्र, ४/५५-५६
३. अद्भुवमसरणमेगत्तमण्णत्तसंसारलोय मसुइतं ।
आसव संवरणिज्जर धम्मं बोधि च चितिज्ज || - बारसअणुवेक्खा, २
४. तस्वार्थसूत्र, ९।७
५. प्रशमरतिप्रकरण, ८।१४९-५०
जीव का कोई शरण नहीं है, अथवा छेदन भेदन किया जाता
६. मूलाचार, द्वादशानुप्रेक्षाधिकार, पृ० १-७६
७. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, २-३
८. शान्त सुधारस, १1७-८
९. मनोनुशासन, ३।२२
१०. बृहद् द्रव्यसंग्रह, टीका, ३५
११. ज्ञानार्णव, अध्याय २
१२. इमं सरीरं अणिच्चं, असुइ असुइसंभवं ।
अासयावास मिणं, दुक्खकेसाण भ्रायणं । - उत्तराध्ययन, १९।१३
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