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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
है तब कोई भी संबंत्री उसके दुःख में हाथ बँटाने नहीं आता ।" यहाँ सभी अपनी रक्षा को ही सोचते हैं । बालपन, यौवन एवं बुढापा क्रमशः आता है, काल किसी का इन्तजार नहीं करता और विद्या, मंत्र, औषधि या जड़ी-बूटी से भी किसी का मरण टलता नहीं है । अतः जीव का एकमात्र सहारा अथवा शरण धर्म ही है । धर्म से ही मोक्षमार्ग की प्राप्ति भी होती है । अतः धर्म की शरण में जाना ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार का चितवन करना अशरणानुप्र ेक्षा है !
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(३) संसारानुप्रेक्षा - यह जीव हमेशा यानी जन्म-जन्म में शरीर धारण करता है और छोड़ता है। इस प्रकार जन्म-मरण का चक्र हमेशा चलता रहता है । संसार में सुख लेशमात्र नहीं है, वह दुःखों से भरा है । प्रत्येक जीव संसरण कर रहा है । संसार के स्वरूप का ऐसा चिन्तवन करना संसारानुप्र ेक्षा है । 3
(४) एकत्वानुप्रेक्षा- इस संसार में जीव अकेला ही पैदा होता है। और अकेला ही मरता है । सुख, दुःख, रोग, शोक एवं वेदना उसी को सहन करनी पड़ती है । " चाहे जितना धन वैभव, घर-द्वार, पुत्र- कलत्र हो, मरते समय किसी का कोई साथ नहीं देता । ऐसा चिन्तवन करना एकत्वानुप्रक्षा है ।
(५) अन्यत्वानुप्रेक्षा - संसार के सभी पदार्थ मुझसे भिन्न हैं और में उनसे भिन्न हूँ । अर्थात् शरीर तथा बाह्य वस्तुओं आदि का चेतन आत्मा से कुछ संबंध नहीं है, क्योंकि वे सभी जीव के स्वभाव नहीं हैं", ऐसा चिन्तवन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है ।
१. पितुर्मातु: स्वसुर्भ्रातुस्तनयानां च पश्यताम् ।
अत्राणो नीयते जन्तुः कर्मभिर्यमसद्मनि ॥ - योगशास्त्र, ४।६२
२. विद्यामंत्र महौषधिसेवां, सृजतुवशीकृत - देवां ।
रसतु - रसायनमुपचयकरणं, तदपि न मुंचति मरणम् ॥ - शान्तसुधारस, २१४ ३. न याति कतमां योनिं कतमां वा न मुञ्चति ।
संसारी कर्मसम्बन्धादवक्रयकुटीमिव ॥ - योगशास्त्र, ४१६६
४. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, ७४-७५
५. क्षीरनीरवदेकत्र स्थितयोर्देहदेहनोः ।
मेदो यदि ततोऽन्येषु कलत्रादिषु का कथा |
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- पद्मनंदि पंचविंशतिका, ६।४९; योगशास्त्र, ४ ७०
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