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________________ योग के साधन : आचार १२७ (६) अशुचित्वानुप्रेक्षा-जिसे हम अपना मानकर चलते हैं, वह शरीर अनेक दुर्गन्धित पदार्थों से भरा है जिसमें रक्त, मांस, रुधिर, चर्बी आदि भरे हैं।' शरीर के प्रति प्रेम अथवा ममत्व रखना व्यर्थ है और फिर यह शरीर भी तो नाशवान है। शरीर एवं संसार की अशुचिता, अपवित्रता का चिन्तवन करना अशुचित्वानुप्रेक्षा है। (६) आस्र वानुप्रेक्षा-मन, वचन, एवं काय के व्यापार को योग कहते हैं । इसी से शुभ-अशुभ कर्मो का आगमन होता है । मन, वचन, काय के व्यापार ही कर्मो के आस्रव के द्वार हैं। शुभाशुभ कर्मास्रव का चिन्तवन करना आस्रवानुप्रक्षा है। (८) संवरानुप्रेक्षा-आस्रवों का निरोध अर्थात् कर्मो के आने के मार्गो को बन्द करके साधना की ओर उन्मुख होना ही संवर है । संवर दो प्रकार का है-(१) द्रव्यसंवर व भावसंवर। कर्मो के आगमन का रुकना द्रव्यसंवर कहा जाता है और भव-भ्रमण की कारणभूत क्रियाओं का स्थान भावसंवर है। इस प्रकार संवर का चितवन करना संवारानुप्रक्षा है। (९) निर्जरानुप्रेक्षा-पूर्वसंचित अथवा बँधे हुए कर्मो को तप के द्वारा नष्ट करना निर्जरा है। निर्जरा दो प्रकार की है-सकाम-निर्जरा तथा अकाम-निर्जरा। तपस्वी या योगीगण तपस्या द्वारा कर्मों को नष्ट करते हैं। अतः उनके सकाम-निर्जरा होती है । आत्मा के शुद्ध-निर्मल रूप का चिन्तवन करना ही निर्जरानुप्रेक्षा है।" १०. धर्मानुप्रेक्षा-इस संसार में अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म उत्कृष्ट मंगल है, जिसे देवता भी नमस्कार करते हैं।' साधक चिन्तवन १. असृग्मांसवसापूर्ण शीर्णकीकसपंजरम् । शिरानद्धं च दुर्गन्धं क्व शरीरं प्रशस्यते ।।-ज्ञानार्णव, २।१०७ २. मनोवाक्कायकर्माणि योगाः कर्म शुभाशुभम् । यदाश्रवन्ति जन्तूनामाश्रवास्तेन कीर्तिताः ।।-योगशास्त्र, ४७४ ३. वही, ४१८० ४. ज्ञानार्णव, २११४०-१४८ ५. दशवैकालिक, ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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