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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन करता है कि धर्म ही गुरु और मित्र है, धर्म ही स्वामी और बन्धु है, असहायों का सहज प्रेमी है और रक्षक है। इस प्रकार मुनि क्षमादि दस धर्मो का बार-बार चितवन करता है।'
११. लोकानुप्रेक्षा-इस लोक अर्थात् सम्पूर्ण जगत् के स्वरूप का, उसकी स्थिति का विचार करना कि इसको न किसी ने बनाया है और न धारण किया है। यह अनादि अनन्तकाल से स्वयमेव सिद्ध है, तीन वातवलयों से वेष्टित है, निराधार है-यह लोकानुप्रेक्षा है।'
१२. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा-जीव सम्यक्त्त्व-प्राप्ति के बाद अपने कर्मो को धीरे-धीरे क्षीण करता हुआ मोक्षमार्ग में अग्रसर होता है। मोक्ष की प्राप्ति दुःसाध्य है, क्योंकि जन्म-जन्मान्तरों के संचित कर्म शीघ्र क्षय नहीं होते हैं। चतुर्गति में भ्रमण करनेवाले जीव के लिए चार बातों की प्राप्ति अति दुर्लभ है-मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा एवं संयम में पुरुषार्थ ।। अतः साधक इन चार दुर्लभ तत्त्वों का सहारा लेकर आत्मस्वरूप की प्राप्ति या ज्ञान-प्राप्ति का पुरुषार्थ करता है। आत्मज्ञान का चिन्तन करना ही बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है ।
इस प्रकार इन बारह अनुप्रेक्षाओं अथवा भावनाओं के चिन्तवन से चित्त समभावयुक्त होता है जिनसे कषायों का उपशमन होता है और सम्यक्त्व प्रकट होता है। वैराग्य में दृढ़ता आती है। संसार सम्बन्धी दुःख, सुख, पीड़ा, जन्म-मरण आदि का मनन-चिन्तन करने से वृत्ति अन्तर्मुखी होती है, रागद्वेषमोहादि की भावना क्षीण होती है और आत्म-शुद्धि होती है। इसी कारण इन्हें वैराग्य की जननी कहा है और इनका चिन्तवन महाभाग्यशाली मुनि-योगी करते रहते हैं।
१. ज्ञानार्णव, २११४९-१७० २. योगशास्त्र, ४।१०४-६ ३. वही, ४।१०७-९ ४. चतारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जन्तुणो।
माणुसत्तं सुई सद्धा संजमंमि य वीरियं ॥-उत्तराध्ययन, ३११ ५. योगशास्त्र, ४॥१११
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