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योग के साधन : आचार
संलेखना
संलेखना श्रमण तथा श्रावक दोनों के लिए समान रूप से शरीर और आत्मा को शुद्ध करनेवाला अन्तिम व्रत है । इसे व्रत न कहकर व्रतान्त कहना ही अधिक उपयुक्त होगा, क्योंकि इसमें समस्त व्रतों का अन्त होता है । इसमें जैसे शरीर का प्रशस्त - अन्त अभीष्ट है, वैसे ही व्रतों का भी पवित्र अन्त वांछित है । यदि मरते समय मन मैला रहा तो जीवनभर का यम, नियम, स्वाध्याय, तप, पूजा, दान आदि निष्फल है । अतः मृत्यु सन्निकट आ जाने पर अथवा आचार आदि पालन में अशक्तता आने पर आहार आदि का त्याग करके प्राणों का उत्सर्ग करना ही संलेखना है । संलेखना शब्द सत् और लेखना शब्दों के योग से बना है, जिसका क्रमशः अर्थ सम्यक् प्रकार से और कृश करना है अर्थात् सम्यक् - प्रकार से कषाय आदि वृतियों को क्षीण करना ही संलेखना है ।
संलेखना को आत्महत्या नहीं कह सकते । वास्तव में जो लोग क्रोधादि कषायों के वशीभूत होकर, रागद्वेषपूर्वक श्वास, जल, अग्नि आदि द्वारा शरीरघात करते हैं, वह आत्मघात कहलाता है, परन्तु जो साधक विषयादि से पूर्ण निवृत्त होकर मरणकाल निकट जानकर प्रसन्न रहते हैं वह संलेखना है ।" अतः इसमें आत्म- हनन का भाव लेशमात्र भी नहीं । संलेखना में तो उपवास से शरीर को तथा ज्ञानभावना द्वारा कषायों को कृश किया जाता है । यद्यपि संलेखना धारण करने का
१. न इमं सव्वेसु भिक्खूसु, न इमं सब्वेसुगारिसु । - उत्तराध्ययन, ५1१९ २. जैन आचार, पृ० १२१
३. उपासकाध्ययन, ८९७, पृ० ३२३
४. यो हि कषायाविष्टः कुम्भकजलधूमकेतुविषशस्त्रैः । व्यपरोपयति प्राणान् तस्य स्यात्सत्यमात्मवधः ।
५. (क) मरणं पि सपुष्णाणं जहा मेयमणुस्सुयं । विप्पसण्णमणाघायं संजयाणं वुसीमओ ॥ - उत्तराध्ययन, ५।१८ न सल्लेखनां प्रतिपन्नस्य रागादयः सन्ति ततो नात्मवधदोषः ।
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- पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, १७८
६. उपवासादिभिरंगे कषायदोषे य बोधिभावनाया ।
कृतसल्लेखनकर्मा प्रायाय यतेत गणमध्ये ॥
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- सर्वार्थसिद्धि, ७।२२
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- उपासकाध्ययन, ४५।८९६
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