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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
कोई समय निर्धारित नहीं है, तथापि इसे धारण तभी किया जाता है जब शरीर की शक्ति घट जाती है, खाना-पीना छूट जाता है, दूसरा कुछ भी काम करने का उपाय नहीं रहता और स्वयं शरीर ही समाधि-मरण का आकांक्षी हो जाता है । अतः शरीर का निर्जर अथवा पतन होते ही प्रेमपूर्वक संलेखना धारण करना चाहिए ।" संलेखना के काल में साधक मन में किसी भी प्रकार का मोह न रखे, संसार संबन्धी आशा-आकांक्षा के न रहने पर ही समाधि मरण सार्थक है | श्रावक ममत्व-रहित होकर समझे कि जन्म-मरण बाह्य शरीरादि का होता है, आत्मा का नहीं ।
संलेखना के पाँच अतिचार हैं ४ - जीने की इच्छा, मरने की इच्छा, मित्रों का स्मरण, भोगे हुए भोगों का स्मरण तथा आगामी भोगों की आकांक्षा । इनसे साधक को बचना चाहिए । संलेखना को समाधि-मरण, पंडितमरण, मरण- समाधि आदि भी कहते हैं ।
परीषह
साधना -अवस्था में श्रमण अथवा श्रावक के समक्ष तरह-तरह की बाधाएँ, कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं, जिन्हें परीषह अथवा उपसर्ग कहते हैं । अर्थात् मार्ग से च्युत न होने और कर्मों के क्षयार्थं जो सहन करने योग्य हों, वे परीषह हैं । बाईस परीषह इस प्रकार हैं- क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नत्व, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या,
१. प्रतिदिवसं विजहद्बलमुज्झद्भुक्तिं त्यजत्प्रतीकारम् ।
वपुरेव नृणां निगिरति चरमचरित्रोदयं समयम् ॥
-उपासकाध्ययन, ४५१८९३ २. देहे प्रीत्या महासत्वः कुर्यात्सल्लेखनाविधिम् । - सागारधर्मामृत, ८1१२ ३. जन्ममृत्युजरातंका : कायस्यैव न जातु मे ।
न च कोऽपि भवत्येष ममेत्यं गेऽस्तु निर्ममः ॥ - वही, ८ १३
४. जीवितमरणाशंसे सुहृदनुरागः सुखानुबन्धविधिः ।
एते सनिदाना स्युः सल्लेखनहानये पञ्च ॥ - - उपासकाध्ययन, ४५।९०३ ५. मार्गाऽच्यवननिर्जराथं परिसोढव्याः परीषहाः । - - तत्त्वार्थ सूत्र, ९१८
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