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योग के साधन : आचार
१३१ आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, .प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन ।'
साधक को इन परीषहों पर विजय प्राप्त करना अनिवार्य है, क्योंकि परीषह-जय के बिना न चित को विकलता हटेगी, न मन एकाग्र होगा, न सम्यक् ध्यान होगा और न कर्मों का क्षय ही होगा। परोषह या उपसर्ग प्राकृतिक और देव मानव-तिर्यंचकृत तोनों प्रकार के होते हैं । उपसर्गजन्य पीड़ा को समभावपूर्वक सहन करने में साधक यह समझता है कि यह उपसर्ग कर्मक्षय में सहायक है। तप का महत्त्व
तप' दस धर्मांगों में से एक अंग है। वस्तुतः यह योग को एक ऐसी कड़ी है, जिससे साधक समस्त कर्मों को निर्जरा करने में समर्थ होता है। सभी भारतीय धर्म-परम्पराओं में जीवन के नैतिक तथा सम्यक् उन्नयन के लिए तप की महती प्रतिष्ठा है । तप द्वारा ही कर्म-पाशों ( अज्ञान ) से साधक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र को प्राप्त होता है। आत्मतत्त्व को ज्ञानस्वरूप जानना हो सम्यरज्ञान है तथा इसकी अनुभूति तप से होती है। अतः तपस्या भारतीय दर्शन-परम्परा की ही नहीं, किन्तु उसके सम्पूर्ण इतिहास की प्रस्तावना है । भारतीय संस्कृति में जो कुछ भी शाश्वत है, जो कुछ भो उदात्त एवं महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, वह सब तपस्या से ही सम्भूत है-प्रत्येक चिन्तनशील प्रणालो चाहे वह आध्यात्मिक हो, चाहे आधिभौतिक, सभी तपस्या की भावना से अनुप्राणित है-वेद, वेदांग, दर्शन, पुराण, धर्मशास्त्र आदि सभी विद्या के क्षेत्र में जीवन की साधनारूप तपस्या के एकनिष्ठ उपासक हैं ।
तप की आराधना गहस्थ एवं साधु दोनों के लिए आवश्यक है। लेकिन गृहस्थ तपस्वी की भांति तप की कठोर आराधना नहीं कर
१. (क) क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचनाऽलाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ।
-वही, ९९ (ख) देखें, उत्तराध्ययन, अध्ययन २ । २. बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, भाग १, पृ० ७१-७२ ।
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